बुद्धदेव की हड्डियाँ / रामचन्द्र शुक्ल
पेशावर के पास जो बुद्धदेव की हड्डीयाँ निकली हैं, उनका संक्षिप्त विवरण हम पिछले अंक में दे चुके हैं। अब झगड़ा इस बात का है कि ये हड्डीयाँ कहाँ रखी जाए। चीन, जापान आदि सभी बौद्ध देश इसे माँग रहे हैं। सरकार ने अभी तक कुछ भी निश्चित नहीं किया है। न जाने वह किस सोच विचार में पड़ी है। बुद्ध भगवान ने इसी भारतवर्ष में जन्म लिया था अत: उनकी निशानी को रखने का अधिकार जितना इस भूमि को है, उतना और किसी को नहीं। क्या हुआ जो हिन्दू लोग आज उनके मत को नहीं मानते, वे अपने दूसरे नौ अवतारों के साथ उनका भी नित्य उठ कर जय जयकार मनाते हैं। किसी दशा में हम भारतवासी उनको भूलना नहीं चाहते। यद्यपि हमारा जीवन जड़ और स्तब्ध हो रहा है तो भी अपने पूज्य अवतार की निशानी को अपनी ऑंखों के सामने से हटते देख हमारे हृदय पर कहाँ तक चोट न पहुँचेगी?
पंजाब की हिन्दू सभा ने इन हड्डीयों को भारतवर्ष ही में रखने के लिए गवर्नमेन्ट से प्रार्थना की है। दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट एसोसिएशन ने सभा करके पाँच सौ रुपये पेशावर में मन्दिर बनाने के लिए जमा भी कर दिए। और पूर्निया और भागलपुर के लोगों ने भी प्रार्थना पत्र भेजे हैं। कलकत्ता में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने भी भारतीय सरकार से पत्र द्वारा प्रार्थना की है कि वह शीघ्र इन हड्डीयों को भारतवर्ष के किसी मन्दिर में स्थापित कर दे। 21 सितम्बर को संध्या के समय पुणे वालों ने भी एक बड़ी भारी सभा करके यह मन्तव्य प्रकाशित किया,
“बौद्ध धर्म के संस्थापक श्री गौतम बुद्ध की हड्डीयाँ जो हाल में पेशावर में मिली हैं हिन्दुस्तान के बाहर न भेजी जाए, इन्हें बौद्ध गया में रखी जाए।”
बौद्ध धर्म को मानने वाली मिस सोफिया एगारस नाम की एक रूसी स्त्री ने भी बड़े लाट को इस विषय में एक जोरदार पत्र लिखा है। उसने लिखा है, “बुद्धदेव की अस्थि भारतवर्ष से बाहर न जानी चाहिए। बौद्ध धर्म की मुझे पूरी जानकारी है। इसी से कहती हूँ कि बुद्धदेव की जन्मभूमि भारतवर्ष में अस्थि की प्रतिष्ठा होने से समस्त बौद्ध प्रसन्न होंगे।”
भिन्न-भिन्न देश में रहने वाले बौद्धो को भी इन हड्डीयों के भारतवर्ष में स्थापित होने से प्रसन्न ही होना चाहिए। भारतवर्ष उनके आराध्यदेव की जन्म-भूमि और लीला-भूमि होने के कारण उनका तीर्थ है। फिर क्यों न बुद्धदेव का एक चिन्ह स्थापित कर उस तीर्थ की महिमा और भी बढ़ाई जाए। इस संबंध में सीलोन (लंका) के बौद्धो ने जो उदारता और धर्मनिष्ठा दिखलाई है वह प्रशंसनीय है। हाल ही में कोलम्बो नगर में इन हड्डीयों के विषय में विचार करने के लिए बौद्ध धर्मावलंबियों की एक बड़ी सभा हुई थी। बौद्धो के महागुरु सुमंगलाचार्य सभापति थे। कलकत्ता के सुप्रसिद्ध प्रोफेसर सतीशचन्द्र विद्याभूषण भी संयोगवश उपस्थित थे। बहुत देर तक तो यही विचार होता रहा कि ये हड्डीयाँ बुद्धदेव की हैं या नहीं।
सभापति ने पूछा, भ्राता ज्ञानेश्वर बताए कि ये हड्डीयाँ गान्धार में कैसे पहुँचीं?
ज्ञानेश्वर- महामान्य! हमारे प्रभु बुद्धदेव ने 2452 वर्ष हुए कि भारत के कुशीनगर स्थान में शाल वृक्ष के नीचे अपना मानव शरीर छोड़ा था। अन्त्येष्टि क्रिया के पीछे शव से चार दाँत और चार हड्डीयाँ निकाल ली गई थीं। उनमें से सात तो सात देशों को बाँट दी गईं और आठवीं नागा लोग ले गए। 250 वर्ष बाद महाराज अशोक ने फिर इन सातों अस्थियों को एकत्रित करके उनकी अलग अलग प्रतिष्ठा की और मन्दिर बनवाए। पेशावर के पास जिस प्राचीन मन्दिर में ये हड्डीयाँ मिली हैं वह अवश्य उन्ही मन्दिरों में से एक है।
इस पर प्रोफेसर सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने कहा कि हुएन-सांग के अनुसार यह पेशावर का मन्दिर महाराज कनिष्क का बनवाया हुआ है। अंत में सभापति ने फैसला किया कि अस्थियाँ वास्तव में बुद्धदेव की हैं और उनका आदर करना चाहिए।
यह सब हो चुकने पर सभापति ने पूछा, अब और कोई प्रश्न बाकी है?
धर्मपाल- हाँ महाराज! अस्थि कहाँ प्रतिष्ठित हों?
सभापति- माँगने वाले कितने हैं?
धर्मपाल- 16, और हड्डीयाँ 4 ही हैं।
देवमित्र- मनुष्यों में सामर्थ्य नहीं कि वह हमारे प्रभु की अस्थि को काट छाँटकर विभक्त कर सकें।
स्वर्णज्योति- चारों हड्डीयाँ भारतवर्ष में ही प्रतिष्ठित हों तो कैसा?
ज्ञानेश्वर- महामान्य, इस संसार में काशी और बौद्ध गया के अतिरिक्त सब स्थान परिवर्तनशील हैं। समस्त संसार के बौद्धो को अपने जीवन में एक बार काशी और गया की यात्रा करनी चाहिए। इससे इन्ही स्थानों में से किसी में प्रतिष्ठा होनी अच्छी है।....
(नागरीप्रचारिणी पत्रिाका, नवम्बर, 1909 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]