बुद्धि का चमत्कार / जातक कथाएँ
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आज से कई सौ साल पूर्व की बात है। एक गाँव में रामसिंह नामक एक किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रहता था। रामसिंह अनपढ़ व गरीब था। मगर अपने बेटे सुन्दर को वह पढ़ा-लिखाकर किसी योग्य बनाना चाहता था ताकि उसका बेटा भी उसकी भाँति उम्र भर मेहनत-मजदूरी न करता रहे। अपने पुत्र से उसे बड़ी आशाएँ थीं। लाखों सपने उसने अपने पुत्र को लेकर संजो डाले थे। वही उसके बुढ़ापे की लाठी था।
उसका बेटा सुन्दर भी काफ़ी बुद्धिमान था। वह गाँव के पण्डित कस्तूरीलाल के पास जाकर शिक्षा ग्रहण कर रहा था। उसने भी अपने मन में यही सोचा हुआ था कि वह भी पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा और अपने मां-बाप के कदमों में दुनिया भर की सारी खुशियाँ और सारे सुख लाकर डाल देगा। इंसान यदि किसी लक्ष्य को निर्धारित कर ले और सच्चे मन से उसे पाने का प्रयास करे तो वह उसमें सफलता प्राप्त कर ही लेता है। ऐसा ही सुन्दर के साथ भी हुआ। वह अपनी कक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। सारे गाँव में उसकी ख़ूब वाहवाही हुई। अपने बेटे की इस सफलता पर रामसिंह का मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो उठा।
एक रात रामसिंह ने अपनी पत्नी से कहा-"सुन्दर की माँ! मेरे मन में सुन्दर को लेकर काफ़ी दिनों से एक विचार उठा रहा है।"
"कहो जी।" रामसिंह की पत्नी ने कहा-"ऐसी क्या बात है? क्या सुन्दर की शादी-ब्याह का विचार बनाया है?"
"अरी भागवान! शादी ब्याह तो समय आने पर हम उसका करेंगे ही, मगर अभी उसे अपने पैरों पर तो खड़ा होने दें। मेरा तो यह विचार है कि क्यों न हम उसे शहर भेज दें ताकि वहाँ जाकर कोई अच्छा-सा काम-धंधा सीखकर कुछ बनकर दिखाए। यहाँ गाँव में तो बस मेहनत-मजदूरी का ही धंधा है। पढ़ने-लिखने के बाद भी यदि उसे यही धंधा करना है तो पढ़ाई-लिखाई का लाभ ही क्या है? हमारा तो अपना कोई खेत भी नहीं है जिसमें मेहनत करके वह कोई तरक्क़ी कर सके।"
"मगर सुन्दर के बापू! सुन्दर ने तो आज तक शहर देखा ही नहीं है, हम किसके भरोसे उसे शहर भेज दें?" सुन्दर की माँ कमला ने कहा-"माना कि हमारा सुन्दर समझदार और सूझबूझ वाला है और शहर में वह कोई अच्छा-सा काम-धंधा तलाश भी लेगा, मगर शहर में टिकने का कोई ठिकाना भी तो चाहिए।"
"सुनो सुन्दर की माँ! शहर में मेरा एक मित्र है, हालांकि हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे से नहीं मिले, मगर फिर भी मुझे उम्मीद है कि यदि मैं सुन्दर को उसका पता-ठिकाना समझाकर भेजूं तो वह अवश्य ही उसे शरण देगा और रोजी-रोजगार ढूढ़ने में वह सुन्दर की सहायता भी करेगा।"
"बात तो आपकी ठीक है सुन्दर के बापू, लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा कि मैं अपने लाल को अपनी आंखों से दूर करूं।"
" ऐसा तुम अपनी ममता के हाथों मजबूर होकर कह रही हो, मगर दिल से तो तुम भी यही चाहती हो कि हमारा बेटा तरक्क़ी करे। इसलिए दिल को मज़बूत बनाओ। सुन्दर शहर जाकर कुछ बन गया तो हमारा बुढ़ापा भी सुख से गुजरेगा। '
और इस प्रकार रामसिंह ने अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर सुन्दर को शहर भेजने के लिए राजी कर लिया।
उसी शाम सुन्दर जब अपने यार-दोस्तों के साथ खेल-कूदकर घर वापस आया तो रामसिंह ने बड़े प्यार से अपने पास बैठाया और अपने मन की बात बता दी।
सुन्दर यह जानकर बहुत खुश हुआ कि उसका बापू उसे शहर भेजना चाहता है।
वास्तव में सुन्दर भी यही चाहता था कि वह किसी प्रकार शहर चला जाए और वहाँ कोई ऐसा काम-धंधा करे जिससे उसका परिवार सदा-सदा के लिए ग़रीबी से छुटकारा पाकर सुख भोगे।
अतः पिता का प्रस्ताव पाकर वह बड़ा खुश हुआ और बोला-"पिताजी! चाहता तो मैं भी यही था कि पढ़-लिखकर शहर जाऊँ और अच्छी-सी नौकरी करके घर की कमाई में आपका हाथ बटाऊँ, मगर कहीं आप मुझे शहर भेजने से इनकार न कर दें, यही सोचकर मैंने आपसे अपने मन की बात नहीं कही। मगर अब जब आप स्वयं ही मुझे शहर भेजने के इच्छुक हैं तो इससे अधिक ख़ुशी की बात मेरे लिए भला और क्या हो सकती है। मैं अवश्य ही शहर जाऊंगा।"
और प्रकार दूसरे ही दिन रामसिंह ने उसे दीन-दुनिया कि ऊंच-नीच समझाई और अपने मित्र का पता देकर शहर के लिए विदा कर दिया।
सुन्दर काफ़ी सूझबूझ वाला समझदार युवक था।
अपने माता-पिता के दुख-दर्द को वह भली-भांति समझता था। वह यह भी जानता था कि गाँव में रहकर तो उसका भविष्य अंधकार में ही डूबा रहेगा जबकि उसकी इच्छा बड़ा आदमी बनकर अपने माता-पिता को भरपूर सुख देना था।
अतः खुशी-खुशी वह शहर के लिए रवाना हो गया।
शहर आकर सुन्दर की आंखें चुंधिया गईं।
खूब भीड़-भड़क्का।
सजी-संवरी दुकानें।
तागें-इक्कों का आवागमन।
खैर, आश्चर्य से वह सब देखता सुन्दर अपने पिता के कथित दोस्त से मिलने चल दिया।
लेकिन जब वह पता के बताए स्थान पर पहुँचा तो पता चला कि उसके पिता का दोस्त रामचन्द्र तो न जाने कब का मर-खप गया और अब तो उसके परिवार का भी कोई अता-पता नहीं था। यह जानकर सुन्दर बहुत निराश हुआ और सोचने लगा कि अब क्या होगा?
आशा-निराशा तो जीवन में चलती ही रहती है, लेकिन सुन्दर उन युवकों में से नहीं था जो हताश होकर बैठ जाते हैं। उसमें हिम्मत और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था।
उसने अपने आपको दिलासा दिया और बोला-'बेटे सुन्दर! निराश होने से कुछ नहीं होगा। अब शहर आ ही गए हैं तो कुछ करके ही लौटेंगे। माँ और बापू ने मुझसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, मैं ही उनके बुढ़ापे की लाठी हूँ। अब शहर आ ही गया हूँ तो कुछ बनकर ही लौटूंगा। तुझे याद नहीं, गाँव में मास्टर जी कहा करते थे-हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा। यानी जो लोग हिम्मत करते हैं...उनकी मदद ख़ुद भगवान करते हैं।'
अपने आपको इसी प्रकार हौसला बंधाता हुआ सुन्दर पूछता-पूछता एक सराय में आकर ठहर गया।
उसने स्नान आदि से निवृत्त होकर थोड़ा आराम किया, फिर किसी नौकरी की तलाश में निकल पड़ा।
वह जहाँ भी नौकरी मांगने जाता, दुकानदार उसके बातचीत करने के ढंग और उसकी सूझ-बूझ से प्रभावित तो होता किन्तु कोई जान-पहचान न होने के कारण उसे नौकरी नहीं मिल पाती थी।
इसी प्रकार कई दिन गुजर गए।
सुन्दर गाँव से अपने साथ जो रुपया-पैसा लेकर आया था, वह भी लगभग समाप्त होने को था।
अब तो सचमुच सुन्दर को चिन्ताओं ने आ घेरा।
वह सोचने लगा कि काश! शहर में उसकी कोई जानकारी होती तो अवश्य ही उसे कोई नौकरी मिल जाती। एक दिन की बात है, सुन्दर थक-हारकर एक पेड़ के नीचे बैठा मौजूदा स्थिति के विषय में सोच रहा था। उससे कुछ ही दूरी पर राज कर्मचारी पेड़ की ठंडी छांव में बैठे गपशप कर रहे थे। अनमना-सा सुन्दर उनकी बातें सुनने लगा। एक दूसरे से कह रहा था-"कुछ भी कह भाई रामवीर! तू है बड़ा नसीब वाला। हम दोनों साथ-साथ ही राजदरबार की सेवा में आए थे, मगर तू तरक्क़ी करके राजाजी का खजांची बन गया और मैं रहा सिपाही का सिपाही। इसे कहते हैं तकदीर।"
"तकदीर भी उन्हीं का साथ देती है गंगाराम, जो सूझबूझ और हिम्मत से काम लेते हैं। मैंने अपनी सूझबूझ से कुछ ऐसे काम किए कि महाराज का विश्वासपात्र बन गया और उन्होंने मेरी ईमानदारी देखकर मुझे खजांची बना दिया।"
"न-न भाई, तू ज़रूर किसी साधु या फ़क़ीर से कोई मन्तर-वन्तर पढ़वाकर लाया होगा जो इतनी जल्दी इतनी तरक्क़ी कर ली। वरना मैं क्यों न किसी ऊंचे पद पर पहुँच गया? भइया, तू मुझे भी अपनी कामयाबी का राज बता।"
"तेरे जैसे लोग इसी चक्कर में रहते हैं कि पकी-पकाई मिल जाए और खा लें। अरे भाई मेरे, अगर इन्सान में हिम्मत हौसला, ईमानदारी साहस और सूझबूझ हो तो वह पहाड़ को खोदकर नदी बहा दे। देख, तू वह मरा हुआ चूहा देख रहा है ना!" रामवीर ने सड़क के किनारे पड़े एक मरे हुए चूहे की ओर इशारा किया।
"हां-देख रहा हूँ।"
"आने-जाने वाले लोग भी उसे देख रहे हैं और घृणा से थूककर दूसरी ओर मुंह फेरकर निकल रहे हैं।"
"रामवीर भाई! मैं तुझसे तेरी कामयाबी का रहस्य पूछ रहा था और तू मुझे मरा हुआ चूहा दिखा रहा है। ये क्या बात हुई?"
"गंगाराम! मैं तुझे कामयाबी की बाबत ही बता रहा हूँ। सुन, लोग उस मरे हुए चूहे पर थूककर जा रहे हैं। मगर कोई सूझबूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा। भइया मेरे, अक्ल का इस्तेमाल करने से ही इन्सान कामयाबी हासिल करता है। जन्तर-मन्तर से कुछ नहीं होता।"
"मैं समझ गया भाई रामवीर।" निराश-सा होकर गंगाराम बोला-"तू मुझे अपनी कामयाबी का राज बताना ही नहीं चाहता। खैर, कभी तो मेरे भी दिन बदलेंगे। आ, अब चलते हैं।"
इस प्रकार वे दोनों राज कर्मचारी उठकर चले गए।
वे तो चले गए। मगर खजांची रामवीर की चूहे वाली बात ने सुन्दर के दिमाग़ में खलबली-सी मचा दी। उसके दिमाग़ में रामवीर की कही बात बार-बार गूंज रही थी-'लोग उस मरे हुए चूहे पर थूक-थूककर जा रहे हैं, मगर कोई सूझबूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा...चार पैसा कमा लेगा...चार पैसे कमा लेगा।'
सुन्दर सोचने लगा-'खजांची की बात में दम है। जिस देश में मिट्टी भी बिकती हो, वहाँ कोई चीज बेचना मुश्किल नहीं-मगर इस मरे हुए चूहे को खरीदेगा कौन? कैसे कमाएगा कोई इससे चार पैसे?'
चूहे को घूरते हुए सुन्दर यही सोच रहा था, लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
तभी सड़क पर उसे एक तांगा आता दिखाई दिया। तांगे में एक सेठ बैठा था जिसने एक बिल्ली को अपनी गोद में दबोचा हुआ था। बिल्ली बार-बार उसकी पकड़ से छूटने की कोशिश कर रही थी।
अभी घोड़ा गाड़ी सुन्दर के आगे से गुजरी ही थी कि बिल्ली सेठ की गोद से कूदी और सड़के के किनारे की झाड़ियों में जा घुसी।
"अरे...अरे तांगे वाले, तांगा रोको। मेरी बिल्ली कूद गई।" सेठ चिल्लाया।
तांगा रुका और सेठ उतरकर तेजी से झाड़ियों की तरफ़ लपका।
"अरे भाई तांगे वाले, देखो! मेरी बिल्ली उन झाड़ियों में जा घुसी है। उसे पकड़ने में मेरी मदद करो।" सेठ झाड़ियों के पास जाकर बिल्ली को बुलाने लगा-"आ...आ...पूसी.।पूसी आओ।"
इसी बीच तांगे वाला और सुन्दर सहित कुछ अन्य लोग भी वहाँ जमा हो गए थे।
"अरे भाई! मैं किसी ख़ास प्रयोजन से इस बिल्ली को खरीदकर लाया हूँ। कोई इसे बाहर निकालने में सहायता करो।" सेठ बेताब होकर एकत्रित हो गए लोगों से गुहार कर रहा था।
जबकि झाड़ियों में घुसी बिल्ली पंजे झाड़-झाड़कर गुर्रा रही थी।
"देख नहीं रहे हो सेठजी कि बिल्ली किस प्रकार गुर्रा रही है।" एक व्यक्ति बोला-"हाथ आगे बढ़ाते ही झपट पड़ेगी।"
यह सब देखकर सुन्दर के मस्तिष्क में राजा के खजांची की बात गूंज गई-'कोई सूझ-बूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा।'
सुन्दर के मस्तिष्क में धमाका-सा हुआ और तुरन्त उसके मस्तिष्क में एक युक्ति आ गई। वह सेठ से बोला-"सेठ जी! अगर मैं आपकी बिल्ली को काबू करके दूं तो आप मुझे क्या देंगे?"
"आएं" सेठ जी ने तुरन्त सुन्दर की ओर देखा और बोला-"भाई! तू मेरी बिल्ली को काबू करके देगा तो मैं तुझे चांदी का एक सिक्का दूंगा।"
"चांदी का सिक्का।" सुन्दर के मुंह में पानी भर आया-"ठीक है, आप यहीं रुकिए, मैं अभी आपकी बिल्ली काबू करके आपको देता हूँ।"
कहकर सुन्दर दौड़ा-दौड़ा उसी दिशा में गया जिधर मरा हुआ चूहा पड़ा था।
' वाह बेटा सुन्दर! बन गया काम। उस खजांची ने ठीक ही कहा था कि यदि सूझबूझ से काम लिया जाए तो इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमाए जा सकते हैं।
सुन्दर ने मन-ही-मन खुश होते हुए एक रस्सी तलाश की और चूह की गरदन में फंदा डालकर झाड़ियों की ओर चल दिया।
"हटो-हटो-सब पीछे हटो।" भीड़ को एक ओर हटाता हुआ सुन्दर बोला-"बिल्ली अभी बाहर आती है।"
"अरे! मरा हुआ चूहा-यह तो वहाँ पड़ा था" किसी ने कहा।
दूसरा बोला-"भई वाह! इस लड़के ने तो मौके का फायदा उठाकर एक सिक्का कमा लिया।"
"इसे कहते हैं, बुद्धि का करिश्मा।"
"यह लड़का अवश्य ही एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।"
लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे।
सुन्दर झाड़ियों के करीब बैठ गया और रस्सी से बंधे चूहे को बिल्ली के सामने लहराने लगा।
मोटे-चूहे को देखकर बिल्ली के मुंह में पानी भर आया, एक नज़र उसने मैत्री भाव से सुन्दर की ओर देखा, फिर दुम हिलाती हुई धीरे-धीरे सुन्दर के करीब आने लगी।
सभी लोग उस्सुकता से यह तमाशा देख रहे थे।
और फिर कुछ ही पलों बाद चूहे के लालच में जैसे ही बिल्ली बाहर आई, सुन्दर ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और उसे गोद में उठा लिया।