बुराँश के उस पार: यात्रा-संस्मरण का तिलक / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
यात्रा-संस्मरण, संस्मरण विधा का ही रूप है। सामान्य संस्मरण से यह इसलिए भिन्न है कि इसमें एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा एवं गन्तव्य के अनुभव भी सम्मिलित हैं। यात्रा के बीच में बहुत सारे पड़ाव, सुविधा–संकट एवं चुनौतियाँ, सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों, स्थानों, प्रकृति आदि का रोचक, सूक्ष्म पर्यवेक्षणऔर चित्रण भी सम्मिलित है। छोटी-सी घटना और साधारण से दृश्य में भी सौन्दर्य तलाश कर लेना, सफल लेखक की विशेषता है। यात्रा की विषमताओं में भी उत्सवधर्मिता खोज लेना, सच्ची यात्रा का मूलमन्त्र है। यात्रा- संस्मरण में लेखक का पूरा ध्यान, वर्ण्य दृश्य-स्थल, या सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों एवं उनके व्यवहार पर केन्द्रित होता है। यह तभी सम्भव है, जब लेखक तटस्थ हो और स्वयं को केन्द्र-बिन्दु न बनने दे।
साहसिक अभियान में भाग लेने वाले उत्साही व्यक्तियों को यायावरी चुनौतियाँ साभिलाष आमन्त्रित करती रही हैं। ऐसे व्यक्तियों के यात्रा –संस्मरण स्वानुभूत होने के कारण कम रोचक नहीं होते। किसी भी समाज, स्थान, स्मारक स्थल आदि की जानकारी यात्रा –संस्मरण को और भी रोचक बना सकती है। छुट्टियाँ बिताने के लिए जाना, बढ़िया आरामदेह होटल में ठहरना, खाना-पीना, स्थानीय दृश्यों का अवलोकन करना, अलग तरह की बिना जोखिम की यात्रा है। किसी अभियान के अन्तर्गत साहसिक यात्राएँ करना, कठिन एवं दुर्गम स्थानों पर पिट्ठू बैग लादकर पैदल चढ़ाई चढ़कर जाना, मौसम की उठापटक में चलना और किसी टैण्ट में रात बिताना, वहाँ उपलब्ध जैसा भी भोजन मिले, ग्रहण करके आनन्दित होना, यह अलग तरह की यात्रा होती है। असुविधाओं में भी आनन्द की खोज करना सच्चे साहसिक यात्री की उपलब्धि होती है। इसे वे ही सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं, जिनके हृदय में नए स्थल की यात्रा का जुनून हो।
'बुराँश के उस पार' भीकम सिंह का यह ‘यात्रा- संस्मरण’ थोड़ा अलग है; क्योंकि इनके द्वारा की गई यात्राएँ सामान्य जन की यात्राएँ नहीं हैं। इनके मन में प्रकृति से जुड़ने की ललक और अन्तरंगता ने ऐसा कराया है। बुराँश (रोडोडैंड्रोन) 5000 फुट से 15000फुट की ऊॅंचाई पर पैदा होने वाला लगभग 20 मीटर तक ऊँचा सदाबहार वृक्ष है। इस संग्रह में सम्मिलित अधिकतर यात्राएँ (ट्रैक) 15000फुट की ऊॅंचाई तक की हैं। औषधीय गुण से सम्पन्न लाल रंग के फूल वाला 'बुराँश’ उत्तरांखड का राष्ट्रीय वृक्ष है, तो साथ ही इसका पुष्प नेपाल का राष्ट्रीय पुष्प भी है। इसलिए संग्रह का 'बुराँश के उस पार' शीर्षक सार्थक है। इस संग्रह में संगृहीत -मिज़ोरम, डलहौजी, केदार काँठा, देवरियाताल, तुंगनाथ चोपता, ब्रह्मताल, , लेह, जलोरी पास , भृगु लेक इनके ट्रैकिंग की आठ साहसिक यात्राएँ हैं। जब कोरोना काल में डरकर लोग घरों में दुबके हुए थे, तब भी अवसर मिलते ही भीकम सिंह साहसिक यात्राओं पर निकल जाते थे। यह इनके टैकिंग अभियान के जुनून का जीता-जागता उदाहरण हैं।
‘यूथ हॉस्टल एसोशिएसन द्वारा आयोजित ये यात्राएँ विगत 1931 से संचालित हैं। संसार के दो ही सत्य हैं- प्रकृति और पुरुष (विश्वात्मा-ईश्वर), दोनों ही सदा रहने वाले। परमात्मा के दर्शन करने के लिए उसके द्वारा निर्मित प्रकृति सर्वोत्तम रचना है। अमूर्त्त होते हुए भी ईश्वर अव्यक्त है। प्रकृति उसका व्यक्त, प्रकट और साक्षात् रूप है। गोचर होते हुए भी प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य केवल अनुभूतिजन्य है। शब्द की सीमाओं में उसे नहीं बाँधा जा सकता। लेखक की ये यात्राएँ किसी पर्व, सांस्कृतिक, धार्मिक या किसी अनुष्ठान से प्रेरित यात्राएँ न होकर वृक्ष- पर्वतों , नदियों-घाटियों, झील-झरनों, वन्य पशुओं, कलरव करते खूबसूरत पक्षियों के सान्निध्य में रहकर अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करने की यात्राएँ रही हैं। प्रकृति के मनोरम रूप के चित्रण के साथ- साथ रोमांचित करने वाले प्रसंग भी उद्वेलित करते हैं। ये दृश्य देखिए- ‘लेंगपुई एयरपोर्ट नवम्बर की बारिश में भीगा है, …, सामने पहाड़ियों पर बादल घुमड़ रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वे हमारी अगवानी में हाथ जोड़कर खड़े हो रहे हैं। हम बादलों की वह मुद्रा साफ-साफ पहचान सकते हैं।’
इसी सौन्दर्य बोध के साथ रोंगटे खड़े करने वाला यह दृश्य- ‘मौसम से मुकाबला- इतनी बारिश में भूमि स्खलन? ... चलो टार्च निकालो और टैंट से बाहर निकलो। फिर कंधों पर रुकसैक... उसके ऊपर रेनसीट और हाथ में टार्च लिये सभी ट्रैकर्स सिंगल लाइन में पहाड़ी चढ़ने लगे। ठंडी हवा जैसे हड्डियों तक में घुस जाने के लिए बेताब हो, अँधेरा इतना कि अपने ही हाथ-पाँव दिखाई न दें।’ (मिजोरम)
रोमांचित करने वाला यह दृश्य देखिए-‘मैंने भालू के डर से टैंट के दोनों गेट बन्द कर दिए हैं। रात में दहशत पैदा करने वाला नज़ारा मेरी आँखों के सामने कौंधा और डर के मारे मेरे हाथ-पैर काँपने लगे। मैंने ईश्वर को याद किया। टैंट में साही (काँटों वाला जीव) है। (डलहौजी)
लेखक का काव्यात्मक चित्र मन मोह लेता है-‘भटक-भटक आती धुंध का प्रयास भी देख रहा हूँ। सामने पहाड़ के हरियाले बदन पर जाती हुई पगडंडी देख रहा हूँ।’ (डलहौजी)
‘ऊँचे-ऊँचे सघन वृक्षों के कारण पर्वत इतने सुहाने लग रहे हैं कि देखते-देखते जी नहीं अघाता।’ (केदार काँठा)
गद्य में भी इस तरह का मानवीकरण कोई ट्रेकर तभी कर सकता है, जब वह गहन काव्य-अनुभूति से सम्पन्न हो-‘नुब्रा वैली के पर्वत शिखर लामाओं की मुद्रा में मुंडन कराए ध्यानस्थ हैं’। (लेह )
यह संग्रह अपने सृजन- सौष्ठव के कारण- अक्षत- हल्दी-कुंकुम से आर्द्र तिलक बनकर साहसिक यात्रा विधा में सुशोभित होगा। मेरी यह भूमिका ‘तिलक’ भर है। शेष अवगाहन, घाट से पाट में उतरने वाले पाठक ही बताएँगे।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ब्रम्पटन, 15 नवम्बर 2024'