बूंद गुलाबजल की / स्वाति तिवारी
इस बार हरिद्वार जाना है, यह सोच लिया था। बाबूजी का अस्थिकलश भी वहीं गंगाजी में प्रवाहित करना है। इसी बहाने तीर्थ भी हो जाएगा और तीन साल से रमिया बुआ से नहीं मिली थी, सो उनसे मिलना भी हो जाएगा। ये पहले तो देवरजी को भेजना चाहते थे, पर मेरे समझाने से चलने को तैयार हो गए थे। ससुरजी का गंगा-मैया के प्रति विशेष लगाव था, उनकी आस्था हरिद्वार के प्रति कुछ ज्यादा ही थी। अब उनकी अस्थियों को वहीं विश्राम देना था।
'हर की पौड़ी' पर पहुंचकर मन श्रद्धा, आस्था, ईश्वर, धर्म जाने क्या-क्या सोचने लगा था। स्वाभाविक भी है। 'हर की पौड़ी' पर सन्ध्या कुछ अलग ही रंग में उतरती है जो वातावरण में आस्तिकता भर देती है। बड़े-से-बड़ा अधर्मी भी यदि इस सांझ की वेला में स्नान करके गंगा मैया को ध्यान से देखे तो बदल जाएगा। वास्तिक एक ही डुबकी के बाद आस्तिक होते तो मैंने भी देखे हैं। स्नान-पूजा के बाद हम आरती के लिए फूलों के दोने खरीदकर दीया-बत्ती के समय का इंतजार करने लगे। समय कुछ ज्यादा था, सो पूड़ी-सागर का टोकरा खरीद भिखारियों को अन्नदान के उद्देश्य से मैं पांच-पांच पूरी पर सूखा आलू का साग रख बांटने लगी थी। बीस-पच्चीस लोगों को देते-देते सांझ अपने पूरे रंग के साथ उतर आई। अचानक सहस्र दीप जल उठे जो गंगाजल में प्रतिबिम्बित हो द्विगुणित होने लगे। पुजारियों का समवेत स्वर 'जय गंगा मैया' गूंज उठा; जिसका मतलब था आरती शुरू होने वाली है। टोकरे में अभी भी दस-बाहर पूरियां शेष थीं। हमने सोचा, किसी एक को ही देकर आरती में शामिल हो जाएं। ज्यों ही मैं पूरियां बटोर भिखारिन को देने के लिए झुकी, उसकी नजरें मेरी नजरों से टकरायीं तो लगा, यह जाना-पहचाना चेहरा है। शायद वह मुझे पहचान गई थी। उसने शाल जैसे ओढ़े हुए कपड़े से मुंह ढांक लिया था। मैं सोचती इससे पहले ही ये मुझे खींचते हुए चलने को कहने लगे, “आरती में जगह नहीं मिलेगी, चलो भी।” इनके स्वर में बंधी मैं चली आई आरती में। पर ध्यान और चित्त उन दो आंखों को पहचानने के लिए जैसे वहीं छूट गया।
उसका गौरवर्णी खूबसूरत चेहरा, तीखे नयननक्श कुछ पहचाने-पहचाने-से लग रहे थे। मैं दोबारा उस चेहरे को देखना और कुछ बात करना चाहती थी। ये इतनी जल्दी करते हैं, आरती खत्म होते ही घाट पर आकर गंगाजल में चमकते दीपों और बिजली के लट्टुओं से फैलते अलौकिक सौन्दर्य पर नजरें गड़ाकर बैठ गए थे। घाट पर चहल-पहल अभी भी काफी थी। मुरमुरे, चने, केले, चाटवाले अपनी-अपनी बिक्री में लगे थे। स्नान-ध्यानवाले कम हो गए थे, पर पूरे वातावरण में अगरू-चन्दन की दिव्य सुगन्ध व्याप्त थी। कुछ छोटे-छोटे मंदिरों से आते घण्टियों के स्वर मधुर लग रहे थे। मैंने इनके पास घाट की पैड़ियों पर बैठते हुए कहा, “सुनो, अभी हमने जिन्हें पूरियां बांटीं, उनमें एक भिखारिन मुझे जानी-पहचानी लगी।”
“तुम्हें तो चेहरे मिलाने की आदत है, किसी को भी देखते ही कह दोगी आपका चेहरा अमुक व्यक्ति, हीरोइन से मिलता है।” इन्होंने व्यंगात्मक हंसी के साथ कहा। इनके कहने के अंदाज से दुबारा जाकर बात करने की हिम्मत नहीं हुए।
रमिया बुआ के घर पहुंचे तो वे बड़ी खुश हुईं, 'बरसों बाद भतीजा-बहू आए हैं,' इस बात को वे कई बार दोहरा चुकी थीं। हम लोग देर रात तक बातें करते रहे। रात सोते वक्त भी जैसे वे दो आंखें, वह खानदानी चेहरा, वे तीखे नयननक्श मेरे सामने आ गए और मैं करवट बदल-बदल सोचती रही। कुछ याद नहीं आ रहा था। कौन है वह? सोचते-सोचते नींद आ गई।
सुबह रमिया बुआजी की बहू साधना ने चाय बनाकर मुझे उठाया तो सिर दर्द से भारी हो रहा था। साधना मेरा चेहरा देख समझ गई और डिस्प्रीन की टेबलेट ले आई थी। मेरा मन आज भी जाकर उस महिला से मिलने को हो रहा था। पता नहीं क्यूं, मुझे लग रहा था कि वह कोई बहुत परिचित चेहरा है और उसका इस तरह हरिद्वार के मंदिर-प्रांगण में होना कुछ रहस्यमय है। मैं बाजार के बहाने से साधना को लेकर फिर गंगा-घाट की पावन हर की पैड़ी पर पहुंच गई थी। मंदिर-प्रांगण की सफाई करते हुए वह स्त्री थोड़ी देर में ही मिल गई थी। मुझे देखते ही वह जाने लगी, “सुनो”, मैंने आवाज गलाई। “जी”, वह रुक गई। “तुम कहां की रहनेवाली हो?” मैंने जिज्ञासा से पूछा।
“जी? मालूम नहीं, बचपन से हरिद्वार गंगाघाट की सफाई करती हूं, यहीं की हो गई समझो!”
“तुम्हारा चेहरा बहुत पहचाना-सा लगा, इसलिए पूछ रही हूं।”
वह चुपचाप काम करती रही। अचानक जैसे मेरे बन्द चक्षु खुल गए, “अरे, तुम कहीं हमारे घर के सामनेवाले रघु काका की विधवा बहू विमला भाभी तो नहीं?”
“तुम रंजना जीजी...तुम...तुम्हें तो मैं कल ही पहचान गई थी।” उसके चेहरे पर क्षणिक प्रसन्नता आई भी और चली गई। आंखें पथरायी-सी हो गईं...जाने कितने खुशी के पल आए और तैरकर चले गए। फिर कुछ जानने की लालसा उठकर फिर बैठ गई...। रह गया केवल पथरायी आँखों का सच, जो उसके गम का, उसकी पीड़ा का, उसके बरसों से दबे घावों पर जमे हुए लावे का बयान कर रहा था।
“चलो, मन्दिर के पीछे मेरी कुटिया है, अगर तुम बैठना चाहो तो....”वह बोल रही थी, मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगी।
साधना के लिए यह थोड़ा अटपटा और अनावश्यक काम था। कहाँ हम दीवान परिवार की बहुएँ, कहाँ वह भिखारन, मन्दिर की सफाईकर्मी। वह मुझे अचरज से देखते हुए चुपचाप खड़ी थी।
“साधना आओ, चलते हैं कुछ देर में।”
“भाभी, आप मिलकर आओ, मैं यहीं मन्दिर के दर्शन कर आती हँ।”
“अच्छा।” मैं विमला भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगी।
“यहाँ कब से हो विमला भाभी?”
“अब तो याद भी नहीं जीजी, हाँ 17 साल तो हो ही गए होंगे।” वे बोलीं।
कुटिया आ गई थी। उन्होंने दरवाजा खोला और चटाई बिछाई दी। बैठते हुए मैं चुप ही थी पर उनके चेहरे से लगा, जैसे कुछ जानना चाहती हैं।
“बच्चे नहीं आए क्या?” सहज-सा प्रश्न था, पर लगा जैसे वे अपने बच्चों का पूछ रही हों।
“नहीं। ससुरजी का स्वर्गवास हो गया है, हम अस्थिकलश लेकर आए थे।”
“अच्छा। वहाँ हमारे परिवार में.....सब ठीक है?
हाँ। आप यहाँ कैसे? वहाँ तो चर्चा थी कि आपके मायकेवाले आपको ले गए हैं।”
“नहीं जीजी, मायके में था ही कौन। अकेली माँ थीं जो नहीं रहीं।”
“अच्छा। कौन कौन है वहाँ घर पर? कभी आप जाती हैं? वे क्या जानना चाहती हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था।
“काका तो अब रहे नहीं। बड़े भैया, छोटे भैया, माँजी, बच्चे सभी हैं। बड़े भैया ने ब्याह कर लिया है, उनके भी दो बच्चे हैं। छोटे के भी तीन हैं। अब तो बड़े-बड़े हो गए हैं। एक लड़का रघु काका ने गोद लिया था। अनाथ है बेचारा वह भी। वहीं रहता है, बड़ा होशियार है। इस दसवीं में वह अव्वल आया है। अखबार में उसकी फोटो भी छपी थी।”
“मैं बोले जा रही थी।
“अच्छा। कैसा दिखता है?” वे जिज्ञासु हो गई थीं।
“देखने में कछावर है, रंग गोरा चिट्ठा है। आपकी तरह ऊँचा कद और गम्भीर प्र.ति का है। रघु काका बड़ा लाड़-प्यार करते थे.....” मैं बता रही थी।
“करेंगे क्यों नहीं है। है तो उनका ही खून...” वे ताव में बोल गई थीं।
“क्या?
“नहीं, मेरा मतलब है लाए हैं, तो पालेंगे ही।” पर मेरी पैनी नजर पहचान गई थी। वे कुछ जानती हैं, इसलिए मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछ लिया, “आपने देखा है उसे?”
“हाँ,देखा क्यों....” वे रूक गई, “नहीं-नहीं, मैंने कहाँ देखा, पर देखने की इच्छा है।” वे कहीं खो गईं थीं।
पता नहीं क्यों, अब मुझे लगने लगा था कि उस बच्चे और विमला भाभी में कुछ रिश्ता है जो रहस्य है। मैंने उनके चेहरे को ध्यान से देखा। उनकी आंखें नम थीं। उन नम आंखों में क्या था? कौन-सा दर्द...जो मुझे भी दुखी कर रहा था। एक अनकही पीड़ा की जमी हुई बर्फ तरल होने लगी थी, शायद मेरे अपनत्व की आंच में पिछलने लगी थी और प्रवाहित हो बाहर आना चाहती थी। मैंने अपनी भी नम आंखों को पोंछा तो विमला भाभी को लगा, मैं उनकी पीड़ा समझ रही हूं। वे रुलाई के बांध को रोक नहीं पाईं और उस रोने के साथ उनके अंतर्मन को रहस्य भी बहकर मन से बाहर आ गया। मैंने उनके कन्धे को थपथपाया, “भाभी चलो, तुम अपने घर लौट चलो, क्यूं यूं भिक्षा पर जी रही हो?”
“नहीं जीजी, भिक्षा पर नहीं, मेहनत करती हूं।”
“पर उस दिन घाट पर...?”
“हां, जो तुमने देखा वह सच है, पर वह मेरे लिए नहीं है। मैं तो अपना खुद कमाकर-बनाकर खाती हूं। वह जो मिलता है वह दो छोटे-छोटे बच्चों को पालने के लिए मांगती हूं। यहां एक औरत सफाई का काम करती थी। टीबी से सालभर पहले मर गई। उसके बच्चे हैं, खोली पास में ही है। रोज खाना लाकर बच्चों को खिला देती हूं।”
“अच्छा, यह तो अच्छा काम है, मैं समझी तुम...”
“घर की याद नहीं आती क्या?” मेरे प्रश्न पर वे कुछ देर मौन रहीं फिर बोलीं, “आती है, बहुत आती है, पर भाग्य के आगे....”
“तुमने घर क्यूं छोड़ा?”
“मैंने नहीं छोड़ा। बाबूजी ही लाकर छोड़ गए। बोले, पलटकर कभी लौटी तो तेरे इसको जान....”
“किसको?”
“कुछ नहीं जीजी, छोड़ो?”
“तुम्हारे विधवा होने के दो साल बाद ऐसा क्या हुआ?”
चौंकते हुए विमला भाभी ने सिर झुका लिया, “दीदी...ना ही पूछो तो अच्छा है।”
“नहीं भाभी, बताओ तो पता तो चले, पैसेवालों के घर में क्या नहीं होता?”
“जीजी, वो अनाथ बच्चा जिसकी तुम बात कर रही थीं, वह अनाथ नहीं हे। उसके माँ-बाप दोनों हैं।”
“क्या..?”
“हाँ,उसकी माँ मैं ही हूं!
“तो पिता कौन है? तुम विधवा हुई थीं तब तो तुम्हारी गोद सूनी थी?
“हाँ 25 वर्ष की आयु में जब मैं विधवा हुई तों घर में सास-ससुर थे, विधुर जेठ थे, देवर-देवरानी थे, भरा-पूरा घर था। मायके में तो केवल माँ थीं। ससुर ने घर के कामकाज को देखते हुए माँ से आग्रहपूर्वक मुझें ससुराल में ही रहने देने की बात की। माँ ने सोचा, जवान-जहान विधवा बेटी उनके घर के बजाय यहीं सुरक्षित रहेगी। हाँ कर दी। ससुर और जेठ ने कहा था कि मुझे पूरे सम्मान और मर्यादा से रखा जाएगा। पति की सम्पत्ति का हिस्सा भी मेरे नाम होगा। शुरू के दो साल वादा पूरा भी हुआ। बाद में एक दिन विधुर जेठजी का मन डोलने लगा। पहले धमकाकर, फिर हक जताकर वे मेरे तन पर अधिकार जमा बैठे। कुछ वक्त तक भेद बना रहा, पर गर्भ में उस अभागे के आते ही सास-ससुर ने मुझे ही दोषी ठहराया। वक्त ज्यादा हो गया थास्, गर्भपात से बाल खुल सकती थी। तीर्थ के बहाने सास-ससुर यहाँ ले आए और जाते वक्त मेरा बेटा तो ले गए पर मुझ अभागन को यहीं छोड़ गए। तब से मैं यहीं हूँ।”
मैं आश्चर्यचकित थी। इस औरत की जिन्दगी में ग्रहण लगानेवाला वह पुरूष ठाठ से उसी घर में अपने परिवार के साथ रह रहा है, पारम्परिक व्यवसाय कर रहा है। उसने दूसरा ब्याह कर लिया, दो बेटों का बाप बन गया। उसे अपने कर्म की कोई ग्लानि तक नहीं है। और यह औरत, जिसके शरीर पर बलात् अतिक्रमण हुआ, जिसने न केवल उसके जिस्म को घायल किया था, उसकी रूह को ही घायल किया, जो जलील भी हुई और बर्बाद भी। सिसकी तक नहीं ले पाई। कैसा न्याय है यह? ससुर बेटा ले गए, क्योंकि उनका अपना खून था, पर इस पराई कोख की जायी को दर-दर की ठोकरें खाने यहीं पटक गए।
मैं आवेश में आ गई, “तुम चुप क्यों रहीं, विरोध तो करतीं?”
“कैसा विरोध जीजी? चाँद-सूरज पर ग्रहण लगता है तो कुछ देर बाद वे मुक्त हो जाते है, पर स्त्री जीवन पर लगे ग्रहण से वह कब मुक्त हुई है। इन्द्र की कथा नही जानती क्या? इन्द्र की स्वेच्छाचारिता की सजा अहिल्या को दी गई थी तभी से तो समाज दोषी को नहीं, निर्दोष को दण्ड देता आ रहा है।”
“अब तो बेटा बड़ा हो गया है, तुम उसे बताना नहीं चाहोगी?” मेरे प्रश्न पर वह सतर्क हो गई।
“नहीं.........और आपको मेरी कसम है जो किसी को बताया तो। बेटा घर में एक तरह से बाप के पास है, वहीं सुखी है, पाढ़-लिख रहा है। मेरे पास रहता तो क्या मिलता? मन्दिर की सीड़ियों की सफाई, जूठी पत्तलों को उठाने के अलावा। और इस घटना में मुझ पर ही ऊँगलियाँ उठतीं, सवाल पूछे जाते। मेरे चरित्र को कठघरे में खड़ा किया जाता और एक दिन जवान होकर बेटा भी यही सवाल दोहराता।”
साधना दरवाजे पर खड़ी थी, मैं उठ गई, “कल आऊँगी,” कहकर। अगले दिन मैं गई, एक साड़ी, कुछ रुपए और अपना पता उन्हें दे आई थी। विमला भाभी का पता ले भी आई थी।
हरिद्वार से घर लौटने के बाद सामान निकलते वक्त पता हाथ में आ गया। मैंने उन्हें पत्र लिखा और अपने बेटे के जन्मदिन की ग्रुप फोटो में निशान लगाकर विमला भाभी को उनके बच्चे की फोटो भी भेज दी, 17 सालों से तरसती पथरायी आँखों को शायद एक बूँद गुलाबजल की कुछ तो राहत दे जाए, यही सोचकर।