बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ / राजकिशोर
चुनाव परिणाम से मन बहुत प्रसन्न था। ऐसा लग रहा था जैसे देश भर पर एक झीना-झीना कुहासा छाया हुआ था, वह दूर हो गया। कांग्रेस का सूरज निकल आया था और अँधेरी रात में टिमटिमाते तारे अपनी-अपनी माँद में लौट गए थे। आज के सारे अखबार मेज पर पड़े हुए थे। उनके मुखपृष्ठ चुगली कर रहे थे कि हमारे पत्रकार मतदाता की नब्ज बिलकुल नहीं पहचानते। सभी अटकल लगा रहे थे कि कौन किधर जाएगा। चुनाव परिणाम ने बताया कि किसी को कहीं आने-जाने की जरूरत नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी की किस्मत पर जरूर दुख हो रहा था। बेचारे! कितनी बड़ी हसरत पाल कर राज्य-दर-राज्य घूम रहे थे और मतदाताओं ने उन्हें अर्श से फर्श पर गिरा डाला।
ऐसे में शर्मा जी की बेसाख्ता याद आई। वे बहुत परेशान थे कि भाजपा कहीं फिर न लौट आए। जब भी इंटरनेट खोलते, हर कहीं पढ़ने को मिलता- 'आडवाणी फॉर पीएम'। दूसरी ओर, प्रकाश करात के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही थी। चुनाव नतीजों से वे बहुत खुश होंगे, यह सोच कर उन्हें बधाई देने मैं घर से निकल पड़ा। रास्ते में मिठाई की दुकान दिख गई, तो एक किलो लड्डू भी बँधवा लिए।
शर्मा जी मिले, पर क्या वे वही शर्मा जी थे, जिन्हें मैं जानता था? दाढ़ी बढ़ी हुई, निस्तेज आँखें और चेहरे पर घोर उदासी। दोपहर के दो बज रहे थे, अभी तक नहाए भी नहीं थे। भाभी जी ने मुझे देखते ही कहा, 'सुबह से ही टीवी पर नजर गड़ाए हुए हैं। नाश्ता भी नहीं किया। खाली चाय पर चाय पी रहे हैं और सिगरेट पर सिगरेट फूँक रहे हैं। अच्छा हुआ, आप आ गए। जरा देखिए न, इन्हें क्या हो गया है।'
मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ कर उनसे पूछा, 'क्या हुआ, सर? देश भर में खुशी की लहर है और आप हैं कि मुहर्रमी सूरत बनाए बैठे हैं।'
शर्मा जी बहुत देर तक गहरी निगाह से मुझे घूरते रहे। मानो मौन की भाषा में कह रहे हों कि तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे। फिर सिर झुका कर बुदबुदाए, 'बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ।'
मुझ पर बिजली गिरी। मेरी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्या हो गया, जिससे वे संतप्त हैं। पूछना जरूरी हो गया, 'क्या बुरा हो गया? क्या आपके दोस्त उम्मीदवार हार गए? पर वामपंथियों से तो आप कभी खुश नहीं थे?'
शर्मा जी ने तड़पती आवाज में कहा, 'मैं कांग्रेस की जीत से परेशान हूँ।'
'लेकिन क्यों? यह तो अच्छा ही हुआ कि केन्द्र में अब अस्थिरता नहीं रहेगी। सरकार निश्ंिचत होकर अपना काम कर सकेगी।'
'इसी की तो चिन्ता है। गठजोड़ होता, तो सरकार की आर्थिक नीतियों पर कुछ तो अंकुश रहता। अब मनमोहन सिंह बेखौफ होकर अपनी बाजारवादी नीति चलाएँगे। अमीरों की चाँदी होगी। सट्टा बाजार फिर पनपेगा। गरीब बेमौत मरेगा। छँटनी होगी। बेकारी बढ़ेगी। तुमने हिसाब लगाया है कि पिछले साल भर में नौकरी जाने या माली हालत खराब होने से कितने लोगों ने आत्महत्या की है? कितने घर बरबाद हो गए? अपराध कितना बढ़ा है?'
मैंने सिर हिलाते हुए कहा, 'शर्मा जी, यह सब तो चलता रहता है। आप देख लीजिए, जिन गरीब देशों में विकास हुआ है, वे सभी बुरे हालात से गुजर रहे हैं। विश्व बैंक की पॉलिसी हर जगह फेल हुई है। यहाँ तक कि जिस देश में विश्व बैंक का मुख्यालय है, वह अमेरिका भी कराह रहा है। भ्रष्टाचार की तरह यह भी विश्वव्यापी परिघटना है।'
'तुम तो मेरी ही बात का समर्थन कर रहे हो।' शर्मा जी ने अपने बिखरे बालों को सहेजा।
'माफ कीजिएगा, मैं आपकी बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। जहाँ तक हमारे देश का सवाल है, राजनीति का साधारण जन से सम्बन्ध ही क्या बचा है? इसलिए राजनीतिक चर्चा में इन गंभीर सवालों को मत उठाइए। तेल देखिए और तेल की धार देखिए।'
'यही तो शुरू जवानी से देख रहा हूँ। सरकारें बदल जाती हैं, पर उनकी पॉलिसी वही रहती है। राजनीति जितनी नई होती है, वह उतनी ही पुरानी होती जाती है। वामपंथी समझते थे कि वे जनता के मित्र हैं। जनता ने उन्हें धो दिया। देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी मनमोहन सिंह की आलोचना कर रहे थे, उन्हें अमेरिका का एजेंट बता रहे थे, उनकी पार्टी की शानदार जीत हुई। इसलिए किसी की हार-जीत से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।'
'तब काहे परेशान हैं? देश को अपनी राह पर चलने दीजिए।'
'देश अपनी राह पर चले, तब तो कोई बात है। वह तो पराई राह पर चल रहा है। दिल्ली को ही देखो। कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए उसे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है। इसकी किसी को फिक्र नहीं है कि कितनी बड़ी आबादी झुग्गी-झोंपड़ियों में रह रही है, कि दिल्ली में गुजारा करना गरीब लोगों के लिए कितना मुश्किल हो गया है? आम जनता भेड़-बकरियों की तरह साधारण बसों में ठुँसी रहती है और सरकार एसी बसें चला रही है। अब यह सब और ज्यादा होगा।'
मुझे लगा कि शर्मा जी हाइपर हो रहे हैं। इस समय इनसे बात करना ठीक नहीं है। मैंने मिठाई का पैकेट भाभी को थमाते हुए कहा, 'बाद में फिर आऊँगा। अभी इनका मूड ठीक नहीं है। इन्हें देश की चिन्ता सता रही है। इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। हो सके, तो इन्हें लेकर पहाड़ों पर निकल जाइए।'
मैं दरवाजे से बाहर आ गया। मुझे लग रहा था कि शर्मा जी की निगाहें मेरी पीठ पर टिकी हुई हैं और कह रही हैं कि तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे।