बुद्धिजीवी बनाम बुद्धूजीवी / राजेंद्र त्यागी
हमारे एक मित्र हैं, निर्मलचंद उदास। उदास उनका तक़ल्लुस है, स्वभाव से निर्मल है। निर्मल और उदास दोनों ही धाराएँ उनके व्यक्तित्व में ऐसे समाहित हैं जैसे इलाहाबाद में गंगा-यमुना का संगम। लेखन में रुचि रखते हैं। कई ग्रंथ लिख चुके हैं मगर अभी तक वे अपनी गिनती न तो साहित्यकारों में करा पाए हैं और न ही बुद्धिजीवियों में। उनका सारा लिखा पढ़ा काग़ज़ काले करना ही साबित हुआ। हाँ, जिस प्रकाशक के यहाँ वे प्रूफ रीडरी कर जीविकोपार्जन कर रहे हैं, उसकी गिनती अवश्य बुद्धिजीवियों में होती है। प्रकाशक महोदय साहित्य के क्षेत्र में भी दो-एक पुरस्कार हथियाने में सफल हो गए हैं।
एक लंबे अर्से से हम इसी उधेड़-बुन में थे कि आख़िर बुद्धिजीवी होने का फंडा क्या है। बैठे-ठाले एक दिन इस गुत्थी को सुलझाया हमारे पौत्र ने। खेल-खेल में उसने हमारी तरफ़ निशाना साधा और एक सवाल दागा, "दादाजी, अकबर बुद्धिजीवी था या बीरबल?" सवाल सुन हमने सोचा आज फिर उसे कोई बौद्धिक खुराफ़ात सूझी है। शारीरिक खुराफ़ात के साथ-साथ वह ऐसी खुराफ़ात अक्सर कर बैठता है। मगर जब उसे खुराफ़ाती दौरा उठता है तो हमारी तरह ज़मीन पर लकीरें नहीं, मशीन के आविष्कारकर्ता लियॉनार्द दा विंची की तरह काग़ज़ पर यांत्रिक आकृति बनाता है। वह हमारी तरह रेत के घर बना कर भी नहीं तर्क-वितर्क के ताने-बाने में घर के अन्य सदस्यों को फँसा कर अपना मन बहलाता है। यह उसके बुद्धिजीवी होने का प्रमाण है।
ख़ैर, उसका सवाल हमने सहज भाव से लिया और सहज भाव से ही उसका जवाब दिया, "बेटे, दोनों ही बुद्धिजीवी थे, बीरबल भी और अकबर भी।" पौत्र के चेहरे पर बुद्धिजीवियों के समान गंभीर मुस्कराहट के भाव उतर आए और अक्षरों को शब्दों की लंबाई तक खींचते हुए वह बोला, "दादाजी, दोनों कैसे हो सकते हैं? एक साथ दो बुद्धिजीवी, वह भी प्रेम भाव के साथ, असंभव!" पौत्र के तेवर देख हम समझ गए कि आज सहज भाव के आधार पर सहज ही पीछा छूटने वाला नहीं है, जवाब देना ही होगा। अत: हमने हनुमान चालीसा की तरह अकबर-बीरबल के किस्सों का मनन किया और बुद्धि पर जैक लगाते हुए जवाब दिया, "बीरबल!"
हमारा जवाब सुन वह खिल-खिलाकर हँस दिया और इस बार शब्दों को अक्षरों के आकार तक सीमित करते हुए बोला, "बुद्धू! अच्छा दादाजी, बताओ शेर ताकतवर होता है या रिंग मास्टर?" रिंग मास्टर-शेर, अकबर-बीरबल! उसकी पहेली अब हमारी बुद्धि के चोर दरवाज़े से बाहर झाँकने लगी थी। फिर भी बुद्धि के सभी खिड़की-दरवाज़े बंद किए और दोनों जीवों की ताक़त का अनुमान लगाते हुए नतीजे पर पहुँचे की ताक़तवर तो शेर ही होता है, आदमी की क्या बिसात? इसी अनुमान के आधार पर हमने शेर के सीने पर ताक़तवर होने का तमगा जड़ अपना जवाब उसकी तरफ़ धकेल-सा दिया।
हमारे इस बौद्धिक जवाब से खुश होकर उसने 'नासमझ' होने का गोल्ड मेडल हमारे सीने पर चस्पा कर दिया और अभिनेता नाना पाटेकर के लहजे में टेढ़ी उँगली से अपनी बुद्धि की चौखट खटखटाते हुए बोला, 'डैड, ताकत यहाँ होती है, बाहों में नहीं। शेर यदि ताकतवर होता तो उसके इशारे पर रिंग मास्टर डांस करता, रिंग मास्टर के इशारे पर शेर नहीं। कुछ समझे दादाश्री!' अब हम सहज भाव के साथ पूरी तरह फँस चुके थे। अत: आत्मसमर्पण भाव से बोले, 'समझ गए, पुत्र!' 'समझे! तो बताओ, अकबर व बीरबल में कौन बुद्धिजीवी था।' उसने सवाल फिर दोहराया।
इस स्तर तक आते-आते हम समझ गए थे कि पौत्र की निगाह में बुद्धिजीवी कौन है। मगर दादा होने के अहम भाव के कारण हम अकबर को बुद्धिजीवी कहने में अपनी हिमाक़त समझ रहे थे। हम यह भी जानते थे कि पौत्र का जवाब हमारे अहम को घायल कर देगा, मगर महसूस यह भी कर रहे थे कि पौत्र के अनुकूल सही जवाब अपने मुख से देने पर तो हमारा अहम मृत्यु को ही प्राप्त हो जाएगा। अत: सुगढ़ व्यापारी की तरह नफ़े-नुकसान का आकलन करते हुए हमने विनीत भाव से कहा, 'तुम्हीं बताओ पुत्र।' विजय भाव से उसने जवाब दिया, 'दादाजी, बुद्धिजीवी तो अकबर ही था, बीरबल नहीं।' पराजित घायल राजा के समान कराहते हुए हम बोले, "वह कैसे?"
शांत व शालीन भाव से वह बोला, 'बीरबल यदि बुद्धिजीवी होता तो वही महान कहलाता, अकबर नहीं, हिंदुस्तान का बादशाह बीरबल होता, अकबर नहीं। यह ठीक है कि बुद्धि बीरबल के पास भी थी, मगर नवरत्नों की बुद्धि का दोहन करने वाली बुद्धि किसके पास थी? अकबर के, है ना!' 'तो बुद्धि का कौन खा रहा था, अकबर ना! फिर बुद्धिजीवी कौन हुआ, अकबर या बीरबल, अकबर ना!'
बौद्धिक रूप से अब हम पूरी तरह मात खा चुके थे। डेढ़ बालीस्त के पैदने से छोरे ने हमारी बुद्धि का दिवाला निकाल हमारी हथेली पर जो रख दिया था। मात खाने के बाद हमने उससे पूछा, 'फिर बीरबल किस श्रेणी का जीव था।' वह शरम-ओ-लिहाज़ त्याग बोला, 'बुद्धूजीवी।' अब हमारी पूरी तरह शिष्यत्व अवस्था को प्राप्त हो चुके थे और उसी अवस्था की व्यवस्था का पालन करते हुए हमने पूछा, 'बेटे! मंत्री बुद्धिजीवी होता है या आई.ए.एस. अफ़सर?' उसका जवाब था, 'डैडी, बुद्धिजीवी होने के लिए पढ़ा लिखा होने ज़रूरी नहीं है।' उसने हमारे सवाल की गहराई नाप ली थी।
हमारा अगला सवाल था, 'देश में बुद्धिजीवी शिरोमणि किसे मानते हो?' वह बोला, 'पहले नंबर पर ठग सम्राट दादा नटवर लाल। ज़िंदगी भर बुद्धि का चमत्कार दिखाता रहा और अपनी जीविका चलाता रहा। वह यदि इस देश का विदेश मंत्री भी होता तो मियाँ मुशर्रफ़ के हस्ताक्षर से पाकिस्तान की बिल्टी भारत के नाम कटा देता और अखंड भारत का सपना साकार हो जाता। डैडी! दूसरे नंबर का बुद्धिजीवी था, चचा हर्षद मेहता। वह भी पूरी उम्र बुद्धि का ही खाता रहा। वह यदि वित्तमंत्री होता तो विश्व बैंक भारत में गिरवी रखा होता।"
अब हमारे पास न कहने के लिए कुछ बचा था और न पूछने के लिए। इलेक्ट्रानिक पीढ़ी के सामने चर्खा पीढ़ी पूरी तरह नतमस्तक थी।