बुलावा / अंजू खरबंदा
ठक-ठक...!
'कौन? दरवाज़ा खुला है, आ जाओ।'
'राम राम चन्दा!'
"राम बाबूजी! आप यहाँ!"
क्यो मैं यहाँ नहीं आ सकता? '
'आ क्यो नहीं सकते! पर यहाँ आता ही कौन है!'
'आया न आज! ये कार्ड देने मेरे बेटे की शादी का!'
'कार्ड! बेटे की शादी का!'
'हाँ अगले महीने मेरे बेटे की शादी है तुम सब आना।'
'और ये मिठाई सबका मुँह मीठा करने के लिए!'
काँपते हाथों से मिठाई का डिब्बा पकड़ते हुए चंदा बोली-' हम तो
जबरदस्ती पहुँच जाते है शादी ब्याह या बच्चा पैदा होने पर, तो लोग
मुँह बना लेते हैं और आप हमे बुलावा देकर...! ' आगे के शब्द चंदा
के गले में ढही अटककर रह गए।
'चन्दा, बरसों से तुम्हे देख रहा हूँ सबको दुआएँ बाँटते!'
'.........'
'याद है जब मेरा बेटा हुआ था तो पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया था तुमने ख़ुशी के मारे।'
'हाँ और आपने ख़ुशी खुशी हमारा मनपसंद नेग भी दिया था!'
'तुम लोगों की नेक दुआओं से मेरा बेटा पढ़ लिखकर डॉक्टर बन गया है... और तुम सबको उसकी शादी में ज़रूर आना है!'
'क्यों नहीं आएँगे बाबूजी! ज़रूर आएँगे! आपने इतनी इज्जत-मान से बुलाया है, तो हम क्यों न आएँगे।' कहते हुए चंदा की आँखे गंगा-जमुना-सी बह उठी और उसका सिर बाबूजी के आगे सजदे में झुक गया।
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