बुंदेलखंड की विशिष्ट साहित्यिक विभूति- मदनमोहन द्विवेदी 'मदनेश' / शिवजी श्रीवास्तव

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भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास में बुंदेलखंड का विशिष्ट योगदान है, साहित्य की दृष्टि से भी बुंदेली धरा अत्यंत उर्वरा एवं रत्नगर्भा है। युगदृष्टा महर्षि वेदव्यास, जन-जन को भारतीय संस्कृति के प्रति आस्थावान बनाने वाले महात्मा तुलसीदास, रस की धारा से आप्लावित करने वाले केशव, बिहारी, पद्माकर तथा गौरवशाली अतीत का स्मरण कराते हुए राष्ट्रीयता का शंखनाद करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, एवं विश्व में उपन्यासों के माध्यम से बुंदेली इतिहास की कीर्ति पताका फहराने वाले वृन्दावन लाल वर्मा प्रभृति बुंदेलखण्ड के अमूल्य साहित्य-रत्न हैं। बुन्देली धरा के अनेक साहित्यिक रत्न तो प्रकाश में आ चुके हैं; किन्तु अनेक अभी भी अल्प ज्ञात अथवा अज्ञात ही हैं। मदनमोहन द्विवेदी 'मदनेश' भी बुंदेली धरा के एक ऐसे ही अल्पज्ञात अमूल्य रत्न हैं जिनके समग्र साहित्य से साहित्यिक रसिक पूर्ण रूप से परिचित नहीं हैं।

माघ शुक्ल तृतीया संवत1924 (सन1867 ईस्वी) को झाँसी के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में जन्मे मदनेश जी के पिता पण्डित गोरेलाल दुबे पौरोहित्य एवं वैद्यक द्वारा जीविकोपार्जन करते थे। जीविका हेतु यही साधन मदनेश जी ने भी ग्रहण किया साथ ही वे उत्कृष्ट और सरस काव्य-सृजन भी करते रहे। मदनेश जी की मृत्यु संवत 1991 के आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को हुई।

मदनेश जी जिस युग में साहित्य-साधना में रत थे वह काल-खण्ड अनेक दृष्टियों से संक्रांति-काल था। राजनीतिक क्षेत्र में भीषण उथल पुथल मची हुई थी। मदनेश जी के जन्म के एक दशक पूर्व ही 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' के विरुद्ध सशस्त्र-क्रांति के पश्चात महारानी विक्टोरिया सत्ता संभाल चुकी थीं। इस राजनीतिक संक्रमण ने धर्म, अर्थ, समाज एवं संस्कृति को भी बहुत अंशो में प्रभावित किया था। साहित्य में रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ जड़ें जमाए थीं पर भारतेन्दु जी आधुनिकता का शंखनाद कर चुके थे; अतः साहित्य में आधुनिकता की प्रवृत्तियाँ प्रतिबिम्बत होने लगी थीं। वस्तुतः यह साहित्य का संधि काल था जिसमें रीतिकाल और आधुनिकता का समावेश दृष्टिगोचर हो रहा था। मदनेश जी के साहित्य में भी परम्परा और आधुनिकता का यह समावेश विद्यमान है। उनके काव्य में रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्तियों के साथ ही आधुनिकता का भी समावेश हुआ है। रीतिकाल की परम्परा के अनुसार उन्होंने नायिका के सौंदर्य, वसंत वर्णन, फाग एवं ऋतु वर्णन जैसे विषयों पर रीतिकालीन प्रवृत्ति के अनुरूप सुन्दर कवित्तों का सर्जन किया साथ ही आधुनिकता से प्रभावित होकर क्रांति की अग्रदूत महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र पर 'लक्ष्मीबाई रासो' का सर्जन किया। आधुनिकता के ही प्रभाव से विषयगत रूप में उनके काव्य में राष्ट्रीयता के भाव के साथ ही तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार भी देखने को मिलते हैं।

मदनेश जी ने अनेक काव्य-कृतियों का सर्जन किया, किन्तु वे अप्रकाशित ही रहीं, उनकी एकमात्र प्रकाशित कृति 'लक्ष्मीबाई रासो' है। बुंदेली में रचित 'लक्ष्मीबाई रासो' रासो काव्य-परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ लंबे अंतराल तक लुप्तप्रायः रहा; पर लुप्त हो चुके इस रासो-ग्रंथ को खोज कर प्रकाश में लाने का श्रेय प्रसिद्ध क्रन्तिकारी डॉ.भगवान दास माहौर को है। बहुत प्रयासों के पश्चात् भी माहौर जी को यह महाकाव्य पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हो सका। जितना अंश उन्हें उपलब्ध हुआ, उन्होंने उसे सम्पादित करके प्रकाशित कराया। डॉ. माहौर को इस अनुसंधान हेतु साहित्य महोपाध्याय की उपाधि भी प्राप्त हुई।

'लक्ष्मीबाई रासो' रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य पर आधारित एक वीर-काव्य है। ग्रंथ का जितना अंश उपलब्ध है उसमें रानी लक्ष्मीबाई के झाँसी की गद्दी पर आसीन होने के साथ ही झाँसी के वैभव और झाँसी पर नत्थे खाँ के आक्रमण और उसके पराजित होने की कथा है। इस संदर्भ में डॉ. भगवानदास माहौर ने लिखा है कि मदनेश जी ने रासो कि रचना करके इस वीर काव्य के कुछ अंश अपने एक वकील यजमान श्री कन्हैयालाल खत्री को सुनाए, तो उन्होंने भयभीत होते हुए कहा कि इसमें तो पूरा राजद्रोह है, यदि सरकार को इसकी ख़बर लग गई, तो हो सकता है आपको लम्बे समय के लिए जेल भेज दिया जाए। उन्होंने ही मदनेश जी को परामर्श दिया कि इस महाकाव्य को बाहर न लाएँ। उनके इस परामर्श के बाद मदनेश जी ने उस रासो-ग्रंथ को कभी बाहर नहीं निकाला। यदा-कदा उनके शिष्य कवीन्द्र नाथूराम माहौर उनसे इस ग्रंथ की चर्चा करते तो वे यही कहते-"भैया अब उसकी बात किसी से न करना चाहिए।" यहाँ तक कि बाद में जब रानी लक्ष्मीबाई सम्बंधी कविताएँ झाँसी के कवि सम्मेलनों के मंच पर खुले आम पढ़ी जाने लगीं, तो भी उन्होंने उस ग्रंथ को बाहर नहीं निकाला। '

माहौर जी के ही अनुसार–"ग्रंथ का जितना अंश इस प्रकार अब तक मिला है उतना ही बुंदेली के श्रेष्ठ वीररसात्मक महाकाव्य के रूप में प्रख्यात होने के लिए पर्याप्त है।"

उपलब्ध 'लक्ष्मीबाई रासो' में रानी लक्ष्मी बाई और नत्थे खाँ से युद्ध का विस्तार से वर्णन है। सम्पूर्ण ग्रंथ आठ भागों (सर्गो) में निबद्ध है। ग्रंथ के प्रारंभ में अंग्रेजों के विरुद्ध हुए सैन्य-विद्रोह के बाद रानी लक्ष्मीबाई के झाँसी की गद्दी पर आसीन होने का वर्णन है-

संवत दस नौ सैकरा, ऊपर चौदह साल।

तास मध्य अंगरेज को आपुस में दहचाल॥

...

दये सिपाइन को तबै, चाम के टोटा बाँट।

इन बन्दूकन में भरो, ज्वान दाँत से काट॥

क्रमशः कथा आगे बढ़ती है। अंग्रेज़ी नीति के विरोध में सैन्य विद्रोह के पश्चात झाँसी की गद्दी पर रानी लक्ष्मीबाई को आसीन किया जाता है-

अब ग़दर भयौ है सकल छोर।

अंग्रेज मिले ढूँढे न ओर॥

जब सूनी झाँसी लखी ऐन।

जुर सचिव मंत्र कर कहे बैन॥

बिन राजा रैयत की समार।

हो सके नहीं कीनो बिचार॥

श्री बाई लक्ष्मी करें राज।

तो सबको पूरन होय काज॥

रानी के आसीन होते ही झाँसी में अमन चैन स्थापित होता है, एक वर्ष तक झाँसी में शांति और अमन-चैन रहता है। झाँसी का वैभव बढ़ने लगता है -'अब बरस एक रउ अमन चैन। रानी ने पाली प्रजा ऐन।'

झाँसी का यह वैभव आस-पास की रियासतों की दृष्टि में चढ़ जाता है। झाँसी की जनता प्रत्येक लोक-उत्सव का समवेत रूप में उल्लास पूर्वक आयोजन करती और उत्साह से सम्मिलित होती थी। ऐसे ही उत्सवों में से एक भुजरियों के विसर्जन का मेला झाँसी में आयोजित किया गया है मेले को देखने हेतु रानी भी उपस्थित हैं। इस मेले को देखने टीकमगढ़ का मुख्तार नत्थेखाँ भी झाँसी आता है और झाँसी के वैभव को देखकर ईर्ष्या से भर उठता है। वह झाँसी को हड़पने की योजना बनाता है। इस हेतु सहयोग मांगने पहले वह दतिया नरेश के पास जाता है पर वे उसे सहयोग नहीं करते बाद में वह ओरछा की रानी लड़ई सरकार के पास जाकर उन्हे समझा कर अपने षड्यन्त्र में सम्मिलित कर लेता है और ओरछा की सेना के सहयोग से झाँसी पर आक्रमण कर देता है। वह लूटपाट करता हुआ झाँसी की ओर बढ़ता है तो रानी अत्यंत कुशलता पूर्वक किले के भीतर मोर्चाबंदी कर के नत्थे खाँ की सेना से स्वयं युद्ध लड़ती है, रानी युद्ध में घायल भी होती है, दोनों सेनाओ में घमासान युद्ध होता है, अंततः रानी झाँसी के पराक्रम और सैन्य कौशल से नत्थे खाँ परास्त होकर भाग जाता है। मदनेश जी के रासो के अनुसार इस युद्ध में झाँसी की भी बहुत हानि हुई थी-

झाँसी घायल सहस भए, गये तीन सौ बीत।

बाई के परताप से भई जंग में जीत॥

भई जंग में जीत, भीत नत्थेखाँ पाई।

सहर किले के बीच बजी, सुख की सहनाई॥

ताही समय विचार, यथारथ सेवक धाए।

करी खातरी जाय, जौन जे घायल आए॥

नत्थेखाँ रोउत उतै, रहौ कुमर्रा जाय।

श्री लड़ई पुछैं जबै, उतर देऊँ का ताय॥

इस युद्ध की विशेषता यह थी कि झाँसी के पास सैनिक कम थे अतः झाँसी की जनता ने भी इस युद्ध में उत्साहपूर्वक भाग लिया था। ग्रन्थ यहीं तक उपलब्ध है माहौर जी का विचार है कि सम्भवतः मदनेश जी ने आगे के पृष्ठ आपत्तिजनक जानकर नष्ट कर दिए होंगे क्योंकि बहुत प्रयास के बाद भी आगे की रचना कही भी प्राप्त नहीं हो सकी, फ़िलहाल जितना भी ग्रंथ उपलब्ध है वह बुंदेली साहित्य की अनमोल धरोहर है।

मदनेश जी ने इस कथा का चित्रण अत्यंत विस्तारपूर्वक किया है। इसमें ऐतिहासिक तथ्य तो हैं ही साथ ही कल्पना की सुन्दर उड़ान भी हैं, काव्य शास्त्र की दृष्टि से भी यह महाकाव्य के लक्षणो पर खरा उतरता है। रासो-ग्रंथों का मूल्यांकन ऐतिहासिकता की दृष्टि से किया जाता है इस दृष्टि से देखा जाए तो 'लक्ष्मीबाई रासो' में चित्रित घटना ऐतिहासिक है। रानी लक्ष्मीबाई और नत्थे खाँ की लड़ाई इतिहास-सम्मत है, यद्यपि कुछ इतिहासकार इस युद्ध के विषय में मौन हैं और कुछ इस घटना का बहुत कम चित्रण करते हैं। वृंदावन लाल वर्मा जी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई' में भी इस घटना का उल्लेख किया है पर उनके अनुसार यह युद्ध केवल दो दिन चला था जबकि मदनेश जी के अनुसार युद्ध लंबा चला था। इस सम्बंध में प्रसिद्ध इतिहास लेखक डॉ. मोतीलाल भार्गव ने एक लेख में झाँसी गजेटियर (1909) के आधार पर इस ने इस युद्ध की तिथियों का उल्लेख करते हुए बतलाया है कि झाँसी गजेटियर के अनुसार-" ओरछा की सेना ने 10 अगस्त 1857 को मऊरानीपुर पर अधिकार कर लिया। फिर झाँसी पर घेरा डाला जो 22 अक्टूवर 1857 तक चला।

मदनेश जी ने युद्ध की जो तिथियाँ दी हैं, वे इनसे मेल खाती हैं। उन्होने लक्ष्मीबाई रासो में नत्थे खाँ द्वारा मऊ पर आक्रमण की तिथि-'साउन सुद पूनो को रविवार' तथा मऊ के पतन की तिथि-'भादों बद चौथ' तथा झाँसी पर आक्रमण की तिथि 'भादों सुद चौदस दुफर' लिखी हैं ये तिथियाँ झाँसी गजेटियर की तिथियों से मेल खाती हैं

यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि मदनेश जी ने इन तिथियों को किसी इतिहास ग्रंथ से न लेकर जनश्रुति से ग्रहण किया है, जैसा कि उन्होंने लिखा भी है-'जैसे सुनबे सों जानत हों' लक्ष्मीबाई रासो में अनेक तथ्य ऐसे भी हैं, जो इतिहास से मेल नहीं खाते पर कवि ने उनका उल्लेख सम्भवतः जनश्रुतियों के आधार पर किया होगा फिर महाकाव्यकार अपने नायक के शौर्य वर्णन हेतु काल्पनिक घटनाओं को जोड़ ही देते हैं।

'लक्ष्मीबाई रासो' के अतिरिक्त मदनेश जी ने प्रभूत मात्रा में साहित्य सर्जन किया है। उनका समस्त साहित्य अभी तक अप्रकाशित ही है। स्फुट रूप में तो उनके अनेक छंद हैं पर पुस्तक रूप में बुन्देली की एक और महत्त्वपूर्ण कृति है-'कानाउतन के कवित्त'-इस कृति में मदनेश जी ने लोक जीवन में प्रचलित अनेक कहावतों को उदाहरणों के साथ छंदबद्ध किया है। सम्पूर्ण कृति में लोक जीवन की सौ कहावतों को 200 छंदो में आबद्ध किया गया है। इस ग्रंथ का रचनाकाल संवत 1979 है, इस ग्रंथ के प्रारम्भ में स्वयं मदनेश जी ने लिखा है-"अथ कानाउतन के कवित्त सवैया, दोहा, मिती अषाढ़ बदी 12 संवत 1979 से प्रारम्भ किया।" कानाउतन शब्द खड़ी बोली के कहनावत (कहावत) का बुंदेली रूप है अतः शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह बुंदेली की रचना है। 'कानाउतन के कवित्त' में मदनेश जी ने जिन कहावतों को छंदोबद्ध किया है, उनमें सामाजिक जीवन के लोकाचार हैं, परम्पराएँ हैं, धार्मिक विश्वास हैं, मानव मन के मनोविज्ञान के चित्र हैं तथा और भी अनेक उपदेशात्मक कहावतों की कवित्त में विशद व्याख्या है। कवि का वैशिष्टय यह है कि लोक जीवन की कहावतों की कवि ने अपने ढंग से व्याख्या करते हुए कहीं तो व्यंजना के माध्यम से व्यवस्था पर कटाक्ष किए हैं और कहीं लोक को प्रबोध देने का कार्य किया है। उदाहरण के लिए कुछ कवित्तों को देखा जा सकता है-

दोहा-

अंधेरी नगरी यहै, बे बूझी नृप आय।

खाजो उर भाजी यहाँ एकई भाउ बिकाय॥

कवित्त-

जो पै चलो रीति से तो चलहै न काम इहाँ

करहो अनीति तो न बिगरे कोउ काजा है।

सरमदार भूके रहें बेसरम उड़ावें माल

फुरहै पाखंड इहाँ, छोड़ देउ लाजा है।

कवि मदनेश इहाँ सांसी कहै फांसी लगे,

झूठ बेईमानी बदमाशी साज साजा है।

अंधेर नगरी है, बेबूझ राजा इहाँ

टके सेर भाजी सोऊ, टके सेर खाजा है॥

2.

दोहा-

बिगरे तनक सुधारहैं बिन प्रयास गुणवान।

धरे थेगरा कहाँ लौं फटो शकल असमान॥

3.

दोहा-

मतलब फिर बोलो यहाँ, जुरो विकट है ठाट।

बैठ ध्यान से उतरिये, देख चीकनो घाट॥

कवित्त-

पंचन में न्याय नहीं, रिश्ते में चाय नहीं,

राज्य में उपाय नहीं, कैसे निरवरिये।

जाति में न रीति रही, मित्र में न प्रीति रही,

काहू पै प्रतीति नहीं, जानौ कछु धरिये।

कवि मदनेश ईमान सब लील रहे,

खेत खात जाय बारी, कैसे।

लरिये न काहू से, डरिये, धीर धरिये सदा,

चीकनौ घाट जान बैठ के उतरिये।

उदाहरण के रूप में प्रस्तुत इन तीनों छंदों को देख कर समझा जा सकता है कि इसमे तत्कालीन समाज में व्याप रही अराजकता और मूल्यहीनता कवि की चिंता के केंद्र में हैं। अन्य कवित्त भी इसी प्रकार की चिंताओं को व्यक्त करने वाले हैं।

मदनेश जी ने स्फुट रूप में रीतिकालीन प्रवृत्ति के अनेक सरस छंदों का सर्जन किया है उनमें प्रकृति-वर्णन, लोक-उत्सव, फाग-वर्णन और शृंगार वर्णन के छन्द विपुल मात्रा में विद्यमान हैं। शृंगार रस एक यह कवित्त दृष्टव्य है जिसमें एक नवोढ़ा नायिका के जूड़ा बाँधते हुए रूप का सहज, स्वाभाविक चित्र है–

किरन-सी कड़ी खड़ी ऊँचे अटा पै आय,

छाजत छबीली छटा बयस नबूड़ा है।

हँस हँस हेर-हेर करत तरीछे दृग

भाषण सुधा सो ताकी बात अति गूढ़ा है

मदन अनंग की उमंग अंग-अंग बसी

कवि अवलोक होत बुद्धि ते विमूढ़ा है।

उन्नत उरोज ऊँचे, दोनों कर कंजन ते,

विमल समार कर बाँध रही जूड़ा है।

इसी प्रकार एक और चित्र दृष्टव्य है जिसमे पावस ऋतु के सौन्दर्य के साथ ही वर्षा में स्नान करती नायिका का सौन्दर्य देखा जा सकता है

दोहा-

पावस की झिर देख तिय, बैठी केश नहात।

कच कोरन की कोर ते, चौगृद नीर चुचात॥

कवित्त-

पावस प्रबल झिर परत झलान झला,

झूरा झूर झोंकन समीर सरसात है।

तामें कड़ कामिनी, उतार पट शीश पर से,

बाद कुच ऊपर, दुराय राखौ गात है।

माटी मुलतान की से मलत सुकेशी केश,

बुंदन से धोवे तन मदन सिहात है।

मानो हेम खम्भ पर बिछाय मखतूल तार,

कोरन से नीर नीचे चौगृद चुचात है।

विशिष्ट प्रतिभा के धनी श्री मदनेश जी का ऐसा विपुल साहित्य अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। उनके साहित्य में अपने समय के समाज के सरस एवं जीवंत चित्र तो हैं ही साथ लोक-व्यवहार का परिज्ञान एवं समाज को शिवत्व की ओर ले जाने की प्रवृत्ति उनके काव्य में विद्यमान है।

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