बुलाता है कदम्ब की मनोभूमि / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बुलाता है कदम्ब की मनोभूमि (डॉ.उर्मिला अग्रवाल)
एन्साइक्लोपीडिअ ब्रिटानिका के अनुसार कतौता की जो जानकारी दी गई है, उसके अनुसार 5-7-7 का कतौता युग्म ही सेदोका बनता है। कतौता अपने आप में स्वतन्त्र कविता नहीं, बल्कि सेदोका के एक भाग के रूप में ही आता है। 5-7-5=17 केवल ताँका के प्रथम भाग के रूप में ही प्रयुक्त होता रहा है-"katauta, a Japanese poetic form that consists of 17 or 19 syllables arranged in three lines of either 5, 7, and 5 or 5, 7, and 7 syllables. The form was used for poems addressed to a lover, and a singlekatauta was considered incomplete or a half-poem. A pair of katautas of the 5, 7, 7 type were called asedōka; the 5, 7, 5 katauta may have been the top part of the early tanka. Exchanges of such poems made up a longer question-and-answer poem. The form was rarely used after about the 8th centuryAD. -" katauta"। Encyclopædia Britannica. Encyclopædia Britannica Online.
Encyclopædia Britannica Inc., 2012. Web. 12 Jul. 2012
अंग्रेज़ी की भाषा-व्यवस्था बलाघात पर आधारित है, जिसे सिलेबल (अक्षर) के रूप में स्वीकार किया जाता है; अत: वह व्यवस्था हिन्दी के लिए न उपयुक्त है और न ग्राह्य। इन छन्दों के लिए जो वर्ण के बदले में बार-बार अक्षर की बात करते हैं, उस अन्तर को इस निम्नलिखित सेदोका के उदाहरण से समझा जा सकता है-
I watch the kitten =1-1-1-2=5
tangle in its ball of yarn. =2-1-1-1-1-1=7
So small now, soon she will grow. =1-1-1-1-1-1-1=7
Purring happily =2-3=5
She licks her tiny grey paws, =1-1-1-2-1-1=7
oblivious to the world. =4-1-1-1=7
नेपाली भाषा में सेदोका पहले से लिखे जा रहे हैं। लिपि देवनागरी होने के कारण नेपाली भाषा में हिन्दी की तरह ही छ्न्द-विधान अपनाया गया है। अमर त्यागी का (मझेरी डट कम में 8-4-2008 को प्रकाशित यह सेदोका देखिए-
पूणिर्मा रात / प्रकृति मनोरमा / साथमा प्रियतमा
स्नेहिल मात / संवेदना उछाल / हर्षोन्माद उत्ताल! (www. majheri. com / taxonomy / term / 2251)
हिन्दी में एक वर्ग ऐसा है जिसके ऊपर छन्द सवार रहता है। छन्द अपना कोड़ा फटकारता है और वह दौड़ते-हाँफते छन्द ही लिखता है उसमें काव्य है या नहीं, उससे उसका लेना-देना नहीं। मेरा सोचना है कि भारतीय-अभारतीय कोई भी छन्द हो, उसकी गरिमा गहन और मर्मस्पर्शी काव्य से ही बनती है। हर चौपाई लिखने वाला तुलसीदास की तरह सर्व स्वीकृत नहीं हो सकता। हनुमान चालीसा सात समन्दर तक लोकप्रिय है। यदि कोई इस छन्द में किसी शोषक नेता का गुणगान करने लग जाए तो क्या उसे काव्य मान लेंगे? कदापि नहीं! इसी तरह यदि कोई सेदोका में अच्छा काव्य प्रस्तुत करे, तो उसका स्वागत होना चाहिए. हिन्दी में अरुचिपूर्ण और कुरुचिपूर्ण तुकबन्दी का ठीकरा पाठकों के सिर पर फोड़ने वालों की कमी नहीं है। अल्प समय में त्रिवेणी के माध्यम से 'सेदोका' को भारत और भारत से बाहर जितनी स्वीकृति मिली है, वह इस छन्द की शक्ति को दर्शाती है। 'अलसाई चाँदनी' (21 कवियों के 326 सेदोका-सम्पादक-रामेश्वर काम्बोज-डॉ भावना कुँअर और डॉ हरदीप कौर सन्धु) इसका ताज़ा उदाहरण है। डॉ.उर्मिला अग्रवाल ने अपनी काव्य-यात्रा में जहाँ मुक्त छन्द में 'पीड़ा का राजमहल' खण्डकाव्य रचा, वहीं आपने हाइकु, ताँका साहित्य को भी समृद्ध किया। इसी कड़ी में 'बुलाता है कदम्ब' सेदोका-संग्रह को देखा जा सकता है। मेरी जानकारी के अनुसार हिन्दी के किसी एकल कवि का यह अभी तक का-का पहला सेदोका-संग्रह है।
इस संग्रह के सेदोका का मूल स्वर है-प्रेम। अन्य भाव भी छोटी-छोटी लहरों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। जीवन में बहुत कम ऐसे लोग होंगे, जिनको प्रेम में सफलता मिली हो। जिसको मिल जाती है, वह न उसकी क़द्र करता है और न से सहेज-सँभालकर रखता है। जिसे नहीं मिलती, वह उसके लिए आजीवन व्यथित रहता है। प्रकृति के सुखद उपादान भी उसे दु: खद प्रतीत होते हैं-
होती थी खुश / बरसते थे मेघा / आज होती उदास /
लगता जैसे / बादल नहीं मेरे / नैना बरसते हैं।
अतीत की याद और अधिक व्याकुल कर देती है; क्योंकि उस समय जो मुस्कानें थीं, वे आज छिन गईं हैं-
मैं न जीती हूँ / और न मरती हूँ / बस सोचा करती-
कभी ऐसा था / जब मुस्कुराती थी / ज़िन्दगी में चाहतें।
पिंजरे की मैना-सा जीवन बला किसको अच्छा लगेगा? जीवन में बन्धन और व्यवधान ही आदमी को सबसे ज़्यादा विवश करते हैं। इस विवशता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति पिंजरे की मैना के माध्यम से बहुत मार्मिक बन पड़ी है-
सदा–सदा से / तू पिंजरे की मैना / बंधन ही सच्चाई
रो–रो के जीती / फिर भी दुनिया से / है न शिकवा कोई.
अकेलेपन की पीड़ा हृदय को और भी ज़्यादा उद्वेलित करती है। यह अकेलापन और उससे उपजी विवशता किसी भी परिवारीजन के कारण हो सकते हैं-
चला गया तू / रोजी रोटी के लिए / घर–बार छोड़ के
सोच न पाती / उन्नति पर हँसूँ / या वियोग में रोऊँ।
यह अकेलापन और भारी हो उठता है तो फिर प्रभु ही एक मात्र सहारा प्रतीत होते हैं। वे ही अकेलेपन से उबार सकते हैं-
पार उतारो / अपनी नैया अब / खेवनहार प्रभु
डूब रही मैं / जग की लहरों में / कोई न बाँह गहे।
कवयित्री का मन नारी की उपेक्षा के कारण विद्रोह से भर उठता है; उसका मुख्य कारण है, युगों-युगों से की जा रही नारी की उपेक्षा, उसके साथ किया जाने वाला छल। पूजा की ओट में किया जाने वाला यह छल भी बड़ा शालीन है। इस काम में देवता भी पीछे नहीं रहे-
देवों ने छला / नारी को बार–बार / बातों में मान दिया
नारी की पूजा / होती है जहाँ, वहाँ / रहते हैं देवता।
कवयित्री को प्रकृति का सौन्दर्य आकृष्ट करता है। धूप की चिड़िया का प्रयोग बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है-
चहक उठी / जो धूप की चिडि़या / छँट गया कोहरा
भागी सरदी / भर गया उष्मा से / सृष्टि का कोना-कोना।
यही प्रकृति अपने पूरे सौन्दर्य के साथ मुग्ध करते हुए प्रियतम की स्मृति के कारण पुन: उद्दीपन रूप में भी चली आती है; उस समय यह मन में सिहरन भर देती है-
सावन मेघ / गमक उठी धरा / मिट गया अकाल
मेघों को देख / सिहर उठा मन / प्रीतम की याद से /
कहीं यह पुकार व्याकुल कण्ठ का विगलित करने वाला निहोरा बन जाती है। यही कारण है कि 'बुलाता है कदम्ब' का शीर्षक सेदोका अनुपम भाव-सौन्दर्य का उदाहरण बन जाता है; जिसमें कुछ न मिले बस राधा की छाया ही मिल जाए तो बहुत है।
ओ कनुप्रिया / पुकार–पुकार के / बुलाता है कदम्ब-
कान्हा नहीं तो / उसकी राधिका की / छाया ही मिल जाए.
काले मेघों के बीच ज्योति बिखेरती स्वर्णिम रेखा का बिम्ब कृष्ण और राधा कृष्ण के लिए बहुत सार्थक प्रतीत हो रहा है-
ज्योतित हुई / एक स्वर्णिम रेखा / काले मेघों के बीच
सजी हो जैसे / राधा जी की चुनरी / श्याम जी के तन पर।
विरह और निराशा से आन्दोलित और व्यथित होते हुए भी कवयित्री आशा और आस्था का आँचल नहीं छोड़ती है। जीवन में सुख-दु: ख, आशा-निराशा सब वैसे ही जुड़े हैं, जैसे नाखून के साथ मांस। सदा एक जैसी मन: स्थिति में नहीं जिया जा सकता। इसलिए दिए के माध्यम से सन्देश दिया गया है-
माटी का दिया / नेह से भरा हिया / जीत लेता है जिया
औरों के लिए / फैलाता है प्रकाश / खुद पीता अँधेरा।
यही नहीं आपने हर निराश-मन को खुशी का एक विकल्प दिया है स्नेह की ज्योति जलाना-
जलेंगे दीप / खो जायेगा अँधेरा / यदि तुम चाहो तो
भर लो नेह / जला लो प्रेम ज्योति / अपने जीवन में।
डॉ उर्मिला अग्रवाल का यह संग्रह केवल प्रेम तक ही सीमित नहीं, वरन् जीवन-जगत के विभिन्न पक्षों का स्पर्श करता है। आपकी भाषा में बोलचाल के और उर्दू के नित्य-प्रति के प्रयोग होने वाले शब्दों का सहज समावेश हुआ है, अत: सामान्य पाठक वर्ग भी अपने लिए कुछ न कुछ सार्थक खोज लेगा।
मैं आशा करता हूँ कि हिन्दी के इस एकल संग्रह के बाद हमारे कवि साथी इस परम्परा को अपनी भावपूर्ण रचनाओं के बल पर और आगे बढ़ाएँगे। -0-
( 4 सितम्बर, 2012)