बुजुर्ग अनुभूतियों की युवा अभिव्यक्ति / राकेश बिहारी
साठ पार का व्यक्ति यानी कर्तव्य की गठरी पीठ पर लादे उपेक्षा और एकाकीपन की जिंदगी जीने को अभिशप्त एक सामाजिक ईकाई। साठ पार का व्यक्ति यानी जीवन की संध्या में अस्थमा और खाँसी से परेशान धुँधली आँखों से अतीत को देखता हुआ अपने वर्तमान पर आँसू बहाने को ही अपनी नियति मान बैठा एक मजबूर इनसान। साठ पार का व्यक्ति यानी अपनी कनपटी के सफेद बालों पर रोज हेयर डाई के किसी नए ब्रांड को आजमा कर क्लीन सेविंग के बाद खुद को आईने में दर्प से निहारता भीतर ही भीतर अपने बुढ़ापे से भयभीत कोई आदमी। साठ पार का व्यक्ति यानी जिजीविषा की उष्मा से लबरेज अपने जोरदार ठहाकों और मजबूत छ्ड़ी से बुढ़ापे को लगातार दूर धकेलता कोई शक्तिपुंज। साठ पार का व्यक्ति यानी 'लोग क्या कहेंगे' की ग्रंथि से अभिशप्त प्यार और प्रेम से महरूम एक ऐसा इनसान जो अपनी स्वाभाविक प्रेमानुभूतियों को भी अभिव्यक्त नहीं कर सकता। साठ पार का व्यक्ति यानी एक चलती फिरती पंचायत या कि एक सर्वमान्य न्यायाधीश जिसकी मर्जी ही सबकी सहमति हो। साठ पार का व्यक्ति यानी लार टपकाता कोई ठरकी बुड्ढा। साठ पार का व्यक्ति यानी वरिष्ठ नागरिक की पट्टी लटकाए एक ऐसा व्यक्ति जिसके लिए खिड़कियों पर अलग से कतारें, बसों में अलग से सुरक्षित सीट, इन्कम टैक्स में विशेष छूट या कि बस-ट्रेन की टिकटों में विशेष रियायतें होती हैं। साठ पार का व्यक्ति यानी 'चौथेपन नृप कानन जाई' की तर्ज पर धार्मिक ग्रंथों में अपने जीवन की सार्थकता ढूँढ़ता अपने बेटे बहुओं को भजन-पूजन की नसीहत देने के बाद धीरे से अपने खाने की थाली में थोड़ी चटनी और थोड़ा अचार ढूँढ़ता कोई रसान्वेषी। ये और ऐसे ही कई अन्य छवियाँ हैं जो साठ पार सुनते ही बारी-बारी से या कि एक ही साथ हमारे जेहन में कौंध जाती हैं। विश्व साहित्य के मुकाबले कुछ युवा मित्रों को भले ही हिंदी कथा साहित्य की परंपरा में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं लगता हो लेकिन अपने समय और समाज की धुकधुकी को पूरी उदात्तता, तटस्थता और विश्वसनीयता से पकड़नेवाली अनेक कहानियाँ हिंदी कथा साहित्य में मौजूद हैं। बात चाहे बुढ़ापे की ही क्यों न हो, जिसकी चर्चा होते ही हमारे जेहन में सूखा (निर्मल वर्मा), तलाश (कमलेश्वर), वापसी (उषा प्रियंवदा), पिता (ज्ञानरंजन), सिकुड़ता हुआ बाप (राजेंद्र भट्ट), उस बूढ़े आदमी के कमरे में (आनंद हर्षुल) आदि कई कहानियाँ कौंध जाती हैं। फिलहाल बात सिर्फ समकालीन युवा कहानी की।
शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'एक बूढ़े की मौत' की कुछ पंक्तियाँ हैं - 'बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है जो धीरे-धीरे शरीर और मन मस्तिष्क को क्षीण करता जाता है। अंततः मौत की त्रासद स्थिति ही उसका सार्थक उपचार है... बुढ़ापा जवानी की गलतियों का नतीजा होता है परिणाम स्वरूप मौत उसका पलायन... बुढ़ापे में आदमी नकारा हो जाता है। बच्चे उसे घर से निकाल देते हैं और वह आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लेता है।' जीवन चक्र में बुढ़ापा मृत्यु की दहलीज होती है लेकिन मौत और आत्महत्या को इस तरह रेखांकित करना हमें भय और निराशा के गहरे दलदल में धँसा देने वाला है। 'एक बूढ़े की मौत' जानकी बाबू नामक एक ऐसे बूढ़े की कहानी है जो चुस्त-दुरुस्त और सुलझे हुए इनसान होने के बावजूद मानव क्लोन के आविष्कार की गुत्थी में इस तरह उलझ जाते हैं कि अपने नाभि प्रदेश के नीचे सुई चुभोकर हाराकीरी कर लेते हैं। कहानी के पारंपरिक फॉर्मेट को तोड़ती यह कहानी एक कॉम्प्लेक्स कैरेक्टर के कॉम्प्लेक्स मनःस्थिति को एक कॉम्प्लेक्स कथा-विन्यास के रूप में हमारे सामने रखती है। जानकी बाबू जन्मना ठाकुर साहब थे। उन्होंने एक 'मजी हुई वेश्या' से प्रेम किया और जब प्रेम किया तो संभोग भी और बाद में क्रांतिकारी हो गए। जानकी बाबू उत्साही भी हैं और अकेले भी। जीवन से उन्हें एक गहरा अनुराग भी है और विरक्ति भी। शायद यही कारण है कि कर्म चक्र से मुक्ति नहीं चाहते हुए भी मानव क्लोन के आविष्कार से हतप्रभ हो कर एक दिन वे मृत्यु को गले लगा लेते हैं। शशिभूषण अपनी अन्य कहानियों की तरह यहाँ भी मृत्यु और संभोग के धागों से एक रहस्यमय संसार रचते हैं, एक ऐसा संसार जो जीवन की गुत्थियों को सुलझाने के क्रम में और उलझा देता है। हो सकता है यह मेरे समझ की सीमा हो, लेकिन बावजूद इसके यह कहानी संकेतों-सूत्रों में ही सही वृद्धावस्था में व्याप्त अकेलेपन और उससे उपजी त्रासद परिस्थितियों की तरफ इशारा तो करती ही है।
कहानी में मृत्यु, वह भी किसी बूढ़े की कोई नई बात नहीं है। लेकिन मृत्यु-मृत्यु में फर्क होता है। हमारे भीतर भय, दहशत और जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाली मृत्यु और हमारे मस्तिष्क की कोशिकाओं पर बल डाल कर हमे कुछ सोचने को विवश करनेवाली मृत्यु में अंतर होता है। प्रसंगवश इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी (1997) में प्रकाशित युवा कथाकारों में अपेक्षाकृत वरिष्ठ पंकज मित्र की कहानी 'पड़ताल' यहाँ उल्लेखनीय है। इस कहानी के केंद्रीय पात्र किशोरीरमण बाबू अपने परिवार में रंगीन टीवी आने के ठीक आठ दिन बाद हार्ट अटैक से मर जाते हैं... 'देर रात तक अमिताभ बच्चन चीखता रहा। असमाजिक तत्वों को पीटता रहा। सभी ने निश्चिंत हो कर चीखें सुनी। पिटाई देखी, दाँत पीस-पीस कर दुनिया को जला कर राख कर देने वाले डायलाग सुने और परमतृप्ति के साथ सोए। और सुबह ही किशोरी बाबू मरे हुए पाए गए, बरसाती में चौकी पर... सीने पर हाथ धरे।' इस कहानी में मनोरंजन का एक नया साधन टीवी अपने भीतर रोमांच और उत्सुकता का एक ऐसा लुभावना संसार ले कर आता है कि एक परिवार के सभी सदस्य मिल कर अपने ही परिवार के बुजुर्ग की नींद, उनका चैन, उनकी निजता सब कुछ छीन कर उन्हें उपेक्षा के एक ऐसे अँधेरे सुरंग में धकेल देते हैं जहाँ उसकी मृत्यु हो जाती है। एक बूढ़े की मृत्यु के इस प्रसंग से उपजे सवाल हमें भीतर तक हिला कर रख देते हैं।
विमल चंद्र पांडेय की कहानी 'मन्नन राय गजब आदमी हैं' के मन्नन राय इन अर्थों में बूढ़ों की पारंपरिक छवि से अलग हैं कि उनका कोई अपना परिवार भले ही न हो लिकिन पूरा बनारस ही उनका परिवार है। शायद यही कारण है कि अकेले होने के बावजूद अकलेपन के ऊब और संत्रास से उतपन्न परिस्थितियाँ उन्हें नहीं घेरतीं। साठ की दहलीज पर खड़े मन्नन राय जैसे पूरे शहर के संकटमोचक हैं। सब की मदद के लिए सदैव तत्पर, किसी भी समस्या के समाधान के लिए हमेशा तैयार। पीड़ितों-शोषितों के ऐसे पक्षधर कि बिना बुलाए खुद जा कर किसी का झगड़ा निबटा दें। यह उनके साहसी व्यक्तित्व का प्रतिफल है या उनकी बुजुर्गियत का सम्मान या कि दोनों का मिला-जुला असर कि लोग भी उन्हें सिर-माथे रखते हैं। पूरा शहर जैसे उनके गरिमामय आभामंडल के गिरफ्त में है। लेकिन सब दिन एक से नहीं होते और गजब के मन्नन राय की जिंदगी में भी एक रात ऐसी आती है जब एक उद्दंड लड़का अपनी बदतमीजियों में हस्तक्षेप किए जाने के कारण न सिर्फ उनका उठा हुआ हाथ पकड़ लेता है बल्कि उनकी कनपटी पर तमंचा रख के गुर्राते हुए कहता है - 'नेता बनने की आदत छोड़ दे बुड्ढे, वरना यहीं ठोक दूँगा। जब देखो दूसरों के काम में टाँग अड़ाना... राम-राम कहो नहीं तो ऊपर पहुँचा दूँगा।' तेज रफ्तार बदलते समय से अनभिज्ञ मन्नन राय अचानक ही उतपन्न हो आयी इस परिस्थिति से पहले भावशून्य हो जाते हैं और बाद में बिना किसी को कोई सूचना दिए लापता। मन्नन राय जैसा साहसी और दबंग इनसान अचानक इतना कमजोर कैसे हो गया...? उल्लेखनीय है कि मन्नन राय तमंचे से नहीं एक सत्रह साल के लड़के के इस दुस्साहस से स्तब्ध हैं जिसमें बदलते समय की एक ऐसी धमक मौजूद है जो उनके लिए सर्वथा अनापेक्षित थी। बदलते समय के साथ टूटते-छीजते मूल्यों के बीच समाज में बुजुर्गों की बदलती स्थिति को विमल चंद्र पांडेय ने संजीदगी से पकड़ा है। अपनी संपूर्णता में यह कहानी रोज-रोज बदलते समाज और बूढ़ापे के अनतर्संबंधों का एक महत्वपूर्ण रेशा हमारे सामने उघाड़ जाती है - 'हर मन्नन राय बुढ़ापे में ज्यादा दिनों तक तना नहीं रहने दिया जाता। लेखक सड़कों पर घूमते समय सिर झुकाए किसी हताश और निरीह बूढ़े को देखता है तो दौड़ कर पास जा कर देखता है कि कहीं यह मन्नन राय तो नहीं। पर वह मन्नन राय अब तक नहीं मिले, हालाँकि दूर से ज्यादातर बूढ़े मन्नन राय ही लगते हैं, उस रात के बाद वाले मन्नन राय।'
नीलाक्षी सिंह की कहानी 'एक था बुझवन' बृद्धावस्था के ग्रामीण यथार्थ का एक सर्वथा अलग चित्र उपस्थित करती है। बुढ़ापे का एक ऐसा ठेठ और चाक्षुष बिंब जिसका अंग-अंग खुद ही अपनी कहानी कहता है... 'जब बुझवन महीन बुढ़ापे की ओर बढ़ने लगा तब अन्य शारीरिक क्षमताएँ और आकृतियाँ उसका साथ छोड़ने लगीं। आँखों में लुकझुक दिखता। पास की, दूर की सब चीजों के आगे धुंध पुत गई। चमड़ी बिना प्रेश किए कपड़ों की तरह तुड़ी मुड़ी होने लगी। तन कर चलने की सारी कोशिशों के बावजूद बुझवन साँप के फन की तरह डोलता दिखता था... बहरेपन की ओर बढ़ते दूसरे लोगों की तरह वह भी यह महसूसने लगा था कि सामनेवाला जोर-जोर से बोले तो ही कान सुनते हैं, थोड़ा-बहुत। इसलिए समभाव से दूसरों की सुविधा का ख्याल करते हुए वह भी भरसक चिल्ला चिल्ला कर जवाब देता।' एक टिपिकल बूढ़े के सारे लक्षणों से युक्त बुझवन इस मायने में धनी है कि उसकी स्मृति आम बूढ़ों की तरह उसे दगा नहीं दे गई है। अब तक बची इस स्मरण शक्ति का ही प्रतिफल है कि पेशे से कभी राज मिस्त्री रहा बुझवन अब संयुक्त परिवारों के बँटवारे का दावा खनने के लिए पहली कुदाल चलाता है... एवज में शगुन की नकदी, एक जोड़ी धोती और सूती साड़ी। बुझवन ने राज मिस्त्री के रूप में कभी इन्हीं मकानों की नींव डाली थी... यह नींव सिर्फ मकान की नहीं घरों की थी जिसमें आपसी रिश्तों की साझेदारी भी शामिल थी। आज वही बुझवन बुढ़ापे में इस नींव के टुकड़े कर रहा है। कभी जोड़ना पेट की जरूरत थी आज तोड़ना भी उसी पेट के कारण... लेकिन बनाने से बाँटने तक का यह सफर इतना आसान नहीं है इन बूढ़े हाथों के लिए... जिन स्मृतियों की बदौलत आज उसके हाथों में बँटवारे की कुदाल है, वही स्मॄतियाँ आज उसके हाथ रोक लेना चाहती है... अपने ही हाथों से वह अतीत के उन सुनहरे पलों पर कैसे वार करे। इन घरों में सिर्फ उसका श्रम और मालिकों की पूँजी ही नहीं उनके सुख-दुख का साझापन भी शामिल है। लेकिन क्या उसके रुके हुए हाथ घरों को टूटने से बचा लेंगे...? नहीं, उल्टे उसकी पेट का मरोड़ और तेज हो जाएगा। बुझवन के इस अंतर्द्वंद्व में उसकी व्यावहारिकता का पलड़ा भारी है और यही कारण है कि उसकी आत्मा बदहवास भागती हुई यह अर्ज करना चाहती है कि भारत के भावी बूढ़े अपना पिछला भूलकर ही सुखी रहेंगे। बदलते समय और समाज के विडंबनामूलक यथार्थ को बहुत बारीकी से पहचानती हैं नीलाक्षी सिंह। बदलते हुए यथार्थ की यही पहचान बुझवन को विमल चंद्र पांडेय के मन्नन राय से अलग कर देती है... आहत, स्तब्ध लेकिन पेट और परिस्थितियों के आगे मजबूर।
अकार 25 (रजत जयंती अंक) में प्रकाशित वंदना राग की कहानी 'ख्यालनामा' राघव रमण नाम के एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बूढ़ा हो कर भी बूढ़ा नहीं दिखना चाहता। अपनी पुतलियों में चिर युवा होने का सपना पाले राघव रमण दर असल गहरे डरा हुआ है कहीं अपने बुढ़ापे से। लेकिन उम्र है कि लुकछिप दिख ही जाती है, कभी उसकी बातों से तो कभी व्यवहार से, जाने-अनजाने। राघव रमण की उम्र की हकीकत और उसकी कामनाओं के द्वंद्व को वंदना राग ने पूरी कुशलता के साथ उभारने की कोशिश की है। राघव रमण के अंतर्मन के इस द्वंद्व में कहीं उसकी चुस्त दिखने की ललक झलकती है तो कहीं उसका जीवन के प्रति एक गहरा अनुराग। लेकिन अंत तक आते-आते उसके सारे जीवन व्यापार किसी ख्यालनामे की शक्ल में भरभरा उठते हैं, एक बृद्ध व्यक्ति की कुंठाजनित छटपटाहट बन कर। कहानी के आरंभ से अंत तक राघव रमण के कार्य व्यवहार में वंदना राग ने इसी मनःस्थिति के सूत्र पिरोए हैं। निश्चित तौर पर राघव रमण उस बूढ़े चरित्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता जिसकी तसवीर अक्सर हमारे मन में उभर कर आती है। यह एक खास वर्ग का व्यक्ति है जिसमें उसकी उम्र के समानांतर उसका वर्गीय चरित्र भी उद्घाटित होता है। वंदना राग ने जिस खास किस्म के बूढ़े का चरित्रांकन इस कहानी में किया है उसकी मनःस्थितियों के कुछ टुकड़े सीधे कहानी से ही - ' वे उठे और बेड रूम की ओर चले गए। वहाँ वे अपनी पतलून ढूँढ़ने लगे...। अनिकेत के सामने ये जाहिर करना तो बिल्कुल ठीक नहीं होगा कि वे अपनी स्थिति पर शर्म महसूस कर रहे हैं और उसे दिखाने के लिए सज रहे हैं।'
'गिलास लेते वक्त सोमेश ने देखा राघव रमण का हाथ एक क्षण के लिए काँप उठा था। उन्होंने देख लिया कि सोमेश ने देख लिया है। अजीब सी पराजय भावना से वे भर उठे।'
'राघव रमण चिहुँक गए। दबे स्वर में बोले मानो कितनी लज्जाजनक बात कर रहे हो; आजकल मेरे हाथ पैर काँपते हैं।'
'सिहर कर राघव रमण ने अपने दाँतों को छुआ, उसके दाँत अभी भी असली हैं। शुक्र है।'
बुढ़ापे का डर स्वाभाविक है और उस डर को ढाँपने की कोशिशें भी। लेकिन बुढ़ापे को छुपाने के उपक्रम में बुढ़ापे के बार-बार उघड़ जाने के बावजूद बढ़ती उम्र की हकीकतों के अस्वीकार से उत्पन्न विडंबनाओं की जो तसवीर वंदना राग दिखाना चाहती हैं उसका उसका दूसरा रुख जिजीविषा और जीवटता है। तसवीर का यह दूसरा हिस्सा भी दिखना चाहिए। हाँ, इसके लिए दृष्टि का कुछ और बुजुर्गवार होना जरूरी है।
पाखी (जुलाई 2009) में प्रकाशित कविता की कहानी 'मध्यवर्ती प्रदेश' उषा प्रियंवदा की चर्चित कहानी 'वापसी' की याद दिलाती है। बेटे-बहू और पोते-पोतियों से भरा-पूरा घर, घर के कामों में व्यस्त बूढ़ी माँ और इन सब के बीच उपेक्षा का जीवन जीने को अभिशप्त रिटायर्ड पिता। अपनी चर्चित कहानी 'उलटबाँसी', जिसमें एक विधवा माँ की व्यथा-कथा को एक नई अर्थवता प्राप्त होती है, के उलट इस कहानी में कविता ने एक बूढ़े पिता की जिंदगी को पूरी तन्मयता के साथ उकेरा है...' वे चुप हुए थे, कुछ देर फिर संयत भी... अजीब है न विनी, पुरुष उम्र होने के साथ-साथ या यूँ कहो कि रिटायर होने के बाद परिवार के लिए बेकार हो जाता है और औरत बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा उपयोगी।' 'मध्यवर्ती प्रदेश' के बाबूजी और माँ 'वापसी' के गजाधर बाबू और उनकी पत्नी से अलग कहाँ हैं? दोनों कहानियों के मुख्य पात्र अपने परिवार में उपेक्षित हैं। गजाधर बाबू अपनी उपेक्षा से उबरने के लिए जहाँ चीनी मिल की नौकरी खोज लेते हैं वहीं 'मध्यवर्ती प्रदेश' के बाबूजी फूल और कैक्टस की क्यारियों में अपना मन रमा लेते हैं। तो क्या कविता और उषा प्रियंवदा के बीच समय ठहर सा गया है...? नहीं। 'वापसी' की वसंती के मुकाबले 'मध्यवर्ती प्रदेश' की विनी इन दोनों कहानियों को भिन्न करती है। वसंती जहाँ परिवार के अन्य सदस्यों की तरह अपने रिटायर पिता गजाधर बाबू की उपेक्षा करती है वहीं विनी परिवार के अन्य सदस्यों (खास कर माँ) और बाबूजी के बीच लगातार तुक तान बिठाने की कोशिश करती है। उषा प्रियंवदा जहाँ कथानक में गुँथी घटनाओं और दृश्यों के माध्यम से गजाधर बाबू की उपेक्षित जिंदगी के प्रति पाठकों के मन में सहनुभूति का संसार रचती हैं वहीं कविता विनी के चरित्र के माध्यम से बाबूजी के सेवानिवृत जीवन में स्नेह और लगाव की खुशबू घोलने का प्रयास भी करती हैं... और यहीं आ कर 'मध्यवर्ती प्रदेश' 'वापसी' की अनुकृति न हो कर उसका विस्तार हो जाती है। 'उलटबाँसी' की ही तरह 'मध्यवर्ती प्रदेश' में भी कविता अपने समय का क्रिटीक ही नहीं उसका विकल्प भी रचने का प्रयास करती हैं।
घर-परिवार से दूर सेवा निवृत्त जीवन के कड़वाहटयुक्त अकेलेपन को घूँट-घूँट पीते किसी विधुर की कामनाएँ अपनापे के हौले से छुअन भर से कैसे मुखर हो सकती है इसका स्पर्शी पड़ताल है मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी 'प्रेत कामना'। अपनत्व के संस्पर्श से जागृत यह प्रेम का अंकुर किसी ठरकी बुड्ढे की सुप्त वासना का निर्लज्ज विस्फोट न हो कर बरसों से संचित प्रेम के उस बीज का प्रस्फुटन है जिसे समाज, परिवार और प्रतिष्ठा की छाया ने कभी मुट्ठी भर धूप नहीं लगने दी। प्रेम के पल चाहे जितने निर्द्वंद्व होते हों अपने आगे-पीछे द्वंद्व का एक बीहड़ लिए चलते हैं और यह द्वंद्व तब और सघन हो जाता है जब प्रेम की ऊष्मा से पिघलता वह व्यक्ति बुढ़ापे की दहलीज पर हो। द्वंद्व का यह बीहड़ उतना परेशान नहीं करता यदि इसकी भनक किसी और को न हो। लेकिन यहाँ तो महेश्वर पंत के बेटे ने खुद उन्हें किसी स्त्री के साथ संभोगरत देख लिया है। एक तरफ ग्लानि और दुविधा के थपेड़ों से जूझता पिता तो दूसरी तरफ अपने पापा को इस तरह देख कर आहत पुत्र। दोनों का सामना नहीं होता। दोनों चुप भी हैं लेकिन यह चुप्पी सिर्फ बाहर की है। भीतर तो तूफान उठा हुआ है... '...वह उनकी परछाई से ही उलझ गया। शोभा देता है यह सब? इस उम्र में।'
'तो क्या करूँ? अकेला दम घुट कर जान दे दूँ? मेरा बाकी जीवन टूटी दीवार से झरते सीमेंट सा बीते? यही चाहते हो न तुम?'
पिता की परछाई से पुत्र का यह अमूर्त संवाद हो या कि भीषण ग्लानि की आँच से पिघलता पिता का आत्मसम्मान कि एक आदर्श पिता की भूमिका करते-करते उससे यह अचानक चूक कैसे हो गई, इन सब से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है अत्मीयता के संस्पर्श से उत्पन्न वह अनुराग जिससे अंततः एक विद्रोह जन्म लेता है - 'क्या कर लेंगे साले। कभी आए पूछने कि पापा कैसे हो? कभी आए भी तो अकेले, न पोता न बहू। एक कर्तव्यपूर्ति कर चलते बने...। मेरे अकेलेपन को किसी की जरूरत नहीं क्या...?' लेकिन क्या यह सचमुच विद्रोह है? निःसंदेह प्रो. पंत और अणिमा के बीच जो घटित हुआ वह तब हुआ जब पंत अकेलेपन से जूझ रहे थे। लेकिन वर्षों से संचित उस प्रेम को दबा कर मनीषा प्रो. पंत के अकेलेपन को ही रोशनी से क्यों नहलाना चाहती हैं? प्रो. पंत अपने प्रेम का स्पष्ट और सार्वजनिक स्वीकार नहीं कर अपने अकेलेपन की ओट क्यों लेते हैं? कारण साफ है एकाकीपन की बात तो शायद लोग पचा भी लें लेकिन प्रेम, वह भी इस उम्र में...? दरअसल यही मनीषा की सीमा रेखा है। उनके स्त्री पात्र हों या कि पुरुष पात्र अंततः परंपरा और रूढ़ियों की बाँहों में ही पनाह पाते हैं जबकि उनके समकालीन महिला कथाकारों की कहानियाँ परंपरा की दहलीज को फलाँग कर कब की एक नई दुनिया में कदम रख चुकी हैं। इस संदर्भ में नीलाक्षी सिंह की कहानी 'रंगमहल में नाची राधा' की दीवानबाई का उल्लेख जरूरी है जो प्रो. पंत की तरह अकेले नहीं बल्कि नाती-पोते वाले भरे-पूरे घर में रहती है, अपने कर्तव्यों और दायित्वों के साथ सोती-जागती। बावजूद इसके वर्षों से संचित अपने प्रेम को स्वीकारते हुए अपने भीतर उस लगाव की ईमानदार अभिव्यक्ति की आस लिए एक दिन वह अपने प्रेमी की दहलीज तक जा ही पहुँचती है, किसी परंपरा और आचार संहिता की परवाह किए बगैर।
यूँ तो समकालीन युवा कथाकार की कहानियों में साठ पार के कई चरित्र पूरक या अनुषंग पात्रों के रूप में आते हैं। लेकिन इस लेख में मैंने अपनी स्मृतियों में टँगी उन्हीं कहानियों को रेखांकित किया है जिनके मुख्य पात्र साठ पार के या साठ की दहलीज पर खड़े हैं। जाहिर है इस क्रम में कई और महत्वपूर्ण कहानियाँ छूट भी गई होंगी। लेकिन इन थोड़ी सी कहानियों से गुजरते हुए हमारे भीतर कुछ प्रश्न तो जरूर खड़े होते हैं। आखिर क्या कारण है कि कुछेक अपवादों को छोड़ कर इन कहानियों में आए अधिकांश बुजुर्ग अकेले हैं, विधुर या कि अविवाहित? क्या बुढ़ापे की पीड़ा अकेलेपन में ही ज्यादा सालती है? बुढ़ापे के साझा दांपत्य की कथाएँ आज की कहानियों में अपनी बारी का इंतजार कर रही है। वृद्ध महिलाओं का जीवन भी (नीलाक्षी सिंह और कविता की कहानियों को छोड़ दें तो) लगभग हाशिए पर ही है। एक बात और, इन कहानियों में अकेलेपन से टूटा, थका, निरीह, उपेक्षित यहाँ तक की लगभग मजाक के पात्र बूढों का जीवन तो दिखता है लेकिन आनंद हर्षुल की कहानी 'उस बूढ़े आदमी के कमरे में' के बुजुर्ग की तरह बुढ़ापे के संघर्ष और जिजीविषा से चमकता एक भी चेहरा इन कहानियों में मौजूद नहीं है। और हाँ वृद्धावस्था के जिन कई रंगों की चर्चा मैने इस लेख के आरंभ में की है इन में से कई न सिर्फ युवा कहानी में बल्कि संपूर्ण हिंदी कहानी में अभी आने शेष हैं।