बुद्ध, बारूद और पहाड़ / मधु कांकरिया

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उँगलियों के स्पर्श से सिंधु नदी को सहलाती हूँ। हमारे साझे इतिहास और संस्कृति की गवाह रही है यह नदी जो यहाँ भी मेरे मन की ही तरह कभी आवेग से तो कभी मंथर गति से उद्गम से संगम तक सुषमा बिखेरती दूधिया धार की तरह बह रही है। कभी चट्टानों पर प्रहार करती अपना रास्ता निकाल लेती हैं। तो कभी सिकुड़ती-फैलती घाटियों और वादियों से लुका-छिपी खेलती अंत में पाकिस्तान की और मुड़ जाती है। घूमर लेता मेरा मन भी पीछे की ओर मुड़ने को होता है। पर सामने खड़ा जादू जगाता विराट हिमालय! धूप और सूर्य किरणों की जुगलबंदी में पल पल रंग बदलते पहाड़ों का तिलिस्म, जैसे कोई बहुत बड़ा सतरंगी पाखी उड़ान भरते भरते पंख फुला कर बैठ गया हो वहीं।

जाने क्यों लगा जैसे मैं भी वही हूँ, वही आदिम पाखी जो इन परम क्षणों सब बंधनों को तोड़कर इन तिलिस्मी पहाड़ों पर पंख फैला कर बैठ गई हूँ और चाहती हूँ इन जादुई लम्हों को रबड़ की तरह खींच खींच अनंत तक ले जाना। पर तभी टूट जाता है कोई तार। ड्राइवर धाबा मुझे स्वप्नलोक से पथरीले यथार्थ पर ला पटकते हैं, 'देर हो रही है अब उठिए भी, गाड़ी मैं बैठिए, आज नीचे घूम लेते हैं।'

किसी लोक कथा सा लुभावना लेह-लद्दाक! सृष्टि का रहस्य! ईश्वर का रोमांच!

ओह नो! मैं बिखर जाती हूँ। कुछ दरकता है। समाधिष्ट देह से रेत सा कुछ झड़ जाता है।

क्यों टोका मुझे, थोड़ी देर यूँ ही बैठे रहने देते।

मैडम यहाँ हर ओर पहाड़ ही पहाड़ हैं। जी भर देख लीजिएगा। वैसे रखा क्या है इन पहाड़ों पर।

क्या? क्यों कहा ऐसा? पहाड़ ही तो है यहाँ की आत्मा है। लगा जैसे किसी ने नोच ही डाला हो मेरे सुख की खाल को।

होंगे। पर हमारे किस काम के ये पहाड़? न तो ऑक्सीजन देते हैं, न रोजगार, खेती भी इन पर नहीं कर सकते। घर तो इन पर बन ही नहीं सकता। उसकी आँखों की बाँबी से जाने कितने साँप सरसराए।

क्या है यह? दुख का पहाड़ या पहाड़ का दुख? ध्यान से देखती हूँ उसके युवा चेहरे की ओर। एक अशांत समुद्र! जाने कितने दिनों की जमा नींद आँखों में। ललाट पर चिंता और खीज की छोटी छोटी अनेक लहरें। फिर भी एक ऐसा पथरीला जिद्दी चेहरा जो अपने सत्य के प्रति समर्पित था और सत्य यह था कि उसकी सौंदर्य चेतना और सूक्ष्मता को जिंदगी की घिसघिस और भूख ने लील दिया था। पर यह भी आंशिक सत्य था, संपूर्ण सत्य यह था (जो मुझे बाद में पता चला था) कि पिछले दिन ही एक युवती ने आजाद तिब्बत की माँग करते हुए खुद को तिब्बत में आग की लपटों के हवाले कर दिया था। उसी का हाहाकार, गहन दुख, आक्रोश, अपमान और बेबसी की लहरें उसे रह-रहकर अशांत कर रही थीं।

मन किया पूछूँ उससे 'क्या यह दुख अपनी माटी से उखड़ने का है? या अपने तिब्बती भाइयों की सहानुभूति से उपजा दुख है? मन किया पूछूँ उससे क्या तुम तिब्बत से विस्थापित हो! पहाड़ों के बहाने क्या तुम अपने विस्थापन के दुख से उपजी झल्लाहट और हताशा को ही नहीं छिपा रहे? पर पूछना खतरे से खाली नहीं था। साथ में कई और लोग भी थे जिनके सुख में खलल पड़ने का डर था।

बहरहाल पहाड़, जिंदगी का ताप और विरोधी सत्यों के बीच बिखर गया सारा जादू।

लद्दाक के लेह शहर, (जो समुद्र स्तर से 11300 फीट की ऊँचाई पर है) में आज हमारा पहला ही दिन था। नए नए परिंदों की तरह हम बेताब थे ऊँची उडान भरने के लिए पर हमें हिदायत थी कि यहाँ चूँकि ऑक्सीजन का स्तर बहुत कम है इस कारण कम से कम चौबीस घंटे हम ऊँचाई पर नहीं जाएँ जिससे हमारा बॉडी सिस्टम यहाँ की आवोहवा का अभ्यस्त हो जाए। इस कारण हम सबसे पहले निकले लेह से 40 किलोमीटर दूर 'हॉल ऑफ फेम' देखने।

खूबसूरत घुमावदार रास्ते, कहीं यडपा के पेड़ों की कतार जो देखने में अशोक के पेड़ जैसे ही दीखते हैं तो कहीं सेव, अखरोट और खुबानी के पेड़। कहीं गेहूँ के लहराते खेत। कहीं पीठ पर बच्चा लादे खेत में काम करती लद्दाकी औरतें। बीच बीच में आर्मी के जवान, आर्मी वैन, आर्मी की चौकियाँ। एक जगह लिखा था 'यहाँ सैनिकों को चाय मुफ्त पिलाई जाती है'। थोड़ा आगे ही सेना का 'लद्दाक स्काउट रेसिडेंटल' का भव्य प्रवेशद्वार था जिसके ऊपर लिखा हुआ था, 'हमारा अनुशासन, हमारी पहचान'। आसपास कवायद करते फौजी। सामरिक दृष्टि से लद्दाक जम्मू-कश्मीर के बेहद संवेदनशील जिलों में से एक है क्योंकि एक तरफ इसकी सीमा चीन से तो दूसरी तरफ पाकिस्तान से मिलती है। इसलिए लद्दाक का अधिकांश सेना के नियंत्रण में हैं।

हर और पहाड़। जैसे पहाड़ों के बीच हो कोई बड़ी सी गुफा हो जिससे निकल रहे हों हम। कहीं पहाड़ों पर चिपके हुए छोटे छोटे पत्थर, शायद कभी यहाँ तक नदी रही होगी, बाद में नदी सूख गई होगी। छोटे छोटे घर जिनकी छतें यडपा पेड़ की लकड़ी से बनी हुई जिससे खून जमाने वाली ठंड में घर गर्म रह सके। जगह जगह खेतों में, घरों के बाहर गोंचा (यहाँ की परंपरागत वेशभूषा) पहने घास सुखाती हुई लद्दाकी औरतें। बहुत अरसे तक बीहड़ से पड़े लद्दाक में लेह-श्रीनगर हाइवे के बाद थोड़ी हरियाली आई। वहाँ से सब्जियाँ आनी शुरू हुईं तो यहाँ के लोगों ने भी सब्जियाँ उगानी सीख ली। लद्दाख में चार महीने अक्टूबर से जनवरी तक इतनी भयंकर ठंड रहती है, बर्फ गिरती है कि जन जीवन एकदम ठप्प पड़ जाता है, लोग घरों में कैद हो जाते हैं, यातायात और टूरिज्म ठप्प हो जाता है। इस कारण जानवरों के लिए अभी अगस्त महीने से ही घास सुखाई जा रही थी, खाने पीने की समूची व्यवस्था इन गर्म दिनों में ही कर ली जाती है। ठंड के चार महीने जब झील, नदी और तालाब सब बर्फ बन जाते हैं तब प्रौढ़ लद्दाकी जमकर पूजा-पाठ करते हैं तो नई उम्र के युवा आइस हॉकी खेलते हैं।

देखते देखते धूप बाघ की तरह झपट्टा मारने लगी थी। पल पल परिवर्तित मौसम लेह का। जो लेह सुबह चिल्ल ठंडी थी, तेज हवाओं का मौजघर थी वह अब तपने लगी थी। रास्ते में मैग्नेटिक हिल आया। यहाँ गाड़ी का स्पीड मीटर जीरो था लेकिन गाड़ी फिर भी चल रही थी। अब हम नानक हिल और गुरुद्वारा पत्थर साहिब पर थे जो आर्मी के द्वारा ही संरक्षित और निर्मित थी। शायद आर्मी के मनोबल को बढ़ाने के लिए ही इसे बनाया गया था जहाँ दीवारों पर अतीत की खुशबू बिखेरते सिख गुरुओं की कुर्बानियों के चित्र अंकित थे। किंवदंती है कि 1517 में सुमेरु पर्वत पर उपदेश देने के बाद नेपाल, सिक्किम, तिब्बत होते हुए चारकेट के रास्ते गुरु नानक यहाँ पधारे थे और उन्होंने यहाँ के लोगों को एक खूँखार राक्षस के जुल्मों से मुक्ति भी दिलवाई थी। लेह में गुरु नानक को 'दलाई लामा 'की तर्ज पर लद्दाकी नानक लामा कहते हैं। इन्हीं रास्तों पर बौद्ध मठों के झुंडों के बीच इकलौता संतोषी माँ का छोटा सा आलयनुमा मंदिर देख सुखद आश्चर्य भी हुआ। लद्दाक की जनसंख्या का 81 प्रतिशत बुद्धिस्ट है। 7वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से यहाँ बौद्ध धर्म फलफूल रहा है। 1947 के बाद लद्दाक को भारत में विलय कर उसे जम्मू और कश्मीर के एक जिले के रूप में मान्यता दे दी गई। इससे पूर्व लद्दाक का इतिहास अनेक उतार चढ़ाव भरा रहा। कभी यह स्वायत्त रहा तो कभी अधीन रहा।

पत्थरों और पर्वतों से होते हुए अब हम निभु में संगम पर थे जहाँ जन्गस्कार नदी सिंधु नदी से मिलती है। पानी भी यहाँ साफ दो रंगों में बँटा हुआ था। सामने हिरणों का एक झुंड सिंधु नदी में पानी पीने के लिए आया हुआ था। यहाँ पहाड़ थोड़े अलग लग रहे थे। आधे चिकने आधे मगरमच्छ की पीठ की तरह खुरदुरे। युवकों की कई टोलियाँ यहाँ राफ्टिंग के लिए आई हुई थी। अचानक कुछ हुड़दंग सा हुआ, निगाह पड़ी युवा टोली के एक लड़के पर जिसने यहाँ के लोगों की सहानुभूति में 'फ्री तिब्बत' लिखी हुई टी शर्ट पहनी हुई थी। उसने जैसे ही सुना कि यहाँ से सिंधु नदी पाकिस्तान की ओर मुड़ती है, युवा दोस्तों के बीच हीरो बनते हुए उसने अपना मुँह पाकिस्तान की दिशा में घुमाया। अपनी जिप खोली और धार में धार मिला दी - जा मेरी धार उस पार, गंदा कर उस दुश्मन को। शायद सीमावर्ती इलाके में आते ही हम पर देशभक्ति का हाई पॉवर नशा छा जाता है। इसे तीव्रता से महसूसा मैंने आर्मी द्वारा शहीदों की याद में बनाए गए 'हॉल ऑफ फेम' में।

'हाल ऑफ फेम' सद्य अतीत के उन तहखानों में उतार गई हमें जहाँ उन अल्पज्ञात या अनाम महानायकों की कुर्बानियाँ दफन थी जो इतिहास में कहीं नहीं थे पर जिनसे इतिहास था। जो सरकारी दस्तावेजों में, विज्ञापनों में, सरकारी इमारतों में, सड़कों के नामों में, पाठ्यक्रमों में कही नहीं थे पर जिनकी वीरता, निर्भीकता आज भी जनमानस की स्मृतियों में धड़कती थी। हम भूल न जाएँ उनको इसलिए आर्मी की तरफ से विस्मृति के विरुद्ध स्मृति का यह एक विनम्र प्रयास था।

प्रवेश द्वार में सबसे ऊपर माखन लाल चतुर्वेदी की पंक्तियाँ अंकित थीं 'मुझे तोड़ लेना वनमाली / उस पथ पर तुम देना फेंक / मातृभूमि पर शीश झुकाने / जिस पथ जाएँ वीर अनेक'। उसके नीचे अमर ज्योति ज्वाला का चित्र बना हुआ था। पूरे हाल में लद्दाक की सांस्कृतिक झलक और इतिहास के साथ साथ एक गरिमायुक्त शांति और भावभीनी लहर थी उन शहीदों के प्रति जो चीन और पाकिस्तान के साथ हुए किसी भी युद्ध में देश के काम आए थे। एक पूरी दीवार पर सियाचिन के जांबाज शहीदों की तस्वीरें थी। तो एक पूरी दीवार के बीचोंबीच लिखा हुआ था 'Lest We forget' (अगर हम भूल जाएँ) उसके नीचे उन 13 शहीदों की तस्वीरें थीं जो फायरिंग स्क्वाडों, फूटते बमों और बारूदी धमाकों के बीच अपनी कहानी आप लिख गए थे। हर तस्वीर के नीचे बत्ती जली हुई थी। जिनमें कुछ लद्दाक स्काउट्स थे तो कुछ राजपुताना राइफल्स के थे जिन्हें वीरोचित कार्य के लिए महावीर चक्र या परम वीर चक्र दिए गए थे, कइयों को मृत्युपरांत दिए गए थे।

माटी के गौरव के लिए मिट चुके जिन कुछ नामों को लद्दाक में सबसे अधिक सम्मान और भावभीनी उदासी के साथ याद किया जाता है उसमे सबसे आगे है मेजर शैतान सिंह का नाम। जोधपुर के पास के एक छोटे से गाँव में जन्में मेजर शैतान सिंह और उनकी 13वीं कुमाऊँ पलटन त्रिशूल पहाड़ियों की ओट में 17800 फीट ऊँचे रीजेंगला दर्रे पर डटी हुई थी। वह 18 नवंबर 1962 का दिन था। तापमान शून्य और माइनस 15 डिग्री के बीच झूल रहा था। ठंडी बर्फीली हवा और सुबह 4 बजकर 35 मिनट पर चीनी आक्रमण। ठंड ऐसी जानलेवा कि हाथ बाहर रह जाए तो सुन्न पड़ जाए। पर मेजर और उनकी टीम खून के आखिरी कतरे और आखिरी गोली तक लड़ते रहे। कोई भी लौट कर नहीं आया। एक शहीद जवान के हाथ में हथगोला फँसा हुआ था। कइयों के हाथ ट्रिगर पर थे। यानी सब लड़ते लड़ते शहीद हुए थे। उस समय के युद्ध प्रवक्ता वी.जी. वेर्गीस ने लिखा है कि 'भारतीय फौज के पास गरम कपडे भी पूरे नहीं थे। उनकी जैकेट भी कोल्ड प्रूफ नहीं थी। वे मामूली जैकेट और 'थ्री नोट थ्री' (1945 में निर्मित दुसरे विश्व युद्ध के हथियारों)से लड़ रहे थे जबकि चीनी सेना के पास Ak 47 था।और तो और हमारी सेना को ढंग का एक जनरल तक नसीब नहीं हुआ था। जेनरल बी.एम. कॉल को युद्ध का उतना अनुभव भी नहीं था क्योंकि वे फाइटिंग कोर के थे ही नहीं। नेहरू जी के रिश्तेदार होने के चलते कई योग्य अफसरों को रोककर उनकी पदोन्नति की गई थी। शैतान सिंह के पास गोलियाँ तक कम पड़ गई थीं।'

मेजर शैतान सिंह के पास ही बहादुरी और निर्भीकता की मिसाल नायाब सूबेदार सोनम स्तोवेडन की मूर्ति थी। वे स्थानीय लद्दाकी थे। 1962 के चीनी हमले में वे 17000 फीट की ऊँचाई पर दौलत बंग की पुरानी एकांत चौकी पर तैनात थे। चीन ने इस चौकी पर हमला किया। चौतरफा बमों और गोलियों की बारिश के बीच भी वे एक बंकर से दूसरे बंकर जा जा कर अपने जवानों को वीरता से लड़ने की प्रेरणा देते रहे। मुख्य अधिकारी और उनकी सारी यूनिट खून की आखिरी बूँद और आखिरी साँस तक लडे। 22 अक्टूबर 1962 को वे भी पूरी यूनिट के साथ शहीद हुए।

इतिहास किसी गिद्ध की तरह कंधे पर बैठ मेरी गर्दन दबोच रहा था। क्या यह युद्ध टाला नहीं जा सकता था? 1950 में कम्युनिस्ट चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद भी नेहरू जी ने चीन के साथ सीमा विवाद पर संवाद करना जरूरी क्यों नहीं समझा? जैसे बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ ने सत्ता में आते ही विवादित भूमि कम्युनिस्ट चीन को ले देकर झगड़ा सलटाया क्योंकि यदि आप पड़ोसी से ही झगड़ते रहेंगे तो उन्नति कैसे करेंगे। पर नेहरू जी में न केवल दूरदर्शिता का वरन कोई भी कड़ा कदम लेने की इच्छाशक्ति का भी अभाव रहा। नतीजा? न केवल हमने 42,750 वर्ग फीट जमीन खोई, न केवल अपने 1383 वीर सैनिकों की बलि दी, 1696 सैनिक लापता हुए और 3986 जवान जिल्लत भरी नारकीय परिस्थितियों में युद्ध बंदी का जीवन जीने को बाध्य हुए, वरन आनेवाली पीढ़ी को भी हमेशा के लिए समस्याग्रस्त देश सौंप दिया, भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को खड़ा करने में चीन को उकसाया। शायद ही दुनिया में कोई ऐसा देश हो जिसके अपने सभी पड़ोसी देशों से रिश्ते इतने खराब हों। नतीजा? जितनी उर्जा पड़ोसी दुश्मनों से निपटने में लग रही है। जिस कदर डिफेन्स का खर्च महँगाई और अप्रत्यक्ष कर के रूप में देश की गरीब जनता की कमर तोड़ रहा है उतने में तो भारत का पूरा पूर्वोत्तर विकसित हो सकता था। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से लड़ा जा सकता था।

अवसन्न मन प्रश्नों की मरुभूमि में जाने कब तक खामोशी के बुर्ज पर अकेला भटकता रहा - इतिहास के ये बुझे हुए चिराग मुझे बेचैन कर रहे थे। कब तक? कब तक हम करते रहेंगे वतन के रखवालों की बेकद्री! याद आए, 26/11 के NSG कमांडो सुरेंद्र सिंह - आतंवादियों से लड़ते हुए एक पैर में गोली खाई। एकदम सामने बम फूटने की वजह से सुनने की क्षमता भी खो बैठे। पर हमारी सरकार, मेडल देना तो दूर, अयोग्य घोषित कर नौकरी से ही निकाल दिया। अपने खर्च से अपना इलाज कराया। पेंशन पाने के लिए चार साल तक भटकते रहे।

अब चलें। बड़े भाई उठने का आग्रह कर रहे थे।

मैं इतिहास से बाहर हुई।

रात !

तारों भरी आदिम रात और धरती पर सोई चाँदनी!

लेह का चाँद बड़ा था! तारे ज्यादा चमकीले और धरती के करीब थे!

चाँदनी में नहाई मैं कभी जाग जाग कर सोई तो कभी सो सो कर जागी।

क्योंकि अगले दिन हमें लेह का सबसे बड़ा आकर्षण, एशिया की सबसे ऊँची खारे नीले पानी की 'पैन गोंग' लेक जाना था। हम थोड़े आशंकित भी थे। पैनगोंग तक पहुँचने के लिए हमें चांगला से होकर गुजरना था जो सी लेवल से 17586 फीट की ऊँचाई पर थी। इतनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन की कमी के चलते कई लोगों की तबियत गंभीर रूप से खराब हो गई थी। हमने भी सावधानी के तौर पर ऑक्सिजन सिलिंडर और कुछ आवश्यक दवाइयाँ साथ में रख ली थी। 1962 के युद्ध के बाद 4200 किलोमीटर लंबी इस झील का सत्तर प्रतिशत चीन के पास चला गया था।

पूरा सफर बहते झरने की तरह रहा। दृश्यों की भिन्न भिन्न धाराएँ एक प्रवाह में बहती रहीं। कहीं पहाड़ों को काट काट कर गाँव गाँव में बनी मोनेस्ट्री (गोंपा, बोध मठ), कहीं नुक्कड़ नुक्कड़ पर बने धर्म चक्र, चप्पे चप्पे पर परिजनों की यादों में बने मंत्र सिंचित स्तूप, तो कहीं पहाड़ पहाड़ पर उड़ती लहराती रंग बिरंगी धर्म पताकाएँ, ध्यान केंद्र, हवा में गूँजते मंत्र 'ओम मणि पद्मेहू' हर मुख्य दरवाजे पर बना ड्रैगन, बाजार बाजार में बिकती बुद्ध प्रतिमाएँ और राह चलते लामा (बौद्ध संन्यासी) हमें यह भूलने ही नहीं दे रहे थे कि हम बुद्ध और लामाओं के देश में हैं।

पहाड़ की विशाल देह पर दीमक की तरह रेंगते जलेबी से घुमाबदार सँकरे खतरनाक रास्ते। जगह जगह BRO द्वारा टँगी हुई मोहक काव्यात्मक चेतावनियाँ - 'फास्ट वोंट लास्ट', 'नो हरी, नो वरी', 'थिंक एंड ड्राइव, स्टे अलाइव' आदि। रकम रकम के अद्भुत पहाड़। पहाड़ नहीं पहाड़ों के झुंड। एक जगह देखा एकदम सफेद और आसमानी रंग के पहाड़ जैसे आसमान और बादल ही पहाड़ बनकर बैठ गए हों। एक पहाड़ ऊपर से भूरा तो नीचे की तरफ एकदम चंदन के रंग का। कुछ पहाड़ ऐसे जैसे कैडबरीज पिघला कर चिपका दी हो। हर पहाड़ अपनी सुंदरता में अनूठा। बीच बीच में मिलते रहे लंबे लंबे काले बालों वाले याक, खरगोश के आकार के हलके भूरे कुत्ते जिन्हें मारमूट कहते हैं, पहाड़ी घोड़े, यहाँ की ठंड से निपटने के लिए लंबे बालों वाले कुत्ते और ढेरों भेड़ जिनकी बढ़ी हुई ऊन गर्मी आते ही काट ली जाएगी जिस ऊन से यहाँ की मशहूर पश्मीना शाल बनती हैं।

कारु गाँव में एक घर के बाहर लिखा था, 'हॉट वाटर एट एनी टाइम'।यह सूचना सैलानियों विशेषकर विदेशी सैलानियों के लिए थी। अतिरिक्त आय के लिए लद्दाकी सैलानियों को अपने घर ही ठहरा लेते हैं। कहीं और लिखा था 'सेव ट्रीज'। यहाँ हरियाली अन्य पर्यटक स्थलों की अपेक्षा बहुत कम हैं। बर्फ गिरने के चलते यहाँ पेड़ साल में सिर्फ छह महीने ही बढ़ते हैं। खेती भी यहाँ सिर्फ गेहूँ की ही होती है, क्योंकि गेहूँ चार महीने ही लेते हैं। अधिकांश सूचना अंग्रेजी में क्योंकि यहाँ की स्थानीय लद्दाकी सैलानियों के पल्ले नहीं पड़ती। वैसे टूरिज्म के चलते लद्दाक की स्कूलों में हिंदी एकदम शुरू से ही पढ़ाई जाती है।

अब हम पथरीले लद्दाक के साथ साथ हरियाले लद्दाक में सतक्ना पर थे जहाँ अक्टूबर 2010 में लद्दाकियों ने एक ही घंटे में सबसे अधिक पेड़ लगाकर गिनीज बुक में रिकॉर्ड बनाया था। ड्रंकचेम नामक लामा की प्रेरणा से हुआ था यह सब। लामाओं के प्रभाव में सारे लद्दाकी एकजुट होकर लग गए थे पेड़ लगाने में। साथ साथ ही बह रही थी मोती की आव से सफेद सफेद सफेद पत्थरों के बीच दूधिया चाँदनी बिखेरती शायोक नदी (यह भी नुंब्रा होते हुए पाकिस्तान जाती है)। मेरे मन में भी चाँदनी बिखेर रही थीं निर्मला पुतुल की पंक्तियाँ, 'उन हाथों में मेरा हाथ कभी न देना / जिन हाथों ने कभी एक पेड़ भी न लगाया हो।

हम बहुत ऊपर आ गए थे। रास्ते और ज्यादा सँकरे और खतरनाक हो गए थे, दोनों और चांगला पहाड़ों के बीच से निकलती इंच इंच धचके खाती बढ़ रही थी हमारी गाड़ी। एक इंच इधर-उधर हुए कि गाड़ी सीधी रसातल में। खतरे से ध्यान हटा कर मैं नीचे घाटियों में बहते जीवन को देखने लगी। कहीं पाइप से पानी भरते पहाड़ी तो कहीं खच्चरों पर सामान ढोते लद्दाकी। कदम कदम पर BRO की चेतावनियाँ,' 'बी मिस्टर लेट, देन लेट मिस्टर', 'जीवन छोटा है, इसे और छोटा मत करो,' हमें डरा रही थी कि खतरा सचमुच है।

और देखते देखते आ पहुँचा, चांगला। हम यहाँ 17,586 की ऊँचाई पर थे। यह पूरा इलाका आर्मी के नियंत्रण में था। बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था 'Himayank Welcomes on World Third Highest Pass Changla' पहाड़ी हवाएँ, पहाड़ों के पीछे से झाँकती चाँदी की पर्वत श्रृंखलाएँ, ऊँचाइयाँ, उड़ती रंग बिरंगी पताकाएँ, दूर से आती मिली जुली इनसानी आवाजें...। सब मिलकर एक रहस्यमय वातावरण का निर्माण जैसे कर रहे थे। मैं अभिभूत थी। विराटता और विशालता मुझे छूने लगी थी। सीमाएँ टूट रहीं थीं। जाने कैसी लपट थी उन लम्हों में कि मैं पिघल रही थी। भीतर का सारा कादा-कचरा बह रहा था।

मन किया कल्पना की गोद में सिर रखकर ऐसे ही पड़ी रहूँ अनंत तक और वक्त हवाओं की तरह मेरे ऊपर से बह जाए। लेकिन घड़ी देख चलने वाले धाबा जी ने फिर ठेला मुझे - अधिक देर मत ठहरिए, तेज ठंड और कम ऑक्सीजन कहीं... लीजिए कहवा पीजिए (केसर, चायपत्ती और चीनी से बनी कश्मीरी चाय)। कड़कती ठंड में कहवा के गरम गरम घूँट पीकर आत्मा तृप्त हुई।

हम अब नीचे की ओर। धाबा जी ने राहत की साँस ली कि किसी की तबियत खराब नहीं हुई। बड़े भाई ने थोड़ी देर के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर नाक में लगा लिया था। खतरा खत्म हुआ क्योकि आगे की यात्रा नीचे ढलान पर थी।

एक के बाद एक आश्चर्य देती प्रकृति! घाटी में चाँदनी सी चमकती सफेद बालू। ऊपर जरूरत से ज्यादा नीला आसमान। बीच बीच में खिल रहे थे धूप के फूल। घाटी में कहीं कहीं उड़ रहीं थीं खूबसूरत सफेद-काली मैकपाई चिड़िया जिसे यहाँ की भाषा में चाठागो कहते हैं। एकाएक ड्राइवर धाबा जी फूटे, 'वो देखिए, द्रुक पद्मा लोटस स्कूल, यहीं हुई थी 'थ्री इडियट्स' की शूटिंग। मेरे भीतर भी तितलियाँ उड़ने लगी - इसका मतलब अब हम पैनगोंग से बहुत दूर नहीं हैं।

किसी परिकथा की तरह खूबसूरत पैनगोंग। प्रदूषण मुक्त पानी एकदम नीला। कहीं गहरा नीला तो कहीं हल्का नीला। पृष्ठभूमि में सोना रंग हिमालय और ऊपर कुछ कुछ नीला आसमान। लोग दनादन तस्वीरें खींच रहे थे। सौंदर्य के उस अनूठे घोसले में दुबकी विस्मित विमुग्ध मैं निर्निमेष देख रही थी - शांत बहती झील को, झील में तैरते बर्फ से सफेद बगुलों को, झील की सतह पर गिरती सूर्य किरणों को। उन उद्दात पलों जिंदगी के डर, महानगर के बौनेपन और टुच्चेपन से सर्वथा मुक्त थी मैं। मैंने चाहा कि इन उद्दात पलों मैं कुछ भी नहीं सोचूँ, बस बूँद बूँद भरती रहूँ दृश्यों को भीतर, पीती रहूँ हसीन गजलों सी इन ध्वनियों को घूँट घूँट जिससे बाद के बदरंग दिनों में जब कभी जिंदगी में उदासी, ऊब और थकान से मुठभेड़ हो, जब कभी बोरियत और मुर्दनी के उड़ते रेशे जीना दुश्वार कर दें, यह नीले पानी का विस्तार, यह आसमान की नीलिमा मुझे वापस उस दुनिया से जोड़ दे जिससे घबड़ाकर मैं यहाँ आई हूँ। पर किसी अभिशप्त राजकुमारी सी मैं। उन अनमोल पलों भी मन बँधा नहीं। सुख धोखा खा गया। प्रकृति मेरी अंतःःप्रकृति को सींचती मुझे मथती-कुरेदती रही - क्या है मनुष्य होने का अर्थ? क्या हूँ मैं? हो पाई हूँ?

मन की सतह पर हलके से जमे असमंजस को परे सरकाते हुए झील किनारे टहलने लगी कि एक यहूदी दंपति जो जर्मनी से आए हुए थे ने मुझसे अनुरोध किया की मैं उन दोनों की तस्वीर एक साथ खींच दूँ। थोड़ी औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे विचित्र विचित्र सवाल पूछे जो यह दर्शाने के लिए काफी थे कि भारत के बारे में विदेशों में कितना भ्रम फैला हुआ है। मसलन अपनी गहरी हरी नीली आँखें मुझ पर टिकाते उन्होंने पूछा, 'क्या यहाँ लोग सड़क पर ही मूतते है? क्या आपके यहाँ बहुओं को जला दिया जाता है? क्या आप हाथी पर सवारी करते हैं? क्या आप लोग साँप के आगे बीन बजाते हैं? क्या आप भी कॉल सेंटर में काम करती हैं? जर्मन की पत्नी ने पूछा 'क्या आपने भी अपनी शादी में खूब चटक लाल रंग का चमकता घाघरा और ढेर सारी ज्वेलरी पहनी थी? जाते जाते मैंने भी उनसे पूछा, 'आपको यहाँ का सबसे अच्छा क्या लगा?'

यहाँ का मसालेदार खाना। दोनों एक साथ चहकते हुए बोले।

क्या आप यहाँ से कश्मीर भी जाएँगे?

नहीं। हालाँकि कश्मीर देखना सबसे बड़ा स्वप्न है, बोलते बोलते उनके चहरे पर निराशा पुत गई थी।

क्यों? मैंने फिर पूछा। पर उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया। समझ नहीं पाई कि आतंकवाद के चलते या पैलेस्टेनियन के प्रति अपने पुराने वैर या असुरक्षा के चलते इतने करीब आकर भी उन्होंने कश्मीर जाना स्थगित किया।

हिमालय की पृष्ठभूमि में बहती पैनगोंग की विराट सुंदरता को उसकी संपूर्णता में पकड़ पाना मेरे लिए तो क्या किसी के लिए भी शायद ही संभव हो। ऐसी सुंदरता को सिर्फ अनुभव ही किया जा सकता है। कई सैलानी चाँदनी रात के आलोक में इसे महसूसने के लिए तो कई उगते सूरज की सुनहली किरणों में पहाड़ और झील के जादू को देखने के लिए रात वहीं रुक गए।

सृष्टि के पहले प्रभात सा प्रभात। रोशनी की उम्मीद में हम भी पहुँचे, लेह की सबसे समृद्ध 'हेमिस मोनेस्ट्री' जो अधिकांश गोंपा की तरह ऊँचे और दुर्गम पहाड़ों को काट काट कर बनाई गई थी शायद यह अहसास करवाने के लिए कि अध्यात्म की यात्रा इतने कष्टपूर्ण और दुर्गम रास्तों से होकर ही निकलती है। बहरहाल भीतर धर्म बहुत था, सजे हुए बाजार में अलग अलग ठेले लगे हुए थे। कहीं नगाड़े बजाए जा रहे थे, कहीं दीपक जलाए जा रहे थे तो कहीं पताकाएँ फहराई जा रहीं थी। तो कहीं इस विश्वास के तहत धर्म चक्र घुमाया जा रहा था कि इसे एक बार घुमाने से सौ पाप धूल जाते हैं। कुछ लामा जोर जोर से मंत्र जाप कर रहे थे। कहीं पुस्तकों का स्टाल था। एक बड़े से भव्य कमरे में पीतल के चमचमाते बुद्ध की आदमकद मूर्ति थी। आसपास की दीवारों पर बुद्ध का पूरा जीवन उकेरा हुआ था। कहीं माता माया देवी को स्वप्न में दिखते सफेद हाथी तो कहीं बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या में लीन गौतम तो कहीं बोधि प्राप्ति के पश्चात दुनिया को अहिंसा और करुणा का उपदेश देते बुद्ध। कहीं लेटे हुए बुद्ध तो कहीं पद्मासन की मुद्रा में ध्यानाविष्ट बुद्ध। एक कोने में ढेर सारे दीपक रखे हुए थे, बुद्ध के 'अप्प दीपो भव' के प्रतीक स्वरूप। एक युवा लामा से मैंने बुद्ध के अष्टांग मार्ग के बारे में पूछा तो उसने जवाब दिया 'आप सीनियर लामा से पूछ लीजिए' मैं सीनियर लामा की ओर बढ़ रही थी कि एकाएक मेरी नजर दो नन्हें लामाओं पर पड़ी। दोनों किसी बात पर झगड़ रहे थे और एक युवा लामा उन्हें अलग कर रहे थे। मेरे लिए यह अविश्वसनीय था। नए उगते फूल और संन्यास? जमी राख पर फूँक मारने की चेष्टा करते हुए मैंने पूछा भी तो जवाब और भी विचित्र मिला। युवा लामा ने कहा 'मै खुद नौ वर्ष की उम्र में लामा बन गया था, और फिर हमारे दलाई लामा तो छह वर्ष की उम्र में ही 14वें दलाई लामा बन गए थे। दो वर्ष की उम्र में ही उन्हें दलाई लामा के पुनर्जन्म के रूप में पहचान लिया गया था। (देहांत के पूर्व दलाई लामा अपने अगले जन्म के लिए कुछ संकेत छोड़ कर जाते हैं। उनके बताए इलाके में विशेष अवधि में जन्मे बालकों का गहरा अवलोकन किया जाता है। उनमें जिस बालक में बताए गए चिह्न व लक्षण पाए जाते हैं उसे नए दलाई लामा के रूप में मान्यता दी जाती है) मैं थोड़ी खिन्न हुई। भीतर के हॉल में दलाई लामा की तस्वीर के साथ ही कई महत्वपूर्ण लामाओं की भी तस्वीर लगी थी, तस्वीर के नीचे ढेर सारे नोट रहे हुए थे जो शायद श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ा दिया गए थे। कुछ लामा यंत्रवत मंत्र पाठ करते जा रहे थे। मैंने फिर एक लामा से पूछा, 'बुद्धत्व क्या है? क्या आप अपने उन ऊद्देश्यों तक पहुँच पाए जिस के चलते आप लामा बने' पर किसी को भी मेरे प्रश्न में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाँ,एक युवा लामा ने बड़ा बेबाक जवाब दिया। उसने कहा 'मुझे लामा मेरे माँ-बाप ने बनाया। वे मुझे लामाओं को दिखाते और पूछते, तू बनेगा लामा। मुझे वह चोंगा बहुत लुभाता था जो लामा पहनते थे। मुझे यह भी लगता था कि लामा बहुत मजे करते हैं। लोगों के बीच उनका बहुत रुतबा भी है। पुलिस तक बिना हेलमेट पहने स्कूटर चलाते लामा को कुछ भी नहीं कहती जबकि दुसरे लद्दाकी को फाइन देना पड़ता है। इसलिए मैंने कह दिया कि हाँ मैं बनूगा लामा। बस उन्होंने मुझे लामा सजा दिया और देखते देखते बिना सोचे समझे ही मैं बन गया लामा।

आपके माँ बाप ने क्यों किया ऐसा? जवाब और भी विचित्र, 'कुछ तो गाँव के मुखिया का दबाव कि गाँव में लामा रहेगा तो लोगों को धार्मिक विधि सिखाता रहेगा। और कुछ माँ बाप की गरीबी' उस युवा लामा की उदासी और हताशा जैसे चीख रही थी कि वह संन्यास और जिंदगी के हाथों शटल कोक की तरह पिट रहा था।

तो यह है लामा होने का अर्थ! मन में हूक सी उठी।

बुद्ध की इस नगरी में बुद्धत्व कहीं नहीं था।जिस कर्मकांड और पूजा पाठ के विरुद्ध बौद्ध धर्म की स्थापना हुई थी वह आज तरह तरह के कर्मकांड, अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के दलदल में धँसा हुआ था। बुद्ध ने कहा था कि संसार की असीमितता, संसार की विराटता, संसार का विस्तार संसार में नहीं मन में है, वही मन यहाँ माला, चोला, झंडा, मंत्र, चक्र, ध्वज और ताबीजों में डूबा हुआ था। एक घर की छत पर कुछ ईंटे छितरी हुई थी, ध्यान से देखा तो देखा कि उन ईंटों की देह पर भी मंत्र खुदे हुए थे। सच्चाई यह है कि लद्दाख में आज दो धाराएँ बहती हैं - एक सिंधु नदी की और एक कर्मकांड की। जन्म से लेकर मरण तक बल्कि मरने के उपरान्त भी लाद्दकियों को कर्मकांड से मुक्ति नहीं है। हर गाँव के हर घर में लामा महीने में एक बार अवश्य जाते हैं। उनके लिए अलग से पूजा घर बनाया जाता है जहाँ बैठ कर वे पूजा करते हैं। गाँव की हर गतिविधियों के केंद्र में होते हैं लामा। जन्म हो तो नामकरण संस्कार के लिए लामा, शादी हो तो लामा और तो और किसी की मृत्यु हो जाने पर भी लद्दाखी घर में लामा को बुलाते हैं, लामा शव को पाँच-छह दिनों तक रखते हैं, चोगा (शास्त्र) पढ़कर बताते हैं कि अंतिम संस्कार कब होगा। जब तक अंतिम संस्कार नहीं होता पूजा पाठ, दिया बत्ती, मंत्र जाप चलता रहता है। मृत व्यक्ति की चीजों की नीलामी होती है, ऊँची ऊँची बोली लगती है। लोग भी इसे धर्म का कार्य समझ कर ऊँचे दाम पर खरीदते हैं। इससे जमा पैसे का 70 प्रतिशत लामाओं में और 30 प्रतिशत मोनेस्ट्री में बाँट दिया जाता है। शव को जलाने के बाद भी चार दिनों तक उसकी भस्म की पूजा की जाती है और फिर उसकी भस्म को पहाड़ पर रख दिया जाता है। 49 दिनों तक मृत व्यक्ति के कमरे में द्वीप जलाया जाता है।

सोगयाल रिनपोचे (जो की खुद भी एक लामा है) ने अपनी पुस्तक 'The Tibetian book of living and dying' (जिस की प्रस्तावना खुद दलाई लामा ने लिखी है) में अपने गुरु जामयांग खिंतसे का जिक्र करते हुए लिखा है कि उनके शव को छह महीने तक रखा गया था। शायद तिब्बतियन बुद्धिज्म में यह एक परंपरा बन चुकी है। इसे न केवल मौत की स्वीकृति वरन मरे हुए या मरते हुए व्यक्ति के प्रति प्रेम, पवित्रता और केअर से जोड़ कर देखा गया है।

पाँच अगस्त 2010 में यहाँ भयंकर बाढ़ आई थी, बादल फट गए थे। लद्दाक के इतिहास में इतनी भयंकर बाढ़ कभी नहीं आई थी। 4 अगस्त, 2013 के लिए भी भविष्यवाणी थी कि लेह में भयंकर बाढ़ आएगी, बादल फट जाएँगे। दलाई लामा 23 जुलाई को यहाँ आ गए और महीने भर वे मौन और ध्यान में बैठे रहे, किसी से मिले भी नहीं। सभी बुद्धिस्ट लद्दाकियों को भी निर्देश था कि वे 12 से 1 बजे तक अपनी दुकान, ऑफिस बंद कर गोंपा में जाकर प्राथना करें। आज आलम यह है कि जरा सी भी बारिश तेज हुई कि ईश्वर भीरु लद्दाकी डर कर गोंपा में जाकर प्रार्थना शुरू कर देते हैं

लेकिन सारे अंधविश्वास और कर्मकांड के बावजूद पर्यावरण के प्रति लामा बहुत सचेत और सजग हैं। इनके पाँच रंगों के प्रार्थना ध्वज में सारे रंग प्रकृति के सारे तत्वों की रक्षा के लिए हैं। कई जगह इन्होने लिखवाया है - 'लामा के इस देश में गामा (बदमाश) मत बनो'। लामाओं के प्रभाव में यहाँ कोई मछली नहीं मारता है। लामाओं के आग्रह पर फौजियों ने मछली मारना और हिरणों का शिकार करना भी बंद कर दिया। पेड़, पर्वत, पर्यावरण, जल, धरती, बादल और हवा के प्रति इनके समर्पण के चलते ही लद्दाक स्वच्छ एवं प्रदूषण मुक्त है पर सवाल यह है कि जिस विराटता, बुद्धत्व, आत्मिक उन्नयन, स्व की खोज और बड़ी रोशनी के लिए ये लामा बने क्या वहाँ तक पहुँच पाए ये? क्या वहाँ तक पहुँच भी सकते हैं ये? अधिकांश लामा बचपन में ही संन्यास का वरण कर लेते हैं। युवा होने पर जब तक वे जीवन सत्यों से अवगत होते हैं जिंदगी उनके हाथों से निकल चुकी होती हैं। न शिक्षा, न पूँजी, न नौकरी और न आर्थिक आधार। असुरक्षा की भावना बचे खुचे सत्य के जोर को भी लील जाती है। और वे सोच तक नहीं पाते कि जीवन बुद्ध हुआ कि व्यर्थ हुआ।

बिडंबना है कि जिस धर्म की बुनियाद ही तर्क, रीजन और विज्ञान की कसौटी पर रखी गई थी, उसी के धर्मगुरु कहते है कि, 'यदि अगले दलाई लामा की जरूरत पड़ी तो मैं चीन या तिब्बत में नहीं वरन ऐसी जगह जन्म लूँगा जहाँ से काम करना बहुत आसान होगा 'उनको अभी भी यह भोला विश्वास है कि चीन के हृदय में करुणा का अंकुर फूटेगा और एक दिन वह उन्हें उनका तिब्बत वापस लौटा कर विश्व में अपना नाम करेगा। बहरहाल दलाई लामा का लद्दाक में बहुत सम्मान है और उनका इतना योगदान अवश्य है कि जो लद्दाकी अब तक अपने को जम्मू कश्मीर से अलग कर अपने लिए केंद्रीय शासित राज्य का दर्जा माँग रहे थे वे आज उनके नेतृत्व में एक हैं। आज लद्दाक में भारत विरोधी लहर नहीं के बराबर हैं।

विचारों की थपकियाँ फिर शुरू हो गई, 'बुद्ध ने अंधकार से लड़ा, पर आज बुद्ध के नाम पर जो अँधेरा पसरा पड़ा है उससे लड़ने कौन बुद्ध आएगा? लद्दाक का बीज शब्द है धर्म, पर इस धर्म का यहाँ मनुष्य की मुक्ति से कोई संबंध नहीं है। लद्दाक की प्रगति के लिए जरूरी है कि कुछ समय के लिये लद्दाक से ऐसे धर्म को देश निकाला मिल जाय।


किसी भी शहर की आत्मा पर्यटन स्थल पर नहीं बसती और न ही शहर का असली चेहरा उतना सार्वजनिक ही होता है। दुल्हन के मुखड़े की तरह इसके दीदार तो बहुत बाद में ही होते हैं। हमने भी लामाओं, सैनिकों, विदेशियों, और सैलानियों के मगरूर चेहरे के भीतर लद्दाक का एक चेहरा ऐसा भी देखा जो जितनी कम जगह लद्दाक में घेरता था उतना ही कम था उसका बाजार भाव। लामा युरो के रास्ते खलसी गाँव में तेज हवा और कँपकँपाती ठंड में भी गोंचा के ऊपर मोटा कोट पहने ढेरों लद्दाकी औरतें सेव और कच्ची खुबानियों के पैकेट्स हाथों में लिए न केवल हमारे सामने थी वरन किसी भी कीमत पर हम पर चेपने को अमादा थीं। लेह के बाजारों में हर कहीं औरतें थीं। अपनी धूप और अपनी आभा से चमकती पहाड़ी औरतें। पर मेहनत की इन महारानियों का असली चेहरा देखा मून लैंड से थोड़ा आगे। कई अपने सर पर भारी भरकम घास के गट्ठर ढो रही थीं। कई इन दुर्गम पर्वतों पर नहरें खोद रहीं थी, खेतों के पानी के लिए तो कोई रास्तों को चौड़ा बनाने के लिए तसले में ईंट,गारा, पत्थर और चूना ढो रही थीं। पहाड़ों को काट काट कर यहाँ रास्तों को चौड़ा बनाया जा रहा था। कुछ वहीं एक पहाड़ की ओट में लकड़ी जलाकर चाय बना रही थी, खामोश! बिना लफ्ज की खूबसूरत खामोशी! कुछ पत्तों पर ऊँघती शबनम की बूँदों सी ऊँघ रही थीं, कुछ चाय के घूँट ले रहीं थीं। कुछ हँस हँसकर जिंदगी के सारे अभावों और दुख दैन्य को नीचा दिखा रही थीं। थोड़ा आगे बढ़े तो बिहार, झारखंड और नेपाल भी वहाँ मौजूद था। धूल और गर्द में आपादमस्तक लिथड़े झारखंड के मनसा, राम प्रसाद, राजा, सुरजा देहरी और शिव प्रसाद मिश्रा समेत बिहार और नेपाल के भी ढेर सारे मजदूर थे वहाँ, जिन्हें देख लगता था जैसे वे सिर्फ हाथ थे, मरे स्वप्न और मरे मन वाले हाथ जो यहाँ अपने घर की माटी से दूर, जीवन से हार नहीं मानने की जिद में हिमालय की छाती चीरकर रास्तों को चौड़ा करने में अपना जीवन दाँव पर लगा रहे थे।

इन सँकरे रास्तों को चौड़ा करना खतरे से खाली नहीं था। डायनामाईट से पहाड़ों को उड़ाते समय या अकस्मात आए पत्थरों की बारिश में (लैंडस्लाइड) जरा सी चूक और जीवन सीधा नीचे घाटियों में या पत्थरों के नीचे। कुदरती करिश्मे से इन सब से बच भी गए तो लगातार धूल धक्कड़ में बारह घंटे काम करते करते चालीस तक आते आते फेफड़े यूँ भी जवाब दे ही देते हैं। लद्दाक में जिस ऑक्सीजन की कमी की बात कही जाती है वह यहाँ थी। याद आया, सिक्किम में ऐसे ही बनते रास्तों के बीच कहीं पढ़ा था मैंने 'आप को ताज्जुब होगा की इन रास्तों को बनाते हुए लोगों ने मौत को झुठलाया है।' इतने स्वर्गीय सौंदर्य, हिम शिखरों, मनमोहिनी घाटियों और वादियों के बीच जीवन की यह मारक जंग! मैं संगत बिठा नहीं पा रही थी। पर यथार्थ यही था। सारी मलाई, सारा वैभव, सारा सुख सारी, हरियाली, सारा ऑक्सीजन एक तरफ और सारे दुख, दैन्य, अभाव और वंचना एक तरफ थी !

बालू और मकई के रंगों के पहाड़ों के सुहाने मंजर को पार करते हुए हम पहुँचे कारगिल से लेह के रास्ते पर बनी सबसे रहस्यमयी और सबसे पुरानी लामा युरू मोनेस्ट्री। दुर्गम पहाड़ों को काट काट कर एक चट्टान पर बनी हुई यह मोनेस्ट्री दूर से ताश के घर जैसी दिखती थी। किंवदंती है की पहले यहाँ एक बड़ी सी झील थी पर एक लामा के आशीर्वाद से झील का पानी सूख गया और मोनेस्ट्री के लिए जगह निकल गई। भीतर वही धुआँ धर्म का, कर्मकांड में तब्दील होते बुद्ध और सदियों का परंपरागत ज्ञान। लेकिन बुद्धत्व प्राप्त स्त्री प्रज्ञा तारा की मूर्ति देख सुखद आश्चर्य भी हुआ। उसको लेकर बौद्ध परंपरा मौन है क्योंकि मान्यता है कि स्त्री बुद्धत्व नहीं प्राप्त कर सकती। बौद्धों ने भी प्रज्ञा तारा को इतिहास की कब्र में ही दफन कर दिया होता पर लोगों की गुप्त स्मृतियों ने न्याय किया जिसके चलते यहाँ प्रज्ञा तारा की भी मूर्ति विराजमान थी।

लामा युरू के बाद हमारा अगला पड़ाव था - नुंब्रा वैली जिसके लिए हमें खर्दुन्गला टॉप से होकर जाना था। खर्दुन्गला टॉप दुनिया का सबसे ऊँचा मोटर से जाने का रास्ता है। इतने ऊँचे और दुर्गम पहाड़ों पर श्रम, स्वप्न और जीवन झोंक कर इतने खर्चीले रास्ते बनाना हमारी असफल विदेश नीति का परिणाम है। चीन और पाकिस्तान से बिगड़ते रिश्तों के मद्देनजर यहाँ अधिकांश लद्दाक ही सैनिक छावनी में बदल गया है। सैनिकों को जरूरी सामान पहुँचाने के लिए रास्तों का बनाना जरूरी था। बहरहाल अब हम 18380 फीट की ऊँचाई पर थे जहाँ से कई पर्वत शृंखलाएँ चाँदी से मढ़ी हुई सी लगती थीं। यह पूरा इलाका ही सेना के नियंत्रण में था, यहाँ तक बिना आर्मी की इजाजत के आप नहीं आ सकते। यहाँ पाकिस्तान सहित कई युद्ध के नायक कर्नल सेवांग रिग्यें की पूरी जीवन यात्रा अंकित थी।

ऊँट सफारी के लिए मशहूर नुंब्रा घाटी में देखे सफेद बालू के टीले। पृष्ठभूमि में कहीं अनार के रंग के पहाड़ तो कहीं एकदम काले और छाई रंग के पहाड़। थोड़ा आगे चंबा की आदम कद मूर्ति, गहनों से लदे, बने-ठने चंबा। मान्यता है कि ये चंबा सारे पहाड़ों की रखवाली करते हैं इसी कारण इतनी ऊँचाई पर स्थापित है इनकी मूर्ति। लद्दाकी चंबा को भगवान की तरह मानते हैं। यहाँ से 80 किलोमीटर आगे पाकिस्तान है।


अंतिम दिन! नाटक के अंतिम दृश्य की तरह देखा शांति स्तूप और स्टॉक पैलेस। श्वेत, भव्य, गोलाकार शांति स्तूप। बुद्ध के संदेशों को विश्वव्यापी करने और विश्व शांति की स्थापना के लिए जापानियों द्वारा बनाया गया था यह। लद्दाक के वर्तमान राजा जिम्मेत वांचुक नामगेल स्टॉक पैलेस के पीछे के हिस्से में रहते हैं, आगे का हिस्सा म्यूजियम बना दिया गया है जहाँ पाँच सौ वर्ष पूर्व के राजाओं और रानियों की विलास सामग्री, जेवर, शास्त्र, पुराने वर्तन, मुकुट और हथियार आदि चीजें सँभाल कर रखी गई हैं। नेपाल के राजा की तुलना में यहाँ के राजा का महल एकदम सामान्य सा लगा।

बीच रास्ते में देखा 'तिबेतियन रिफ्यूजी मार्किट'। लद्दाक में तिब्बत से आए ढेरों शरणार्थी हैं जिन्हे देखकर लगता है कि लगभग सामान संस्कृति होने के कारण वे यहाँ की माटी और संस्कृति में रच बस गए हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी आजाद तिब्बत का स्व्प्न उनकी आँखों के झरोखे में हर पल झिलमिलाता रहता है। उनकी साँसों में हर क्षण धड़कता रहता है तिब्बत। डबडबाई आँखों और रुँधे गले से कहता हैं सुलत्रिम ग्यसतो, 'जिस दिन 28 वर्षीय लामा कुंचोक्क टेन्जीन के 'आतम दाह' के बारे में सुना, सारे दिन लगता रहा जैसे मैं खुद चिता पर चढ़ गया हूँ। आधी रात को उसे दफनाया गया छिपाकर कि कहीं हरामी चीन उसकी बॉडी देने से ही इनकार न कर दे। अरे हम अपने किसी भी साथी के इस प्रकार शहीद होने पर उसे दफनाते नहीं बल्कि एक साथ मिलकर रोते हैं अपने देश को। तिब्बत को। हरामी यह रोने का अधिकार भी तुम हमसे छीन लेना चाहते हो। उस रात मैं सो नहीं पाया, फिर अगली रात... फिर अगली। पता नहीं कब सो पाऊँगा। और यदि सो भी गया तो स्वप्न में भी अपना घर और घर के सामने लगा खुबानी का पेड़ ही देखूँगा। बोलते बोलते वह फिर सुबकने लगा। उसके चेहरे की खाल काँपने लगी। आँसू की बूँदों से उसके चेहरे पर लकीरें बन गई थीं जिसे अपने मटमैले मफलर से पौंछते हुए वह फिर चालू हो गया था - हर मौसम मे सोचता हूँ कि मेरा वो खूबसूरत देश अभी कैसा लग रहा होगा? क्या ढका होगा अब भी बर्फ से? अब भी उसकी सुबह और उसकी रात उतनी ही शांत और सुकून देने वाली होगी? काश तिब्बत से आनेवाला कोई मुझे मिल जाय तो पूछूँ उससे कि क्या अब भी वहाँ कि अल्हड़ लड़कियाँ वैसे ही खुलकर हँसती है या शैतान चीनियों ने उनकी हँसी भी मैली कर दी, जैसे हरामियों ने तिब्बतीय माँओं का बंध्याकरण कर उनकी हँसी छीन ली। (सार्वजनिक रूप से चीन सरकार ने कहा है कि उनकी एक संतान वाला नियम तिब्बत की महिलाओं पर लागू नहीं है पर वास्तविकता में तिब्बती महिलाओं का जोर जबरदस्ती से बंध्याकरण किया जा रहा है)! हर सुबह आज भी एक उम्मीद इन बूढ़ी आँखों में झिलमिलती है कि शायद मरने से पहले अपनी धरती और अपने लोगों के बीच बैठकर 'छांग' (तिब्बतियन पेय) पी पाऊँ।' बात करते करते ही उसने फिर अपनी डबडब आँखें मूँद ली। स्मृतियों के असह्य बोझ से लदे अपने चेहरे को उसने घुटने में छुपा लिया। वह बुदबुदा रहा था। उसका रोम रोम 'तिब्बत तिब्बत' बुदबुदा रहा था। उसका पूरा जिस्म हल्के से काँप रहा था। वह निःशब्द रो रहा था।

बस यही प्राप्य रहा नौ दिनों की इस यात्रा का!

नहीं जानती कि समय के इन पहाड़ों पर कितना चढ़ पाई। कितना कुछ आँखों से गुजरा - दृश्य, लोग, हलचल, ख्याल, ख्बाब। नहीं जानती कितना पकड़ पाई। नैया ने कितना किनारा ढूँढ़ा। कितना छूटा, कितना जुड़ा। जानती हूँ बस इतना कि चलाचली की इस बेला में जाने कितने ग्लेशियर पिघल रहे हैं। कतरा कतरा भाप की शक्ल में उठ रही है धुँधली धुँधली सी एक प्रार्थना।

यंग जालिन धाबा! (फिर मिलते हैं, धाबा!)। नहीं जानती कि तुम्हारे दर्द को कितना समझ पाई मैं? फिर भी उम्मीद करती हूँ कि अब जब कभी हम मिलेंगे, जिंदगी तुम्हें मिल चुकी होगी। तिब्बत आजाद हो चुका होगा और पहाड़ों के प्रति तुम्हारी वितृष्णा जा चुकी होगी।

हे दम तोड़ते बुद्धत्व! उम्मीद है कि अब जब मिलेंगे दुरुस्त मिलेंगे!

बहती रहो सिंधु! पीड़ित मानवता के स्वरों को जन जन तक पहुँचाती रहो! कौन जाने इन स्वरों को सुनकर ही उत्ताल हिंसा, नफरत और खून खराबे की लहरें थम जाएँ। तिब्बत के विस्थापितों को उनका तिब्बत वापस मिल जाए। और लद्दाक की यह धरती एक बार फिर हँस कर करवट बदलने लगे।