बूँद-बूँद से भरा सरोवर /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
काव्य के सम्बन्ध में भारतीय और पाश्चात्य साहित्य शास्त्रियों की अनेक परिभाषाएँ हैं। वे भले ही निकष पर पूर्णरूपेण खरी न उतरें, लेकिन उनका जुड़ाव अच्छे साहित्य से है। आचार्य विश्वनाथ ने 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' (रसात्मक वाक्य ही काव्य है) कहा है, तो आचार्य मम्मट ने साहित्य के उद्देश्य में सब कुछ समाहित करते हुए उसके 'शिवेतरक्षतये' और 'कान्तासम्मित उपदेश' पर बल दिया है-
काव्य यशसेऽर्थकृतेव्यवहारविदे, शिवेतरक्षतये।
सद्य: परिनिर्वृत्तये कान्ता सम्मितयोपदेशयुजौ॥
पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं-रमणीयार्थ: प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्।
वर्ड्सवर्थ ने कविता के लिए कहा है-'Poetry is the spontaneous overflow of the feelings.' वहीं मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा है-'Poetry is the criticism of life' आज की हिन्दी कविता में इसके गठन को लेकर तीन वर्ग हैं-छन्दोबद्ध, मुक्त छन्द और छन्दमुक्त। छन्द को ही साध्य मानने वालों ने जहाँ इसे नीरस जोड़-तोड़ में उलझाया, वहीं मुक्तछ्न्द या छन्दमुक्त के बहाने खालिस गद्य परोसना शुरू हुआ। इस तरह के कवियों की आज भरमार है, जिनके लेखन में न भाव-संवेदना है, न भाषा की सहजता और सौष्ठव! प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों की स्थापना पर सार रूप में यह कहा जा सकता है कि काव्य में भाव, विचार, कल्पना की सहज प्रस्तुति ही उसे काव्य का स्थान दिलाती है। इस सन्दर्भ में अनिता ललित की क्षणिकाएँ और बड़ी कविताएँ विचारणीय हैं।
हिन्दी में क्षणिका के नाम पर चुट्कुले बाजी या सपाटबयानी का ही अधिक बोलबाला है। 'सरस्वती सुमन' और 'अविराम साहित्यिकी' के विशेषांकों ने ज़रूर इसे एक दिशा देने का सार्थक प्रयास किया है। संयमित जीवन जीना जिस प्रकार चुनौती है, उसी प्रकार क्षणिका–सृजन भी आसान नहीं है। इसमें भाषायी संयम की महती भूमिका है। इसमें कवि के पास शब्दाडम्बर का अवसर नहीं होता। जो कहना है, वह बहुत ही मितव्ययिता के साथ कहना होता है।
जीवन की खुरदुरी सच्चाई को अनिता ललित ने इन शब्दों में सजीव कर दिया है-क्यों रिश्तों में सुलह / क्यों ऐसी सफाई! / चुनने चले जो मोती / क्यों ख़ाक हाथ में आई!
सरल और निष्कपट व्यक्ति का जीवन तो पानी की तरह ही निर्मल है। प्रवाह उसका गुण भी है और उसकी नियति भी। जीवन में जब बाधाएँ और कष्ट जानबूझकर पैदा किए जाएँ, तब यह स्थिति सामने आती है-
अनजाने में ही सही / तुमने ही खड़े किए बाँध... अना के /
वरना...मेरी फ़ितरत तो पानी-सी थी!
हाथों की लकीरों में हम अपना भाग्य पढ़ते-परखते हैं। हाथ उठाकर जिसके लिए दुआ माँगी थी, यदि वही हाथ की लकीरों से निकल जाए तो क्या किया जा सकता है! अल्पतम पंक्तियों में आपने पूरा जीवन-दर्शन ही अनिता ललित ने उकेर दिया है-
हाथ उठाकर दुआओं में / तेरी खुशियाँ माँगी थी मैनें / नहीं जानती थी /
मेरे हाथों की लक़ीरों से ही / निकल जाएगा तू...!
जुदाई के पल दो प्यार करने वालों के लिए किस प्रकार अलग रुख़ अख़्तियार कर लेते हैं! एक उस जुदाई से टूट जाता है, दूसरा अप्रभावित रहकर आनन्दपूर्वक जीवन बिताता है। -तुमसे जुदा हुई / तो कुछ मर गया था मुझमें / जो मर गया था / उसमें ज़िंदा तुम आज भी हो...!
जीवन के सारे बंधन प्यार से सिंचित किए जाते हैं। जहाँ प्यार की नदिया की तरल धार नहीं, वहाँ सारे बन्धन सूखी सरिता की तरह दम तोड़ जाते हैं। जीवन की जंग केवल प्यार से जीती जा सकती है। अनिता की इस स्थापना से इन्कार नहीं किया जा सकता-
नदिया की धार जैसा जीवन / बहते रहो संग-संग, / सूरज की गर्मी, बादल का तांडव / जीतो सारी जंग / सींचो प्यार से हर बंधन को / भरो अनोखे रंग...!
जीवन की एक कटु वास्तविकता है-दूसरों की कमियों पर नज़र रखना, दूसरों पर पत्थर चलाना; लेकिन अपने बारे में कुछ न जानना। इतना भी समय न निकाल पाना कि दो पल अपने अन्तर्मन में झाँक सकें, खुद को जान सकें। आइना और पत्थर के प्रतीक का स्वाभाविक प्रयोग इस क्षणिका को धारदार बना देता है-
आईना तो हर दिल में होता है / फिर क्यों भटक जाती है नज़र / इधर उधर /
लिए हाथ में / कोई न कोई पत्थर...
एकबारगी यह लग सकता है कि अनिता का काव्य आत्मकेन्द्रित है; लेकिन गहराई से अवगाहन करने पर यह अहसास पुख़्ता होता है कि इनकी कविता में जीवन के विभिन्न रंग अपनी छटा बिखेरते नज़र आते हैं। जीवन की उदात्तता ही मानव को ऊँचाई प्रदान करती है। सिर्फ़ चार पंक्तियों में भाव, कल्पना और विचार का सौन्दर्य अनुस्यूत है-
चढ़ो ... तो आसमाँ में चाँद की तरह। / कि आँखों में सबकी...बस सको /
ढलो... तो सागर में सूरज की तरह / कि नज़र में सबकी टिक सको...!
उपर्युक्त क्षणिका में आसमान-चन्द्रमा, सागर-सूरज के युगल प्रयोग अर्थ के नए आयाम स्थापित करते हैं। साथ ही 'किसी की आँख का आँसू न बनने की उक्ति' जीवन की वह सकारात्मक सोच है, जो आदमी को इंसान का दर्ज़ा देती है-
बनकर जियो ऐसी मुस्कान... / कि... हर चेहरे पर खिलकर राज करो...!
न बनना किसी की... आँख का आँसू... / कि गिर जाओ ... तो फिर उठ न सको...!
बचपन की सादगी, निश्छलता किसका मन नहीं मोह लेती! सारी कायनात की बादशाहत एक तरफ़, बचपन का आनन्द एक तरफ़। रोना और खिलखिलाना दोनों ही बेजोड़ और दुर्लभ! विचार कीजिए इस ऊँचाई की क्षणिकाएँ कितनी लिखी गई होंगी!
काश लौट आए वह बचपन सुहाना / बिन बात हँसना। /
खिलखिलाना / हर चोट पर जी भर के रोना...!
रिश्तों की गहराई पर अनिता के बेवाक विचार इस क्षणिका में देखिए. जल में 'जीवन्त समाधि' का रूपक बहुत सटीक ही नहीं, वरन् गहन सम्प्रेषण की शक्ति भी लिये हुए है-
हम दोनों / नदिया के दो छोर के जैसे / साथ चलें पर मिल न पाएँ /
जो नापो गहराई...इस रिश्ते की / जल में जीवंत समाधि जैसी...!
समय के महत्त्व को स्वीकार करते हुए हर पल को पूर्णतया जीने की बात यह ताकीद करती है कि जीवन का अर्थ उसको पूरे मनोयोग से जीना और उसका आस्वाद है। यह आस्वाद ही जीवन की आशा है, शक्ति है।
वक़्त पर वक़्त को पहचान लो, / वक़्त के एहसान को जान लो, /
वक़्त के हर लम्हे को मान दो! / जो तुम्हारा है...उसे जाने न दो... /
क्या पता कुछ पल ही का हो... / मेहमान वो...!
और यह समय किसी के रुकने से रुकता नहीं, थकने वालों का इन्तज़ार नहीं करता। यह तो चलता ही रहता है, इसलिए कहा गया है–चरैवेति, चरैवेति!
लड़खड़ाए क़दम... / थककर बैठ गए. सोचा था थम जाएगी दुनिया...
नादान थे, भूल गए. / दुनिया कभी रुकती नहीं किसी के लिए...!
आँसुओं के पीने के हुनर ने जीवन की कठोर भूमि पर चलना सिखा दिया, ल्रेकिन सदा साथ देने वाले हमदर्द चाँद के आँसू कैसे पोंछे जाएँ, यह द्विविधा और असमर्थता बरकरार है। कवयित्री की खूबसूरत कल्पना दिल को छूने वाली है-
बारहा...चाँद से हमने की बातें। / कभी मुस्काए..., / कभी रोए संग / हमें तो आ गया...
आँसुओं को पीने का हुनर / चाँद के चेहरे से / आँसुओं के निशान पोंछूँ कैसे...? प्रेम की प्रमुख अनुभूति है प्रिय के मन को समझना, उसकी संवेदना को महसूस करना। यह अहसास ही सफल जीवन का सबसे बड़ा योग है। चन्द पंक्तियों में अनिता ने जीवन का सार उडेल दिया है-
प्रेम की बेड़ियाँ / फूलों का हार, / विरह के अश्रु...गंगा की धार..., / समझे जो वेदना...,
प्रिय के मन की... योग यही जीवन का..., है यही सार...!
मैं पुन: अनिता ललित की उस संवेदना को रेखांकित करना चाहता हूँ, जो एक रचनाकार के सामाजिक सरोकार को बहुत व्याकुलता से 'सुबह' और 'शाम' के प्रतीक से प्रश्नांकित करती है। आज के समाज में जीवनभर औलाद के सुखों के लिए संघर्ष करने वालों की दशा को सांकेतिक रूप में बहुत मार्मिकता से चित्रित किया गया है-
ज़िंदगी की सुबह / जिनके हौसलों से आबाद हुई, /
शाम ढले क्यों ज़िंदगी... / उनसे से ही बेज़ार हुई...?
अनिता ने प्राकृतिक उपादानों का अपनी क्षणिकाओं में बेहद सादगी से प्रयोग किया है। इससे इनकी क्षणिकाएँ पाठकों पर अपना मधुरिम और जीवन का सकारात्मक प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं। 'ढलते' सूरज का 'चाँद' दे जाना आशा की किरण बनकर प्रकृति समक्ष उपस्थित है।
'ढलते' सूरज से... / था वादा मिलने का..., / जाते-जाते वह मुझे / तोहफे में 'चाँद' दे गया।
अनिता की क्षणिकाओं का मुख्य स्वर प्रेम है। यह प्रेम कहीं उदासी से भरा है, तो कहीं उत्कण्ठा से तरंगित है। यह प्रेम मर्यादा, विश्वास, आत्मीयता के रंग में रँगा है। यह प्रेम पूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत है। जहाँ उपेक्षित होने की पीड़ा है, वह भी मर्यादित है, किसी लांछन की प्रवृत्ति से दूर। अपनी छोटी–सी दुनिया में कभी सन्तुष्ट, कभी उदास यही तो सच्चा प्रेम है
कौन से दो जहाँ माँगे मैने / सिर्फ़ दुनिया ही तो माँगी थी /
तुम्हारी दो बाहों के आगे / मेरी कोई दुनिया ही कहाँ?
दिल की मिट्टी की नमी नए रूप में कितना कुछ कह जाती है। हृदय की उस कोमलता को जब पहचाना नहीं जाता, तो वह अपनी मृदुता खोकर पथरा जाएगी। भाषा की चित्रात्मकता इस क्षणिका के कई अर्थ प्रक्षेपित करती है-
दिल की मिट्टी थी नम... / जब तूने रक्खा पाँव...,
अब हस्ती मेरी पथरा गयी... / बस! बाकी रहा ... तेरा निशाँ!
प्यार एक सलीके की माँग करता है। सलीके के बिना नाज़ुक प्रेम की पाँखुरी को स्पर्श नहीं किया जा सकता
मुझे पढ़ो। / तो ज़रा सलीके से पढ़ना। / ज़ख़्मों के लहू से लिखी / अरमानो की ताबीर हूँ मैं...!
प्यार में यादों का अपना अस्तित्व है। कवयित्री ने इसे कुछ इस प्रकार संजोया है-
याद कभी मेरी आए, / आँखों में गर आँसू लाए..., / बह जाएँ...बहने देना...!
थम जायें जब... कोरों तक आकर... / जो अक्स दिखे...मेरा होगा...!
जो त्वरा अनिता की क्षणिकाओं में है, वह मर्मस्पर्शी अनुभूति इनकी कविताओं में भी परिलक्षित होती है। काँच और प्रेम के भरोसे का साम्य और अन्तर इन पंक्तियों में देखिए—काँच और भरोसा... / दोनों ही टूटते हैं अक्सर...
काँच टूटता है।। आवाज़ होती है, ...॥
भरोसा टूटता है... / आवाज़ नहीं होती, / दिल बुत बन जाता है...
प्यार में पारस्परिक समझ और एकात्मकता बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अभाव में जीवन ही खो जाता है और कुछ हाथ नहीं आता सिवाय अनुताप के-
उसके प्यार को मैने जाना नहीं, / मेरी हया को उसने समझा नहीं,
बस इसी उधेड़बुन में... / ज़िंदगी ने हमको पहचाना नहीं!
प्यार को आपने अपनी ' प्यार; कविता में बहु संज़ीदगी से अभिव्यक्त किया है। कुछ पंक्तियों की बानगी देखिए-
पोखर में कमल, सागर में तूफ़ान भी है! / फूल की ख़ुश्बू, काँटों का सामान भी है!
सूरज की तपिश, बारिश का वरदान भी है!
कविता क्या है, इसका उत्तर हमें अनिता की इस रचना में बखूबी मिलता है-
जब कभी भी छलकी... / किसी कोरे काग़ज़ पर... / अपने चेहरे की सारी आडी-तिरछी लकीरें खींचकर... / अपना नाम लिख जाती है...ये ज़िंदगी। / दुनिया उसे कविता समझकर पढ़ती है /
मैं बस जीती जाती हूँ ...वो ज़िंदगी...!
'प्यार की सरल परिभाषा' कविता में प्यार की यह व्याख्या देखिए—तुम्हारे-मेरे बीच... प्यार की / क्या कोई भाषा... अवसर की आशा
सुबह-सवेरे...चाय की चुस्की के संग / चेहरे पर एक मुस्कान खिल जाना...!
'ओ स्त्री' में नारी की अस्मिता और पहचान पर बहुत सधी हुई बेवाक पंक्तियों में अनिता अपनी प्रश्नाकुल सजगता प्रस्तुत करती हैं। यहाँ इनकी भाषा, इनके प्रतीक सब बदल जाते हैं। भाषा और प्रखर हो जाती है-
ओ स्त्री! / तू कौन है? तेरी मर्ज़ी क्या है? / कौन तेरे अपने? / क्या तेरे सपने?
तेरे सपने...? / सपने तो बहुत होंगे... / एक सपने ही तो हैं...
जो तू अपनी मर्ज़ी से देखती है। वो सपने...जो तेरी खुद की जाई औलाद जैसे है...
वो तेरे हों या ना हों... तू बस उनकी ही होकर रहती है...!
दूसरी ओर माँ का रूप है जो बहुमुखी है, संसार का सारा सौन्दर्य समेटे हुए है, सारी कोमलता को सहेजे हुए है, सारी स्नेह ऊष्मा को सलाइयों में पिरोए हुए है। आद्यन्त इस लम्बी कविता का तरंगित प्रवाह, चित्रात्मक भाषा पाठक को बहाए ले जाते हैं–
नेह-धागे से पिरो... सँवारती ... / बच्चों का तन-मन भरमाती माँ!
रहे ना कोई सपना अधूरा... / बुरी नज़र ना लगे किसी की ...,
आख़िरी टाँका चूम होठों से... / अपने दाँतों से काटती माँ!
मुक्तछन्द में अनिता ललित की हर क्षणिका और कविता इनकी सूक्ष्मदृष्टि, प्रेम–पगी पावनता, जीवन के अबाध प्रवाह, क्षण के छलछलाते आनन्द को बिखेरती नज़र आती है। भाषा का माधुर्य, प्रतीकों का सफल प्रयोग, जीवन के विविध बिम्बों का संयोजन हर अनुभव को सरस बना देता है। संश्लिष्ट अभिव्यक्ति अपने आप में एक गहन अन्तर्यात्रा के पश्चात् ही सम्भव है। अनिता ललित की प्रत्येक क्षणिका कोई न कोई अर्थ गाम्भीर्य सँजोए हुए है। इनके वाग्वैदग्ध्य (विट) के दर्शन प्रत्येक रचना में होते हैं। सभी कविताओं के समग्र प्रभाव की बाद करें तो अव्यक्त टीस उनका मुख्य स्वर है। इनकी बात दिल को छूकर निकलने वाली नहीं, वरन् सीधे दिल में खुभने वाली है, गहरे तक उतरने वाली है। चर्चित कवियों का पाठकों को दुर्बोध और सौन्दर्यहीन लेखन समर्पित करना आम बात है। इस युवा कवयित्री को काव्य की भावतरलता से सींचना उसे विशिष्ट बना देता है। सहृदय पाठक को हर व्यथा अपनी-सी लगने लगती है। उदात्त भावों की तरलता हृदय को भिगो जाती है। इनकी पूरी कविताओं से गुज़रने पर पाठक अन्तरंगता स्थपित कर लेने के साथ अभिभूत हो जाता है।
अनुभूति, कल्पना और भाषा का मणिकांचन प्रयोग 'बूँद-बूँद लम्हे' संग्रह क्षणिका के क्षेत्र में अपनी पदचाप से नया आश्वासन लेकर आया है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। बड़ी कविताएँ भी पाठकों को उसी तरह से रससिक्त करने का सामर्थ्य रखती हैं। सभी रचनाएँ 'बूँद-बूँद से भरा सरोवर' बन गई हैं।
आशा है इस संग्रह का काव्य प्रेमियों में स्वागत होगा।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
नई दिल्ली, 4 दिसम्बर, 2013