बूढ़ा तरकारीवाला / अनातोल फ्रांस
न्यायाधीश की कुर्सी से बोला जाने वाला एक-एक शब्द सारे न्यायालय में आतंक छा देता है। बूढ़ा तरकारीवाला जब एक पुलिसमैन का अपमान करने के अपराध में न्यायालय के सम्मुख लाया गया तो उसे भी स्पष्ट रूप से इस आतंक का आभास मिला। कटघरे में खड़ा हुआ, वह उस विषादपूर्ण वातावरण के बीच न्यायाधीशों, क्लर्कों, वकीलों, सशस्त्र पुलिसमैनों तथा रेलिंग के पीछे खड़ी हुई मौन दर्शकों की भीड़ की ओर निहार रहा था। उसका कटघरा कुछ ऊंचाई पर था। मानो न्यायाधीश के सम्मुख लाए जाने के उपलक्ष्य में उसे सम्मान मिला था। सामने दो अफसरों के बीच न्यायाधीश विराजमान थे। बेचारा तरकारीवाला गुमसुम खड़ा था। उसके सामने जिस प्रकार से सारी कार्यवाही हुई थी, जिस प्रकार से कैद की सजा सुनाई गई थी, उससे उसके मन पर न्याय का आतंक और अधिक छा गया था। वह इतना अधिक भयभीत हो गया था कि वह अपने अपराध पर न्यायाधीश के मत तक को सच मानने के लिए तैयार हो गया। अपने मन में उसे अपनी निर्दोषिता का पूरी तरह से विश्वास था, परंतु वह अनुभव कर रहा था कि न्याय की प्रभुता के सामने एक मामूली तरकारीवाले का आंतरिक विश्वास महत्त्वहीन है। उसके वकील ने भी उससे लगभग यह स्वीकार करा लिया था कि वह निर्दोष नहीं है।
सारी घटना के संक्षिप्त वर्णन से अब यह स्पष्ट हो गया था कि उसे किस अपराध के कारण दंड दिया गया है। अपनी छोटी-सी चार पहियों की गाड़ी ढकेलता हुआ वह बूढ़ा तरकारीवाला सड़कों पर चिल्लाता फिरा करता था — 'आलू । गोभी ! शलजम !'
बीस अक्टूबर को भी इसी प्रकार सड़क पर घूम रहा था, जब एक मोची की दुकान से एक औरत ने निकलकर दो-तीन गोभियाँ हाथ में उठाते हुए कहा,— "अच्छी तो नहीं हैं। लेकिन क्या भाव दी हैं ?"
"ले लो, माई, बड़ी सस्ती हैं। बाजार में इससे अच्छी नहीं मिलेंगी। साढ़े सात आने की।" "तीन गोभियों के साढ़े सात आने " उसने मुँह बिचकाकर गोभियाँ गाड़ी में फेंक दीं। इसी समय कांस्टेबिल नंबर 64 ने आकर उस बूढ़े तरकारीवाले से कहा, “आगे बढ़ो।' वह बेचारा पचास वर्षों से इसी प्रकार सड़क पर चला करता था, कहीं रुकता नहीं था। इसलिए आगे बढ़ने का आदेश उसके स्वभाव के अनुकूल था। वह उसे मानने को तैयार था। उसने अपने ग्राहक से पूछा, "तो फिर क्या कहती हैं ?"
"जरा देखो, बताती हूँ।" मोची की बीवी ने तेज स्वर में कहा।
उसने फिर से गोभियों टटोलकर देखीं। इसके बाद उसने गाड़ी में से अपनी समझ में सबसे अच्छी तीन गोभियाँ चुन ली और उन्हें बड़े यत्न से छाती से दबाकर ले चली, जैसे कोई अमूल्य निधि हो।
मैं तुम्हें सात आने दूंगी। बस, इससे ज्यादा की नहीं। पैसे मेरी जेब में नहीं हैं, मैं दुकान से लाकर देती हूँ।"
गोभियाँ छाती में दबाए हुए वह दुकान के अंदर चली गई। एक ग्राहक उससे कुछ ही पहले उसकी दुकान के अंदर गया था।
इसी समय कांस्टेबिल नंबर 64 ने उस बूढ़े तरकारीवाले से दुबारा कहा, “आगे बढ़ो !"
"बस, पैसा ले लूँ!"
“मैं तुमसे कहता हूँ, आगे बढ़ो ! कांस्टेबिल ने डॉटकर कहा।
मोची की बीवी अपने ग्राहक को बच्चों के जूते दिखा रही थी। गोभियाँ सामने संदूकची पर पड़ी थीं।
पचास वर्ष के अनुभव के आधार पर, उस बूढ़े तरकारीवाले के मन में अधिकारियों के प्रति बड़ा आदर भाव जम गया था, पर इस समय उसकी विचित्र परिस्थिति थी। वह बड़े असमंजस में था कि अपने बाकी पैसे लेने के लिए ठहरा रहे या आदेश का पालन करे ? वह कानून नहीं जानता था। इसलिए वह यह अनुभव नहीं कर सका कि व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त होने का यह अर्थ नहीं है कि वह अपने सामाजिक कर्तव्य का उल्लंघन करे। उसके मन में गाड़ी ढकेलकर आगे बढ़ने की अपेक्षा अपने सात आने पैसे वसूल करना अधिक महत्त्वपूर्ण था। गाड़ी तो वह जिंदगी-भर ढकेल रहा था। वह खड़ा रहा।
कांस्टेबिल नंबर 64 ने उसे तीसरी बार आज्ञा दी- 'आगे बढ़ो।'
कांस्टेबिल नंबर 64 का स्वभाव अन्य पुलिसमैनों की भाँति नहीं था जो गरजते अधिक है, पर बरसते कम। वह बड़े शांत स्वभाव का था, पर अपने सरकारी कर्तव्यों का पालन करने में भी जरा भी आलस नहीं करता था।
"क्या तुम सुन नहीं रहे। मैं तुमसे कह रहा हूँ, आगे बढ़ो ?"
बूढ़े तरकारीवाले के मन में खड़े रहने का कारण इतना अधिक शक्तिशाली था कि उसे यह आज्ञा फीकी जंची। उसने सरलता से उत्तर दिया — “मैंने आपको अभी बताया तो है कि अपने पैसे लेने के लिए रुका हुआ हूँ।"
कांस्टेबिल नंबर 64 ने केवल यही कहा, "तो क्या तुम्हारी इच्छा है कि मैं चालान कर दूं। अगर यही इच्छा हो तो बतला दो !"
इस पर बूढ़े तरकारीवाले ने अपने कंधे हिलाए और दुखी नेत्रों से पहले कांस्टेबिल की ओर निहारा, फिर आसमान की ओर, जैसे वह कह रहा हो — 'परमात्मा जानता है, मैंने कानून का उल्लंघन नहीं किया। इन नियमों-उपनियमों के बनाने में मेरा हाथ भी नहीं है। सुबह पांच बजे ही में बाजार गया था। सात बजे से में यह गाड़ी ढकेलता हुआ चल रहा हूँ। मैं अब साठ वर्ष का हो गया हूँ। हाथ-पैर अधिक चलते नहीं। और तुम मुझसे कह रहे हो कि मैंने विद्रोह का झंडा उठाया है। तुम्हारी यह हँसी बड़ी निर्दयी है।
परंतु कांस्टेबिल ने या तो तरकारीवाले की मुद्रा नहीं देखी या फिर उसने यह सोचा कि मेरी आज्ञा न मानने का उसका कारण बहुत छोटा है। उसने कर्कश स्वर में कहा, “सुना कि नहीं ?"
उस समय सड़क पर बड़ी भीड़ हो रही थी। बग्घियों, मोटरों, लॉरियों और बोझागाड़ियों का ताँता बँधा था। बूढ़े तरकारीवाले के सड़क पर गाड़ी खड़ी कर देने के कारण सारा आवागमन रुक गया था और मोटरों के ड्राइवरों तथा बग्घियों के रईस तरकारीवाले को गालियाँ दे रहे थे।
फुटपाथ पर कांस्टेबिल और तरकारीवाले में झगड़ा होते देखकर जनता इकट्ठी हो गई थी। कांस्टेबिल ने जब देखा कि सबकी आँखें उसी पर हैं तो उसने अपने अधिकार का उपयोग करने का निश्चय किया।
अपनी जेब से एक छोटी-सी पेंसिल और एक तेल लगी हुई नोटबुक निकालते हुए उसने कहा, “अच्छा !"
तरकारीवाला भी अपनी बात पर अड़ा रहा। इसके अलावा अब उसके लिए अपनी गाड़ी आगे बढ़ा सकना या पीछे हटा सकना भी असंभव हो गया था। एक दूधबाले की गाड़ी के साथ उसकी गाड़ी के पहिए अटक गए थे।
टोपी उठाकर उसने अपने बाल नोचते हुए कहा- यह अच्छी रही ! मैं कह रहा हूँ कि पैसे लेने के लिए रुका हूँ। हाय रे दुर्भाग्य ! तुम्हें अपने एक भाई पर दया करनी चाहिए।
तरकारीवाले के इन शब्दों में विद्रोह की नहीं, दीनता की ही भावना अधिक थी; परंतु कांस्टेबिल नंबर 64 ने समझा, उसका अपमान किया गया है ! और चूँकि कानून के अनुसार अपमान कुछ नपे-तुले शब्दों में ही प्रकट किया जाता है, इसलिए कांस्टेबिल के मन ने समझ लिया कि उससे कहा गया है-पुलिसमैनों का नाश हो!
“अच्छा, तुमने यह कहा-पुलिसमैनों का नाश हो ! बहुत अच्छा। चलो तो मेरे साथ थाने पर !"
बूढ़े तरकारीवाले ने चकित होकर अपनी गड़े में फँसी हुई आँखों से कांस्टेबिल को निहारा। दोनों हाथ हवा में हिलाते हुए, अवरुद्ध कंठ से उसने कहा, “क्या ? मैंने कहा — पुलिसमैनों का नाश हो । मैंने कहा मैंने ?"
पास-पड़ोस के दुकानदार और आवारा लड़के तरकारीवाले की गिरफ्तारी पर हँसने लगे। भीड़ के सब लोगों को यह झगड़ा देखकर बड़ा मजा आया। परंतु उस भीड़ में एक बूढ़ा सहृदय व्यक्ति भी था। उसके शरीर पर काला सूट था, किसी संभ्रांत कुल का मालूम पड़ता था। उसने भीड़ चीरते हुए आगे आकर कांस्टेबिल से कहा, "तुम्हारा भ्रम है। इसने तुम्हारा अपमान नहीं किया।" ।
उसकी रोबीली सूरत देखकर पुलिसमैन ने धीमे स्वर में कहा, “आप अपना काम देखिए !" पर जब वह व्यक्ति अपनी बात पर हठ करने लगा तो पुलिसमैन ने कहा, “अच्छा, तो आप भी थाने पर चलकर अपना बयान लिखवा दीजिए।"
बूढ़ा तरकारीवाला पुलिसमैन को समझाने का यल कर रहा था — "क्या मैंने यह कहा-पुलिस मैनों का नाश हो ! ओह"
वह पुलिसमैन से अपना आश्चर्य प्रकट कर रहा था कि मोची की बीवी हाथ में सात आने लिए हुए दुकान से बाहर आई। लेकिन जब उसने कांस्टेबिल नंबर 64 को उस तरकारीवाले की गर्दन पकड़े हुए देखा तो उसने विचारा कि मुझ पर किसी ऐसे आदमी का पैसा नहीं बाकी हो सकता है। जो थाने ले जाया जा रहा है। वह अपने पैसे जेब में रखकर दुकान के भीतर बापस लौट गई।
अपनी गाड़ी को जब्त किए जाते देखकर तरकारीवाले की आँखों के सामने अंधेरा छा गया और उसके मुँह से केवल इतने ही शब्द निकले- "हे ईश्वर !"
थाने पर एक सज्जन मनुष्य ने कहा कि सड़क पर ट्रैफिक रुक जाने की वजह से मुझे अपनी गाड़ी से उतरना पड़ा और अपनी आँखों से सारी घटना देखी। पुलिसमैन का अपमान नहीं हुआ है, उसे भ्रम हुआ है। उसने अपना नाम डॉक्टर मैथ्यू बताया। और कोई समय होता तो डॉक्टर का इतना कहना यथेष्ट समझा जाता, पर उन दिनों फ्रांस में डॉक्टरों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था।
तरकारीवाले को रात-भर हवालात में रहना पड़ा। सुबह उसे पुलिस की लॉरी में बिठाकर जेल ले जाया गया। उसे जेल बहुत बुरी जगह नहीं लगी, बल्कि अच्छी जगह लगी। जेल में उसे सबसे अधिक इस बात ने प्रभावित किया कि वहाँ बहुत सफाई थी।
“ओहो, यहाँ की जमीन तो बड़ी चमकती हुई है। मुँह तक दिखाई पड़ता है।'
स्टूल पर बैठकर वह, आश्चर्य-सागर में डूबा हुआ, अपने पैर के अंगूठे की ओर निहार रहा था। जेल का सूनापन उसे खा-सा रहा था। समय बीतता ही न था। वह अपनी गाड़ी के बारे में सोचने लगा, जिसमें ढेर-भर तरकारी थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि उस गाड़ी का ये लोग क्या करेंगे!
तीसरे दिन उसका वकील जेल में उससे भेंट करने आया। बूढ़े तरकारीवाले ने वकील को अपनी सारी कथा सुनानी चाही, पर वह इस प्रकार की बातें सुनने का आदी न था। वकील ने उसकी बातों पर सिर हिलाते हुए कहा, "इन बातों का मुकदमे से कोई संबंध नहीं है।" इसके बाद उसने कुछ ऊबते हुए अपनी मूंछों की नोकें बटते हुए कहा, "तुम्हारा लाभ इसी में है कि तुम अपना अपराध स्वीकार कर लो। अपराध एकदम अस्वीकार करना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होगा।"
तरकारीवाला प्रसन्नतापूर्वक अपना अपराध स्वीकार करने को तैयार था, पर उसे यह तक मालूम नहीं था कि उसने कौन-सा अपराध किया है।
न्यायाधीश ने उस बूढ़े तरकारीवाले से जिरह करने में पूरे छह मिनट व्यय किए। अगर वह पूछे गए प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दे देता तो यह जिरह अधिक सहायक होती। परंतु तरकारीवाले को इस तरह के वाद-विवाद का अभ्यास नहीं था। इतने बड़े-बड़े आदमियों के सामने भय के कारण उसकी जुबान में ताला लग गया था। वह चुपचाप खड़ा था।
न्यायाधीश अपने किए गए प्रश्नों का उसकी ओर से स्वयं उत्तर दे रहे थे। बूढ़ा तरकारीबाला हकलाकर रह जाता था। उसके मुँह से कोई बात निकलती नहीं थी। न्यायाधीश ने कहा, "तो तुम यह स्वीकार करते हो कि तुमने कहा-पुलिसमैनों का नाश हो !"
“मैंने पुलिसमैनों का नाश हो तब कहा जब पुलिसमैन ने मुझसे कहा कि पुलिसमैनों का नाश हो और मैंने भी फिर कहा, पुलिसमैनों का नाश हो ।"
बूढ़े तरकारीवाले के इस कथन का यह आशय था कि जब उस पर यह अप्रत्याशित अपराध लगाया गया तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ और उसने भी केवल चकित मुद्रा में उन शब्दों को दुहरा दिया, जो उसने कभी नहीं कहे थे।
लेकिन न्यायाधीश ने दूसरा ही अर्थ लिया। "तो क्या तुम यह कहना चाहते हो कि पुलिसमैन ने ही पहले ये शब्द कहे ?" न्यायाधीश ने प्रश्न किया।
बूढ़ा तरकारीवाला हार गया। उसे अपनी बात समझा सकना बड़ा कठिन मालूम हुआ।
"तो तुम अपनी बात पर स्थिर नहीं हो। ठीक है।" न्यायाधीश ने गवाहों को ले आने की आज्ञा दी।
कांस्टेबिल नंबर 64 ने, जिसका नाम मिटरा था, यह शपथ खाई कि मैं केवल सत्य बोलूँगा, सत्य के अलावा और कुछ नहीं कहूँगा। इसके बाद उसने निम्न गवाही दी-
"20 अक्टूबर को मैं दुपहर में अपनी ड्यूटी पर था। इसी समय अपनी गाड़ी से रास्ता रोकता हुआ यह तरकारीवाला प्रकट हुआ। मैंने इसे रास्ता छोड़ देने की चेतावनी तीन बार दी, पर इसने मेरी आज्ञा नहीं मानी। जब मैंने इसे चेतावनी दी कि मैं तुम्हारा चालान करने जा रहा हूँ तो इसने उत्तर में चिल्लाकर कहा-पुलिसमैनों का नाश हो ! इस तरह इसने मेरा अपमान किया ।"
पुलिसमैन ने नम्र पर दृढ़ स्वर में अपनी गवाही दी थी, जिससे प्रभावित होकर न्यायाधीश ने विश्वास के भाव से सिर हिलाया। बूढे तरकारीवाले की तरफ से दो गवाह थे, एक तो मोची की बीवी, दूसरे डॉक्टर मैथ्यू। मोची की बीवी ने कहा कि मैंने कुछ नहीं देखा, न कुछ सुना ही। डॉ० मैथ्यू भीड़ में थे, जब पुलिसमैन तरकारीवाले को आज्ञा दे रहा था कि अपनी गाड़ी आगे बढ़ाओ। उनकी गवाही से मुकदमे ने पलटा खाया।
डॉक्टर ने कहा, "मैंने सारी घटना अपनी आँखों से देखी। मैंने देखा, पुलिसमैन को भ्रम हुआ, उसका अपमान नहीं किया गया था। मैंने उससे यह बात कही। लेकिन वह तरकारीवाले को गिरफ्तार करने के लिए तुला हुआ था। उसने मुझसे कहा कि अपना बयान थाने में लिखाओ। मैं थाने में गया। वहाँ भी मैंने यही बयान दिया।"
न्यायाधीश ने डॉक्टर मैथ्यू से कहा कि आप बैठ जाइए और आज्ञा दी कि पुलिसमैन को दुबारा हाजिर किया जाए। "क्यों मिटरा, जब तुम अभियुक्त को गिरफ्तार करने जा रहे थे तो डॉ० मैथ्यू ने क्या तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम भ्रम में हो ?" न्यायाधीश ने प्रश्न किया।
“आपका आशय है कि इस भ्रम में उसने मेरा अपमान किया !"
"उन्होंने क्या कहा ?""उन्होंने कहा-पुलिसमैनों का नाश हो।" दर्शकों की भीड़ ने ठहाका मारा।
“तुम जा सकते हो।" न्यायाधीश ने शीघ्रता से आज्ञा दी।
न्यायाधीश ने जनता को चेतावनी दी कि अगर वह फिर ऐसा अनुचित व्यवहार करेगी तो उसे न्यायालय से बाहर कर दिया जाएगा। इस बीच सफाई-पक्ष के वकील अपने कोट की बाँहें चढ़ाते हुए पैतरे बदलते रहे। उस समय यह आशा होने लगी थी कि बूढ़ा तरकारीवाला रिहा हो जाएगा।
शांति हो जाने पर बूढ़े तरकारीबाले के वकील उठ खड़े हुए। अपने वक्तव्य के प्रारंभ में उन्होंने पुलिसमैनों की तारीफ की- ये लोग समाज के मूक सेवक हैं। छोटे-से वेतन के बदले में। वीरतापूर्वक हर बड़े खतरे का सामना करते हुए अपने कर्तव्य का पालन किया करते हैं। ये लोग सच्चे सैनिक है और रहेंगे। 'सच्चे सैनिक' शब्द से मेरा सारा आशय व्यक्त हो जाता है।"
इसके बाद उन्होंने सैनिकों के गुणों का बखान किया। "मैं उन आदमियों में से हूँ," उन्होंने कहा, “जो सेना की ओर किसी की उँगली तक उठाना गवारा नहीं कर सकते। मुझे गर्व है कि मैं भी इसी राष्ट्रीय सेना का सदस्य हूँ।"
यहाँ पर न्यायाधीश तक ने आदर से उन्हें सिर झुकाया। वकील साहब रिजर्व सेना में एक लेफ्टिनेंट थे। वे पार्लियामेंट की सदस्यता के उम्मीदवार भी थे। उन्होंने कहा, "मैं इनकी सेवाओं का मूल्य रत्ती-भर भी कम करके नहीं आँकता। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि किस प्रकार दिन-भर ये शांति के दूत सारे नगर की जनता की सेवा किया करते हैं। अगर मुझे जरा भी विश्वास होता कि मेरे मुवक्किल ने नगर के एक ऐसे सच्चे सेवक का अपमान किया है तो मैं कभी उसकी ओर से सफाई देने के लिए खड़ा न होता। मेरे मुवक्किल पर यह अभियोग है कि उसने कहा, पुलिसमैनों का नाश हो ! इसका अर्थ स्पष्ट है। पर प्रश्न यह है, क्या मेरे मुवक्किल ने ये शब्द कहे भी ? मुझे संदेह है।"
“आप यह न समझें कि मुझे कांस्टेबिल की सच्चाई में संदेह है। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उसका कर्तव्य बड़ा कठोर है। बहुधा अपने कर्तव्य का पालन करते-करते वह परेशान हो जाता है, थक जाता है। ऐसी अवस्था में यह संभव है, उसे भ्रम हुआ हो। यहाँ न्यायालय में भी जब उससे प्रश्न किया गया कि डॉक्टर मैथ्यू ने तुमसे क्या कहा तो उसके मुंह से निकल पड़ा कि उन्होंने कहा-"पुलिसमैनों का नाश हो !" इससे हम यह विश्वास करने के लिए विवश हो जाते हैं कि कांस्टेबिल को भ्रम हुआ है।"
“और अगर बूढे तरकारीवाले ने कहा भी हो, पुलिसमैनों का नाश हो ! तो यह साबित किया जाना शेष रह जाता है कि अभियुक्त के मुख से निकले हुए शब्द अपराधस्वरूप हैं। अभियुक्त एक कुंजड़ा है और शराब पीने की लत के कारण, उसके दिमाग की नसें ढीली पड़ गई हैं। आप खुद देख सकते हैं कि उसके चेहरे पर साठ साल की गरीबी की मार की छाप है। ऐसी दशा में, सज्जनो, आपको मानना पड़ेगा कि वह एक ऐसा आदमी है, जिसके होशोहवास दुरुस्त नहीं रहते।"
वकील साहब अपना वक्तव्य समाप्त करके बैठ गए। न्यायाधीश ने एक वाक्य में अपना निर्णय सुना दिया। बूढे तरकारीवाले को पचास रुपए जुर्माना और पंद्रह रोज कैद की सजा दी गई थी। यह सजा कांस्टेबिल की गवाही के आधार पर दी गई थी।
जब बूढ़ा तरकारीवाला जेलखाने ले जाया जा रहा था, उसके मन में बड़ी सहानुभूति उमड़ रही थी। अपने साथ के सिपाही को उसने तीन बार पुकारकर कहा. "जरा सुनना।"
कोई उत्तर न मिलने पर उसने एक साँस भरकर कहा, “अगर कोई मुझे पंद्रह रोज पहले ही बता देता कि यह घटना घटेगी।"
इसके बाद उसने सोचते हुए कहा, "ये लोग कितनी जल्दी-जल्दी बोलते हैं। बोलते तो अच्छा हैं, पर बड़ी जल्दी-जल्दी बोलते हैं। अपनी बात उन्हें समझाई ही नहीं जा सकती क्यों भाई, क्या तुम्हारा भी यह खयाल नहीं है कि ये लोग बड़ी जल्दी-जल्दी बोलते हैं।"
सिपाही उसकी ओर देखे बगैर अपने रास्ते चलता रहा। तरकारीवाले ने पूछा, "तुम मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देते हैं।"
सिपाही फिर भी मौन रहा। इस पर तरकारीवाले ने कर्कश स्वर में कहा, "तुम लोग कुत्तों से बोल सकते हो, मुझसे नहीं? क्यों ? क्या तुम्हारे मुँह में दही जमा है"
सजा की आज्ञा सुनाई जाने के बाद कुछ दर्शक और दो-तीन वकील उठकर न्यायालय से बाहर चले गए। क्लर्क ने दूसरा मुकदमा पेश कर दिया था। जो लोग बाहर चले आए थे, उन्हें तरकारीवाले का मामला मनोरंजक न मालूम हुआ था। इसलिए उसका ध्यान तक उनके मन से उतर गया था, परंतु दर्शकों में एक शिल्पकार भी था। उसने मुकदमे की सारी कार्यवाही पर गंभीरतापूर्वक विचार किया। अपने एक मित्र के कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा
"न्यायाधीश को इस बात पर तो बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने अपने मन में व्यर्थ का वह कौतूहल अथवा पांडित्य नहीं जमने दिया, जो सारी चीजों की खोजबीन करके सच्ची बात जानने के लिए प्रेरित करता है। अगर उन्होंने कांस्टेबिल और डॉक्टर की परस्पर विरोधी गवाहियों पर विचार किया होता तो वे बस संदेह ही में पड़े रह जाते। अगर न्यायाधीश लोग सच्ची बातों की खोजबीन में दत्तचित्त हो जाएँ तो न्याय करने का कार्य कठिन हो जाए। ऐसी अवस्था में न्यायाधीशों को सारा निर्णय अपनी ही बुद्धिमत्ता के अनुसार करना पड़े, परंतु संसार में बुद्धिमत्ता कम है, अबुद्धिमत्ता अधिक। तो फिर किस आधार पर न्याय किया जाए? प्रचलित प्रणाली से चलने पर न्यायाधीश का निर्णय कभी भी असंदिग्ध नहीं हो सकता। यहाँ सर वाल्टर रेले की कहानी याद आती है।
"लंदन के जेलखाने में अपनी कोठरी में बैठे हए एक दिन सर वाल्टर रेले अपने संसार के इतिहास का दूसरा भाग लिख रहे थे। उन्होंने खिड़की से नीचे सड़क पर झगड़ा होते देखा। वे खड़े होकर अगड़ा करने वालों को देखते रहे। इसके बाद जब वे दुबारा अपनी मेज पर आकर बैठे तो उन्हें विश्वास था कि उन्होंने सब बातें ध्यानपूर्वक देखी हैं। दूसरे दिन उन्होंने अपने एक मित्र से झगड़े की घटना का बयान किया। उसने झगड़े को केवल दूर से देखा ही न था, उसमें शामिल भी था। उसने झगड़े का जो बयान दिया, वह उनके बयान के बिलकुल विपरीत था। इस पर उन्होंने यह विचारा कि मेरी आँखों के सामने जो घटना घटी उसे बयान करने में तो मुझसे गलती हो गई। अतीत काल के इतिहास की घटनाओं की सत्यता की जाँच करना तो और भी कठिन है। और उन्होंने अपनी मैनुस्क्रिप्ट (इतिहास की पांडुलिपि) आग में फेंक दी।
“अब अगर न्यायाधीश लोग भी सर वाल्टर रेले की भाँति सोच-विचार में पड़े रहे तो उन्हें भी अपने सारे कागज आग में जला देने पड़ेंगे। ऐसा करने का उन्हें अधिकार नहीं है। ऐसा करने से तो वे न्याय का काम रोक लेंगे, अपराधी ठहराए जाएंगे। हम लोग चाहे यह अच्छी तरह समझ लें कि सच्ची बात जानना अति कठिन है, पर न्याय का कार्य तो नहीं रोका जा सकता। जो लोग यह कहते हैं कि न्यायालयों में सच्ची बातों की छानबीन करके निर्णय दिए जाने चाहिए, वे बड़े खतरनाक है और नागरिक तथा सैनिक, दोनों ही प्रकार के न्याय के शत्रु हैं। हमारे न्यायाधीश कानून के ज्ञाता है, इसलिए उन्होंने अपने निर्णय को सचाई पर आधारित करने का प्रयत्न नहीं किया; क्योंकि सचाई सदा संदिग्ध रहती है। उन्होंने अपना निर्णय परंपराओं के अनुसार दिया, जो निश्चित है। कुछ चुनी हुई धाराएँ हैं, जिनके अंदर अपना निर्णय देते हैं। तुम खुद देख लो; उन्होंने किस प्रकार से गवाहियों का वर्गीकरण किया। सचाई आदि के अनुसार नहीं; क्योंकि वह संदिग्ध हो सकती है, बल्कि कानून की धाराओं के अनुसार। क्या इससे सरल मार्ग और कोई हो सकता है? उनके लिए तो पुलिसमैन की गवाही पत्थर की लकीर थी; क्योंकि उनकी दृष्टि में वह साधारण व्यक्ति नहीं था, जिससे गलतियों हो सकती हैं, बल्कि कांस्टेबिल नंबर 64 था, आदर्श पुलिस-दल का एक सदस्य । उनका यह विचार नहीं था कि मिटरा से गलती हो नहीं सकती। पर उन्होंने जिस व्यक्ति की गवाही पर विचार किया वह मिटरा नहीं था, पर कांस्टेबिल नंबर 64 था। उनके विचारानुसार एक मनुष्य से गलती हो सकती है, परंतु एक आदर्श वस्तु से नहीं। मिटरा गलती कर सकता है, पर कांस्टेबिल नंबर 64 नहीं; क्योंकि वह व्यक्ति नहीं है, एक आदर्श वस्तु का अंग है। आदर्श वस्तु और मनुष्य में कोई समानता नहीं होती। आदर्श वस्तु वह गलतियाँ नहीं कर सकती, जो मनुष्य से संभव है। आदर्श वस्तु सदा पवित्र और अपरिवर्तनशील रहती है। इसीलिए न्यायाधीश ने डॉक्टर मैथ्यू की गवाही अस्वीकार कर दी; क्योंकि वे एक व्यक्ति थे, पर कांस्टेबिल नंबर 64 की गवाही स्वीकार कर ली; क्योंकि वह एक आदर्श वस्तु का भाग था।
"इस तरह के तर्क द्वारा हमारे न्यायाधीश गलतियों से परे हो गए हैं। जब एक सिपाही गवाही देता है तो उनकी दृष्टि आदमी पर नहीं रहती, पर उसकी कमर में लटकती हुई तलवार पर रहती है। आदमी गलती कर सकता है, पर तलवार कभी गलती नहीं करती। हमारे न्यायाधीश कानून की आत्मा को अच्छी तरह पहचानते हैं। समाज की नींव पशुबल पर है। इसलिए हमें पशुबल का आदर करना चाहिए। न्याय भी पशुबल का एक अंग है। हमारे न्यायाधीश अच्छी तरह जानते थे कि कांस्टेबिल नंबर 64 सरकार का एक अंग है। सरकार अपने अफसरों में ही विश्वास करती है। कांस्टेबिल नंबर 64 के अधिकार को क्षीण करने के माने थे, सरकार को क्षीण करना।
"राज्य की सभी तलवारों का मुख एक ही ओर फिरा रहता है। उनमें से एक का भी विरोध करना समूचे प्रजातंत्र को नष्ट करने का षड्यंत्र करना है। इस कारण बूढ़े तरकारीवाले को अगर कांस्टेबिल नंबर 64 की गवाही पर 50 रुपए जुर्माना और पंद्रह रोज कैद की सजा दी गई तो उचित ही किया गया। मुझे मालूम पड़ता है जैसे न्यायाधीश मुझसे स्वयं बता रहे हैं कि उन्होंने किन कारणों से तरकारीवाले को दंड दिया। वह कह रहे हैं-
"मैंने इस व्यक्ति के अपराध का निर्णय कांस्टेबिल नंबर 64 की गवाही पर किया; क्योंकि कांस्टेबिल नंबर 64 राज्यशक्ति का ही एक अंग है। अगर तुम मेरे निर्णय की बुद्धिमत्ता जानना चाहते हो तो कल्पना करो कि अगर मैंने इसके विपरीत निर्णय किया होता तो उसका क्या परिणाम होता। तुम देखोगे कि बड़ी विचित्र परिस्थिति होती। अगर मेरा निर्णय इसके विपरीत हो जाता तो उसे पूरा कौन करता । तुम देखो कि न्यायाधीशों की आज्ञा का पालन तभी होता है, जब राज्य-शक्ति भी उनके पक्ष में होती है। बिना पुलिसमैन के न्यायाधीश पंगु है। अगर मैं यह स्वीकार कर लेता कि पुलिसमैन ने गलती की है तो मैं अपनी हानि करता। इसके अलावा, कानून की आत्मा भी इसके विरुद्ध है। बलवानों को निर्बल बनाकर निर्बलों को बलवान बनाने के अर्थ हैं वर्तमान सामाजिक संगठन में उलट-फेर करना। परंतु मेरा तो कर्तव्य है कि मैं वर्तमान सामाजिक संगठन को बनाए रखूँ। स्थापित अन्याय की स्वीकृति ही न्याय है। क्या न्याय ने कभी विजेताओं और विद्रोहियों का विरोध किया है ? जब किसी अन्यायपूर्ण शक्ति का उदय होता है तो वह न्याय सत्ता अपने अधिकार में करके न्यायपूर्ण बन जाता है। अब यह तरकारीवाले पर था कि वह बलवान होता।अगर पुलिसमैनों का नाश हो। की आवाज लगाने के बाद वह अपने को सम्राट, प्रजातंत्र का प्रेसीडेंट या नगर की म्युनिसिपलटी का सदस्य ही घोषित कर देता तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उसे पचास रुपया जुर्माना और पंद्रह रोज कैद की सजा न देता।
"मुझे विश्वास है, न्यायाधीश के मुख से ऐसे ही कुछ शब्द निकलते; क्योंकि वे कानून के ज्ञाता है और अच्छी तरह जानते हैं कि समाज एक न्यायाधीश से क्या आशा करता है। न्यायाधीश सामाजिक सिद्धांतों की रक्षा नियमपूर्वक करता है। न्याय भी एक सामाजिक कर्म है। जिनका दिमाग फिर गया है, वे ही यह कहने का साहस कर सकते हैं कि न्याय का मूलाधार मानवता और औचित्य होना चाहिए। न्याय सुनिश्चित सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है, भावनाओं अथवा विवेकशीलता के आधार पर नहीं। यह तो कभी आशा करनी ही नहीं चाहिए कि न्याय उचित भी हो। उसे उचित होने की आवश्यकता भी नहीं, क्योंकि वह न्याय है। मैं तो यह कहूँगा कि उचित न्याय की भावना अराजकतावादियों के मस्तिष्क की उपज है। सच है कि हमारे न्यायाधीश सदा उचित दंड देते हैं। अगर वे अपनी आज्ञा बिलकुल बदल दें तो भी वह न्यायपूर्ण ही रहती है।
"चतुर न्यायाधीश गवाहियों का मूल्यांकन सभ्यता के बटखरे से नहीं करते, बल्कि शस्त्रबल के बटखरे से करते हैं। जो अधिक बलवान होते हैं उन्हीं की गवाहियाँ सत्य मानते हैं। बूढ़े तरकारीवाले के मुकदमे में भी वही हुआ जो सब मुकदमों में होता है।"
शिल्पकार यह कहकर विचारमग्न मुद्रा में टहलने लगा।
उसके मित्र ने अपनी नाक खुजलाते हुए कहा, “अगर तुम मेरा मत जानना चाहते हो तो में कहूँगा कि न्यायाधीश ने अपने मन में इस प्रकार का दार्शनिक विवेचन नहीं किया था। मेरे विचार में तो वे कानून की धाराओं तथा परंपराओं के अनुसार कांस्टेबिल नंबर 64 की गवाही को सत्य मानने के लिए बाध्य थे। आदमी स्वयं भी वही करता है, जो दूसरे करते हैं। सम्मानित व्यक्ति वही है जो परंपराओं का पालन करता है।"
बूढ़ा तरकारीवाला जेलखाने की अपनी कोठरी में वापस लौटकर उसी स्टूल पर दुबारा बैठ गया। उसके मन में आश्चर्य और आतंक छाया था। वह स्वयं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि न्यायाधीश ने गलती की थी। न्यायालय की कमजोरियाँ उसके आतंकपूर्ण वातावरण के पीछे छिप गई थीं। उसे विश्वास नहीं होता था कि न्यायाधीश के बजाय उसकी अंतरात्मा की आवाज सत्य है, उसके लिए यह विचार कर सकना असंभव था कि न्यायालय की परंपराबद्ध कार्यवाही में कोई गलती हो सकती है। वह कभी गिरजाघर भी नहीं गया था, इसलिए उसने अपने जीवन-भर में न्यायालय के समान कोई प्रभुत्वपूर्ण दृश्य नहीं देखा था। उसे यह अच्छी तरह पता था कि उसने कभी यह नहीं कहा था कि 'पुलिसमैनों का नाश हो !' और केवल इतना कहने के लिए पंद्रह रोज की कैद हो सकती है, यह उसके लिए महान् रहस्य था। फिर भी जब दंड के अनुसार उसने यह कहा था कि 'पुलिसमैनों का नाश हो !' उसने स्वयं न सुना होगा। वह जैसे एक अलौकिक संसार में पहुँचा दिया गया था।
अपने दंड के संबंध में तो वह और भी अंधकार में था। उसे अपना यह दंड एक धार्मिक कृत्य की भाँति रहस्यपूर्ण मालूम पड़ रहा था। अगर इस समय उसकी आँखों के सामने स्वयं न्यायाधीश भी सफेद पंख लगाए और अपने सिर के पीछे एक प्रकाश-पुंज साथ लिए हुए कोठरी की छत से उतर आते तो उसे न्यायाधीश की महत्ता की इस नवीन अभिव्यक्ति पर कोई आश्चर्य न होता। उसके मुँह से केवल यही निकलता, "मेरे अपराध पर विचार किया जा रहा है।'
दूसरे दिन उसका वकील उसे देखने आया।
"दुखी होने की बात नहीं, वकील ने उससे कहा, “पंद्रह रोज तो बहुत जल्दी बीतेंगे। सस्ते ही छूटे।" "न्यायालय के सभी लोगों ने बड़ी नम्रता दिखाई, एक कटु शब्द तक नहीं कहा। मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
“अपना अपराध स्वीकार कर तुमने अच्छा ही किया।"
"शायद !"
"मैं एक खुशखबरी लाया हूँ। एक उदार सज्जन से मैंने तुम्हारी ओर से प्रार्थना की थी। उन्होंने पचास रुपए दिए हैं। अब तुम्हारा जुर्माना अदा हो जाएगा।"
"रुपया कब मिलेगा ?" "कल अदालत में जमा हो जाएगा। तुम अब चिंता मत करो।"
"मैं बड़ा कृतज्ञ हूँ।' इसके बाद उसने धीमे से बुदबुदाकर कहा, "यह मेरे साथ एक असाधारण बात हुई है।"
"नहीं जी, ऐसा हुआ ही करता है।"
“अच्छा । आपने यह नहीं बताया कि मेरी गाड़ी कहाँ रक्खी गई है।"
+++ जेलखाने से छूटने के बाद बूढ़ा तरकारीवाला अपनी गाड़ी सड़क पर ढकेलता हुआ फिर चिल्लाने लगा-“आलू ! गोभी ! गाजर !" उसे अपनी जेल जाने पर न तो लज्जा ही थी, न गर्व। जेल की स्मृति भी दुःखद नहीं थी। वह इस स्मृति को भी उसी श्रेणी में रखता था, जिस श्रेणी में सुखद स्वप्नों और भावनाओं की स्मृति। उसे सबसे बड़ी प्रसन्नता यह थी कि वह फिर सड़कों पर घूम रहा था और उसके सिर पर नगर का प्रिय आकाश था। जब-तब गाड़ी रोककर वह पानी से अपना गला तर कर लेता था, इसके बाद दूने उत्साह से गाड़ी ढकेलता हुआ आगे बढ़ता था। एक बूढ़ी मजदूरनी ने, जो उससे अच्छी तरह परिचित थी, उसे देखकर पूछा-“कहाँ रहे, तुम । तीन हफ्ते से दिखाई नहीं पड़े ? क्या बीमार थे ? तुम्हारा चेहरा पीला पड़ गया है।"
“मुझे जेल हो गई थी।"
उसके जीवन में इसके सिवा और कोई परिवर्तन नहीं हुआ कि अब वह शाम को कलवरिया के यहाँ जा बैठता था और वहाँ गपशप लगाता था। रात को जब वह अपनी कोठरी में आता तो बड़ा प्रसन्न रहता था। चटाई पर बोरे बिछाकर वह लेट जाता था। ये बोरे उसने एक मेवेवाले से खरीदे थे और उसके लिए लिहाफ का काम देते थे। वह उन बोरों के अंदर घुसकर लेटा हुआ सोचा करता-जेल का जीवन बहुत बुरा नहीं था। वहाँ सभी आवश्यक चीजें मिल जाती थीं। फिर भी घर अच्छा है।
लेकिन उसका यह संतोषपूर्ण जीवन अधिक दिन तक नहीं चला। शीघ्र ही उसने देखा कि उसके ग्राहकों का रुख बदल गया है।
"बड़ी अच्छी गाजर है, मालकिन !"
"नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए।'
"तो फिर आजकल क्या आप हवा खाती हैं ?"
मजदूरनी बिना कुछ कहे हुए भटियारे की दुकान की ओर चली गई, जहाँ वह नौकर थी। वही दुकानदार, जो पहले उसे देखते ही उसकी गाड़ी पर टूट पड़ते थे, अब उसे देखकर मुँह फेर लेते थे। मोची की दुकान पर पहुँचकर, जहाँ उसका पुलिसमैन से झगड़ा हुआ था, उसने भीतर झाँककर पुकारा-“मालकिन, मेरे पिछले सात आने बाकी हैं।" मोची की बीवी ने उसकी ओर निहारा तक नहीं।
सारे बाजार को मालूम हो गया था कि वह बूढ़ा तरकारीवाला जेल हो आया है और अब सब लोग उससे मुंह फेरते थे। उसके सजायाफ्ता होने की खबर बाजार तक ही नहीं, दूर-दूर के मुहल्लों तक फैल चुकी थी। एक दिन दोपहर को उसने एक मजदूरनी को, जो सदा उससे ही तरकारी लिया करती थी, एक दूसरे ही तरकारीवाले की गाड़ी पर झुकी हुई देखा। वह गोभियों का मोल-भाव कर रही थी। उसके बाल धूप में सुनहले होकर चमक रहे थे। वह छोकरा तरकारीवाला कसमें खा रहा था कि इससे अच्छी गोभियों बाजार-भर में नहीं मिलेंगी। इस दृश्य से उसके दिल को बड़ी चोट लगी। वह अपनी गाड़ी भी उस छोकरे के बगल में ले जाकर मजदूरनी से बोला, "यह तो तुम्हें शोभा नहीं देता।'
मजदूरनी ने जवाब दिया कि वह लाचार है। वह समाज से बाहर थोड़े ही है, जेल काट आए व्यक्ति के साथ जैसा व्यवहार और लोग करते हैं, वैसा ही वह भी करती है। आदमी चाहे तो सदा चार आदमियों में मुंह दिखाने लायक जीवन व्यतीत कर सकता है। सभी को अपनी नाक प्यारी होती है। कोई भी यह पसंद नहीं करता कि वह एक जेल से लौटे हुए व्यक्ति से व्यवहार रक्खे। मजदूरनी ने उस पर एक घृणा की दृष्टि डाली। वह इस अपमान से आहत हो उठा।
"जा, भाग जा ! बड़ी आई वहाँ से डाइन ।" उसने चिल्लाकर कहा।
मजदूरनी के हाथ से गोभियाँ गिर पड़ीं। उसने भी उसी प्रकार चीखकर कहा, “वाह रे बुड्ढे । एक तो जेल काटकर आया, ऊपर से दूसरों को आँख दिखाता है।"
अगर वह बूढ़ा तरकारीवाला उस समय अपने वश में होता तो उस मजदूरनी पर बिगड़ता नहीं। वह अच्छी तरह जानता था कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता नहीं होता। दुनिया में भले आदमी भी होते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता था। पर इस समय वह आपे से बाहर था। उसने उस मजदूरनी को डाइन, रंडी इत्यादि कहा। तमाशबीनों की एक भीड़ उनके चारों ओर इकट्ठा हो गई। गली-गलौज और बढ़ गई। ऐसा मालूम पड़ता था, दोनों पक्ष शब्दकोश के सारे शब्दों को समाप्त कर देंगे। इसी समय भीड़ में से एक पुलिसमैन प्रकट हुआ और वे दोनों चुप हो गए। भीड़ भी छंट गई। वे दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए। उस दिन से वह बूढ़ा तरकारीवाला लोगों की दृष्टि में और अधिक गिर गया।
बूढ़ा तरकारीवाला बड़बड़ाता हुआ चला जा रहा था, “वह पूरी लंका है, बिलकुल लंका है।"
लेकिन उसके अंतःस्तल में उस मजदूरनी के प्रति कोई क्रोध नहीं था। उसके इस चंडिका-रूप पर उसके मन में घृणा नहीं थी। इसके विपरीत एक प्रकार का आदर-भाव था; क्योंकि वह जानता था कि उसका जीवन बड़े कष्ट से बीता है। एक बार दोनों ने एक-दूसरे से घुल-मिलकर बातें की थीं। वह अपने घर का हाल उससे बताया करती थी। वह एक गाँव की रहने वाली थी। दोनों ने निश्चय किया था कि एक छोटे-से बाग में मुर्गे-मुर्गी पालकर अंडे बेचने का व्यवसाय करेंगे। वह बड़ी सीधी औरत थी। आज उस छोकरे से उसे तरकारी खरीदते हुए देखकर उसके बदन में आग लग गई। और उसने जब उससे घृणा करने की बात कही तब तो उसका खून उबल पड़ा!"
लेकिन एक वही उससे घृणा न करती थी। भठियारे की नौकरानी से लेकर मोची की बीवी तक उससे घृणा करती थीं। सारा समाज उससे कोई संबंध रखने को तैयार नहीं था।
अगर उसने पंद्रह रोज जेलखाने में काटे हैं तो क्या अब वह तरकारी बेचने योग्य भी नहीं रह गया। क्या यह उचित है कि एक जरा-सी बात के लिए ऐसे अच्छे आदमी को भूखों मरने दिया जाए। अगर उसे तरकारी न बेचने दिया गया तो फिर वह कहीं का न रहेगा। एक बार उस मजदूरनी से गाली-गलौज होने के बाद अब उसकी हर एक से कहा-सुनी हो जाती थी। वह जरा-सी बात पर अपने ग्राहकों से बिगड़ जाता था और पूछ बैठता था, 'तुम मुझे क्या समझते हो ?' अगर वे कहते कि उसकी तरकारी अच्छी नहीं है तो वह उनके मुँह पर उन्हें भला-बुरा कहने लगता था। कलवरिया के यहाँ भी वह अपने साथियों पर गुर्रा बैठता था। उसका दोस्त मेवेवाला अब उसे पहचानता नहीं था। उसका कहना था, अब बूढ़ा तरकारीवाला जंगली बन गया है। यह बिलकुल सत्य था। वह दिनोदिन उग्र, चिड़चिड़े मिजाज का और बदजुबान होता जाता था। वास्तविक बात यह थी कि वह धीरे-धीरे समाज की बुराइयों को देखने लगा था, पर वह नीतिशास्त्र का कोई पंडित नहीं था कि समाज की बुराइयों तथा सुधार की आवश्यकताओं के संबंध में अपने विचार संयत भाषा में प्रकट कर सकता। उसके विचार बिना किसी क्रम के और असंयत भाषा में प्रकट होते थे।
अपने दुर्भाग्य से पीड़ित होकर वह दिनोदिन उच्छृंखल होता जाता था। वह अपना बदला अब उन लोगों से लेता था जो उसके शुभेच्छु थे या उससे निर्बल थे। एक दिन उसने कलवरिया के लड़के को जोरों से तमाचा मार दिया; क्योंकि उसने उससे पूछा था कि जेल जाते हुए कैसा लगता है।
तरकारीवाले ने उसको झापड़ रसीद करते हुए कहा, "सूअर ! जेल तो तेरे बाप को जाना चाहिए, जो जहर बेच-बेचकर अमीर हो गया है।"
यह काम उसने अच्छा नहीं किया था। मेवेवाले का यह कहना ठीक ही था कि उसे बालक को मारना न चाहिए था, न उसके बाप को गाली ही देनी चाहिए थी, क्योंकि अपने बाप का चुनाव करने में उसका कोई वश नहीं था।
वह अब शराब बहुत अधिक पीने लगा। आमदनी कम होती जाती थी, शराब बढ़ती जाती थी। पहले वह बड़ा संयमी था। उसे स्वयं अपने परिवर्तन पर आश्चर्य होता था।
पहले मैं इस तरह पैसा नहीं बहाता था, उसने सोचा-'क्या बूढ़ा होने से आदमी सठिया जाता है।'
कभी-कभी अपने दुर्व्यवहार के लिए वह अपनी तीव्र भर्त्सना करता, 'तुम दुनिया में किसी काम के नहीं हो। बस शराब के नशे में डूबे रहते हो !'
कभी-कभी वह अपने को धोखा देकर यह सोचता कि उसे शराब की आवश्यकता है।
'शराब मुझे चाहिए ही। ताकत लाने के लिए मुझे एक गिलास चाहिए ही। ऐसा मालूम पड़ता है, मेरे अंदर एक आग जला करती है और उसे बुझाने के लिए शराब से बढ़कर और कोई चीज नहीं है।'
बहुधा ऐसा होता कि वह सुबह नीलामी के वक्त नहीं पहुंच पाता और उसे उधार पैसों पर सड़ी-गली तरकारियों से ही संतोष करना पड़ता। एक दिन उसे बहुत अधिक निराशा मालूम पड़ी।
वह अपनी गाड़ी मंडी में ही सायबान के नीचे छोड़कर दिन-भर गोश्त वाले और शराब वाले की दुकान के चारों ओर भटकता रहा। शाम को वह एक डलिया पर बैठकर विचार करने लगा कि उसका कितना पतन हो गया है। उसे अपने पुराने दिनों की याद आई। वह कितना बलवान् था ! हंसते, काम करते दिन बीत जाता था; कुछ पता ही न चलता था। सुबह अंधेरे में ही उठकर मंडी पहुँच जाता था; और नीलामी होने की प्रतीक्षा किया करता था। किस उत्साह से अपनी गाड़ी में तरकारियाँ सजा-सजाकर रखता था; नुक्कड़ की दुकान पर गरम-गरम कॉफी का एक प्याला एक घूँट में ही पी जाता था। इसके बाद पक्षियों की भाँति उसकी तेज आवाज से सुबह का पवन आंदोलित हो उठता था। घोड़ों की भाँति उसका श्रमपूर्ण और सरल जीवन व्यतीत होता था। पचास साल से वह घर-घर लोगों को ताजी तरकारियाँ पहुंचाता रहा है। उसने सिर हिलाते हुए एक साँस भरी।
आह ! अब मैं वह नहीं हूँ, जो पहले था। अब मैं फूटा घड़ा हूँ। जेल की घटना के बाद से तो और भी बदल गया हूँ। मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले था।
उसका भारी पतन हो गया था। आदमी की जब ऐसी अवस्था होती है तो वह सड़क पर ही लेट जाता है, उसकी उठने की तबीयत ही नहीं चाहती; और आते-जाते लोग उसे ठोकरें लगाते हुए चलते हैं।
उसे भयानक गरीबी ने आ घेरा। पहले जब वह घर लौटता था तो उसकी जेब भरी रहती थी, अब जेब में एक पैसा नहीं रहता था। जाड़ों के दिन आ गए। अपनी कोठरी से निकाल दिए जाने के कारण वह अब किसी सायबान में गाड़ियों के नीचे सोता था। कई रोज से लगातार पानी बरस रहा था, नालियाँ भर गई थी और उस सायबान के नीचे भी पानी ही पानी था।
वह अपनी गाड़ी पर मकड़ों और भूखी बिल्लियों के साथ पानी में भीगता हुआ गठरी बनकर लेटा हुआ था। उसने दिन-भर से खाया न था। उसके पास अब वह बोरा भी नहीं था, जिसे ओढ़कर सोया करता था। उसे अपने जेल की कोठरी में बीतने वाले दो सप्ताहों की याद आई, जब उसे सरकार खाना-कपड़ा देती थी। उसे कैदियों के भाग्य पर ईर्ष्या हुई । उन्हें भूखे रहकर सर्दी में ठिठुरना नहीं पड़ता। उसके मन में एक विचार उदय हुआ।
'जब मुझे यह युक्ति सूझी है तो मैं इसका उपयोग क्यों न करूँ ।'
वह उठकर सड़क की ओर चला। थोड़ी ही देर पहले ग्यारह का घंटा बोला था। रात अंधेरी और बर्फ जैसी ठंडी थी। चारों ओर कोहरा छाया हुआ था, जो बरसते हुए पानी से भी अधिक शीत उत्पन्न करने वाला था। सड़क पर बहुत थोड़े लोग मकानों के बरामदे के नीचे छिपते हुए आ-जा रहे थे।
बूढ़ा तरकारीवाला बाजार पहुंचा। वहाँ सन्नाटा छाया था। गिरजाघर के निकट एक शांति का दूत पहरा दे रहा था। उसके सिर पर गैस का हंडा जल रहा था, जिससे उस पर गिरती हुई पानी की धार लाल दिखाई पड़ती थी। वह काँप रहा था, पर या तो रोशनी की वजह से या घूमते-घूमते थक जाने की वजह से वह अपनी जगह से हिल नहीं रहा था। शायद उस निर्जनता में वह प्रकाश-पुंज उसे एक साथी की भाँति मालूम पड़ रहा था। वह इस प्रकार अचल खड़ा था कि दूर से मनुष्य मालूम ही नहीं पड़ता था। उसके लंबे बूटों की छाया फुटपाथ पर पड़ रही थी, परंतु वहाँ पानी भरा था। इससे मालूम पड़ता था जैसे उसके शरीर का एक भाग पानी में डूबा हुआ है। दूर से वह किसी जल-जंतु की भाँति मालूम पड़ता था, जिसका आधा शरीर पानी के बाहर था, आधा पानी के भीतर। निकट से देखने पर उसका चेहरा भिक्षुओं अथवा सैनिकों जैसा मालूम पड़ता था। उसके रूखे-सूखे चेहरे पर दुःख की मलिनता छाई थी। उसकी भूरी घनी छोटी मूंठे थीं। वह चालीस-बयालीस वर्ष का मालूम पड़ता था। बूढ़े तरकारीवाले ने उसके निकट जाकर कमजोर आवाज में कहा, "पुलिसमैनों का नाश हो ।"
इसके बाद वह कुछ क्षण तक प्रतीक्षा करता रहा कि उसके इन पवित्र शब्दों का क्या परिणाम निकलता है । लेकिन कांस्टेबिल अपने दोनों हाथ बांधे हुए, चुपचाप पहले ही की भाँति अचल खड़ा रहा। उसकी आँखें अँधेरे में चमक रही थीं। बूढ़े तरकारीवाले ने देखा, उन आँखों में बड़ी उदासीनता है।
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर भी उसने दुबारा उसके कानों में कहा-"मैं तुमसे कहता हूँ, पुलिसमैनों का नाश हो।"
फिर भी वह ठंडी अँधेरी रात निःस्तब्ध रही, केवल पानी पड़ने का शब्द सुनाई पड़ता रहा। अंत में कांस्टेबिल ने कहा, "ऐसी बात नहीं कही जाती ऐसी बातें नहीं कही जानी चाहिए। तुम बूढ़े हो गए, तुम्हें समझ होनी चाहिए। जाओ, अपने रास्ते जाओ।"
"तुम मुझे गिरफ्तार क्यों नहीं करते ?" बूढ़े तरकारीवाले ने पूछा। कांस्टेबिल ने पानी से तर टोप के नीचे अपना सिर हिलाया।
"अगर हम इस तरह के औंधी खोपड़ी वालों को उनकी ऐसी बातों के लिए गिरफ्तार करते रहें, जो उन्हें नहीं कहनी चाहिए, तो हम इसी भर के हो जाएंगे और इससे फायदा क्या होगा?"
बूढ़ा तरकारीवाला नाली में पैर डाले हुए खड़ा था। कांस्टेबिल की इस भारी घृणा के सम्मुख वह क्षण-भर के लिए अपनी जगह गड़ा-सा रह गया। इसके बाद उसने धीमे से समझाने का प्रयत्न किया, “मैं आपसे नहीं कहना चाहता था, पुलिसमैनों का नाश हो ! मैं किसी दूसरे से कहना चाहता था। मन में एक विचार उठा था।"
कांस्टेबिल ने नम्र पर दृढ़ स्वर में कहा, "कुछ भी हो, ऐसी बात कहनी नहीं चाहिए। जब एक आदमी इतने कष्ट सहता हुआ अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसका इस प्रकार के शब्द कहकर उसका अपमान करना अनुचित है। मैं तुमसे फिर कहता हूँ कि तुम अपने रास्ते जाओ!"
बूढ़ा तरकारीवाला सिर झुकाए, दोनों हाथ किसी निर्जीव वस्तु की भाँति लटकाए हुए, बरसते हुए पानी और अंधकार में घुस पड़ा।