बुरे फँसे डींग हाँककर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आपको दिन दहाड़े ऐसे सज्जन मिल जाएँगे, जिनकी दिनचर्या में डींग हाँकना भी शामिल रहता हैं अगर ये सज्जन ऐसा न करें, तो उदरशूल से इनका जी घबराने लगेगा। डींग हाँके बिना इनकी ज़ुबान की खुजली नहीं मिटती। रोज़मर्रा डींग हाँकने के परम पवित्र क्रम में लीन रहने के कारण उससे पीछे हटना मूँछ मुड़ाने जैसा अपमान है। डींग हाँकना भी एक प्रकार का नशा है। जिस प्रकार पियक्कड़ आदमी न गली देखता है, न चौराहा, न सुबह देखता है, न शाम, न गैरों को देखता है न सगों को, इसी प्रकार डींग प्रेमी कहीं भी खड़ा हो, अपनी डीेंगों से लोगों का मनोरंजन करता रहता है। उसे फ़िक्र नहीं रहती कि कोई उसे कितने धैर्य से झेल रहा है। किसी भी विषय पर चर्चा छेड़िए, डींगधारी हर जगह अपने सींग फँसा लेगा।
शनिचर जी हमारे दफ़्तर में नए-नए आए। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया जैसे कि वे इस दुनिया के अकेले आदमी हों। ईश्वर ने इनको प़फ़ुर्सत के समय या किसी गजटेड छुट्टी में गढ़ा था। इन्होंने बॉस के सामने अपना ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया। इनके परदादा किसी बादशाह की चिलम भरा करते थे। चिलम भरने की महारत से खुश होकर बादशाह ने इनके परदादा को पाँच गाँव की जमीदारी बख्श दी थी। शनिचर जी बॉस की चिलम भरने की दिली ख़्वाहिश तो रखते हैं; लेकिन मजबूरी यह है कि बॉस को सिगरेट, बीड़ी के धुएँ से एलर्जी है। एक दिन बैठे बिठाए आमों की चर्चा चल निकली। इन्हें नौकरी पर आए छह दिन ही हुए थे। बॉस को मुट्ठी में कर लेने का यह अच्छा मौका था। शनिवार जी ने रद्दा लगाया-"सर, मेरे यहाँ सौ बीघे के खेत में आम का बाग़ है। हमारे बाग़ का आम धुर कश्मीर तक जाता है। बेहट का फजली और दसहरी लाजवाब है।"
"इस बार घर जाओ, तो एक पेटी आम लेते आना।"-साहब ने होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा।
"अरे साहब एक पेटी क्या चीज है? चार-चार पेटी आम तो हम अपने नौकरों के यहाँ भिजवा देते हैं। आप दस-बीस की बात कीजिए साहब।"-शनिचर जी हुलसा उठे।
"भाई दस-बीस का क्या करना, एक ही बहुत है। मुझे फलों की कोई दुकान नहीं लगानी है।"
"ठीक है साहब, जब आप एक कह रहे हैं, तो एक ही सही।"
शनिचर जी घर पहुँचे। पत्नी से बोले-"तुम मुझे उल्लू समझती थी। अपने बॉस मेरे एक इशारे पर नाचते हैं। जो भी काम कहूँ, प़फ़ौरन कर देते हैं। इतना असर है उन पर मेरा।"
"तो फिर मेरी बहन को अपने दफ़्तर में नौकरी दिला दीजिए न!"
"इस तरह के कामों से मेरा असर ख़त्म हो जाएगा। साहब से और मैं नौकरी माँगूँ! यह मेरी शान के खिलाफ है।"
"बीच में तुम्हारी शान कहाँ से आ गई? चलिए और न सही मेरे मायके वाले हलवाहे के बेटे को चपरासी ही लगवा दीजिए। गरीब की मदद हो जाएगी।"
"अरे गरीब की मदद तो बाद में होगी, कहीं वह हलवाहे का बेटा मेरी इज्ज़त में बट्टा न लगा दे! आख़िर पूरे दफ़्तर में मेरी कुछ हैसियत है।"
"हफ्ऱते भर में तुम्हारी कुछ हैसियत बन गई होगी, मुझे विश्वास नहीं।"
"कभी आकर ख़ुद देख लेना। पता चल जाएगा। खैर मैं देखूँगा। चपरासी की जगह खाली हो तो ज़रूर काम करा दूँगा। बस, आम की एक पेटी का सवाल है। साहब को ख़ुश करना पड़ता है न!"
"साठ-सत्तर में एक पेटी आ जाएगी।"
"लेकिन अभी मेरे पास फ़ालतू पैसा नहीं है।"
"ठीक है सत्तर रुपये मैं देती हूँ। आप अपने साहब के घर आम पहुँचा दीजिएगा; लेकिन चपरासी की नौकरी पक्की कर लेना।"
शनिचर जी किसी तरह आमों की पेटी खरीदकर बस पर लदवाने में सफल हुए। कंडक्टर ने डबल किराया वसूला। बस पर चढ़ाने के पैसे अलग वसूले। जहाँ भी बस रुकती, शनिचरजी खिड़की से गर्दन निकालकर देखते, कहीं कोई आम की पेटी न उतार ले जाए। आखिरी स्टॉप पर बस रुकी। सवारियाँ लदड़-फदड़ करके उतर गईं। बस के ड्राइवर और कंडक्टर चाय पीने के लिए झोपड़ ढाबे में जा घुसे। अब समस्या थी-बस की छत से पेटी कौन उतारे? सब लोग अपना-अपना सामान उतारकर चलते बने। एक रिक्शेवाले की खुशामद की। दो रुपये दिए, तब जाकर वह बस की छत पर पहुँचा। सीढ़ियों पर अधबीच में आकर उसने शनिचर जी को पेटी थमाई। बोझ की झोंक में शनिचर जी पुराने किले की तरह पेटी सहित ध्वस्त हो गए। पेटी की एक फट्टी उखड़ गई। टाँग पर चोट लगी, सो अलग। उसने पत्थर से फट्टी को बमुश्किल ठोंका। इतने में कहीं से पुलिस के दो सिपाही आ धमके। एक ने डंडा घुमाते हुए पूछा-"क्या है इस पेटी में?"
"क्या है?" शनिचर झुँझलाया-"क्या होता, आम है।"
"आम है, अफ़ीम क्यों नहीं? हेरोइन भी तो हो सकती है!"-दूसरा कड़का-"पेटी खोलकर दिखाओ।"
मरे मन से शनिचर ने पेटी की ऊपर वाली फट्टियाँ उखाड़ीं और झुँझलाकर कहा-"लो देख लो, कहाँ है इसमें अफीम?" दोनों ने पेटी की ऊपर से नीचे तक टोह ली और एक-एक आम निकालकर चूसना शुरू किया। "बुरा मत मानो भाई। तुम भले आदमी हो। यहाँ कल ही दो लोग पकड़े गए। फलों की पेटी में अफ़ीम ले जा रहे थे। ग़लत लोगों के करण अच्छों को भी कष्ट भुगतना पड़ता है।"
शनिचर जी बेबसी से दोनों को घूर रहे थे, जैसे उन्होंने आम नहीं वरन् उसका कलेजा निकाल लिया हो।
अब उसे जल्दी थी साहब के यहाँ जाने की। दो बज गए थे। साहब का बंगला तीन किलोमीटर था। साथ में पेटी देखकर रिक्शा वाले ने सात रुपये माँगे। शनिचर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया-"क्यों लूट मचा रखी है? रोज़ तो तीन रुपये लेते हो।"
"बाबू जी, आपको अकेले चलना हो, तो तीन रुपये ही लेंगे।"
घायल टाँग दर्द कर रही थी। जेब में केवल पाँच रुपये बचे थे। उसने रिक्शे वाले पर अंतिम हथियार चलाया-"पाँच रुपये लेने हो तो चलो, नहीं तो अपना रास्ता नापो।" रिक्शावाला शायद इसी उत्तर के इन्तज़ार में था। उसने रिक्शा मोड़ा-"ठीक है, बैठे रहिए साहब! जब कोई पाँच रुपये लेने वाला आ जाए, तो जाइएगा।" शनिचर जी रुआँसे हो गए।
धूप में और तीखापन आ गया था। बंगले की ओर जाने के लिए अब कोई रिक्शेवाला तैयार नहीं होगा। उधर से सवारी न मिलने के कारण खाली आना पड़ता है। जी कड़ा किया। पेटी कंधे पर रखी। पेटी की एक फट्टी कंधे में गड़ी जा रही थी। कुछ ही दूर चलने पर साँस फूलने लगी। शरीर पसीने से तर हो गया। धीरे से पेटी नीचे उतारी। दूसरे कंधे पर लटके बैग से तौलिया निकाला। पसीना पोंछा। फिर तहाकर तौलिया कंधे पर रखा। उस पर पेटी रखी। कुछ दूर चलने तक तो ठीक रहा। तौलिया कंधे से बार-बार खिसक जा रहा था। पेटी में से एक शैतान कील गर्दन में चुभने लगी थी। जी में आया-पेटी को फेंक खाली हाथ चला जाए। फिर मन मारकर रह गया। आख़िर सत्तर रुपये ख़र्च किए हैं। ढोने का किराया और दिक्कत भी शामिल है। साहब को खुश भी तो करना हैं सिर्फ़ इसी बात से उसे राहत मिली। थोड़ी दूर पर उसे सुस्ताना पड़ता। तीन किलोमीटर की दूरी तीन सौ किलोमीटर लम्बी लग रही थी। शैतान की आँत की तरह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। कंठ प्यास से सूखने लगा। उसे लगा-सूर्य को भी उससे दुश्मनी हो गई है; नहीं तो क्या पड़ी थी इतनी धूप बरसाने की।
उसका पोर-पोर दुखने लगा। तीन बज गए। ज़ोरों की भूख लग आई। आमों के चक्कर में खाना-पीना भी भूल गया। मर-खपकर साहब के बंगले पर पहुँचा। आस-पास सन्नाटा फैला हुआ था। पेटी नीचे रखकर वह धम्म से बैठ गया। गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। कन्धे पर ध्यान गया-कमीज मुचड़ गई थी। बालों में धूल भरी हुई थी। जैसे ही दरवाज़्ो की ओर बढ़ा, पास के पेड़ के नीचे बैठे दो कुत्ते उस पर गुर्रा उठे। शायद वे उसका हुलिया देखकर चौंक गए थे। उसने कॉलबेल पर हाथ रखा, बेल घरघराती रही। डर के मारे हाथ हटाना भी भूल गया। दरवाज़ा खोलते ही मेम साहिबा झल्लाईं-"क्या बात है?"
"मेम साहिबा, आम—" शनिचर इतना ही कह पाया था।
उसकी बात को अनसुना करके वह बिफर उठीं-"हमें नहीं खरीदने आम। चले आते हैं भरी दुपहरी में!"-और दरवाज़ा बन्द कर लिया। शनिचर जी माथे पर हाथ रखकर ख़ुद को कोस रहे थे। अगर डींग न हाँकते, तो आज यह दुर्गति न झेलनी पड़ती। दोनों कुत्ते इस समय उन्हें सहानुभूतिपूर्वक देख रहे थे।