बुरी लड़की / प्रियंका गुप्ता
वह एक बुरी लड़की थी। मैं नहीं जानती कि यह बात सच है या नहीं, पर सब लोग कहते हैं कि वह बहुत बुरी है। लोग कहते हैं तो सच ही होगा न। लोग वैसे भी झूठ कहाँ बोलते हैं...? दुनिया में एक ही बात जब कई सारे लोग बोलते हैं तो वह सच मानी जाती है, सो मैने भी मान ली कि वह एक बुरी लड़की है।
बुरी लड़की को सबसे पहले मैने लिफ़्ट में देखा था। मुझे अपने फ़्लैट नम्बर 804 में जाना था और इससे पहले कि लिफ़्ट का दरवाज़ा बन्द हो पाता...हाथ से रुकने का इशारा करती वह भागती हुई आई और लिफ़्ट में दाखिल हो गई। च्युइंग-गम चुभलाती उस लड़की ने बटन पर हाथ मारने से पहले मुझसे भौंहों की हल्की जुम्बिश से मेरी मंज़िल पूछ ली...आठवीं...और फिर बेफ़िक्री से मेरे साइड की दीवर पर टेक लगा कर खड़ी हो गई। कान में लगे इयरफोन पर शायद वह कोई मस्त गाना सुन रही थी, उसकी लगातार आगे-पीछे हिलती-थिरकती गर्दन से मुझे तो ऐसा ही लगा। मैने पहली बार उसे इतना करीब से देखा था। उन चन्द लम्हों में ही मैने उसे ऊपर से नीचे तक ग़ौर से देखा। कमर से थोड़ा ऊपर तक लहरिया बाल...जाने प्राकृतिक लहरिया थे या किसी पार्लर की देन...गले में फ़ंकी-सी माला और कानों में भी उसी से मेल खाते रंग के कुछ फ़ंकी से ही इयर-रिंग्स...हाथों में रंग-बिरंगे मोटे-मोटे मस्त कड़े...आजकल के फ़ैशन के हिसाब से जगह-जगह से फटी जीन्स और उसके ऊपर ढीला-ढाला कमर तक का ही मल्टीकलर टॉप। गॉगल्ज़ को उसने अपने सिर पर चढ़ा रखा था। होंठों पर बस हल्का-सा लिपग्लॉस और आँखों में काज़ल की एक पतली रेखा। इससे ज़्यादा कुछ देख-समझ पाती, इससे पहले ही हमारी मंज़िल आ गई... । हमारी इस लिए क्योंकि मैं 804 में रहती थी और वह मुझसे ठीक सामने 805 में। देखने में वह मुझे आजकल की बाकी लड़कियों की तरह ही लगी थी...ठीक-ठाक।
हम पड़ोसी थे।
दोपहर को रवीश जब लंच पर घर आए तो मैने उन्हें बुरी लड़की से हुई इस संक्षिप्त मुलाक़ात के बारे में बिल्कुल वैसे ही बता दिया, जैसे मैं अपनी बाकी की बातें उन्हें बता दिया करती थी। सुनते ही रवीश उखड़ गए... उसकी ओर इतना ध्यान देने की क्या ज़रूरत थी...? और मैं पूछता हूँ कि तुम्हें उसके साथ लिफ़्ट में भी आने की क्या ज़रूरत थी...? आठवीं मंज़िल कोई माउंट एवरेस्ट तो है नहीं कि सीढ़ी से नहीं आया जा सकता। वैसे ही दिन भर घर में बैठे-ठाले मैं मुटियाती चली जा रही। यही हाल रहा तो बच्चा होने से पहले ही मैं चार बच्चों की अम्मा लगने लगूँगी...वगैरह-वगैरह। मेरी आँखों में हमेशा कि तरह रवीश की डाँट सुन कर सब कुछ धुँधलाने लगा था...मेरी उस समय की मेमोरी भी। यही होता है हमेशा। रवीश किसी-न-किसी बात में मुझे डाँट देते थे और मैं उन पलों की अपनी याददाश्त जाने कैसे गुमा देती थी। पता नहीं क्यों...? कई बार मुझे लगता है, मुझे किसी सायकिट्रिस्ट को दिखाना चाहिए... । मैं मेण्टल तो नहीं न...?
मुझे डाँट-डपट कर...भरपेट मेरी नई रेसिपी खा कर हमेशा कि तरह बिना उसकी तारीफ़ किए हाथ-मुँह धोकर रवीश ऑफ़िस चले गए... । जाते-जाते मुझे बुरी लड़की से दूर रहने की सख़्त ताक़ीद भी करते गए... । मैं बस श्योर नहीं थी कि ये ताकीद मुझे याद भी रहेगी या मैं इसे भी कहीं गुमा दूँगी। वैसे भी मैं अक्सर कई सारी चीज़ों की तरह अपनी यादें भी कहीं रख कर भूल जाया करती हूँ।
रवीश को गए अभी आधा घण्टा ही हुआ था और मैं सब काम समेट कर थोड़ा लेटने के मूड से जैसे ही बेडरूम की ओर जा ही रही थी कि तभी दरवाज़े की घण्टी बजी। कौन हो सकता था...? मैं थोड़ा अनिश्चय की स्थिति में थी क्योंकि इस फ़्लैट में आए हम लोग को मुश्किल से एक महीना ही हुआ था और रवीश अभी इस नए शहर में किसी को ठीक से जानते भी नहीं जो कोई परिचित आता। ख़ैर, अपनी उधेड़बुन से निकल मैने सावधानीवश दरवाज़े की जंजीर लगाई और दरवाज़ा खोल दिया।
सामने बुरी लड़की थी।
माचिस होगी...? वह अभी भी च्युइंग-गम चुभला रही थी। इस समय भी वह वैसे ही बेफ़िक्र अन्दाज़ से दरवाज़े पर खड़ी थी। कमर से थोड़ी तिरछी-सी होकर...एक हाथ कमर पर था और दूसरे हाथ की उँगलियों के बीच एक अधजली सिगरेट फँसी हुई थी। मैं समझ गई, इसे सिगरेट पीना है। एक बार तो दिल में आया कि इसे मना कर दूँ...नहीं है माचिस। हम सिगरेट नहीं पीते...और गैस हम लाइटर से जला लेते हैं। पर जाने क्यों मैं झूठ नहीं बोल पाई... ।
झूठ बोलना बुरी बात है न...?
मैने दरवाज़े से सेफ़्टी-चेन हटा कर उसे पूरा खोल दिया। शायद उसने इसे अन्दर आने का इन्विटेशन समझा होगा, तभी मेरे पीछे-पीछे अन्दर तक आ गई और तुरन्त ही 'फ़ील एट होम' होकर सामने पड़ी सेटी पर अधलेटी हो पसर गई। कोई और पहली ही बार में ऐसा करता तो मुझे बहुत अजीब लगता...शायद कुछ बुरा भी। पर उस बुरी लड़की में जाने क्या बात थी...मैं न बुरा मान पाई और न मुझे कुछ अजीब ही लगा। मैने चुपचाप अन्दर किचन से लाकर माचिस उसके हाथ में पकड़ा दी।
इफ़ यू डोन्ट माइंड...मे आय...? उसने मुझे सिगरेट दिखाते हुए पूछा तो मैं भी उसके सामने कुर्सी खींच कर बैठ गई... इट्स ओके... । आय डोण्ट माइंड। गो अहेड। ये सब बोलते हुए जाने क्यों मैं अचकचा गई... । अभी रवीश होते तो...? कितना ज़ोर का गुस्सा होते मेरे ऊपर... और सबसे बड़ी बात...इस बुरी लड़की को वह अन्दर घुसने ही न देते...यूँ मेहमान की तरह बैठाने की बात तो बहुत दूर की है।
पर मेहमान तो भगवान सरीखा होता है, यही तो सिखाया गया है हमें।
तुम लोग न्यूली वेड हो क्या...? सिगरेट के धुँए का एक छल्ला बनाते हुए उसने सवाल का एक घेरा मेरी ओर भी फेंक दिया।
नाऽऽऽ...अगले महीने एक साल हो जाएगा।
ओह्होऽऽऽ...कहते हुए उसके होंठ फिर गोल हो गए... पर अबकी बार उसमे से धुँए का छल्ला नहीं, बल्कि एक मद्धम-सी सीटी निकली।
ये साला तुम लोग उमर-क़ैद को शादी क्यों कहते हो...अपन को आज तक समझ नहीं आया। वह एकदम से जैसे अपने से ही बतिया रही हो, कुछ इस अन्दाज़ में बोली...लाखों रुपया खर्च कर के बैण्ड-बाजा बजवा के ये बेड़ियाँ पहनों...फिर उमर भर चक्की पीसिंग...एण्ड पीसिंग...एण्ड पीसिंग। तुम्हें कभी कोई घुटन नहीं होती...? अपन को कभी इस गोरखधन्धे में फँसनइच नहीं। धुँए के छल्ले उड़ा कर उसने ऐसे आँखें मूँद ली जैसे मेरे जवाब देने, न देने से उसे कोई फ़र्क न पड़ने वाला हो...या जैसे उसने जवाब की आशा से सवाल पूछा ही न हो।
वो इस समय जैसे किसी असीम आनन्द में थी।
थोड़ी देर बाद पूरी सिगरेट ख़त्म कर उसका टोटा फेंकने के लिए उसके निगाहें कमरे में ऐश-ट्रे ढूँढने लगी। ऐश-ट्रे तो था नहीं...सो एक शीशे की प्याली उसे देकर मुझे जाने क्यों लगा...मैं भी थोड़ा-सा धुँआ-धुँआ होकर राख-सी हो गई हूँ।
मैं खुद को किस ऐश-ट्रे में रखती...?
कुछ पल कमरे में किसी घुटन की तरह सन्नाटा पसरा रहा। मानो हवा भी साँस लेने से घबरा रही हो। फिर वह बुरी लड़की किसी नदी की मानिन्द बह निकली। पाँच साल पहले यानी बीस साल की उमर में उसने घर छोड़ दिया था...अगर उसे घर कहा जा सकता तो। छः भाई-बहनों में वह चौथे नम्बर की थी। लोग वैसे तो घर छोड़ कर बम्बई भागते हैं...ऊप्स...बम्बई नहीं...मुम्बई... पर वह तो मुम्बई से भागी थी। अपने सो-कॉल्ड ब्यॉयफ़्रेण्ड के साथ। लड़की ने खुद बताया...उसका घर पूरा अजायबघर था। पैसे की कोई कमी नहीं...कमी थी तो सिर्फ़ इमोशन्स की। ये घर की छः-छः पैदावार भी बिना किसी इमोशन्स के हुई... और फिर उसके बाद उनके खाद-पानी की चिन्ता न बाप को थी...न माँ को। दिन के चौबीस घण्टों में अगर भूले-भटके घर के इकलौते मियाँ-बीवी एक साथ घर पर मौजूद होते तो पड़ोसियों को किसी और मनोरंजन की ज़रुरत ही नहीं होती थी। उन्हीं दोनों को देख कर लड़की ने फ़ैसला लिया था...मर भले जाऊँ...शादी नहीं करनी। हाँ...कुछ एन्टरटेनिंग करने का दिल किया तो किसी ब्यॉयफ़्रेण्ड को पालना...नॉट अ बैड आइडिया। तो घर छोड़ कर भागने के लिए उसने भी एक ब्यॉयफ़्रेण्ड पाल ही लिया।
वो अपने ब्यॉयफ़्रेण्ड को पहचानने में धोखा खा गई थी...और वह इस बुरी लड़की को पूरा नहीं जान पाया। वह इसको भगा तो लाया, पर इसके साथ आए पैसों के साथ-साथ वह इसको भी हथिया लेना चाहता था।
जानती हो...उसने अबकी बार बिना मुझसे पूछे दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी...वो कमीना मेरे को अकेला समझ के मेरे साथ ज़बर्दस्ती करने की कोशिश किया। पन मैं भी उसको ऐसी जगह मारी न...तबियत से मारी उसको...ज़िन्दगी भर याद रखेगा बास्टर्ड। धुँए के एक-के-बाद एक छल्ले बनाते हुए पहले उसने अंग्रेज़ी में...फिर ठेठ देसी अन्दाज़ में अपने उस ब्यॉयफ़्रेण्ड के लिए ढेर सारी गालियाँ दे डाली। इन सबसे जैसे उसके मुँह का स्वाद कसैला हो गया हो, कुछ इस अन्दाज़ में उसने घृणा से वहीं कोने में 'पिच्च' से थूक भी दिया। मैं सन्न रह गई... । थोड़ी अवाक तो मैं किसी लड़की के मुँह से झरती उन अश्लील गालियों को सुन कर ही हो गई थी...जिनमें से सच कहूँ तो कइयों का मतलब तक मुझे नहीं मालूम था। बस इतना पता था, वे गन्दी गालियाँ थी और अच्छे लोग उनका प्रयोग यूँ खुलेआम नहीं करते। पर ऐसे 'पिच्च' से थूक देना...? अभी रवीश यहाँ होते तो...?
पर अगर रवीश होते, तो वह बुरी लड़की यहाँ होती क्या...?
उसे भी जैसे अपनी इस भूल का अन्दाज़ा हो गया था। तभी तो 'ओह शिट' कहते हुए अपने सिगरेट के बाकी बचे हिस्से को टेम्परेरी ऐश-ट्रे में मसल वह एकदम उछल कर खड़ी हो गई... सॉरी यार...एक कपड़ा दे दे। अपन झट से इधर साफ़ कर दूँगी। आय एक एक्स्ट्रीमली सॉरी...जाने कितने साल बाद किसी और के घर में ऐसे बैठी हूँ न। साऽऽऽला...अब कोई तमीज़ याद ही नहीं।
उस जैसी बेफ़िक़्र लड़की को यूँ बेचैन-परेशान देख कर जाने क्यों मैं हँस पड़ी...अरे बाबा...इट्स ओके... । होता है...होता है...सबके साथ होता है। मैं भी एक बार कार से जा रही थी न...तो एक मच्छर जाने कैसे मेरे मुँह में चला गया था...और हड़बड़ा कर मैने भी तुरन्त थूक दिया था। भूल गई थी कि खिड़की का शीशा बन्द है। कहते-कहते मेरी हँसी को ब्रेक लग गया था। उस दिन चलती कार को साइड में रोक कर न केवल उसी समय रवीश ने मुझसे थूक साफ़ कराया था, बल्कि उसके बाद एक हफ़्ते तक सज़ा के तौर पर रोज़ सुबह और रात को मुझे कार का कोना-कोना साफ़ करना पड़ा था। मुझे तब तक छुट्टी नहीं मिलती थी जब तक रवीश मेरे काम से संतुष्ट नहीं हो जाते थे।
रवीश को गन्दगी बिल्कुल पसन्द नहीं न।
बुरी लड़की को जाने कैसे मेरी आँखों का धुँधलापन नज़र आ गया। उसने बिना कुछ कहे आगे बढ़ कर मुझे अपनी बाँहों में ले लिया। महीनों का जमा सैलाब रोकते-रोकते भी बह निकला था। मैं भी नदी बन गई थी।
जाने इस बाढ़ में घर डूबते हैं या नहीं...?
बुरी लड़की से मेरी वह दूसरी और आखिरी मुलाक़ात थी। दो दिन बाद ही मैं भैया कि सगाई के लिए मायके गई और एक हफ़्ते बाद जब वापस लौटी तो पता चला, बिल्डिंग के सेक्रेटरी को सरेआम बुरी तरह पीटने और अभद्र भाषा का प्रयोग करने के इल्ज़ाम में उसे पुलिस पकड़ के ले गई। उसका गिना-चुना सामान भी निकाल कर फेंक दिया गया था, जिसे लॉकअप से छूटने के बाद वह आकर ले गई... । अब वह कहाँ थी, किसी को नहीं पता। मैं पूछती भी तो किससे...?
जाने क्यों मुझे अकेलापन लगने लगा था।
एक और महीना ऐसे ही निकल गया। रोज़ सूरज उगता था...रोज़ चाँद अपने नए आकार में मेरे फ़्लैट की खिड़की से झाँकता था...और रोज़ मैं किसी-न-किसी बात पर रवीश से डाँट सुनती थी। बाकी यादें तो अब भी इधर-उधर बिखरी रहती थी, पर बुरी लड़की की याद को मैने करीने से...सबसे छुपा कर किसी सुरक्षित कोने में रखा हुआ था...जहाँ से जब भी मौका मिलता, मैं उसे निकाल कर तक लेती।
मुझे अपने माथे पर उसके होंठो का स्पर्श क्यों महसूस होता था...?
वो शाम भी तो बस ऐसी ही बाकी शामों की तरह लग रही थी। पर रवीश जब घर आए, वह कुछ बदले-बदले से लगे। आँखें कुछ चढ़ी-सी... लाल-लाल...और चाल में हल्की लड़खड़ाहट। किचन से उन्हें ऐसे आया देख कर मैं जल्दी से गैस बन्द करके उनकी ओर लपकी थी, शायद तबीयत कुछ ख़राब है...पर मुँह से आते भभके ने मेरे क़दम वहीं रोक दिए थे। अक्सर सिर्फ़ एक-दो पैग पीकर कन्ट्रोल में रहने वाले रवीश शायद आज कुछ ज़्यादा ही पी आए थे...मुझे ऐसा ही लगा...पर मैं चुप रही। आज वैसे ही लन्च पसन्द न आने के कारण वह भरी थाली छोड़ कर चले गए थे...मैं अभी कोई बात करके उनका मूड नहीं बिगाड़ना चाहती थी। वैसे भी नशे में कन्ट्रोल से बाहर रवीश को छेड़ना किसी बर्रे के छत्ते में हाथ डालने जैसा होता।
बर्रे का डंक अन्दर ही रह जाता है न।
खाना परोसते समय मुझे याद आया...टेबल पर खीर रखना तो मैं भूल ही गई। उसे फ़्रिज़ से लाने मुड़ी ही थी कि रवीश ने कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरी कलाई चिलक उठी। पैसा आया...? कलाई वैसे ही मरोड़ते रवीश ने अपनी अधमिची आँखें मेरी धुँधला रही आँखॊं में डाल दी। अगले हफ़्ते भैया कि शादी में हम दोनों के जाने के लिए रवीश ने माँ-पापा से दो लाख देने की शर्त रखी थी। न देने की स्थिति में भैया को अपनी एकलौती बहन के बग़ैर ही घोड़ी चढ़नी होगी।
आखिर उनको मिल रहे दहेज का बहुत कम प्रतिशत ही तो थे ये रुपए... ।
मेरे 'ना' में सिर हिलाते ही रवीश का पारा चढ़ गया। साऽऽऽले...मा...कमीनेऽऽऽ...एकलौती लड़की-जमाई को पैसे देने में मर रहे हैं। भो...केऽऽऽ।
रवीश के मुँह से मेरे माता-पिता के लिए झर रही गन्दी-गन्दी गालियाँ किसी लावे की तरह मेरे कानों में उतर रही थी। मैने तब भी अपने को भरसक संयत रखने की कोशिश की...देखिए... आप ऐसी गालियाँ मेरे मम्मी-पापा को नहीं दे सकते। जब मैं आपके माँ-बाप का सम्मान करती हूँ तो आपको भी मेरे माता-पिता को वैसा ही सम्मान देना होगा।
रवीश ने टेबल पर रखे खाने को हाथ मार कर नीचे फेंक दिया। जलन और नफ़रत से उनका मुँह लाल होने के साथ-साथ अजीब तरह से विकृत लग रह था। मेरी कलाई और ज़ोर से मरोड़ते हुए उन्होंने मुझे वहीं सेटी पर पटक दिया...मुझसे ज़बान लड़ाएगी तू...? तेरी इतनी हिम्मत...? देखेगी मुझसे ज़बानदराज़ी करने का नतीज़ा...?
मेरे पैरों को अपने घुटनों के बीच दबाए हुए रवीश ने मेरे बालों को अपनी मुठ्ठी में जकड़ लिया था। उनका दूसरा हाथ मेरे गिरेबां की ओर बढ़ ही रह था कि जाने कहाँ से सारी ताकत जुटा कर मैने उनके हाथ पर भरपूर शक्ति से अपने दाँत गड़ा दिए... । बिलबिला कर उन्होंने अपना हाथ हटाया ही था कि मैने मौके का फ़ायदा उठा कर उन्हें परे धकेल दिया...और इससे पहले कि इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से मोर्चा लेने के लिए वह तैयार हो पाते...मैने बिना सोचे-समझे उनके सीने पर सवार होकर उन्हें दो-तीन हाथ जमा दिए... । मैं लगातार चीखे जा रही थी...आइंदा मेरे साथ ऐसी ज़बर्दस्ती की कोशिश की तो अन्जाम बहुत बुरा होगा।
मैने तो बुरी लड़की की याद बड़े जतन से सबसे छुपा कर रखी थी...तो फिर ये अचानक आज सदमे से फटी आँखें लिए ज़मीन पर पड़े रवीश को कैसे दिख गई... ?