बुत का दहन / राजा सिंह
अपने भारत में अधिकतर नाम उस व्यक्ति के पूरी तरह विपरीत होते हैं। मतलब 'आंख के अन्धे नाम नयनसुख' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। परन्तु इस कहावत के ठीक विपरीत एक लड़की ऐसी भी थी, जिसका नाम उसका ठीक पर्यायवाची था। उसका नाम कोमल था।
मैं, उससे पहले-पहल उसके घर में मिला था, प्रतिदिन एक घन्टे के अध्यापक की हैसियत से। पहले दिन जब उसे मेरे सामने बुलाया गया, उस समय मैं यह निर्णय नहीं कर पाया था कि वह मुझसे शरमा रही है, झिझक रही है या डर रही है, या फिर इन तीनों का मिला-जुला रूप थी। उस समय मुझे यह शक भी हुआ था कि यह बीमार तो नहीं हैं? उसकी गरदन झुकी हुयी, ऑंखें जीमन को सूॅंघती हुयी और पैरों के अंगूठे एक-दूसरे से संघर्ष करते हुये लग रहे थे। उसकी यह हालत देखकर मैं काफी असंयत हो गया था।
'ये तुम्हारे मास्साहब हैं। आज से तुम्हें पढ़ाया करेगें।' ये शब्द उस विशालकाय महिला ने कहें थे, जो उसकी मॉं थी। यद्यपि वह किसी भी तरह से उसकी मॉं नहीं लगती थी, न शक्ल-सूरत से, न नेचर से। कोमल की बाहृा स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया था।
'बैठो कोमल। मास्साहब से नमस्ते करो।' उसकी मॉं ने कहा। वह औरत हर वाक्य बड़े मुलामियत में कहती थी। परन्तु मैंने महसूस किया था कि उसके शब्दों में इतना वजन था कि कोमल के ऊपर हथौड़े की तरह चोट करते थे और आदेश की तरह पहुॅंचते थे। कोमल ने हल्के से बिना कुछ बोले व देखे नमस्ते किया था।
जब मैं कोमल को पढ़ाता था, उसकी मॉ हम दोनों की पहरेदारी किया करती थी। उसकी मॉ का शरीर ज़्यादा बड़ा नहीं था फिर भी उसका व्यक्तित्व इतना डरावना था कि उसकी परिस्थिति मैंने सदैव अपने ऊपर लटकती हुयी नंगी तलवार की तरह महसूस की थी। थोडे़ दिनों बाद जब उसे मेरे ऊपर कुछ विश्वास हो गया था, तभी बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए हटती थी। परन्तु मेरे ख्याल से शायद ही ऐसा दिन गया हो जब वह हम दोनों के बीच अनुपस्थिति रही हो। मैंने भी उसकी अनुपस्थिति के हर पल का भरपूर उपयोग किया था।
कोमल अक्सर चुप रहती थी। अपनी मॉं की अनुपस्थिति में भी निहायत कम बोलती थी। मेरे प्रश्नों का जबाब भी ज्यादातर हॉं या न में दिया करती थी। मैं जो भी पढ़ा देता था, पढ़ लेती थी। होम-वर्क देता था, कर देती थी। परन्तु खुद अपनी तरफ से कुछ भी न पूछती थी। मैं समझ गया था कि उसकी मॉं का आतंक उसका हरदम पीछा किया करता है, जो कि उसकी स्वतन्त्र हरकत की सोच में बाधा डालता था। इस आतंक ने उसे निहायत डरपोक व दब्बू बना दिया था।
कोमल का साथ भी किसी व्यक्ति को बोर कर सकता था। परन्तु मेरी स्थिति ठीक विपरीत थी। जितना ही समय बीतता जाता था मेरी जिज्ञासा बढ़ती जाती थी इस लड़की को समझने में। बहुत कोशिश के बाद कोमल मेरे सवालों का जबाब संक्षिप्त रूप में देने लगी थी। परन्तु अब भी उसका सर एवं ऑंखों झुकी रहती थी। उस पर उदासी ने स्थायी पड़ाव डाल रखा था। उसकी खामोशी मुरदाघर से ज़्यादा त्रासदायक महसूस होती थी। उसके और मेरे बीच सन्नाटे की पर्तें खिंची रहती थीं जिसको उसकी मॉ कभी-कभी फाड़ दिया करती थी।
एक दिन कोमल के हाथ सूजे हुये थे। उसने लाल दवा लगा रखी थीं। 'चोट कैसे लगी'। मैंने पूछा। उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उसके भाव हीन चेहरे पर सिर्फ़ उसकी पलकें चलीं और अपने हाथ का निरीक्षण करके वापस हो गयीं।
'मुझे बताओगी नहीं?' मैंने कुरूदने की चेष्टा की।
'मम्मी ने कल मारा था।' उसने, अपने उतर आये चेहरे को असफल ढकने का प्रयास करते हुए कहा। मैं अप्रत्याशित रूप से चिहुॅंक उठा। पहली बात मुझे उससे किसी उत्तर की आशा नहीं थी, फिर वह इतना सपाट एवं नंगा उत्तर देगी इसकी आशा तो कतई नहीं थी। उसका चेहरा फिर भावहीन था।
'क्यों? मैंने प्रश्न अति उत्साहित की स्थिति में पूछा था।' मैं यकीन करने लगा था कि लड़की मुझसे खुलने लगी हैं। मेरे इस प्रश्न ने उसे शायद असंमजस में डाल दिया था। उसकी गरदन और ऑंखें और ज़्यादा झुक गयी थीं। हाथ पेन से खेलने में व्यस्त हो गयें थे। खामोशी की पर्त दर पर्त चढ़ती जा रही थी। मैं अपना-सा मुॅंह लिए बैठा था।
'कुछ बोलोगी?' मैंने सन्नाटें की पर्त खोलने की कोशिश की।
'साफ करते वक्त कप-प्लेट टूट गये थे, इसलिए.' बोलने से पहले वह थोड़ा कसमसाई थी। बोलने की उलझन उसके चेहरे पर आ गई थी।
मैंने अपने चेहरे पर जान-बूझकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आने दी। हालांकि मैं काफी कड़वॉ हो गया था। मेरे सामने उसकी मॉं की स्पष्ट तसवीर आ चुकी थी। । मेरे सामने उस महिला का आकार बढ़ता जा रहा था। जितना उस औरत का आकार बढ़ता जाता था मेरे दिल में गॉंठें बढ़ती जा रही थी।
मुझे इस निरीह, बेबस लड़की पर दया आने लगी थी और फिर इस दया ने मुझे काफी अस्त-व्यस्त कर दिया था। मेरा हर पल कोमल के चिन्तन में व्यस्त हो गया था। मैं अपने आप को कोमल की गिरफ्त में महसूस कर रहा था। कोमल की बुझी-बुझी-सी ऑंखें, कोमल के अनकहे ओंठ, कोमल का भावहीन आकर्षक चेहरा और कोमल का परिवेश सभी मिलकर मुझ पर हमला कर रहे थे। मेरी समझ में इनसे बचाव का एक ही रास्ता था, कोमल का ध्यान उसकी मॉं से हटाकर अपने में समोहित कर लिया जाय, जिससे कि उसमें कुछ परिवर्तन आ सके. असल में, मैं काफी गहराई से महसूस कर रहा था कि अनजाने में ही, इस एकाकी लड़की के प्रति मेरे प्यार की कोमल भावनाएॅं पनपने लगी हैं।
अब मैं उसकी मॉं की अनुपस्थिति में पढ़ाई की बातें छोड़कर, इधर-उधर की बातें ज़्यादा करने लगा था। कभी उसकी प्रशंसा और कभी-कभी उससे सहानभूति भी दर्शाता था। परन्तु कोमल के चेहरे पर कोई खास परिवर्तन मुझे नहीं दिखायी पड़ रहा था। उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए एक दिन मैं जान-बूझके पढ़ाने नहीं गया। हालॉंकि यह मेरे लिए काफी कष्टकारक था, उसके बाद उसकी तरफ से किसी भी प्रकार की दरयाफ्त की गुंजाइश न पाकर मन कहीं ज़्यादा खिन्नता महसूूस करने लगा था। उसकी जगह उसकी मॉं ने अलबत्ता ज़रूर पूछा था जो कि मुझे काफी नागवार गुजरा था।
इस तरह की असफलताओं के बावजूद मैंने अपना प्रेम अभियान जारी रखा। मैं पढ़ाते-पढ़ाते उसकी कापी पर छोटी-मोटी प्रेम-मौहब्बत की टिप्पणी लिख देता था। दूसरे दिन वह स्याही से पुती मिलती थी। इस तरह की मेरी हरकतों से कोमल की नजरों एवं पलकों का तारतम्य ज़रूर टूट गया था। वह कभी-कभी चोर नजरों से हमें देखने लगी थी। उसकी बुझी ऑंखों में मुझे आमन्त्रण की चमक नजर आ रही थी। फलस्वरूप मैंने अति-उत्साहित की स्थिति में उसे प्रेम-पत्र दे डाला। जिस दिन मैंने लेटर दिया, मेरी रात आशाओं एवं निराशाओं के पालने में झूल रही थी। मेरी नींद ने कहीं अलग डेरा डाल दिया था।
दूसरे दिन कोमल के घर जाते मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे चोर, चोरी वाले मकान में दुबारा घुस रहा हो। मैं अपने आप से ही छिपता फिर रहा था। पढ़ाते समय मेरे हृदय में ज्वार-भाटा आ रहा था। कोमल को उस दिन ठीक से देखने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी। परन्तु कोमल ने मेरे अहसास को अपनी निजी मिलक्यित में प्रवेश नहीं करने दिया था या फिर उसकी मॉं के भय के विषाणुओं ने हमारी भावनाओं के कीटाणुओं को निगल लिया था और मुझे मिला था, वही अन्तहीन खाली सिलसिला ।
काफी दिनांें तक मैं बाहरी रूप में काफी शान्त रहा था, परन्तु मेरी सारी भावनाओं का केन्द्र थी—कोमल। मेरे दिल की उथल-पुथल बढ़ती ही जा रही थी। मैंने कोमल को फिर दूसरा-तीसरा और चौथा लेटर दिये—दो-तीन दिनों के अन्तराल पर। नतीजा वही था। कोमल की उलझन बढ़ी होगी और मेरी खीज बढ़ी थी। कोमल, कठोर-सी लगने लगी थी। आशाओं का फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था। अजीब-सी उलझनों ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उलझनों का चक्रव्यूह जटिल से जटिलतर होता जा रहा था।
जिस तरह मनुष्य एक झूठ को सही सिद्ध करने के लिए सौ झूठों का सहारा लेता है, उसी तरह मनुष्य एक गलती करने के बाद सौ गलती कर बैठता हैं और मुझे अपनी उलझनों का निजात अपना अन्तिम लेटर लगा। मैंने सोच लिया था कि अगर इसका जबाब न मिला तो मैं कोमल को अपनी बेहया वाली सूरत दिखाने उसके घर नहीं जाऊॅगा। इस लेटर में मैंने अपनी सारी परेशानियॉं लिखते हुए यह कहा था कि अगर तुम्हारे दिल में मेरे प्रति थोड़ी भी सहानुभूति होगी तो तुम ज़रूर जबाब दोगी। अन्त में, मुझे अब भी याद है एक शेर लिखा था—
' तुम्हें नाजनीन कहना मुझे अब नहीं गॅंवारा।
फूलों-सा दिल था मेरा, तूने पैरों से रौंद डाला॥'
अगले दिन वह अपने आप सिकुड़ के बैठी थी और मैं अपने आप में। हम दोनों के बीच रिक्तिता थी जिसे केवल कोमल भर सकती थी। मगर उसके स्टैचू वाले व्यक्त्तिव में अब भी कोई कमी नहीं नजर आ रही थी। मुझे अहसास हो गया था, नतीजा पूर्व परिचित होगा। परन्तु पता नहीं क्यों एक जिद-सी सवार हो गयी थी कि अब की बार कोमल की प्रतिक्रिया शब्दों में जानी जाय।
'तुमने मेरे किसी पत्र का जबाब नहीं दिया? यह बात कहने के लिए मैंने अपनी सारी इच्छा शक्ति लगा दी थी। मैं रूआंसा होने की स्थिति महसूस कर रहा था।' उत्तर ना पाना मैंने अपनी पराजय से जोड़ लिया था, इसलिए अवसाद की काली छाया मेरे चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।
उसने हल्के से गरदन उठाकर देखा था और थोड़ी देर तक उसकी ऑंखें मेरे पर स्थिर रहीं थी। फिर शीघ्र ही अपनी पुरानी अवस्था में थी। वह अपने हाथों को आपस में मसल रही थी।
'ठीक है! जैसी तुम्हारी मर्जी.' मैं पूरी तरह से हताश हो गया था। मैंने अपने को बुरी तरह टूटते महसूस कर रहा था और टूटन मेरे शब्दों में उतर आयी थी।
'कोमल! मैं तुम्हारी स्थिति में परिवर्तन देखने को तरस रहा हॅू और तुम्हें अपना परिवर्तन मंजूर नहीं। परन्तु इस तरह की कश्मकश की स्थिति मेरे लिये असह्य है। मैंने अपने जजबातों में तुम्हें काफी तंग किया है। हो सके तो माइण्ड न करना। हॉ, एक बात अवश्य है, आज के बाद, फिर कभी तुम्हें तंग करने को नहीं आऊॅगा।' यह कहकर मैं एक पराजित खिलाड़ी की भॉंति निढाल हो गया था।
मेरे आत्म-कथ्य से वह शायद पूरी तरह आहत हो गई थी। उसकी ऑखों में भर आये आंॅसू उसकी दास्ता कहने को आतुर हो उठे थे। कोमल केवल मम्मी ... ही कह पाई थी, उसके सब्र का बांध टूट पड़ना ही चाहता था कि उसने उसे रोक लिया। उसने फड़फड़ाते आये ओठों को दॉतों से दबा लिया। फिर भी उसकी बेबसी ऑसू बनकर कापी पर फैल गयी थी।
मैं मम्मी शब्द सुनकर तड़फ उठा था। इस शब्द ने मेरे सारे अस्तित्व को कुचल कर रख दिया था। हताशा इस कदर मुझ पर हावी हो गयी थी कि मैं उसी समय बिन किसी का ध्यान किये उठकर घर से बाहर हो गया था।
बाहर आकर मैंने महसूस किया कि कोमल का चेहरा काफी सूजा हुआ था। उसकी आंखों में स्याह सूरज उगा था। अपने अहं में, मैं इतना खो गया था कि यह बात मैंने नोट नहीं की थी, नहीं ंतो उसी समय पूछता। शायद उसकी माँ ने पिटाई की होगी। मगर किस कारण? और फिर मैं कारणों में उलझता गया।
कई दिनों तक मेरी स्थिति अपने आप में काफी अजनबी हो गई थी। मुझे सब कुछ निःस्वार नजर आ रहा था। मैं हरदम अपने को बौखलाया महसूस करता रहा था। कभी-कभी अपने को काफी अपराधी महसूस करने लगता था और कभी अपने को उचित भी। कई बार कदम अपने आप कोमल के घर उठ जाते थे, मगर उन्हें मैं जबरदस्ती वापस लौटा लाता था।
भटकन की यह स्थिति काफी दिनों तक रहती। अगर इसी बीच मेरी नौंकरी का काल-लेटर न आ गया होता। मैं देहरादून चला गया। करीब साल-भर बाद लौटकर आया। एक साल के लम्बे अन्तराल में भी कोमल की छवि ने मेरी पुतलियों का डेरा नहीं छांेड़ा था। उसके विषय में मैं जानने को काफी आतुर था और इसका एक ही रास्ता था, मामी के घर चला जाय। मामी का घर कोमल के घर के पास ही था और उसकी माँ का आना-जाना भी मामी के पास था।
मामी के घर में अप्रत्याशित रूप से कोमल की माँ मिल गयी। पहली ही नजर में मैंने उस महिला में काफी परिवर्तन महसूस किया था। मामी से थोड़ी देर इधर-उधर की बातें होती रही थीं। मेरा ध्यान कोमल के ऊपर रखा था। वह औरत भी हम लोगों की बातों से उदासीन थी। मुझसे रहा न गया और मैं पूछ बैठा आंटी आप लोग कैसे हैं? '
'हम लोग तो ठीक हैं, बेटा?' उसने भरी आवाज में कहा। उसका मुॅह लटक गया था। उसकी इस तरह की रोनी सूरत मेरे लिये काफी आश्चर्यजनक थी।
'और कोमल।' मैं अपनी बेचैनी दबा न पाया।
'वो, अब यहॉ कहॉ।' उसकी ऑखों में ऑसू भर आये थे। उसने धोती की छोर से ऑसू पोंछते हुए कहा 'मेरी फूल-सी बेटी को जालिमों ने मार डाला।' और वह सिसक पड़ी...देर तक सिसकती ही रही थी। मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरी जबान गूॅगी हो गयी थी। मैं निर्जीव की भांति सिर्फ़ उस औरत को देेख रहा था। एक लम्बे अन्तराल के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया।
छै-सात महीना पहले उसकी शादी की थी। बेटा, दहेज में देने को सब कुछ दिया था। एक तरह से कंगाल हो गई थी। मगर राक्षसों का मुॅह कौन भर पाया है? मेरी कोमल पर तरह-तरह के इल्जाम लगाकर सताया करते थे। कभी तीहमत लगाते थे कि कुछ काम करना नहीं आता। कभी कहते रोटी चुराके खाती है और कोई न कोई बहाना बनाकर उसकी सास और पति मारा-पीटा करते थे। क्या कोमल इसकी हकदार थी? इस पर भी जालिमों का मन न भरा तो उसे जलाकर मार डाला। मेरी बच्ची को कुत्तों ने मार डाला और कहते हैं कि खुद आग लगाकर मर गयी। ' वह औरत रोने लगी थी।
इधर उस औरत का प्रलाप जारी था, कोमल की अच्छाइयों से एवं उसके सुसराल वालों के कमीनापन से और मैं कोमल को अपने वादों के अंतरिक्ष में ढूॅढ़ रहा था। अपनी कल्पना में मैं कोमल को सताया जाना देखने लगा था। फिर मेरी सोच का दायरा कोमल की नियति पर आकर केन्द्रित हो गया था। क्या कोमल की यही नियति हो सकती थी? मैंने देखा, उस विशालकाय महिला का शरीर कोमल की स्थिति से कितना छोटा हो गया था। उसका दबंग व्यक्तित्व दूसरों की सहानुभूति अर्जित करने में खो गया था।
मैं काफी व्यथित एवं घायल हो गया था। मुझे लगा अगर मैं ज़्यादा देर यहॉ टिका रहा तो मैं मर भी सकता हॅू। मैंने दोनों से विदा ली और भारी मन और भारी कदमों से घर वापस लौट चला।