बुत / गरिमा संजय दुबे
"अरे तुम अभी तक तैयार नहीं हुई" घर में घुसते-घुसते मुझे घर के कपड़ो में ही देख इन्होने कहा। मैं थोडा रुआंसी होकर बोली-"आज मैं नहीं चलूं तो चलेगा"। ये बोले–"अरे अच्छा नहीं लगता है, कोई दूर के रिश्तेदार के यहाँ थोड़े ही जाना है कि मेरे चले जाने से काम चल जाएगा, सभी तुम्हारा भी पूछेंगे, चलो, जल्दी वापस आ जायेंगे"। मैं बेमन से तैयार होने चल पड़ी। इंदौर, सभी नाते रिश्तेदार ससुराल पक्ष के भी, मायके पक्ष के भी, फिर जान पहचान भी ढेर, इसलिए साल भर कुछ न कुछ आयोजन चलते ही रहते और शादियों के मौसम में तो कई-कई बार लगातार पंद्रह-पंद्रह दिन तक रोज़ शाम को बाहर जाना होता है। ऐसे में पेट बेचारे का जो हाल होता है वह तो ठीक, पर दिनचर्या पूरी तरह से अस्त व्यस्त और घर की हालत तो ऐसी हो जाती है मानो शादी इसी घर में हो रही हो। देर रात को वापस आना, थक हार कर सो जाना, न बच्चों की पढ़ाई हो पाती है न और कुछ। अगले दिन सुबह फिर कॉलेज–स्कूल की भागम भाग। उफ़, अब तो बुरी तरह थक गई हूँ रोज़ रोज बाहर जा-जा कर, पर जाना तो पड़ता ही है, आख़िर हम ठहरे सामाजिक प्राणी, खैर, हम सब तैयार हो कर चल दिए।
शादियों में हर जगह एक जैसा माहौल बस जगह और लोग बदल जाते। कुछ लोग सचमुच ही सहज रूप से खुश होते हैं, और कुछ सिर्फ़ खुश होने का दिखावा। भीड़ में कभी-कभी अकेला महसूस करती हूँ, जब देखती हूँ कि लोग दिखावा कर रहे हैं। हर कोई अपने आप को एक दुसरे से श्रेष्ठ बताने की होड़ में लगा होता है। कोई अपने कपड़ो के गुरूर में, कोईं अपनी सूरत के अहंकार में, कोई अपने बच्चों के विदेश में होने के घमंड में, कोई अपनी उपलब्धियों के सुरूर में, कोई अपनी प्रशंसा के मद में, हर कोई आत्म मुग्ध अवस्था में जीता-सा नज़र आता है। इस तरह के माहौल में एक घुटन-सी महसूस होने लगती है, सो कम ही शामिल हो पाती हूँ उनकी आत्म स्तुति में, तो अकेली ही प्लेट उठा कही खाना खा लेती हूँ।
यहाँ भी कुछ ऐसा ही था, मैं वैसे ही इधर उधर देख रही थी, तभी अचानक नज़र पड़ी एक बेहद खूबसूरत राधा कृष्णा के आदम कद बुत पर। पास जाकर देखने की इच्छा हुई, देखा तो लगा मानो मूर्तिकार के हाथों में स्वयं ब्रह्मा उतर आये हों। बिलकूल इंसानों-सी, लगा अभी बोल पड़ेगी, सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये पत्थर के बुत है। चेहरे की एक-एक भाव भंगिमा, अंग प्रत्यंग की घढ़न, जीते जागते इंसान-सी मोहक मुस्कुराहट, वास्तविक कपड़े, गहनों से सजे बुत बरबस ही सबका ध्यान अपनी और खींच रहे थे। पर जब मेरी निगाह बुत की आँखों पर पड़ी तो उन आँखों में थकान और उदासी नज़र आई। मैं सोचने लगी मूर्तिकार इतनी बड़ी गलती कैसे कर गया, चेहरे की मुस्कराहट के साथ आँखों की उदासी अटपटी-सी लगी। खैर, मैं वहाँ से हट गई और शादी के अन्य कार्यक्रमों का आनंद लेने लगी।
किसी भी शादी में कम से कम तीन चार घंटे लग ही जाते है। अचानक मेरा बेटा दौड़ता हुआ आया और कहने लगा-"मम्मा, मम्मा वह मूर्तियाँ, मूर्तियाँ नहीं हैं असली आदमी हैं, मैंने उनको जूस पीते देखा"। बच्चे और उनकी कल्पनायें, मैंने सोचा और कहा—"यूँ ही कुछ भी मत बोलो"। तो वह बोला–"चलो चलो ख़ुद अपनी आँख से देख लो"। मेरी ऊँगली पकड़कर लगभग खींचता हुआ वह मुझे बुत की तरफ़ ले गया। मैं देख कर दंग रह गई कि वास्तव में वे बुत नहीं थे, बल्कि इंसानों को ही राधा कृष्णा कि मूर्ति के रूप में खड़ा किया गया था। उन्हें जूस पीते देख मेरी तरह अन्य कईं लोगों को भी आश्चर्य हुआ और वे भी उन्हें हँसते हुए देखने लगे। इवेंट कंपनी का सुपरवाइज़र, जो सजावट का काम देख रहा था, वहाँ आया और उन बुत बने इंसानों को डांटकर कहने लगा–"मैंने तुमसे कहा था ना कि पूरी शादी में हिलना नहीं है, सब डेकोरेशन खराब कर दिया, अब पैसे काट लूँगा"। कृष्णा बना पुरुष लगभग गिड़गिड़ाता-सा बोला–"सर, प्यास लगी थी, इसलिए... "। सुपरवाइज़र बीच में ही दहाड़ा–"तुम्हारी प्यास के लिए पार्टी का डेकोरेशन बिगाड़ दे, चल जल्दी कर फिर से पोजीशन में आ जा"। बेचारे फिर से अपनी त्रिभंगी मुद्रा में आ गए। वही मुस्कुराता चेहरा और उदास आँखे। मैं सन्न रह गई जिस डेकोरेशन को पत्थर के बुत से पूरा किया जा सकता था, उनके लिए इंसानों का प्रयोग क्यों? एक महाशय उस सुपरवाइज़र से पूछने लगे-"भाई मज़ा आ गया, क्या नया आईडिया है, तुम्हारे दिमाग़ में कैसे आया? वह बोला-" सर, बस सोचा कुछ नया किया जाए, तो ये आईडिया दिमाग़ में आया तो शुरू कर दिया"। वह महाशय बोले-" दो महीने बाद मेरी बेटी की शादी है। वैसे तो सब तय हो गया है, पर तुम्हे अपना ये इंसानी बुत वाला डेकोरेशन हमारे यहाँ भी करना है। मेरे संम्बंधियों के लिए अच्छा सरप्राईज़ रहेगा"। फिर वे धीरे से बोले–" कुछ मॉडर्न बुत भी खड़े कर देना, समझ रहे हो ना? सुपरवाइज़र कुटिल मुस्कान के साथ बोला-"क्यों नहीं सर, पर चार्ज थोड़ा ज़्यादा लगेगा, दूसरी पार्टी के साथ मैनेज करना पड़ेगा"। वे बोले–"उसकी चिंता मत करो, बस तुम ये मैनेज कर लेना"। ये पता लगने के बाद कि सजावट के लिए पत्थर के बुत नहीं ज़िन्दा इंसान उपयोग में लाये गए हैं, सब बड़े कौतुक से उन बुत को देखने लगे और नए आईडिया कि तारीफ़ करने लगे। मैंने भी एक-एक बुत को ध्यान से देखा, सारे बुत इंसान ही तो थे, अलग-अलग भाव भंगिमा और कपड़े, पर एक बात सबमे समान थी, मुस्कुराता चेहरा और उदास आँखे, मेकअप से चेहरे की कमियाँ तो छुपाई जा सकती है पर दर्द के अहसास को कैसे छुपाया जा सकता है? मुझे लगा सारी दुनिया के सुख भोग लेने के बाद अमीर वर्ग, कुछ नया करके आनंद प्राप्त करने की कोशिश करता है, यही कोशिश इंसान को अजीब-अजीब तरीके सुझाती है, कईं बार भयावह भी। फिर इंसान भूल जाता है कि उसकी इस नए आनंद की भूख किसी के लिए तकलीफदेह भी हो सकती है। शायद इसे ही मनोविज्ञान में सेडेस्टिक प्लेज़र कहा जाता है। हिटलर ने इसी प्रवत्ति के कारण गैस चेंबर का निर्माण किया था, क्योंकि इंसानों की चीखें उसे आनंद देती थी।
अति संवेदनशीलता क्या दुर्गुण है? शायद, और मैं इसकी मरीज हूँ। मुझसे खाना नहीं खाया गया। याद आया स्कूल में जब कभी किसी को हाथ ऊँचे कर के खड़े रहने की सज़ा मिलती थी तो दस मिनट में ही हालत पतली हो जाती थी। और यहाँ ये इंसानी बुत लगभग पांच घंटे से विभिन्न मुद्राओ में खड़े है, बिना हिले। सोच कर ही मन अजीब-सा हो गया। जल्दी से लिफाफा दे कर मैं वहा से भाग जाना चाहती थी। हैरानी और दुःख से आँखे भर आई। गली-गली चौराहों चौराहों पर बुत के रूप में खड़े भगवानों के लिए हम कितने संवेदनशील होते हैं, उनका श्रंगार, उनका भोग, उनके कपड़े सब के लिए मरने मारने को उतारू हम अपने आस पास घूमते इंसानों को भी पत्थर का बुत मान लेते हैं। क्या कोरे पत्थर को पूजते-पूजते इन्सान भी पत्थर होता जा रहा है? पत्थर के बुत को तकलीफ न हो उसका पूरा ध्यान है हमें, पर इंसानों की तकलीफ से हमें कोई वास्ता नहीं। एक गरीब इंसान काम माँगने आया और उसे अपने नए इनोवेटीव आईडिया के लिए इस्तेमाल कर लिया गया। बिना हिले सात आठ घंटे खड़े रहने की सज़ा। पैसे की बहुत ज़रूरत होगी उसे जो उसने इस काम के लिए हाँ कह दी, लेकिन क्या कोई और काम नहीं दिया जा सकता था उसे? लेकिन उनकी ग़रीबी का फायदा उठाने वाले क्यों कर ऐसा सोचते, वे तो इस अनोखे कौतुक से लोगों का मनोरंजन कर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं। फिर कोईं भी वक़्त का मारा साथ आठ घंटे के लिए तैयार हो ही जायेगा। फिर करना भी क्या है? खड़े ही तो रहना है। राधा का झुका हुआ शरीर, कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा, नृत्य करती गोपियों के रूप में बिना हिले खड़े रहना भी कोईं कठिन काम है भला?
कईं बार किसी भिखारी को भीख माँगते देख और उसे भीख न मिल पाने पर, मैंने बचपन में किसी से यूँहीं कुछ माँग कर न मिल पाने की पीड़ा को महसूस करने की कोशिश की थी। किसी अंधे को देखकर, कभी अंधा बन उसकी तकलीफ को जानना चाहा था। जेठ की भरी दुपहरी में किसी बच्चे को नंगे पैर चलते देख, मैंने चप्पल उतार कर तपती सड़क पर पैर रख उस तपन को छूना चाहा था। फूटपाथ पर कड़कड़ाती ठण्ड में बिना किसी ओढ़ने के लोगों को सोते देख, घर में अपने पर से रजाई हटा कर ठण्ड सहन करने की कोशिश की थी, भूखे रह कर ग़रीबी और भूख को जानना चाहा था, लेकिन "जाके पैर न पड़े बिवाई, सो का जाने पीर पराई" की तरह एक नाकाम कोशिश के साथ मेरे मन ने कई बार मुझे रुलाया है। आज भी मैं असहाय हो जाउंगी, क्योंकि मैं जानती हूँ कि आज मैं घर जा कर क्या करने वाली हूँ। घर पहुँच कर नींद न आनी थी, न आई। सबके सो जाने के बाद मैंने दूसरे कमरे में जा कर राधा, गोपी के रूप में बिना हिले बुत बन कर खड़े रहने की कोशिश की, पर आधे घंटे से ज़्यादा खड़े नहीं रह पाई। शरीर की नसे दर्द से फटने लगीं आँखों से आंसू बहने लगे। मुझे उन सारे इंसानी बुत की आँखे नज़र आने लगीं जैसे मुझसे कह रही हो कि-"तुम इन्सानो ने हमें नकली बुत बना कर खड़ा कर दिया है, अब हमें सचमुच पत्थर के बुत बना दो, ताकि हम पर भी सोने चांदी, हीरे जवाहरातों की चढ़ावन आने लगे और फिर हमें कोई भूख, कोई दर्द, महसूस ही ना हो"।