बुराई और भलाई / कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
उभरती बुराई ने दबती-सी अच्छाई से कहा, "कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, है तो तू मेरी सहेली हो। मुझे अपने सामने तेरा दबना अच्छा नहीं लगता। आ, अलग खड़ी न हो, मुझमें मिल जा; मैं तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।"
अच्छाई ने शांति से उत्तर दिया, "तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।"
"क्यों?" आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।
"बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह।" अच्छाई ने और भी शान्त होकर उत्तर दिया।
गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर फैला दी और फुंकार कर कहा, "ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने की सजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाये! दुनिया में तेरे फैलने की अब कोई राह नहीं।"
अच्छाई ने अपने अंकुर की आंख से जिधर झांका, उसे बुराई की झाड़ी तेज कांटा, तने हुए भाले की तरह, सामने दिखाई दिया। सचमुच आगे कदम सरकाने की भी कहीं जगह न थी।
बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्म्-विश्वास से अच्छाई ने कहा, "तुम्हारा फैलाव आजकल बहत व्यापक है, बहन! जानती हूं इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे व्यक्तित्व की ओर बढ़ने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे फूलों की महक चारों ओर फैल जायगी और यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहाँ।"
व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई से कहा, "दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।"
गहरे सन्तुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, "तुम हँसना चाहो, तो जरुर हँसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को हँसीके मुलम्मे से झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे फैलाव की भी एक सीमा है; क्योंकि उस सीमा तक तुमहारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। इसके विरुद्ध मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन।"
बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके काँटों की शक्ति आप-ही-आप पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से बढ़ रहा है।