बुजुर्गों की समस्याएँ / सत्य शील अग्रवाल

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अशक्त शरीर

प्रत्येक जीवधारी उत्पन्न होने के पश्चात् कृमशः,बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, अधेड़ावस्था , एवं वृद्धावस्था से गुजरता है। वृद्धावस्था को जीवन संध्या भी कहा जाता है, क्योंकि यह जीवन का अंतिम पड़ाव होता है। इस अवस्था तक आते आते मानव शरीर थकने लगता है, शारीरिक क्रियाएं उम्र के साथ साथ शरीर को शिथिल करने लगती हैं। जो झुर्रियों के रूप में स्पष्ट होने लगती हैं। वर्तमान समय में जहाँ चिकित्सा सेवाएं उत्कृष्ट हुई हैं, वहीँ बनावटी रहन -सहन, एवं मिलावटी खानपान तथा फास्ट फ़ूड के चलन ने मानव स्वास्थ्य को प्रभावित किया है, और अधेड़ अवस्था तक आते आते अनेक बीमारियों का प्रवेश हो जाता है। आज सभी बीमारियों का इलाज भी अप्राकृतिक तौर पर एलोपेथिक दवाइयों द्वारा किया जाने लगा है जो अपना नकारात्मक प्रभाव भी शरीर पर छोडती रहती हैं, और कालांतर में शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती हैं। अतः वृद्धावस्था प्रभावित होती है, शरीर क्षीण होता जाता है। अशक्त शरीर बुढ़ापे को कष्टकारी बनता है।

यह तो सत्य है जो जीव पैदा होता है उसका अंत भी निश्चित है। परन्तु जब तक इन्सान जीवित रहे, स्वस्थ्य रहे और अपने दैनिक कार्यों के लिए किसी अन्य पर निर्भर न रहना पड़े अथवा बिस्तर पर पड़े रह कर समय न बिताना पड़े। यह इच्छा प्रत्येक इन्सान की होती है। परन्तु बिरला ही कोई व्यक्ति ऐसा होता है जिसका इतना सुखद अंत हो, जो बिना किसी अन्य व्यक्ति की मदद के अपना जीवन यापन करते करते चला जाये। अतः वृद्धावस्था में शरीर अशक्त हो जाना, क्षीण हो जाना बुजुर्ग की प्रमुख समस्या होती है।

जो बुजुर्ग अपने युवा काल में अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहते आए हैं, आवश्यकता अनुरूप व्यायाम, खानपान, एवं बीमारियों से बचाव करते रहे हैं, उनका बुढ़ापा अपेक्षाकृत सुखमय व्यतीत होता है। वृद्धावस्था में आकर शरीर की प्राथमिकतायें बदल जाती हैं। कुछ विशेष सावधानियों को ध्यान में रख कर चलना पड़ता है। आगे के अध्याय में कुछ महत्त्व पूर्ण सुझाव उपलब्ध कराये गए हैं, जो किसी भी बुजुर्ग को अपने स्वास्थ्य की तरफ से कम कष्टकारी जीवन बना सकता है।

यह बात तो सत्य है की वृद्धावस्था में परिजनों से तालमेल रख कर ही संतोषप्रद जीवन संभव हो सकता है। अशक्त शरीर का सहारा बनना परिजनों द्वारा ही संभव है। अतः परिवार के महत्त्व को समझना होगा। अपनी कटू वाणी को विराम लगाना होगा, परिजनों के कार्यों में दखलंदाजी से बचना होगा। तानाशाही व्यवहार से तौबा करनी होगी

धनाभाव के साथ गंभीर बीमारी हो जाना

यद्यपि चिकत्सा जगत में आश्चर्य जनक प्रगति हुई है, परन्तु बढ़ते जीवन मूल्यों के कारण चिकत्सा खर्च आम व्यक्ति की सामर्थ्य से बाहर होता जा रहा है। विशेष तौर पर गंभीर रोग जैसे केंसर, एड्स, टी। बी। डायबिटीस, हृदय रोग इत्यादि के इलाज के लिए अत्यधिक व्यय होता है। यदि कोई बुजुर्ग आर्थिक रूप से पराधीन है अथवा निम्न स्रोत का उपभोक्ता है, तो निश्चित तौर पर उसके लिए रोग का निदान कर पाना असंभव हो जाता है, सरकारी अस्पताल जहाँ सरकार के सहयोग से निशुल्क इलाज संभव है, परन्तु अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार, लापरवाही, संवेदन हीनता, किसी बीमार को आश्रय और सुकून देने में सक्षम नहीं हैं। अतः कोई भी वहां जाकर इलाज कराना अपने को नरक में धकेल देने के बराबर पाता है। अर्थात सरकारी अस्पतालों में जाकर भी बुजुर्ग के लिए संतोषप्रद इलाज कराना असंभव है। हमारे देश में चिकत्सा बीमा अभी कोई विशेष लोकप्रिय नहीं हो पाया है। वृद्धावस्था में बीमा कराना भी लाभप्रद नहीं है, क्योंकि बुजुर्गों से बीमा प्रीमियम अधिक बसूला जाता है। बीमा यौवनावस्था में कराया जाय तो ही लाभप्रद सिद्ध हो सकता है।

वृद्धावस्था में शरीर अशक्त हो जाने के कारण बीमारियाँ जल्दी पकड़ लेता है। परन्तु कार्यमुक्त होने के कारण अधिकतर बुजुर्गों के पास धन का अभाव होता है और बीमारियाँ बुढ़ापे की मुश्किलों का पार्यप्त कारण बन जाती हैं।

एकाकीपन

यह तो सत्य है की प्रत्येक इन्सान को मौत आनी है, परन्तु यह भी सत्य है ऐसा कोई निश्चित नहीं है की पति और पत्नी एक साथ दुनिया से विदा लें, अर्थात दोनों की मृत्यु एक समय पर हो। किसी एक को पहले जाना होता है। दाम्पत्य जीवन में अकेला रहने वाला व्यक्ति एकाकी पन का शिकार होता है। किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन साथी की सबसे अधिक आवश्यकता प्रौढ़ अवस्था में होती है। प्रौढ़ावस्था में अपने विचारों के आदान प्रदान का एक मात्र मध्यम जीवन साथी ही बनता है। प्रौढ़ावस्था में बीमारी एवं दुःख दर्द में सेवा, सहानुभूति, सहयोग मुख्यतः जीवन साथी से प्राप्त होता है। प्रौढ़ावस्था आते आते अपने अनेकों मित्र एवं संगी साथी, बिछड़ चुके होते हैं। अथवा इस अवस्था में होते हैं की वे आपस में मिल नहीं सकते अथवा विचार विनिमय नहीं कर पाते, कारण आर्थिक भी हो सकता है। शारीरिक अक्षमता हो सकता है अथवा अन्य परिस्थितियां। यह इंसानी स्वभाव है की अपने आयु वर्ग के साथ हे भावनाओं का आदान प्रदान करने, विचार विनिमय करने तथा उसके साथ समय व्यतीत करने में सर्वाधिक सहज अनुभव करता है। इसलिए प्रौढ़ व्यक्ति को भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए वृद्ध व्यक्ति ही चाहिए। उसका बेटा, बेटी अथवा कोई अन्य परिजन उसके लिए संतोष जनक व्यक्ति साबित नहीं हो सकता। अतः जीवन साथी का बिछडाव व्यक्ति की जीवन संध्या का अंतिम अध्याय बन जाता है। एकाकी पन उसे मौत की प्रतीक्षा के लिए प्रेरित करने लगता है। यदि घर में नाती पोते बाल्यावस्था में हैं तो अवश्य उसका मन बहलाने एवं समय बिताने का अवसर मिल जाता है। यदि प्रौढ़ स्त्री है तो उसका एकाकीपन कम व्यथित करता है। क्योंकि उसका कार्यक्षेत्र घर परिवार का कामकाज ही रहा है। अतः अपनी क्षमतानुसार घरेलु कार्यों में समय व्यतीत कर सकती है। परन्तु प्रौढ़ पुरुष के लिए ऐसा संभव नहीं होता। उसका एकाकीपन उसके जीवन को नीरस कर देता है। उसके लिए प्रत्येक दिन पुरानी यादों का पिटारा खोल कर दुःख के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पाता।

जीवन साथी का अभाव अधेड़ावस्था में हो अथवा प्रौढ़ावस्था में हो किसी भी व्यक्ति के जीवन को संकुचित कर देता है। वह अपेक्षतया शीघ्र मौत को गले लगा लेता है।

आर्थिक पर निर्भरता

प्रत्येक वृद्ध इतना सौभाग्य शाली नहीं होता, की वह जीवन के अंतिम पड़ाव तक आत्मनिर्भर बना रहे, अर्थात उसका आए स्रोत उसके भरण पोषण के लायक जीवन पर्यंत बने रहें। जैसे, पेंशन प्राप्त करना, मकान दुकान या जायदाद का किराया, अपनी पूँजी पर बैंक ब्याज की आए, रोयल्टी से आए, या किसी अन्य प्रकार से आने वाली आए। प्रत्येक वृद्ध के लिए संभव नहीं होता की वह अपने जीवन भर की बचत से अथवा उसके ब्याज से शेष जीवन का निर्वाह कर सके।

अतः अनेक वृद्धों को आर्थिक रूप से अपने परिजनों जैसे पुत्र। पुत्री। भाई इत्यादि पर निर्भर रहना पड़ता है। उसके व्यक्तिगत खर्चे परिजनों की आए से पूरे होते हैं। जिसमे अनेक बार असहज स्थितियों का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति का आत्म सम्मान भी दांव पर लग जाता है। कभी कभी आवश्यकताएं पूर्ण भी नहीं हो पातीं। बीमारी, इत्यादि में साधनों का अभाव कचोटता है। उसे मानसिक वेदनाओं का शिकार होना पड़ता है। कभी कभी उसे आत्मग्लानी होती है, उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। महिला वृद्ध जो पहले गृहणी रही है के लिए आर्थिक परनिर्भरता कोई व्यथा का कारण नहीं बनती क्योंकि वह पहले भी अपने पति पर निर्भर थी उसके पश्चात् अन्य परिजन पर निर्भर हो जाती है। अतः उसके लिए सिर्फ निर्भरता का स्रोत बदल जाता है। परन्तु पुरुष जिसका पहले पूरे परिवार पर बर्चस्व था, परिवार का पालनहार था और अब, उसे स्वयं किसी अन्य परिजन की आए पर आधारित होना पड़ता है। यह स्थिति उसके आत्म सम्मान के लिए कष्टकारी होती है कभी कभी आत्मग्लानी का अहसास होता है।

जीवन संध्या में वृद्ध का आत्मनिर्भर होना उसके लम्बे जीवन के लिए वरदान होता है। परन्तु प्रत्येक वृद्ध के लिए संभव नहीं होता, सरकारी सहायता उसका जीवन निर्वाह का बोझ नहीं उठा पातीं। अतः आर्थिक परनिर्भरता प्रौढ़ पुरुष की मुख्य समस्या रहती है।

सुरक्षा की समस्या

समय के साथ परिवर्तित हो रही सामाजिक व्यवस्था ने बुजुर्गों के लिए अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता बढा दी है। संयुक्त परिवार बिखर कर एकल परिवार बन चुके हैं। बढती जनसँख्या की समस्या, बढ़ता जीवन स्तर एवं बढती प्रतिस्पर्द्धा के कारण प्रत्येक समझदार दम्पति के लिए सीमित परिवार की अवधारणा को स्वीकार करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि प्रत्येक माता पिता की इच्छा होती है, वह अपने बच्चे को जीवन की सारी खुशियाँ उपलब्ध करा पायें। अच्छी से अच्छी शिक्षा देकर उन्हें जीवन की ऊंचाइयों तक पहुंचा पायें। यह सब सीमित परिवार के होते हुए ही संभव है। जैसे जैसे पुत्र, पुत्री बड़े होते हैं, शिक्षित होते हैं, युवावस्था में प्रवेश करते हैं, पुत्री को विवाह कर ससुराल विदा करना होता है और पुत्र को अपने अच्छे भविष्य की तलाश में अपने परिवार, अपने शहर से दूर जाना पड़ता है। अंत में परिवार में रह जाते हैं सिर्फ बुजुर्ग पति और पत्नी। यदि बेटा विदेश चला जाता है तो उसे लौटने में भी साल साल भर लग जाता है। अपने देश में कार्य करते रहने पर भी साप्ताहिक अवकाश में घर पर आ जाना हमेशा संभव नहीं होता। अतः बुजुर्ग दम्पति को अपने स्वास्थ्य की देख भाल स्वयं ही करनी पड़ती है, अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता सताने लगती है। हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था जर जर हालत में होने के कारण आए दिन अपराधी बुजुर्ग दंपत्ति को अपना शिकार बनाते रहते हैं। उनके साथ लूट पाट करना, उनकी हत्या कर देना नित्य अख़बार की सुर्खिया बनती हैं। अनेकों बार तो घर के नौकर ही बुजुर्गों की कमजोरी का लाभ उठा कर अपराधों को अंजाम दे देते हैं। कई बार कोई पडोसी बदमाश या करीबी व्यक्ति उनकी जायदाद को हड़पने का प्रयास करते हैं। अथवा उन्हें अनेक प्रकार से परेशान कर बेदखल करने या निवास छोड़ने को मजबूर करते हैं।

यह भी संभव नहीं की, युवा संतान परिवार के साथ रह सके और अपने भविष्य को दांव पर लगा दे। सुरक्षा व्यवस्था कमजोर होने के कारण बुजुर्गों के मन में असुरक्षा का भाव बना रहता है। यदि सभी बुजुर्ग सामूहिक रूप से एक दुसरे की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठायें तो शायद कुछ हद तक इस समस्या से मुक्त हुआ जा सकता है, शेष जीवन को सुरक्षित एवं निश्चिन्त बनाया जा सकता है।

शारीरिक विकलांगता

यदि कोई व्यक्ति विकलांग ही दुनिया में आया है तो उसके लिए पूरा जीवन ही अभिशाप बन जाता है। उसे एक सामान्य व्यक्ति से कई गुना अधिक हिम्मत एवं साहस के साथ जीने की आदत डालनी पड़ती है। उसके पश्चात् ही वह सामान्य व्यक्ति से मुकाबला कर पाता है। विकलांगता में मुख्य विकृतियाँ हैं नेत्रहीनता, मानसिक विकलांगता,मूक, बधिरता आदि जो जीवन को जटिल बना देती हैं। यदि इनमे कोई व्यक्ति प्रौढ़ावस्था तक पहुँच भी जाता है तो उसके लिए परेशानियों का नया अध्याय खुल जाता है।

परन्तु ऐसे भी अनेक व्यक्ति होते हैं जो दुर्भाग्यवश अपने जीवन में किसी दुर्घटनावश अथवा बीमारी के कारण किसी विकलांगता का शिकार हो जाते हैं। उनके लिए जीवन संध्या असामान्य रूप से मुश्किलें लेकर आती हैं। कमजोर शरीर के साथ विकलांगता परिजनों की उपेक्षा का कारण बनती है। वृद्ध का जीवन उसके स्वयं के साथ पूरे परिवार के लिए अभिशाप बन जाता है। और बूढा व्यक्ति सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करता रह जाता है। परिवार में यदि आर्थिक समृद्धता है तो उपयुक्त साधन सुलभ हो जाने से समस्या की भयावहता कम हो जाती है। शायद सभी अन्य समस्याओं का निराकरण कर समस्या की तीव्रता को कुछ हद तक कम किया जा सकता है परन्तु विकलांगता और वह भी वृद्धावस्था में सिर्फ निराशा, हताशा, उपेक्षा का कारण बनती है और जीवन को बोझिल बनाती है। सिर्फ असीमित हिम्मत रखते हुए एवं नसीब की विडंबना को समझ कर जीवन को आगे बढाया जा सकता है।

संतान की समस्याओं से तनाव

इन्सान यौवनावस्था में जब अपने जीवन में बच्चों की किलकारियां सुनता है तो संतान सुख की अनुभूति अद्वितीय होती है। जब तक बच्चे छोटे होते हैं उनकी समस्याएं भी सीमित होती हैं। क्योंकि यौवन अवस्था में व्यक्ति आर्थिक एवं शारीरिक रूप से सुदृढ़ होता है, अतः बच्चों की प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने से असीम ख़ुशी मिलती है। उसके दुखों का निवारण करने में संतोष प्राप्त होता है। जैसे जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, उनकी आवश्यकताएं बढती जाती हैं। और इन जिम्मेदारियों को निभाने के लिए पहले से अपने तैयार कर लेते हैं। अतः बच्चे के जन्म से लेकर उसके रोजगार लगने तक का व्यय उठाने का अपना कर्त्तव्य निभाते हैं। इसी प्रकार अपनी बेटियों के विवाह कर कार्य मुक्त होकर चिंता मुक्त जीवन की कल्पना करते हैं। परन्तु जब सारी जिम्मेदारियां निभा ली जाती हैं। हमारी चिंता मुक्त होने की सोच दिवास्वप्न साबित होती है। आप कितने भी धनवान हैं, या पेंशनर होने के कारण भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित है। परन्तु बच्चों की शादियों के पश्चात् अनेक प्रकार की नयी चिंताएं सताने लगती हैं।

पुत्रियों के विवाह के पश्चात् अक्सर उसके ससुराल वाले आपकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। हमारे समाज में बेटे के ससुराल वालों से दोयम दर्जे का व्यव्हार किया जाता है। अतः जब उनकी बहु उनके अपेक्षाओं के अनुरूप खरी नहीं उतरती तो उसके लिए मायके वालों को ही दोषी माना जाता है, उनकी अपेक्षाएं बेटी के बूढ़े माता पिता के लिए तनाव उत्पन्न करती है। यदि बेटी अपनी ससुराल में सामंजस्य बना पाने में विफल रहती है तो निश्चित ही माता पिता का बुढ़ापा ख़राब हो जाता है।

यदि बेटा अपने केरीअर के अपेक्षित मुकाम पर नहीं पहुँच पाता है तो परिवार के लिए आर्थिक समस्या बन जाती है,यदि पुत्र चरित्रहीन निकल जाता है तो माता पिता का शेष जीवन नरक तुल्य हो जाता है। परन्तु यदि बेटा परिवार के लक्ष्य के अनुसार सफल हो जाता है और सुदृढ़ आर्थिक स्थिति प्राप्त कर लेता है, परन्तु अपने माता पिता के प्रति उदास है तो वृद्धों का तनाव ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है। यदि पुत्र अपने माता पिता के लिए आदर और प्रेम का भाव रखता है परन्तु शादी के पश्चात् पुत्र वधु अपने पति के परिवार के प्रति समर्पण भाव में अड़चन पैदा करने लगती है, तो परिवार के बुजुर्गों के लिए मुसीबत का कारण बन जाती है। कभी कभी आपके पुत्र एवं पुत्रवधू अपने बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील है,उनके लिए समर्पित है,परन्तु आपकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते, आप फिर भी संतुष्ट नहीं होते आपकी अनर्गल अपेक्षाओं के चलते उन्हें स्वतन्त्र रूप से जीना एक समस्या बन जाता है, तो आपको उपेक्षाए झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब घर के बुजुर्ग सिर्फ अपना बर्चस्व, अपने मान सम्मान को ही अपना अधिकार समझते है तो। उन्हें संतान से उपेक्षा झेलनी ही पड़ेगी। परन्तु यह समस्या अपने स्वयं बनायीं हुई है। अतः जीवन संध्या में मधुर वाणी। प्यार, दुलार, समय की आवश्यकता बन जाती है। कभी कभी किसी संतान का वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से नहीं चल पाता या उसके जीवन में कोई भूचाल आ जाता है तो वृद्ध का शेष जीवन तनाव ग्रस्त होकर बीतता है और यही तनाव उसकी मौत का कारण भी बन जाता है।

मौत का भय

यह तो कटु सत्य है, प्रत्येक व्यक्ति या जीव जिसने इस संसार में जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। और इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता ज्यों ज्यों आयु बढती जाती है, मृत्यु का समय भी पास आता जाता है। अतः मृत्यु वृद्धावस्था के अधिक निकट होती है। जबकि यह भी सत्य है जीवन और मौत पर इन्सान का कोई अधिकार नहीं है। जो व्यक्ति दुनिया से ऊब चुका होता है और जीना नहीं चाहता उसे मौत नहीं आती, अनेक प्रकार की शारीरिक परेशानियों के बावजूद जीना पड़ता है, कभी कभी तो गंभीर बीमारी के चलते वर्षों बिस्तर पर पड़े रह कर भी जीवन को ढोना पड़ता है। इसी प्रकार से जिसे जीने की लालसा होती है सब प्रकार से समृद्ध होता है, आकस्मिक दुर्घटना का शिकार होकर या किसी गंभीर बीमारी का शिकार होकर समय से पूर्व ही मौत के आगोश में आ जाता है।

अक्सर जब भी एक वृद्ध व्यक्ति अपने पडोसी, अपने मित्र अपने परिजन की मौत का समाचार सुनता है,देखता है तो उसके मन में स्वयं की संभावित मौत का भय सताने लगता है। उस भय के कारण उसके दिल की धडकनें बढ़ जाती हैं, उसका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह मानसिक रूप से व्यथित हो जाता है। बाद में भी काफी दिनों तक उसके मानस पटल पर यह भय बना रहता है। जैसे जैसे उम्र बढती जाती है उसका भय भी बढ़ता जाता है।

उपरोक्त भय का कोई निश्चित समाधान नहीं है। परन्तु इस सच्चाई को स्वीकार कर, की मौत तो आनी ही है, तो उसे भय मानने से क्या लाभ। इस सच्चाई को स्वीकार कर लेना ही श्रेष्ठ है। जितने दिन की जिन्दगी है उसे प्रसन्नता पूर्वक जीना ही अपना मकसद होना चाहिए। वास्तव में जिस मौत से हम खौफ खाते हैं, वह एक असीम शांती का स्वरूप है, चिरनिद्रा है, जो हमें सभी दुखों, सभी तनावों से मुक्त होने का अवसर देता है। अतः जितना समय हमें जीने को मिल रहा है भय मुक्त होकर जीना चाहिए। क्या कभी आप सोने से पूर्व तनावग्रस्त या भयग्रस्त होते हैं,जबकि आप सोने के पश्चात् अपना अस्तित्व भूल जाते हैं, नयी सुबह होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। मौत भी निद्रा का एक रूप है जिस निद्रा के बाद सुबह नहीं होती। अतः हम यह सोच लें की मौत और कुछ नहीं सिर्फ ऐसी नींद है जिसके पश्चात् दोबारा होश में नहीं आ सकते। मन को शांत करने का इससे अच्छा विकल्प नहीं हो सकता। मौत के भय से जीवन असहज होता है इससे अधिक कुछ होने वाला नहीं है।

नयी पीढ़ी से सामंजस्य का अभाव

समय के साथ साथ मानव प्रगति पथ पर बढ़ता जा रहा है। कहा जाता है परिवर्तन पृकृति का नियम है। परन्तु मानव अपनी बौद्धिक क्षमता के सहारे से अनेक परिवर्तन करता आ रहा है। नित नयी सुविधाएँ जुटाना उसका लक्ष्य रहता है। और उसकी यह लालसा उन्नति का कारण बनती है। आज मानव उन्नति के उस शिखर पर पहुँच चुका है, जहाँ से विकास की गति को पंख लग गए हैं। विकास की गति कहीं अधिक तीव्र हो गयी है,शिक्षा का प्रचार प्रसार तेजी से हो रहा है,शिक्षा से प्राप्त ज्ञान के कारण मानव का रहन सहन, खान पान। एवं सोच में बड़े बदलाव आ रहे हैं।

प्रत्येक व्यक्ति आधुनिक सुविधाओं से युक्त जीवन जीना चाहता है,अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटा लेने की होड में लग गया है, इसी प्रतिद्वान्विता ने उसके सुख,चैन,शांति को छीन लिया है। वह तनावग्रस्त होता जा रहा है। उसकी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आये हैं। उसके कारण आज का युवा परंपरागत रूढियों, दकियानूसी मान्यताओं को तोड़ डालना चाहता है। वह स्वच्छंद एवं स्वतन्त्र होकर जीना चाहता है। उसकी यही सोच बुजुर्गों को आहत करती हैं। आज के बुजुर्ग अचानक आये परिवर्तनों को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उसे अपने समय के जीवन मूल्य और आदर्श ही अच्छे लगते हैं। अतः वह इसके लिए नए ज़माने और नयी पीढ़ी को दोषी मानता है। परन्तु नयी पीढ़ी उनकी सोच को,उनके सिद्धांतों को नकार देती है और पुरानी पीढ़ी से दूरियां बनाने लगती है,परिवार में सामंजस्य का अभाव उत्पन्न होने लगता है, जो घर में विद्यमान बुजुर्गों के लिए दुखदायी होता है।

यदि पुरानी पीढ़ी के व्यक्ति यह सोच लें की अब बच्चों का जमाना है,वे आधुनिक वातावरण में पैदा हुए हैं,अतः वे नए ज़माने के अनुसार ही रहना पसंद करते हैं। दुनिया में परिवर्तन तो होने ही हैं,उन्हें कोई नहीं रोक सकता। जब इन बदलवों को रोक नहीं सकते तो समझदारी यही है की हम भी अपनी सोच में यथाशक्ति परिवर्तन लाने का प्रयास करें,ताकि नयी पीढ़ी से सामंजस्य बना पाने में सुविधा हो, और परिवार में बुजुर्गों का सम्मान बना रहे। परिवार का माहौल खुशनुमा बना रहेगा, बुजुर्गो का शेष जीवन सहज रूप से व्यतीत हो सके।

आधुनिक परिवेश असहनीय

गत एक शताब्दी में मानव समाज ने अप्रत्याशित उन्नति की है मात्र सौ वर्षों के अंतराल में इंसान ने रेडियो। टीवी, कंप्यूटर, वायुयान मोटरगाड़ी,बस,सी,डी, डी वी डी आदि अनेकों नयी नयी खोजें की हैं, जो आज हमारी आवश्यकताओं में शामिल हो चुके हैं। आज इनके बिना मानव जीवन की कल्पना भी असंभव लगती है। इस उन्नति ने जहाँ मानव को अनेक सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं, तो दूसरी तरफ उनको पा लेने की होड़ ने सामाजिक ताने बाने को तोड़ कर रख दिया है। परंपरागत खेती बाड़ी, दुकानदारी कारखाने आदि सभी व्यवसायों के रूप बदल चुके हैं। अब अधिक परिश्रम के कार्य नयी तकनीक के कारण अप्रासंगिक हो चुके हैं। अब श्रमसाध्य कार्य मशीनों द्वारा किये जाने लगे हैं। नयी नयी सुविधाओं और साधनों को पाने की ललक आज के युवा को अपने परंपरागत कारोबार छोड़कर दूर दराज के क्षेत्रों में जा कर नौकरी या रोजगार के लिए प्रेरित कर रही है। यातायात के नवीनतम साधनों अर्थात वायुयान,ट्रेन कार आदि की उपलब्धता ने युवा को कहीं भी जाकर रोजगार करना संभव बना दिया है। जिसने अंततः संयुक्त परिवार को एकल परिवार में परिवर्तित करने को मजबूर कर दिया है। युवा वर्ग के अपना गांव, शहर छोड़ कर दूर दराज के इलाकों में चले जाने के कारण घरों में वृद्ध अकेले रह गए है।

पुरानी पीढ़ी के लोग नए परिवर्तन को न तो समझ पा रहे हैं और न ही स्वीकार कर पा रहे हैं। कमाई के नए साधनों के अनुरूप अपने आपको ढाल पाने में भी अक्षम हैं। अतः उनके पुराने कारोबार सफ़ेद हाथी साबित होने लगे हैं। बढते खर्चों के सामने वे अपनी कमाई को ऊँट के मुंह में जीरा की माफिक महसूस करते हैं। इतनी तीव्र गति से आया परिवर्तन उन्हें शारीरिक एवं मानसिक रूप से व्यथित करता है आज के प्रतिस्पर्द्धा युग में प्रत्येक व्यक्ति को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है,चाहे वह शिक्षा क्षेत्र हो, कार्यक्षेत्र हो अथवा जीवन स्तर ऊंचा उठाने की होड हो। प्रत्येक इंसान को अधिकतम भौतिक वस्तुओं को पा लेने के लिए दौड़ लगानी पड़ रही है। जिसके लिए उसे अपने जीवन का अधिक से अधिक समय व्यय करना पड़ता है उसके पास अपने लिए,अपनों के लिए समय नहीं बच पाता,या बहुत कम बचता है। उसका समयाभाव बुजुर्ग को अपने प्रति उपेक्षा का अहसास कराता है। शीघ्र धनाढ्य बनने की लालसा ने युवा को क्रोधी,एवं बेरुखा कर दिया है। युवा पीढ़ी की कार्यशैली से घर का बुजुर्ग परेशान हो जाता है और वह अपनी संतान को संवेदनहीन, अहसान फरामोश मानता है,नयी कार्य शैली एवं जीवन शैली उन्हें रास नहीं आती। वे अपने कार्यकाल के समय को उचित ठहराते हैं।

“वृद्धावस्था को सम्मान पूर्वक एवं शांति पूर्वक व्यतीत करने के लिए सिर्फ आवश्यकताओं की पूर्ती हो जाने की आकांक्षा रखनी चाहिए एवं उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिए न की अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ती के लिए जिद्दोजहद”