बुर्के में बुद्धि, माथे पर लिपस्टिक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 फरवरी 2017
एक राजनीतिक धारा विशेष को समर्पित पहलाज निहलानी की अध्यक्षता वाले फिल्म सेन्सर बोर्ड ने प्रकाश झा की फिल्म को प्रमाण-पत्र देने से इनकार कर दिया है। इस विवाद के कारण फिल्म सुर्खियों में आ गई है। सिताराहीन फिल्मों को इस तरह के विवाद मदद करते हैं। एक फूहड़ फिल्म 'किस्सा कूर्सी का' आपातकाल में प्रतिबंधित कर दी गई थी परंतु कुछ समय बाद नई सरकार ने प्रतिबंध हटा लिया था, जिस कारण कुछ दर्शक फिल्म देखने गए और उन्हें बहुत निराश होना पड़ा। साधन संपन्न निर्माता अदालत जा सकता है परंतु फैसला आने में समय बहुत लग सकता है।
इस प्रकरण में महत्वपूर्ण है दर्शक, जिसे सरकार चुनने का अधिकार है परंतु अपने मनोरंजन को चुनने का अधिकार नहीं है। सिनेमा मुफ्त में नहीं दिखाया जाता और टिकट खरीदने वाले की इच्छा महत्वपूर्ण है। जेम्स जॉयस के उपन्यास 'यूलिसिस' पर प्रतिबंध लगाया गया था और जज वूल्जे ने फैसला दिया था कि किसी भी रचना का आकलन उसके समग्र प्रभाव के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि कुछ पंक्तियों के कारण रचना प्रतिबंधित की जाए। सेन्सरशिप पर इरविंग वैलेस के उपन्यास 'सेवन मिनिट्स' में अश्लीलता के आरोप पर रोके जाने वाले उपन्यास के बचाव पक्ष का वकील एक गवाह को दो अलग किताबों से लिए मात्र एक-एक पृष्ठ पढ़ने को कहता है। वह स्त्री जिस पृष्ठ को अश्लील मानती है, वह एक महान धार्मिक ग्रंथ से निकाला गया पृष्ठ है और जिसे शालीन एवं सुसंस्कृत मानती है वह पृष्ठ 'लैडी चैटर्लीज़ लवर' से लिया गया है। दोनों ही पृष्ठ मू ल रचनाओं से टाइप कराकर दिए गए थे ताकि किताब का नाम गवाह को मालूम न हो सके।
इस फिल्म के नाम में 'बुर्के' शब्द के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि यह पात्र इस्लाम धर्म को मानने वाली स्त्री है। चीन में रहने वाला मुसलमान, अमेरिका में रहने वाले मुसलमान से अलग विचार का व्यक्ति होता है। बुर्के को परम्परा के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है और लिपस्टिक को आधुनिकता से जोड़ा जा रहा है। ज्ञातव्य है कि अमेरिकी फिल्म 'लिपस्टिक' से प्रेरित होकर बलदेवराज चोपड़ा ने 'इंसाफ का तराजू' नामक फिल्म बनाई थी, जिसका विषय दुष्कर्म था। हाल ही में प्रदर्शित 'पिंक' का विषय भी लगभग समान था परंतु दोनों फिल्मकारों का अंदाज-ए-बयां अलग-अलग है।
दरअसल, फिल्म का विषय महिलाओं के यौन अधिकारों से जुड़ा है। हमारे शास्त्रों से संविधान तक महिला को समानता दी गई है और देवी की तरह पूजनीय भी प्रस्तुत किया गया है परंतु यथार्थ में वह आज भी दोयम दर्जे की नागरिक ही है। 'सेकंड सेक्स' नामक पुस्तक में महिला का अध्ययन अत्यंत गहराई से किया गया है और सैकड़ों वर्षों में किए गए सतही परिवर्तन के भी बखिये उधेड़ दिए गए हैं। इस पुस्तक की लेखिका सिमॉन द व्बॉ ने अपने एक लेख में लिखा कि जब मध्यम आय वर्ग की स्त्री पूंजीवादी सौंदर्य प्रसाधन, जिसमें लिपस्टिक शामिल है, को नकार देती है और अपनी स्वाभाविक देह दिखाती है तो पुरुषों को पसीना आ जाता है, उनके घुटने कांपने लगते हैं। सृष्टि ने महिला को पुरुष से अधिक मजबूत बनाया है परंतु पुरुष ने षड्यंत्र रचकर उसे कभी पूरी तरह अभिव्यक्त होने के अवसर ही नहीं दिए। इस साजिश का प्रारंभ आईने से किया गया कि स्त्री अपने रूप को निहारे और कोई प्रश्न नहीं पूछे। उसे रूप गर्विता बनाकर उसका शोषण किया जाता है। जरा गौर फरमाएं कि अधिकतर दुष्कर्म एकाधिक पुरुषों ने किए हैं और प्राय: स्त्री को मार-पीटकर उसकी नीम बेहोशी की दशा में ही दुष्कर्म किए गए हैं। अगर प्रारंभ से ही समानता को व्यवहार में निभाया जाता तो आज तक कितनी अधिक प्रगति हो जाती। हमने दो पहियों पर चलने वाली जीवन की गाड़ी के एक पहिये को पंक्चर ही रखा है। केवल समान मताधिकार से कुछ नहीं होता। स्त्री के प्रति पुरुष का दृष्टिकोण हमेशा ही संकुचित रहा है। तथाकथित विकसित पश्चिम में तो महिला को मताधिकार भी लंबे संघर्ष के बाद ही मिला है।
सारी असमानता व अन्याय की स्थितियां साहित्य, सिनेमा और संसद से सड़क एवं बीहड़ तक में कायम है। महिलाओं के तैंतीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व का मामला संसद में दशकों से अटका हुआ है। सरकारें बदलती हैं परन्तु स्त्री के प्रति हमारा नज़रिया नहीं बदलता।