बूढ़ा चूड़ीहार / लक्ष्मीकांत महापात्रा / दिनेश कुमार माली

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ओडिया साहित्य में 'कान्त कवि' के नाम से सुपरिचित लक्ष्मी कान्त महापात्र का जन्म ९ दिसम्बर १८८८ में और देहान्त २४ फरवरी १९५३ को कटक में हुआ था. एक जाने माने स्वतंत्रता सेनानी श्री महापात्र ओडिया सहित्य में कविता, व्यंग, उपन्यास तथा कहानी के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे. उनकी कहानी 'बूढा -शंखारी (बूढ़ा चूड़ीहार)' ओडिया साहित्य में एक स्वतन्त्र परिचय रखती है. हर पाठक के दिल को छू लेनेवाली इस कहानी के बिना ओडिया कहानियों का मूल्यांकन अधूरा रहेगा. आशा है 'ओडिया माटी' के पाठकों को कहानी पसंद आयेगी.


फाल्गुन का महीना खत्म होने जा रहा था। चिलचिलाती धूप में एक बूढ़ा गाँव के बीच में से गुजर रहा था। साठ साल की उम्र होगी उसकी। दाँत सारे निकल गए थे। सिर के बालों का तो क्या कहना, सीने के बाल भी सफेद हो चुके थे। बूढ़े के सिर पर एक टोकरी थी। घुटनों तक पाँव धूल से सने हुए थे। पूरा शरीर पसीने से तर- बतर हो गया था तथा पसीने की लकीरें पाँवों पर बहती हुई साफ दिखाई दे रही थी।

गाँव के मुहाने पर एक घर था। घर से सामने पक्का बरामदा बना हुआ था। देखने से संपन्न परिवार का घर नजर आ रहा था। सात बाँस के खंभों पर खप्पर की छत बनी हुई थी। बूढ़ा टोकरी को बरामदे में रखकर जमीन पर बैठ गया। कुछ देर के बाद घर के अंदर से नौकरानी बाहर निकल कर आई। वह उस बूढ़े को पहचानती थी।

वह पूछने लगी, "ओ चूड़ीहार जी, चूड़ी लाए हो? "

बूढ़ा कहने लगा, "हाँ।"

फिर बोलने लगा, "बेटी, थोड़ा पानी मिलेगा ? बूढ़ा आदमी हूँ, तपती धूप में मेरा गला सूख रहा है।"

नौकरानी पानी लाने के लिए अंदर चली गई। कुछ देर बाद एक लौटा पानी लाकर नौकरानी ने बूढ़े के सामने रख दिया। बूढ़े ने आधा लोटा पानी पिया। पानी पीने के बाद बूढ़ा एक लंबी साँस मुँह से लेकर कहने लगा, "बेटी, तुझे खूब पुण्य मिलेगा।"

नौकरानी ने उत्तर दिया, "ठीक है ,ठीक है। चलो बहू चूड़ी पहनना चाहती है। किस तरह की चूड़ियाँ लाए हो, दिखाओ।" बूढ़ा टोकरी उठाकर घर के अंदर दरवाजे के पास आ गया। मुख्य दरवाजा पार करने के बाद बूढ़े ने देखा, घर के अंदर पक्का आँगन, बीच में चबूतरा, बाएँ तरफ घर के अंदर जाने का दरवाजा। उसी दरवाजे के पास घूँघट निकाले हुए एक बहू खड़ी थी। बूढ़ा टोकरी वहीं रखकर खड़ा हो गया। बहू बहुत धीमी आवाज से नौकरानी को कहने लगी, "किस प्रकार की चूड़ियाँ लाए हैं, पूछो।"

नौकरानी थोड़ी-सी मुँहफट थी। वह कहने लगी, "इस बूढ़े आदमी से इतनी शर्म? खुद यहाँ आकर क्यों देख नहीं लेती हो? " बात भी सही थी। बहू घूँघट आधा खोलकर हँसते-हँसते बाहर निकल आई और टोकरी के पास खड़ी हो गई। इस बार बहू का चेहरा हल्का-हल्का दिखाई देने लगा। उसका चेहरा गोल, रंग चंपा के फूल जैसा, चार ऊँगली चौड़ा, लाल रंग के बॉर्डर मोर के गले के रंग की साड़ी, पैर ढके हुए थे। साड़ी के अंदर से बहू का कच्चे सोने के रंग जैसा खूबसूरत शरीर दिखाई दे रहा था। बूढ़े की आँखें खुशी से चमक उठी। इतनी सुंदर बहू? इतनी सुंदर औरत को उसने कहीं भी नहीं देखा था। बूढ़ा टकटकी लगाकर उसे देखता रहा। एक ही ध्यान में बहू का चेहरा देखने लगा। क्या करेगा, क्या नहीं करेगा। बूढ़े के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल पाया। बहुत देर बाद वह कहने लगा, "माँ कौन-सी चूड़ियाँ पसंद है? "

माँ कहकर पुकारने के बाद बूढ़े का सीना प्रशंसा से चौड़ा हो गया। बहू शरमाना छोड़कर कहने लगी, "'आसमान तारा' चूड़ियाँ रखे हो? "

"ओह! इतनी मधुर आवाज" बूढ़ा सोचने लगा।

"इतनी प्यारी बातें कोई नहीं करता है।"

बूढ़े के कान में बहू की आवाज़ प्रतिध्वनित होने लगी. बूढ़ा कहने लगा, "नहीं माँ, रंगिझिलीरी, बालफूलिया, गुच्छामालिया, सुनटिजी ये सब चूड़ियाँ हैं। उन चूड़ियों में से जो पसंद आए, वे ले लो। अगली बार मैं तुम्हारे लिए आसमान तारा चूड़ी लेकर आऊँगा।"

छाँट-छाँटकर एक दर्जन चूड़ी उसने पसंद की। मगर वें चूड़ियाँ उसके हाथ के नाप की थी या नहीं, उसे पता नहीं था। तब वह बूढ़ा कहने लगा, "माँ, मुझे दो, मैं चूड़ी पहना देता हूँ।" मगर बहू शर्म से हाथ आगे नहीं बढ़ा पाई।

"तुम्हें मुझसे शर्म लग रही है? मैं तो तेरा बेटा हूँ न? बेटे से कोई माँ शर्म करती है क्या? "

ये सारी बातें सुनकर नौकरानी जोर-जोर से हँसने लगी।

"हमारी बहू को एक अच्छा बूढ़ा बेटा मिल गया। तकदीर तो देखो।"

बहू हँसकर बोलने लगी, "तुम हटो तो।"

बहू ने अपना हाथ आगे कर दिया। कितनी सुंदर छोटी हथेली थी। सुंदर गोलगोल ! अंगुलियाँ सब और हथेलियाँ भी नर्म। उसके हाथों में चूड़ियाँ कितनी सुंदर दिखाई दे रही थी ! क्या वास्तव में किसी स्त्री का हाथ है? क्या किसी मूर्तिकार ने इतनी सुंदर मूर्ति घड़ी है? उस हथेली को बूढ़ा अपने मैले कर्कश हाथों में पकड़ने का साहस नहीं कर पाया। फिर बाएँ हाथ में धीरे से बहू का हाथ पकड़कर पुरानी पहनी हुई चूड़ियाँ निकालने लगा। चूड़ियाँ टूटकर शायद खून निकलने लगेगा, इसलिए वह भयभीत हो रहा था। एक-एककर धीरे-धीरे सावधानी से उसने सारी चूड़ियाँ खोल दी। हाथ पकड़ते समय बूढ़ा आनंद से अधीर हो गया था। जैसे जिंदगी का सबसे बड़ा सुख, सभी आशाएँ अभी-अभी फलीभूत होती हुई नजर आने लगी हो। उसका हाथ छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। बूढ़ा कहने लगा, "मैं रोज-रोज तुम्हें इस तरह की चूडियाँ पहना पाता तो? "

इसी समय घर की मालकिन वहाँ पहुँच गई। सास को देखकर बहू ने घूँघट निकाल लिया। सास नौकरानी को कहने लगी, "क्या रे, चूड़ियाँ खरीद रहे थे? "

नौकरानी कहने लगी, "हाँ, बहू चूड़ियाँ पसंद कर रही थी।"

सास: "क्या कीमत है इन चूड़ियों की? "

बूढ़ा: " चूड़ियों की क्या कीमत? "

सास: "फिर भी, कुछ तो कीमत होगी? "

बूढ़ा: " माँ से क्या पैसा लेना? "

सास ने नौकरानी से पूछा, "क्या तुम्हें चूड़ियाँ पसंद आई? "

नौकरानी ने हँस-हँसकर कहा, "यह आदमी बहू का बेटा बना है।"

सास भी हँसने लगी। "इस बार चूड़ी की कीमत ले लो, अगली बार मुफ्त में दे देना। तुम गरीब आदमी हो।"

"बूढ़ा कहने लगा, "नहीं, नहीं, मैने तो ये चूड़ियाँ अपनी माँ को दी है। मैं बिल्कुल पैसा नहीं लूँगा। एक दर्जन चूड़ियाँ देने से मैं गरीब नहीं हो जाऊँगा।"

चूड़ीहार एक दर्जन चूड़ियाँ देकर अपनी टोकरी उठाकर वहाँ से चला गया। आवाज देने पर वह नहीं रुका। नौकरानी उसे पीछे से आवाज लगाती रही, मगर वह लौटना नहीं चाहा।

उस दिन के बाद वह बूढ़ा चूड़ीहार हर दो तीन दिन के अंतराल में गाँव आता रहता था। चूड़ियाँ क्या लोगों के रोजमर्रा के काम की चीज है? क्या लोग उन्हें हर दिन खरीदना चाहेंगे? सुबह शाम, कोई नई चूड़ियाँ खरीदता है क्या? बूढ़ा घर-घर घूमकर लौट जाता था। चूड़ी बेचना बूढ़े का उद्देश्य नहीं था। वह सिर्फ इसी बहाने अपनी उसी माँ को देखने के लिए आता था। जिस दिन वह गाँव में आता था, बिना किसी को कुछ कहे वह उसके दरवाजे तक पहुँच जाता था। टोकरी को वहीँ उतार कर वह सिर्फ पुकारता था "नई चूड़ियाँ ले लो।" उसकी आवाज सुनकर बहू कहीं भी रहने पर अपने दरवाजे के पास आकर कुछ समय के लिए खड़ी हो जाती थी। बूढ़ा थोड़ी देर उसकी तरफ देखता था। जैसे ही वह उसको देख लेता था, बूढ़े का मन खुशी से भर जाता था। वह कहता था, "माँ चूड़ियाँ लोगी? " बूढ़ा यह चाहता था कि शायद वह हाँ कह दे और वह उसके चंपा के फूल जैसे सुंदर हाथों में चूड़ियाँ पहना देता, परंतु सिर हिलाकर बहू इन्कार कर देती थी। और बूढ़ा लौट जाता था। जब कभी बहू को आने में विलंब होने से नौकरानी चिल्लाकर कहती थी, "बहू तुम्हारा बेटा आ गया।" बूढ़ा दो बार "नई चूड़ियाँ ले लो।" पुकारने के बाद उसकी माँ वहाँ हाजिर हो जाती थी। बूढ़ा जब भी वहाँ आता था प्रायः इस प्रकार का अभिनय करता था। लौटते वक्त बूढ़ा सोचता था, माँ 'आसमान तारा' चूड़ियाँ पहनने के लिए इच्छुक है। कभी मौका मिलने से वह एक दर्जन चूड़ियाँ ले आएगा। अंत में उसने तय किया कि 'रज संक्रांति' के अवसर पर वह कहीं से भी जुगाड़ करके 'आसमान तारा' चूड़ियाँ खरीदकर लाएगा, माँ नई चूड़ियाँ पहनेगी, मुझे अपने हाथ दिखाएगी और मैं उसे पहना दूँगा। यह सोचकर बूढ़े का मन प्रफुल्लित हो गया। बूढ़ा' रज संक्रांति' का इंतजार करने लगा। इस बार रज संक्रांति उसके लिए एक विशिष्ट दिन होगी क्योंकि वह अपनी माँ के लिए 'आसमान तारा' चूड़ियाँ लेकर आएगा। और वह उन चूड़ियों को देखकर बहुत खुश हो जाएगी।

बैशाख का महीना लग गया था। इस बार धूप में रोज बीच-बीच में पानी पीकर पैदल चलते हुए आना- जाना करने से उसका शरीर कमजोर पड़ गया, बूढ़े को बुखार हो गया। देखते-देखते बहुत तेज बुखार हो गया और उसके हाथ-पाँव फूल गए। सब लोग कहने लगे कि बूढ़ा अब नहीं बचेगा। परंतु बूढ़ा वह सब बातें नहीं सोचता था। वह सोचता था कि बहुत दिन हो गए अपनी माँ को देखे हुए। इसलिए उसका मन अस्थिर हो रहा था।

देखते-देखते रज संक्रांति का पर्व नजदीक आ गया। बूढ़े ने दो महीने से अपनी उस माँ को नहीं देखा था। अगर चलने की शक्ति होती उसमें तो वह अवश्य उसे देखकर चला आता। रज पर्व के लिए एक दर्जन 'आसमान तारा' चूड़ियाँ खरीदनी पड़ेगी। बूढ़ा मुश्किल से उठकर बैठा। वह अपने हाथों से स्वयं चूड़ियाँ बनाने लगा। किसी और के करने से शायद उसकी माँ के मन को पसंद नहीं आएँगी। साठ सालों से चूड़ियाँ बनाने का जितना तजुर्बा हासिल किया था, उसका पूरा-पूरा इस्तेमाल कर दिया। एक दिन का काम भले ही चार दिन लगे, मगर काम अच्छा होना चाहिए। रज पर्व आने में दो दिन बाकी थे, उसका चूड़ी बनाने का काम पूरा हो गया था। मन के अनुरूप उसे फल मिला था। ऐसी चूड़ियाँ उसने अपनी जिंदगी में कभी नहीं बनाई थी। चूड़ियाँ देखकर बूढ़े का मन बहुत खुश हो गया था। उसकी माँ के हाथों में वे चूड़ियाँ खूब फबेगी।

रज संक्रांति के एक दिन पहले से लड़कियाँ बहू-बेटियाँ नई-नई साड़ियाँ पहनना शुरू कर देती हैं। पूरी रात बूढ़े को नींद नहीं आई। सुबह उठकर बूढ़ा सोचने लगा, "मैं तो पैदल चल नहीं सकता हूँ, क्या करूँगा? और किसी के हाथ में भेजने से तो नहीं चलेगा? माँ को देखे हुए कई दिन बीत गए हैं। क्या वास्तव में मैं इस बीमारी से उभर पाऊँगा ताकि मैं अपनी माँ को मिलकर आऊँगा? एक बार जाकर देखकर आ जाता हूँ। माँ के उन सुंदर हाथों में वे चूड़ियाँ पहनाकर लौट आऊँगा।" माँ के सुंदर हाथों की कल्पना करते ही मानो उसके शरीर में जान आ गई हो। बूढ़ा जल्दी-जल्दी थोड़ा सा खाना खाकर और उन चूड़ियों को गमछे में बाँधकर गाँव के लिए निकल पड़ा। बड़ी मुश्किल से एक-एक कदम बढाते हुए वह आगे चलने लगा। पाँच कोस रास्ता पहुँचते-पहुँचते काफी समय हो गया था।

बूढ़ा पहले जिस जगह पर खड़े होकर आवाज़ देता था, उसी जगह पर वह खड़ा हो गया। मन आनंद और उत्साह से भरा हुआ। वह आवाज़ देने लगा, "चूड़ियाँ ले लो।" कोई जबाव नहीं आया। फिर एक बार वह पुकारने लगा, "माँ, चूड़ियाँ नहीं लोगी? " तब भी कोई अंदर से बाहर नहीं आया। बूढ़े का धीरज टूट गया। दो-दो बार आवाज देने के बाद भी कोई उत्तर नहीं मिला। एक बार पुकारने से उसकी माँ दहलीज़ के पास आकर खड़ी हो जाती थी। फिर वह कहने लगा, "माँ, मैं आ गया हूँ। तुम्हारे लिए चूड़ियाँ लाया हूँ।" इस बार खुद मालकिन बाहर निकलकर आई। उनके पीछे-पीछे वह नौकरानी भी। मालकिन को देखकर बूढ़ा पूछने लगा, "मेरी माँ कहाँ है? मैं उनके लिए 'आसमान तारा' चूड़ियाँ लेकर आया हूँ। वह रज पर्व पर उन्हें पहनेगी।"

नौकरानी अब तक चिल्ला-चिल्लाकर बहू को आवाज देने लगती, मगर अभी तक वह चुपचाप खड़ी रही। मालकिन धीरे-धीरे कहने लगी, "नहीं, चूड़ियाँ नहीं चाहिए।"

बूढ़ा कहने लगा, "नहीं, नहीं, मैं इन चूड़ियों को माँ के लिए श्रद्धा से अपने हाथ से बनाकर लाया हूँ।"

मालकिन: "जाइए, चूड़ियाँ नहीं चाहिए।"

बूढ़ा: "ठीक है, चूड़ियाँ नहीं लेनी है तो मत लीजिए। मेरी माँ को एक बार बुला लीजिए, मैं उसे देखना चाहता हूँ। कई दिन बीत गए उसे देखे हुए।"

मालकिन: "नहीं, उसे नहीं देख पाओगे।"

बूढ़े के सिर पर मानो बिजली गिर गई हो। भेंट नहीं हो पाएगी? मैं अपनी माँ को एक बार देख नहीं पाऊँगा? बूढ़े की आँखों में आँसू छलकने लगे। रोते-रोते वह कहने लगा, "केवल एक बार देखना चाहता हूँ, मैं और जिंदा नहीं रह पाऊँगा।"

मालकिन ने नौकरानी को बहू को बुलाने के लिए कहा। नौकरानी बहू को बुलाने घर के अंदर चली गई। कुछ समय के बाद बहू आकर दहलीज के पास खड़ी हो गई, जहाँ वह रोज खड़ी होती थी। रोज आते समय झुमक-झुमक आवाज के साथ आती थी। खड़े होकर बूढ़ा उसको देखता था. उसके हँसमुख चेहरे को देखकर बूढ़े का मन खुश हो उठता था। आज वह निःशब्द सी आकर खड़ी हो गई। उसके शरीर में चार अंगुलि लाल बॉर्डर साड़ी पहनी हुई नहीं थी। पाट वाली साड़ी नहीं थी। दोनों पैरों खाली थे। सफेद वस्त्र पहने हुई थी। देखकर बूढ़े का शरीर काँपने लगा। सिर चकराने लगा। उसने अपनी आँखें बंद कर दी। जब आँखें खोली तो वही हाथ सामने दिखने लगे- परंतु हाथों में चूड़ियाँ नहीं थी। बूढ़ा जोर-जोर से रोने लगा। बहू लौटकर चली गई। बूढ़ा आवाज देने लगा, "माँ, माँ।" उसके बाद उसके मुँह से कुछ भी आवाज नहीं निकली। गमछे में बड़े यत्न से लाई हुई चूड़ियों को जमीन पर पटक दिया। सारी चूड़ियाँ टूट गई। बूढ़ा बिना पीछे देख लौट गया। नौकरानी और मालकिन जोर-जोर से रोने लगे।