बुधवीर / दीप्ति गुप्ता
‘बुधवीर’ यानी ‘‘बुद्धू’’ - हाथ में नोटिस लिए, बीच-बीच में उस पर आँखे गड़ाता, कुछ बुदबुदाता, तेजी से डग भरता हुआ ‘साइंस फैकल्टी’ की तरफ लपका चला जा रहा था। दस मिनट बाद वह उसी चाल से लम्बे-लम्बे डग भरता ‘कला संकाय’ में आ पहुँचा। कॉरीडॉर में खड़ी मिसेज वर्मा ने उससे पूछ ही लिया -"अभी तो तुम ‘साइंस फैकल्टी’ की ओर गए थे - इतने में यहाँ भी आ गए ! ऐसी क्या जरूरी सूचना घुमा रहे हो, बुद्धू ?"
बुद्धू मुँह बनाता बोला --"मैडम सूचना के साथ, मैं खुद घूम-घूम कर आधा हो गया हूँ। और क्या सूचना होगी जी; प्रिंसिपल ‘साब’ ने कल ‘एजेन्ट’ मीटिंग बुलाई है - आप सबकी। पता नहीं ‘साब’ नोटिस घुमाने के लिए मेरी ही ड्यूटी क्यों लगा देते हैं? मैडम, आप उधर देखो, जाकर जरा, कॉमर्स विभाग के सामने भजन सिंह और जग्गू - दोनों आराम से धूप सेंक रहे है। ‘लायबरेली’ में मनोहर, आराम से कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा है। एक मैं ही हूँ, मैडम जी, जिसे ‘साब’ जब देखे तब नोटिस थमा कर, पूरे कॉलिज में इधर से उधर दौड़ाते रहते है। पता नहीं मैं उन्हें इतना बुरा क्यों लगता हूँ?"
मैडम वर्मा उसकी हिरसयाई शिकायत पर हँसते हुए, उसे समझाते हुए बोली - "तुम डॉ. गुप्ता को बुरे नहीं, अच्छे लगते हो। तुम पर उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा है कि तुम नोटिस तुरन्त मिनटों में घुमाकर, ईमानदारी से ड्यूटी पूरी करोगे और तुम जिन लोगों की शिकायत कर रहे हो, वे तो अपने-अपने विभाग में बैठे ड्यूटी ही तो कर रहे हैं। अब अगर धूप उन पर पड़ रही है तो उसे वे कहीं दूर कैसे सरका सकते है? मनोहर की लाइब्रेरी में ड्यूटी है। यदि उसने वहाँ बैठे हुए अखबार की कुछ खबरों पर नजर डाल ही ली तो क्या बात है? तुम छोटी-छोटी बातों को लेकर बेबात ही अपना खून मत जलाया करो। तुम तो सबसे अधिक काम करने वाले और तुरत-फुरत काम करने वाले साहब के सबसे प्यारे चपरासी हो।"
यह सुनकर बुद्धू ने खुश होते हुए, आज्ञाकारी की तरह गर्दन झुका ली।
"पर ऐसी ड्यूटी मुझे क्यों नहीं मिलती? जब देखो मेरी ड्यूटी साब के ऑफिस में ही लगती है।" बुद्धू दुखी स्वर में बोला। मैडम वर्मा तपाक से बोली - "मैंने कहा न साहब तुम्हें बहुत चाहते है।"
मैडम वर्मा की बात काटते हुए बुद्धू बोला - "मुझे तो वे सौतेले बाप से लगते हैं।"
बुद्धू के कहने के अन्दाज पर मैडम वर्मा ने हँसी रोकते हुए रुमाल से मुँह ढक लिया। बुद्धू फिर से उचकता सा चलता हुआ नोटिस घुमाने में लग गया।
पिछले पन्द्रह सालों से बुद्धू इस कॉलिज में काम कर रहा है। नाम जरुर बुद्धू है, पर उसकी बुद्धि जितनी तेज है - वह किसी से छिपी नहीं है। पढ़ा लिखा अधिक नहीं है - पर बात ऐसी पकड़ता है और कहता है कि दूसरे निरुत्तर हो जाएँ। साथ ही उसके द्वारा बोले गए अंग्रेजी के उल्टे सीधे शब्द ऐसे चटपटे होते हैं कि दूसरे का खासा मनोरंजन हो जाता है। बुद्धू का जरूरत से ज्यादा लम्बा दुबला शरीर कॉलिज के सब चपरासियों में उसकी अलग ही पहचान बनाता है। अक्सर उसके साथी उसे मजाक में ‘शुतुमुर्ग’ कहकर पुकारते हैं। पर उसकी पत्नी जब उसे प्यार से ‘कव्वा’ कहकर बुलाती है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। बुद्धू कर्त्तव्यनिष्ठ होने के साथ-साथ, तुनकमिजाज और बड़बोला भी है। एक बार ड्यूटी खत्म होने पर शाम के पाँच बजे, वह घर जाने के लिए जल्दी- जल्दी स्टैन्ड से साइकिल निकाल रहा था, तभी प्रो.राजदान ने उसे पीछे से पुकारा –
"बुद्धू एक सेकेन्ड सुनना तो"...!
बुद्धू बिना पलटे जोर से किकयाया - "साहब, पाँच बज गया, आज की ड्यूटी खत्म - अब कल सुनूँगा।" प्रो. राजदान मुँह बाये उसे देखते रह गए। ड्यूटी का समय वाकई खत्म हो गया था, अतः कुछ भी नहीं कर सके। फिर भी प्रो. राजदान ने मुँह बिचकाते हुए कहा - "इसे तो मैं देखूँगा।"
शाम पाँच बजे साइकिल पर सवार हो बुद्धू, सीधा, रास्ते में पड़ने वाले बैंक से, अपनी पत्नी ‘सूरजमुखी’ को साइकिल पर बैठा कर थका हारा घर पहुँचता है। वह दुनिया में किसी के गुस्से से डरता है, तो केवल सूरजमुखी के। पाँच बजे से एक मिनट भी ऊपर वह कॉलिज में रुक नहीं सकता। सारे प्रोफैसरों, क्लर्कों को वह जवाब पकड़ा सकता है पाँच बजे के बाद न रुकने के लिए और न कुछ सुनने के लिए - पर बैंक में देर से पहुँचने के लिए सूरजमुखी को कोई जवाब नहीं पकड़ा सकता। पत्नी की जब तब पडने वाली फटकार से उसकी रुह काँपती है। इसलिए वह उसे फटकार का मौका कम ही देता है। सूरजमुखी ने बराबर-बराबर हिस्से से, अपने व बुद्धू के काम बाँट रखे हैं। वह बाजार से राशन-सब्जी लाता है - तो वह खाना पकाती है। वह बच्चों को नहलाती है, तो बुद्धू उनके गीले बदन पोंछ-पोंछ कर, कपड़े पहनाता है। सूरजमुखी कपड़े धोती है, तो वह उन्हें छत पर फैलाने जाता है। ये सब काम करने में उसे तनिक भी जोर नहीं पड़ता। लेकिन जैसे ही वह पत्नी के कपड़े, पेटीकोट, ब्लाउज वगैरा झटक-झटक कर फैलाने शुरू करता है तो ‘नर्वस’ सा हो जाता है। एक बार पड़ौसन ने, पासवाली छत से उसे पेटीकोट झटकते देखा तो, खिल्ली उड़ाती खी, खी करके हँस पड़ी। बोली तो कुछ नहीं - पर उसकी हँसी बुद्धू का दिल जलाने को काफी थी। पर बेचारा सूरजमुखी के काम के बटवारे के आगे विवश था।
जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी में सभी ठन्ड से सिकुड़े, स्वेटर के ऊपर स्वेटर व कोट पहने, हाथों में दस्ताने चढ़ाए, अपने-अपने क्लास में पढ़ाने में व्यस्त थे। तभी कक्षाओं के लम्बे बराम्दे के दक्षिणी कोने से बुद्धू ने सम्पतसिंह चपरासी को गला फाड़ कर आवाज दी और उसका चीखता स्वर, कक्षाओं की खामोशी को भंग करता, बराम्दे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लहराता हवा में गुम हो गया। मैडम विरमानी और प्रो. त्यागी ने अपनी-अपनी कक्षाओं से बाहर आकर बुद्धू को नाराजगी से घूर कर देखा। बुद्धू सकुचाया सा, तुरन्त झपट कर पास आता हुआ सफाई देता बोला - "सॉरी मैडम, सॉरी गुरुजी! बड़े बाबू ने सम्पत को एकदम बुलाया है।" वह साइकिल पर सवार था - रजिस्ट्री करने पोस्ट ऑफिस जा रहा था - चिट्ठी पर "पिनोड" गलत लिखा गया। जरूरी डाक थी, इसलिए उसे रोकने के लिए मुझे जोर से हाँक मारनी पड़ी।"
उसके द्वारा "पिनोड" (पिनकोड) स्वनिर्मित शब्द को सुनकर मैडम तो हँसी दबाती कक्षा में चली गई और प्रो. त्यागी भी उसके चीखने के कारण को जानकर, उसे कुछ समझाते से वापिस लेक्चर देने लगे ।
प्रो.त्यागी, डॉ.वर्मा, मैडम शर्मा, प्रो.वजाहत, प्रो.नन्दिनी कॉमनरूम में बैठे चाय और कॉफी की चुस्कियों के साथ, अगले वर्ष से लागू होने वाले नए पाठ्यक्रम के विषय में चर्चा रत थे। तभी बुद्धू बड़े कायदे से इजाजत लेकर कमरे के अन्दर आया और मैडम वर्मा के निकट जाकर, उन्हें एक पर्चा दिखाकर, उनसे धीमी आवाज में कुछ कहने लगा। मैडम वर्मा को उसकी कानाफूसी वाली आवाज और गुपचुप बात करने का ढंग बड़ा अटपटा सा लगा; सो उसे दूर हटकर साफ-साफ अपनी समस्या का बखान करने का उन्होंने ऐसा आदेश दिया कि - बेचारा एकदम सीधा खड़ा होकर, लजाया, हिचकिचाया सा बोला -
"मैडम ये एनकौन्टेन्ट बाबू ने मेरी पगार का हिसाब ठीक से नहीं लगाया। मुझे लगता है कि पिछले साल का ‘इनक्रिमिन’ उन्होंने जोड़ा ही नहीं।"
भाषा की व्याख्याता मैडम वर्मा बोली - "बुद्धू, जब तुम अँग्रेजी के शब्दों का इतना प्रयोग करते ही हो, तो उनको जरा सही बोल लिया करो। पहली बात तो "इनक्रिमिन" नहीं "इन्क्रीमैन्ट" बोलो और ‘एनकौन्टेंट’ नहीं ‘एकाउन्टैन्ट’ बोलो। कोशिश करोगे, चाहोगे तो, तुम सही उच्चारण आराम से सीख सकते हो। पर तुम अपनी सुविधानुसार, उसका रूप अपरूप कर देते हो। या फिर अँग्रेजी के शब्द बोलो मत।"
साथ बैठे सभी प्रोफेसर्स मुस्कुराते हुए मैडम की बात से सहमत थे किन्तु प्र. त्यागी ने चुटकी लेते हुए कहा -
"मैडम, ऐसा करके आप हमारे मनोरंजन का स्त्रोत खत्म कर देगी। बुद्धू, मूल शब्द से मात्राएँ, अक्षर खींच कर उन्हें तोड़ मरोड़ कर जो नया शब्द इजाद करता है - जरा उसकी मौलिकता देखिए आपड! ऐसे शब्द बनाने और बोलने में आप और हम सब अक्षम हैं। जरा इसकी काबलियत पर गौर कीजिए आप , यह बातों ही बातों में हमे ऐसे हास्यरस में डुबो देता है कि जिसका इसे खुद भी पता नहीं होता। परसों की ही तो बात है; मैंने कहा – "बुद्धू जरा प्रो. आर्य को बुला लाओ, हम सब कॉमन रूम में जा रहे हैं।"
हम सब उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि बुद्धू झपटता आया और बोला –
"सर जी, प्रो. आर्य तो ‘करप्शन’ कर रहे है; वे चाय के लिए नहीं आयेंगे। आप लोग चाय पी लीजिए।"
यह सुनते ही हम सबका हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। प्रो. आर्य और करप्शन ? बुद्धू ने अनजाने ही एक सीधे भले इंसान को कितनी आसानी से ‘करप्शन’से जोड़ दिया था और हम सब प्रो. आर्य द्वारा ‘करैक्शन’ की जगह ‘करप्शन’ की कल्पना कर-करके बेइन्तहा हँसते रहे। तो मैडम, बुद्धू का भाषा अज्ञान और उसका अँग्रेजी शब्द बोलने का दुराग्रह – इस सबका एक अलग ही आनन्द है। क्यों उसकी रचनाशीलता पर करफ्यू लगा रही है आप?
तभी मैडम वर्मा ने बुद्धू को बाहर जाने के लिए कहा और प्र. त्यागी की बात का जवाब देती बोली - "आप अपने आनन्द की बात छोड़िए; मैं सच में इसकी भाषा सुधारना चाहती हूँ। क्योंकि कई बार इसके अँग्रेजी प्रेम के कारण, यह शब्दों के ऐसे उल्टे सीधे इस्तेमाल करता है कि सुनने वालों की सिच्युऐशन बड़ी एम्बैरेसिंग हो जाती है। पिछले साल ही की तो बात है। ‘करवा चौथ’ पर यह अपनी पत्नी के लिए साड़ी लाया। खाली पीरियड में हम कुछ लोग कामर्स फैकल्टी के लॉन में बैठे गुलाबी सर्दी की गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। सीधा जाता-जाता, यह एकाएक हमारी तरफ मुड़ गया और लम्बे-लम्बे डग भरता पास आकर, डिब्बे से साड़ी निकालकर हमें दिखाकर पूछने लगा - "साड़ी कैसी है मैडम जी"। हम सभी ने एक स्वर में कहा -" साड़ी बहुत सुन्दर है - रंग, डिजाइन सब एकदम बढ़िया है।"
साड़ी बुद्धू को वापिस करते-करते, प्रो. नन्दिनी जरा कपड़ा छूकर बोली - "मुझे यह मिक्स्ड सिल्क लगती है।"
इस पर बुद्धू अपना ज्ञान बधारता बोला - "रेप सिल्क है मैडम जी, रेप सिल्क"।
यह सुनते ही नन्दिनी का तो मुँह लाल हो गया और भौंचक सी उसे देखती रह गई। हमने भी सोचा यह ‘रेपसिल्क’ कब चली मार्केट में और बुद्धू को ‘रेपसिल्क’ ही मिली थी खरीदने को? तब हममें से - शायद मिसेज बत्रा बोली - "अरे यह क्रेप सिल्क को ‘रेपसिल्क’ कह रहा है शायद।" तब हमें भी लगा कि बत्रा ठीक कह रही है। क्योंकि बुद्धू की शब्दावली का तो कोई भरोसा नहीं। ऐसे शब्दों के प्रयोग से इस बुद्धू की वजह से बड़ी अटपटी स्थिति हो जाती है। इसका क्या - यह तो बोलकर चलता बनता है।"
एक बात निर्विवाद थी कि बुद्धू कालिज भर के चपरासियों में सबसे मेहनती और फुर्तीला था। साथ ही अपनी नित नई हरकतों व बातों से एक हलचल सी मचाए रखता था। कालिज कैम्पस को जीवन्त बनाए रखने वाली अनेक तरंगों में से वह भी एक महत्वपूर्ण तरंग था। उसके किसी दिन छुट्टी ले लेने पर, कालिज में सभी को उसकी कमी अखरने लगती थी। जब ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ का शिविर 10 दिन के लिए आस-पास के गाँव में लगता, तब तो प्राचार्य इसकी ड्यूटी बदलते और ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ के परियोजना अधिकारी के साथ, उसे कमर कस के काम करने को तैनात कर देते। तब बुद्धू का उत्साह भी देखते बन पड़ता। क्योंकि दस दिन, विद्यालय से दूर रहकर, किसी गाँव में जाना - नए-नए कार्यक्रमों को देखना, छात्राओं की सुरक्षा का ध्यान रखना, रोज दोपहर का खाना, शाम का नाश्ता व चाय अपनी देख-रेख में तैयार करवाना, बँटवाना आदि, उसके मन लगाने के लिए काफी था। छात्राओं के रंगारंग कार्यक्रम की तैयारी में कभी कभार जब लड़कियाँ उसे भी बैठा लेती - तो वह सच में ‘जज’ बन जाता और उनके आइटमों की अच्छाई बुराई बताने लगता। कुछ छात्राएँ तारीफ से खुश होतीं, तो कुछ आलोचना सें खीझतीं। फिर छात्राएँ स्वयं ही मिलकर कार्यक्रम की तैयारी में, उसके बैठने पर पाबन्दी लगा देती। तब वह गाँव वालों के पास जा बैठता। अपनी ओर से उन्हें स्वास्थ्य, स्वच्छता, साक्षरता, वृक्षारोपण, छोटा परिवार आदि का ज्ञान देने लगता। गाँव वाले भी उसकी बातों को ध्यान से सिर हिला-हिलाकर सुनते। कभी वह राष्ट्रीय सेवा योजना की मैडम से कहता -
"मैडम, मैं तो इन बच्चियों को सच्ची- सच्ची प्रोग्राम की अच्छाई बुराई इसलिए बताता हूँ कि कैम्प के आखिरी दिन, कालिज की इज्जत मिट्टी में न मिल जाए। मैडम जी, उल्टे सीधे नाच गाने, नाटक-वाटक करेगी, तो गाँव वाले खिल्ली उड़ायेंगे। बच्ची है न, चिढ़ जाती हैं - सही बात कहो तो।" यह सुनकर मैडम कुछ खीझी हँसी हँस कर कहती कि - "यदि बुद्धू तुम इतने समझदार हो, सोच समझ वाले हो, तो यह क्यों नहीं सोचते कि प्रोग्राम गलत हैं या सही - यह देखने के लिए, इस जाँच पडताल के लिए मैं तो हूँ यहाँ - मैं तो कहीं नहीं चली गई।"
तब वह सिर हिलाता देता - "हाँ ये तो मेरे दिमाग से निकल ही गया।"
‘वाह रे बुद्धू !’ मन ही मन मैडम उस पर हँस देती। खैर, बुद्धू के साथ होने से मैडम व सभी छात्राएँ बड़ी निश्चिंत रहती और सुरक्षित सा महसूस करती। क्योंकि जब कभी भी शिविर के दौरान कोई समस्या खड़ी होती तो, बुद्धू समस्या के निदान रूप में हाजर हो जाता। तब वह सबको देवदूत सा नजर आता और बुद्धू भी ऐसे अवसरों पर खुद को कम महान न समझता।
मार्च के महीने में परीक्षा की तैयारी हेतु, छुट्टी होने से पूर्व, हर विभाग में ‘विदाई समारोहो’ की गहमागहमी रहती। ऐसे मौकों पर प्राचार्य के व कार्यालय के अन्य महत्वपूर्ण कार्यों को मुस्तैदी से कर, बुद्धू लगभग हर विभाग की ‘फेयरवैल पार्टी’ में हाजिर रहता। छात्र छात्राओं का वह खास कृपापात्र था, क्योंकि ऐसे कार्यक्रमों के प्रबन्धन में, न केवल उसे रूचि थी अपितु वह एक कुशल प्रबन्धक भी था; साथ ही उसे छात्रों की मदद करना भी अच्छा लगता था। मेज-कुर्सी लगाना, चाय-नाश्ते का इन्तजाम करना, सब कुछ वह जी-जान से करता। समारोह के अंत में छात्र भी उसे ढेर सारा नाश्ता, कोलड्रिंक आदि दिल खोल कर देते। वह स्वयं तो कम ही खाता था - खाने का सामान सूरजमुखी व बच्चों के लिए घर ले जाता।
गर्मी की छुट्टियों के बाद कॉलिज खुलने पर जब मैडम वर्मा ने, प्रो. त्यागी से बुद्धू के बारे में यह सुना कि उसे टी.बी. हो गई है - तो उनका दिल धक से रह गया। इतना मेहनती, फुर्तीला, जीवन्त इंसान क्या टी.बी. का शिकार हो सकता है? उन्हें एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। वह सोचने लगी - सम्भव है डाक्टर की रिपोर्ट गलत हो। मैडम वर्मा को लगा कि क्यों न दूसरे डाक्टर से जाँच करवा कर सैकिन्ड ओपिनियन ली जाए! वह इस सोच-विचार में उलझी ही थी कि तभी सामने से बुद्धू उसी तेज चाल से आता दिखा। आज उन्होंने गौर किया कि बुद्धू का पेट धँसा हुआ कमर झुकी सी - साँस तेज-तेज सी चल रही थी। पर ऐसा तो वह हमेशा से है। तो हमेशा से ही इस लम्बी दुर्बल काया के अन्दर टी.बी. पल रही थी? पर बुद्धू तो पहले की तरह वाचाल, जीवन्त, उचकता, इधर से उधर, व्यस्त घूम रहा था। बीमारी का तो नामोनिशां न था -उसके किसी हाव-भाव में ! मैडम वर्मा को लगा कि जरूर डाक्टर की रिपोर्ट गलत है।
दोपहर दो बजे घर जाते हुए, वह कैम्पस में बुद्धू को गेट के पास देखकर, स्वयं को यह पूछने से रोक न सकी कि उन्होंने सुना है कि बुद्धू की कुछ तबियत खराब है। यह सुनते ही, बुद्धू एकाएक गम्भीर हो गया और अपने फेफड़ों में पलने वाले उस कड़वे सच का उसने उदासी से सिर झुका कर इजहार किया। मैडम वर्मा को सोचकर हैरानी हुई कि अन्दर ही अन्दर इस गरीब को पल-पल दीमक खा रही है और यह है कि उसे नज़रअन्दाज़ कर या विवश होकर स्वीकार कर, कितने जीवट से हँसता-चहकता हर क्षण जी रहा है। कमाल की है इसकी जिजीविषा - कमाल है इसकी बहादुरी! मैडम वर्मा बोली - "कब से है ?"
"पिछले साल पता चला"- चेहरे पर चिन्ता ओढे बुद्धू बुदबुदाया। डाक्टर ने बताया कि -"ठीक हो जायेगी बशर्ते लगकर इलाज कराऊँ अगर मैं।" मैडम वर्मा बोली - "मुझे डाक्टर का फोन नम्बर और पता दो। कितना खर्च आयेगा? कितना समय लगेगा। मैं सब जानना चाहती हूँ।"
अगले दिन मैडम वर्मा, प्रो. नन्दिनी, प्रो. त्यागी को लेकर प्राचार्य के ऑफिस में गई तथा बुद्धू के इलाज के लिए स्टाफ की ओर से आर्थिक योगदान हेतु एक मीटिंग बुलाने का प्रस्ताव रखा। प्राचार्य भी सुनकर चौंक उठे - ‘बुद्धू को टी.बी.’! प्राचार्य ने पहला कार्य उसकी ड्यूटी बदलने का किया। उसकी कामर्स विभाग में अधिक से अधिक समय बैठने और हल्के फुल्के काम करने की ड्यूटी लगा दी गई। प्राचार्य ने शीघ्र ही मीटिंग बुलाई और पूरे स्टॉफ ने बुद्धू के इलाज के लिए निश्चित राशि का योगदान देकर अपनी-अपनी ओर से पूरा सहयोग दिया। शीघ्र ही बुद्धू का उचित तरह से इलाज शुरू हो गया। सख्त ड्यूटी से राहत मिलने से भी उसकी सेहत में बदलाव आना शुरू हुआ। कामर्स विभाग उसकी उपस्थिति से चहका-चहका रहता।
एक अन्तराल के बाद मैडम वर्मा डाक्टर से मिली और बुद्धू की सेहत में सुधार की स्थिति जाननी चाही तो डाक्टर ने कहा - "कि दरअसल यह आपका चपरासी मेरा पहला ऐसा ‘केस’ है जो इस विकट बीमारी से आश्चर्यजनक रूप से उबर रहा है, और आपको पता है; इसका कारण है - दवाओं से अधिक इस व्यक्ति का पॉजटिव एटीट्यूड और जीने की उत्कट इच्छा। वरना इसकी जगह कोई और होता तो - सोच-सोचकर दहशत से ही आधा मर गया होता। सो इसकी हालत में दिनोदिन होते सुधार का नब्बे प्रतिशत श्रेय इस व्यक्ति को ही दूँगा। इसके मनोबल की सराहना करनी पड़ेगी। कमजोर मनोबल वाले रोगी तो हमारी दवाएँ भी फेल कर देते हैं और बीमारी से ऐसे लग जाते है कि ठीक होने का नाम ही नहीं लेते।"
मैडम वर्मा बोली - "आप सच कहते है। डाक्टर होने के कारण आप रोग के साथ-साथ रोगी की मनोदशा भी समझते हैं। आपने उसको ठीक पहचाना। वह सच में बड़ा जीवन्त है और जीवट वाला है। हम सबको, सारे कॉलिज को हलचल से भरपूर रखता है। ईश्वर उसे लम्बी उम्र दे। आप उसके इलाज में कोई भी कसर न रखें और भी जो खर्च आए तो, निःसंकोच आप मुझसे ले ले पर बुद्धू को पूर्ण रूप से स्वस्थ कर दें।"
डाक्टर ने बुद्धू के लिए सहानुभूति और अपनेपन से भरते हुए, मैडम वर्मा को अपनी ओर से आश्वासन दिया। साल बीतत-बीतते बुद्धू काफी स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होने के बाद उसे अपनी विशेष देखाभाल रखनी थी। डाक्टर ने इस बात की हिदायत उसे बार-बार कर दी थी। मैडम वर्मा भी उसे उसकी सेहत के प्रति जब तब सचेत करती रहतीं।
रविवार का दिन था; मैडम वर्मा रसोई में कुछ बना रही थीं। बैठक में दीवान पर परीक्षा की कापियाँ फैली पड़ी थीं। तभी दरवाजे की घन्टी बजी। मैडम ने डस्टिंग करती ‘आया’ से कहा - " देखो तो कौन है दरवाजे पर"। आया ने दरवाजा खोला और दौड़कर आई, बोली - "दीदी, आपके कॉलिज का चपरासी ‘बुद्धू’ आया है। उसकी घरवाली और लडका भी साथ है।"
सुनते ही गैस बन्द करके मैडम वर्मा दरवाजे पर पहुँची तो देखा सच में - बुद्धू सपरिवार एक मिठाई का डिब्बा और फल लिए ऐसा नतमस्तक खड़ा है, जैसे मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने आया हो। मैडम वर्मा ने बड़े प्यार से बच्चे और सूरजमुखी सहित बुद्धू का स्वागत करते हुए उन्हें बैठक में बैठाया। बुद्धू और सूरजमुखी ने मिठाई और फल श्रद्धा से मैडम को देते हुए उनके पैर छुए तो, मैडम भाव विह्वल हो उठी। बुद्धू बोला - "मैडम जी, आपकी दुआ से मैं ठीक हो गया।" तभी सूरजमुखी हाथ जोड़ते हुए कहा - "आपका यह एहसान हम कभी नहीं भूल सकते।" यह सुनकर मैडम वर्मा बोली - "मैंने तो कुछ भी नहीं किया। सारे स्टॉफ ने मिलकर, तुम्हारे इलाज में मदद की है।"
यह सुनते ही बुद्धू ने उस अकाट्य और भावनात्मक बिन्दु को सामने रखा, जिसके बारे में मैडम वर्मा ने कभी सोचा तक न था। वह बोला - "मेरे इलाज के लिए सारे ‘स्टाप’ से रुपये जमा कराने की मीटिंग के लिए आप ही ने तो प्रिंसिपल साब से कहा था। न आप मीटिंग का सुझाव सुझाती, न मीटिंग होती और न रुपये जमा होते। फिर वे सारे रुपये खर्च हो जाने पर, आगे का सारा खर्च आपने उठाया, तो यह बात, इतना बड़ा उपकार हम कैसे भूल जायेंगे मैडम जी? आपने जिस ख्याल और अपनेपन से, इस गरीब की मदद की और मेरे बीवी बच्चों के लिए मुझे जिन्दा रहने में सहयोग दिया, इस ऋण से तो मैं कभी नहीं उबर पाऊँगा।"
यह कहते-कहते बुद्धू की आँखें भर आईं और वह आँसू छुपाने की कोशिश करते-करते भी रो पड़ा। मैडम वर्मा का दिल भी भर आया। बुद्धू को सहज करने के ख्याल से, अपने को नियन्त्रित करती बोली - "बुद्धू और आँसू ? तुमसे तो हम सब कालिज वाले जीना सीखते है। हर समय हँसता, चहकता, जोर-जोर से बोलता, चुप रहने पर भी अपने हाव-भावों, आँखों से बोलता बुद्धू रोता अच्छा नहीं लगता । जल्दी से अपने आँसू पोंछो और चलो हम सब मिलकर तुम्हारे ठीक होने की खुशी में मिठाई खाते हैं।" तभी बुद्धू फट से आँसू पोंछता बोला - "मैडम ये तो खुशी के आँसू है । दुखी तो मैं होता ही नहीं, और न रोता हूँ। ये आँसू भी टपके तो खुशी में, जीत में। तभी तो जी भी रहा हूँ।"
उसके मुँह से सहज ही भावभीने शब्द सुनकर मैडम वर्मा उसका मुँह देखती रहीं। मैडम को एक बार फिर एहसास हुआ कि बुद्धू, बुद्धू नहीं, सच में "बुद्धिमान" है ।