बुध्ददेव का 'परिचय / रामचन्द्र शुक्ल
कोई समय था जब कि व्यवसायी पारसी थिएटर कम्पनियों के रंगमंच पर हमारी भाषा अपने सरल से सरल और प्रचलित से प्रचलित रूप में भी कभी नहीं फटकने पाती थी। तुक भिड़ाते हुए उर्दू के लच्छेदार वाक्य ही सुनाई पड़ते थे। उर्दू से कोरी अधिकांश जनता केवल सीन सीनरी का तमाशा देखने तथा घटना चक्र के चढ़ाव उतार से कुछ कुतूहल और मनोरंजन प्राप्त करने के लिए ही पारसी थिएटर में जाया करती थी। न तो उसे कथोपकथन की विचित्रता और पटुता का आनन्द आता था, न वह किसी गंभीर भाव में निमग्न होती थी। प्राचीन हिन्दी कथाओं को लेकर जो दो चार नाटक खेले जाते थे उनसे तो और विरक्ति होती थी। जिस समय चूड़ीदार पाजामा, कोट और ताज पहने हुए राजा हरिश्चन्द्र और पंप शू पहने उनकी रानी आधी गुयासुल्लुगात खतम कर के 'हर इन्साँ पर खास ओ आम' गाते हुए निकलते थे उस समय भारतीयता भाड़ में झुकती दिखाई देती थी। अपने देश की सच्ची भाषा में लिखे नाटकों के अभिनय का प्रबन्ध कुछ विशेष अवसरों पर हिन्दी के प्रेमी कभी कभी कर लिया करते थे।
धीरे धीरे काशी, प्रयाग आदि नगरों के कुछ उत्साही हिन्दी प्रेमियों ने अभिनय कला की ओर ध्यान दिया और नाटक कम्पनियाँ स्थापित कीं जिनके द्वारा समय समय पर वे शिक्षित जनता का मनोरंजन करने लगे। इन नाटक मंडलियों की लोकप्रियता धीरे धीरे पारसी कम्पनियों के ध्यान में आने लगी और उन्होंने अपने व्यवसाय की दृष्टि से हिन्दी के कुछ नाटक लिख कर खेलना आरम्भ किया। 'बेताब' का महाभारत देखने के लिए जिस धूम से जनता टूटने लगी, उसे देख व्यवसायी कम्पनियों का बहुत दिनों का भ्रम दूर हुआ और उनका ध्यान हिन्दी में भी नाटक दिखाने की ओर जाने लगा। इस प्रकार हिन्दी का प्रवेश तो इन कम्पनियों में हुआ पर नाटक वे अपने ही लेखकों से लिखती हैं। इन नाटकों की भाषा हिन्दी तो होती है पर उर्दू वालों के मुँह से निकली हुई सी। वह व्याकरण की दृष्टि से व्यवस्थित और साहित्य की दृष्टि से परिष्कृत नहीं होती। उसमें उर्दू नाटकों का परम्परागत ढाँचा बहुत कुछ रहता है। गद्य में भी वही तुकबाज़ी अभी चली चलती है। अप्रचलित अरबी फारसी के बेमेल शब्द भी बीच बीच में कानों को झेलने पड़ते हैं।
यह सब देख कर स्वर्गीय श्री विश्वम्भर सहायजी 'व्याकुल' ने 'व्याकुल भारत कम्पनी' की स्थापना की थी, जिसके द्वारा उन्होंने भाषा और कला की दृष्टि से शिष्ट साहित्य में गिने जाने योग्य नाटकों के अभिनय का सूत्रपात किया था। वे स्वत: नाटयकला के मर्मज्ञ जानकार थे। उन्होंने अपने रचे कुछ नाटक खेले जिनकी जनता के बीच बहुत ख्या ति हुई। प्रस्तुत नाटक 'बुध्ददेव' उन्हीं में से है। इसे पढ़ते ही यह स्पष्ट हो जायगा कि यह व्यवसायी कम्पनियों द्वारा खेले जाने वाले और नाटकों से कितना अधिक समुन्नत है। पहली बात इसकी भाषा है जो शिष्ट और परिमार्जित है। मैं समझता हूँ, अपने वर्ग का यह पहला नाटक है जिसकी भाषा वर्तमान साहित्य की भाषा के मेल में आई है। इसके लिए इसके लेखक श्रीयुत व्याकुलजी का हिन्दी प्रेमी सदा साधुवाद के साथ स्मरण करेंगे। कथावस्तु के बीच लेखक ने अपनी कल्पना से जो दृश्य रखें हैं वे समाज के कुछ अंगों की दशा के अच्छे प्रतिबिम्ब हैं। अवतार की जैसी भावना लेकर नाटक की रचना हुई, प्रथम अंक के पहले दृश्य में स्वार्थ, हिंसा, पाखंड आदि द्वारा धर्म का आक्रान्त होना उसके बहुत ही अनुरूप हुआ है। वस्तु विन्यास भी कौशल से हुआ है। जो स्थल अधिक मार्मिक हैं, उनके दृश्य-विधान और कथोपकथन में दर्शकों पर पड़ने वाले प्रभाव पर पूरी दृष्टि रखी गई है। पात्रों की बातचीत में विचित्रता और प्रत्युत्पत्ति है। जिस क्रम से यह नाटक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ है वह क्रम यदि चला चले तो व्यवसायी कम्पनियों के रंगमंच पर भी उच्च कोटि के नाटक बहुत शीघ्र अभिनीत होते दिखाई पड़ेंगे।
पारसी थिएटरों के कुछ लटके इस नाटक में भी मिलते हैं, जैसे-तुकबन्दी में बातचीत और गज़लबाजी। बात यह है कि एकबारगी मार्ग में आगे कूदने से उन्नति की ओर अग्रसर होनेवाले के मार्ग में बाधा की आशंका रहती है, इससे वह कुछ पुरानी बातों को लिए हुए क्रमश: आगे बढ़ते हैं। इनके अतिरिक्त और त्रुटियाँ जो इस नाटक में हैं वे ऐसी हैं जिनके दूर होते अभी कुछ दिन लगेंगे। जिस काल की घटना को लेकर यह नाटक लिख गया है, उस काल की सामाजिक परिस्थिति क्या थी, परस्पर रीति व्यवहार और शिष्टाचार का ढंग क्या था, इन सब को ब्योरे के साथ जानने का प्रयत्न लेखक ने नहीं किया है। जिस पशु हिंसा का विरोध भगवान बुध्द ने किया था, वह शाक्तों द्वारा देवी के सामने होने वाला बलिदान न था, बल्कि वैदिक यज्ञों में होने वाली बलि थी। जिस प्रकार रसायनी बाबा और पुजारी लाए गए हैं, उनका अस्तित्व उस काल में नहीं था। सारांश यह कि गौतम बुध्द के समय की संस्कृति का चित्रण नहीं हो पाया है।
(18-3-1935 ई.)
(मेरठ निवासी विश्वम्भर सहाय 'व्याकुल' ने 'व्याकुल भारत नाटक कम्पनी' की स्थापना की थी। यह कम्पनी साहित्यिक नाटकों का मंचन करती थी। व्याकुलजी ने 1919 ई. में बुध्ददेव नामक नाटक लिख था, जिसका उन्होंने अनेक बार मंचन किया। उनका देहान्त 1925 ई. में हुआ। उनकी मृत्यु के प्राय: दस वर्ष बाद यह नाटक 1935 ई. में भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। आचार्य शुक्ल ने इस नाटक की भूमिका 'परिचय' शीर्षक से लिखीथी।-सम्पादक)
[ चिन्तामणि:भाग-4]