बुढ़ापा / अन्तरा करवड़े
"अरे सुनती हो सुधा!" श्रीवास्तवजी अपनी लाठी टेकते बरामदे में पहुँचे।
"कहिये! अब क्या हुआ।" सुधाजी धैर्य के साथ बोली।
"भैया तुम रह सकती हो इस नई पीढ़ी के साथ सुर मिलाकर। हमसे तो नहीं होने का। चलो हम कल ही विनय के घर चलते है।" श्रीवास्तवजी आपा खोने लगे थे।
"कुछ कहेंगे भी कि हुआ क्या है¸ सीधे चलने चलाने की बातें करने लगे आप तो।" सुधाजी कुछ परेशान हो उठी थी।
"अरे मैं जरा मुन्ने को खिला रहा था। उसे बी फॉर बाबू सिखाने लगा तो तुम्हारी बहूजी कहने लगी कि बाबूजी प्लीज उसे बी फॉर बॉल ही सिखाईये। स्कूल में ऑब्जर्वेशन होता है। अरे उसके पति को हमने ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया है और वह हमें सिखाने चली है। हमसे और नहीं सहन होने का यह सब कुछ।" वे तमककर बोले।
सुधाजी वैसी ही शांत बैठी हुई मेथी तोड़ रही थी। बाहर बारिश होने लगी थी इसलिये हवा खाने वे अक्सर यहीं बैठा करती थी। फिर उन्होने लहसुन की कुछ कलियाँ छीली। आँगन के बाहर रखी कचरा पेटी में जाकर वे कचरा फेंक आई और साफ की हुई सब्जी बहू को देने रसोई में चली गई।
वे बाहर आई तब तक श्रीवास्तवजी का गुस्सा थोड़ा कम जरूर हो गया था पर वे भूले नहीं थे उस वाकये को। बूँदाबाँदी हो रही थी।
"आ गई आप! उसी बहू की मदद करके जिसने थोड़े समय पहले आपके पति का अपमान किया था?" श्रीवास्तवजी ने फिर वही बात छेड़ी।
"क्या है जी! जब देखो तब बैठे ठाले मीन मेख निकालते रहते हो। जरा सी बात क्या कह दी बहू ने तो जैसे मिर्ची लग गई है आपको। जमाना बदल गया है¸ अब भी आप यही सोचेंगे कि वही पुराना रिवाज चला करे तो वह नहीं हो सकता।" सुधाजी ने कह ही दिया।
"अच्छा! तो अब वह कल की आई हुई लड़की कुछ भी कहा करे हमें। आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आपको ड़र लगा करता होगा इस नई पीढ़ी से¸ मैं आज ही सुरेश से इसकी शिकायत करने वाला हूँ। " बाबूजी निर्णायक स्वर में बोले।
"क्या शिकायत करेंगे जी आप? यही कि मैं गलत सिखा रहा था और बहू ने मुझे सुधारा इसलिये उसकी गलती हो गई?" सुधाजी ने भी पारा चढ़ाते हुए कहा।
"यहीं तो गलती करते है आप लोग। और अच्छी भली नई पीढ़ी के सामने बुढ़ापे का नाम बदनाम करते है। यदि वह नई लड़की आपको कुछ अच्छा बता रही है¸ तो क्या वह आपसे छोटी है इसलिये हमेशा गलत ही रहेगी? आप सिर्फ उम्र को ही बड़प्पन का तकाजा मान बैठे है। क्या आपको स्वयं यह मालूम है कि वह ऐसा क्या करे जिससे आपको उससे कोई भी शिकायत न रहे?" सुधाजी ने मन की भड़ास निकाल दी। श्रीवास्तवजी पकड़े हुए चोर की भाँति चुपचाप बैठे रहे।
"देखिये जी! मैं ये नहीं कहती कि आप चुप बैठे रहें या किसी भी काम में दखल न दे। आज यदि सुरेश और बहू हमारी अच्छी देखभाल कर रहे है¸ समय पर खाना¸ दवाई सब कुछ मिल रहा है तब व्यर्थ ही इस शांत पानी में कंकड़ क्यों फेंकना चाहते है आप?" वहाँ चाय लेकर बहू के आ जाने से सुधाजी थोड़ी शांत और सामान्य हो गई। काम में व्यस्त बहू को कुछ समझ में नहीं आया कि वहाँ क्या पक रहा है। वह रोते मुन्ने की आवाज पर अंदर चली गई।
"देखिये जी! आपको तो याद ही होगा कि हमारे सुरेश की बचपन में सर्द प्रकृति थी। मेरे लाख मना करने के बावजूद भी कि डॉक्टर ने मना किया है¸ आपकी माँ उसे चावल का मांड़ खिलाती ही थी ना? उस समय कितने असहाय हो जाते थे हम दोनों। आज भी सुरेश को थोड़ी सी हवा लगते ही सर्दी हो जाती है। क्या आप हमारे बेटे और बहू को भी वैसा ही असहाय बना देना चाहते है?" सुधाजी किसी उत्तर की अपेक्षा से बोली।
उनकी आशा के विपरीत श्रीवास्तवजी चाय वैसी ही छोडकर तेज कदमों से बाहर चले गये। सुधाजी सिर हाथ धरे बैठी रही। पता नहीं इस गीले में कहाँ चल दिये होंगे। कहीं मैंने कुछ ज्यादा ही तो नहीं कह दिया। इस तरह के विचार उनके मन में आते जाते रहे।
कुछ ही समय बाद श्रीवास्तवजी हाथ में एक बड़ी सी कागज की थैली लाए। बाहर से ही बहू को आवाज देने लगे "अरे रीना बिटिया जरा बाहर आओ। मैं सबके लिये भजिये ले आया हूँ चलो बाहर बैठकर खाएँगे।" उन्होने सुधाजी को शरारतपूर्ण दृष्टि से देखा। वे हँसती हुई चाय गरम करने अंदर चली गई।