बूढ़ी आँखों का आकाश / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
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वे दिन मेरी बेकारी के दिन थे। मैं इण्टर कर चुका था और नौकरी की तलाश में था। माता-पिता मुझे और आगे पढ़ाने में अपनी असमर्थता प्रकट कर चुके थे। घर में मुझसे बड़ी दो बहनें थीं– विमला और शान्ता। विमला जैसे-तैसे हाई-स्कूल कर चुकी थी लेकिन, शान्ता आठवीं जमात से आगे न बढ़ सकी। माता-पिता वैसे भी, लड़कियों को अधिक पढ़ाने के पक्ष में कतई नहीं थे। उनका विचार था कि अधिक पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए अपनी बिरादरी में वर ढूंढ़ने में काफी मुश्किलें आती हैं।

दोनों बहनें घर के कामकाज में माँ का हाथ बँटाती थीं। उन दोनों की बारियाँ बंधी थीं। सुबह का काम विमला देखती थी, शाम का शान्ता। बीच-बीच में माँ दोनों का साथ देती रहती थी। पड़ोस की अर्पणा आंटी से विमला सिलाई-कढ़ाई सीख चुकी थी और शान्ता अभी सीख रही थी। पिता एक सरकारी फैक्टरी में वर्कर थे। फैक्टरी में सुबह-आठ बजे से लेकर शाम पाँच बजे तक वह लोहे से कुश्ती लड़ते और शाम को हारे हुए योद्धा की भाँति घर में घुसते। पिछले एक साल से फैक्टरी में ओवर-टाइम बिलकुल बन्द था। ओवर-टाइम का बन्द होना, फैक्टरी के वर्करों पर गाज गिरने के बराबर होता था। केवल तनख़्वाह में जैसे-तैसे ही खींच-खाँचकर महीना निकलता। हमारे घर की आर्थिक स्थिति ठीक न थी, बल्कि दिन-ब-दिन और चरमराती जा रही थी। ऊपर से जवान होती लड़कियों और बेकार बैठे लड़के की चिन्ता, ये दो प्रमुख कारण थे जिसके कारण पिता दिन-रात परेशान रहते। चिन्ता में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे उनके शरीर पर से माँस गायब हो रहा था और हड्डियाँ उभरने लगी थीं। वह नौकरी से रिटायर होने से पूर्व दोनों लड़कियों की शादी कर देना चाहते थे। ऐसी स्थितियों में उनकी नज़रें मुझ पर टिकीं थीं और वह कहीं भीतर से आशान्वित भी थे कि उनका बेटा इस विकट स्थिति में उनका सहारा बनेगा और उनके कंधों पर पड़े बोझ को कुछ हल्का करेगा। मैं उनकी आँखों में तैरती अपने प्रति उम्मीद की किरणों को ना-उम्मीदी के अंधेरों में तब्दील नहीं होने देना चाहता था। इसीलिए मैं उस समय किसी भी तरह की छोटी-मोटी नौकरी के लिए तैयार था। लेकिन नौकरी पाना इतना आसान नहीं था। बेकारी के मरुस्थल में भटकते हुए मुझे एक साल से भी ऊपर का समय होने जा रहा था पर कहीं से भी उम्मीद की हल्की-सी भी किरण दूर-दूर तक नज़र न आती थी।

मेरे सामने जो बड़ी दिक़्क़त थी, वह यह कि घर पर कोई अख़बार नहीं आता था। पड़ोस में मैं किसी के घर बैठकर अख़बार पढ़ना नहीं चाहता था। दरअसल, मैं हर उस सवाल से बचना चाहता था जिसे हर कोई मुझे देखकर मेरी तरफ़ उछाल देता था, “क्यों ? कहीं लगे या अभी यूँ ही...” इस सवाल का नकारात्मक उत्तर देते हुए मुझ में हीनता का बोध पैदा हो जाता और मुझे लगता, मैं एक बेकार, आवारा, फालतू, निकम्मा लड़का हूँ जिसे अपने बुढ़ाते बाप पर ज़रा भी तरस नहीं आता... उस जैसे लड़के तो ऐसी स्थिति में माँ-बाप का सहारा बनते हैं और एक मैं हूँ कि...

अख़बार के लिए मैं सुबह नौ-दस बजे तक घर से निकल पड़ता। दो-एक किलोमीटर पर बने पनवाड़ी के खोखों पर पहुँच हिचकते हुए अख़बार उठाता। एक पर हिन्दी का अख़बार देखता तो दूसरे पर अंग्रेज़ी का। अख़बार कोई दूसरा पढ़ रहा होता तो मुझे इंतज़ार भी करना पड़ता। अख़बार में से ‘सिच्युएशन वेकेंट’ के कालम देखता, काग़ज़ पर नोट करता और पोस्ट आफ़िस जाकर एप्लीकेशन पोस्ट करता।

ठीक इन्हीं दिनों पिता का परिचय राधेश्याम से हुआ था। राधेश्याम एक ठेकेदार था जो सरकारी, गैर-सरकारी कारख़ानों से तरह-तरह के ठेके लिया करता था। सन् 47 के विभाजन में पिता लाहौर के जिस गाँव से अपना सब-कुछ गवाँ कर भारत आए थे, राधेश्याम भी उसी के आस-पास के इलाके का था। यही कारण था कि पिता उसमें दिलचस्पी लेने लगे थे और एक दिन राधेश्याम को अपने घर पर ले आये थे। जीप जब हमारे सरकारी क्वार्टर के बाहर आकर रुकी तो वह मौहल्ले के बच्चों के लिए कौतुहल का विषय थी। आस-पड़ोस वालों के लिए आँखें फाड़कर देखने की चीज़– खैरातीलाल और उसके घर के बाहर जीप !

पिता ने राधेश्याम से अपने बच्चों का परिचय कराया था, “ये हैं मेरी दोनों लड़कियाँ– विमला और शान्ता। और यह है मेरा बेटा सुशील... अभी पिछले साल इण्टर किया है, सेकेण्ड डिवीजन में।”

राधेश्याम ने बन्द गले का कोट पहन रखा था। गले में मफ़लर, सर पर रोयेंदार टोपी। कुल मिलाकर वह हमारे लिए आकर्षण का केन्द्र था। पिता ने सुनाते हुए, ख़ासकर मुझे और माँ को, कहा था, “अरे, इनकी बहुत-सी फ़ैक्टरियों में जान-पहचान है। ठेकेदारी का कारोबार है इनका। लाहौर में जिस गाँव में हम लोग रहते थे, उसके पास के ही गाँव में थे इनके पिताजी। यानी राधेश्याम अपनी ही बिरादरी का आदमी है, पिता यह कहना चाहते थे। इसके बाद जैसा कि प्राय: होता, पिता उन दिनों की यादें ताज़ा करने लगे थे। सन् 47 के विभाजन के दहशतज़दा किस्से सुनाने लगे थे कि कैसे वे लोग अपनी सारी ज़मीन-जायदाद, रुपया-पैसा, मकान आदि छोड़-छाड़कर कटी हुई लाशों के ढेरों में छिपते, धूँ-धूँ कर जलते मौहल्लों, गलियों में से डर-डरकर भागते-निकलते, प्यास लगने पर छप्पड़ों(पोखरों) का गन्दा पानी पीते, जान बचाते किसी तरह हिन्दुस्तान में घुसे थे। उनका अन्दाज़े-बयाँ ऐसा होता कि हमारे रोंगटे खड़े हो जाते।

दूसरी बार जब राधेश्याम घर आया तो पिता ने अपने मन की बात कह दी, “आपकी तो इतनी जान-पहचान है जी... कहीं किसी फ़ैक्टरी में अड़ा दो न हमारे सुशील को... इंटर पास है।”

“हाँ-हाँ, करुँगा मैं बात... आप चिन्ता न करें,” राधेश्याम ने दिलासा देते हुए कहा, “अरे अपनों को नहीं लगवाएंगे तो किसे लगवाएंगे। आप फिक्र न करें जी, जहाँ कहोगे लगवा दूँगा।”

बस, फिर क्या था। पिता की दिलचस्पी राधेश्याम में बढ़ गई। जिस दिन उन्हें मालूम होता, वह फ़ैक्टरी आया है, वह उसे जबरदस्ती अपने साथ घर ले आते।

इस प्रकार, राधेश्याम का आना-जाना हमारे घर में बढ़ने लगा था। अब वह जब कभी फ़ैक्टरी आता, सीधा हमारे घर पहुँचता, चाहे पिता घर पर होते या न होते।

पिता की अनुपस्थिति में राधेश्याम जब भी हमारे घर में घुसता, पूरे घर में चहल-पहल शुरू हो जाती। घर में तेल-घी न होने पर पड़ोस से मांग-तूंग कर प्याज की पकौडि़याँ तली जातीं... चाय के कप उठाकर राधेश्याम को पकड़ाने के लिए दोनों बहनों के बीच होड़ लग जाती... माँ राधेश्याम से ‘अपना ही घर समझो’ कहती रहतीं... खाने का वक़्त होता तो जबरन खाना खिलाया जाता। वह उठकर जाने लगता तो बहनें उससे थोड़ी देर और रुकने का इसरार करने लगतीं, “पिताजी आ जाएँ तो चले जाइएगा।” और राधेश्याम कई-कई घंटे हमारे यहाँ बिताकर लौटने लगा।


इस बीच, कई महीने बीत गए। राधेश्याम हमारे यहाँ आता, ठहरता, गप्प-शप्प करता और खा-पीकर चला जाता। वह आता तो बहनों के चेहरे खिल उठते और जाता तो उन्हीं चेहरों पर उदासी के रंग पुत जाते। पिता उससे बहुत उम्मीद लगाए बैठे थे। हर रोज वह सोचते, आज वह आएगा और कहेगा, ‘मैंने सुशील के बारे में फलाँ फ़ैक्टरी में बात कर ली है, कल से उसे भेज दो...’ पर होता इसके उलट। राधेश्याम आता, इधर-उधर की बातें करता, हँसता-हँसाता, खा-पीकर चलता बनता। जितनी देर वह घर पर रुकता, पिता की आँखें और कान उसी की ओर लगे रहते।

पिता की बेसब्री का बांध अब टूट रहा था। आख़िर, उन्होंने हिम्मत कर एक बार फिर राधेश्याम से मेरे बारे में बात की। वह जैसे सोते से जागा था, “अरे, मैं तो भूल ही गया। आपने भी कहाँ याद दिलाया।” राधेश्याम कुछ सोचते हुए बोला, “आप फ़िक्र न करें, जी... अब आपने याद दिलाया है तो इसे कहीं-न-कहीं ज़रूर अड़ा दूंगा।” इसके बाद उसने ख़ाना खाया और चला गया।

पिता इतने भर से फूलकर गुब्बारा हो गए थे। काफ़ी देर तक वह हमारे सामने उसका गुणगाण करते रहे।

और फिर, पूरा एक महीना राधेश्याम दिखाई नहीं दिया।


एक दिन दोपहर के समय हमारे क्वार्टर के बाहर जीप आकर रुकी। शान्ता दौड़कर बाहर निकली। देखा, राधेश्याम था। उसके हाथ में एक पैकेट था जिसे लेकर शान्ता झूमती हुई भीतर दौड़ गई थी।

“क्या है ?” मेरे प्रश्न को उसने अनसुना कर दिया था। अब वह पैकेट विमला के हाथ में था। विमला के चेहरे पर भी ख़ुशी के भाव तैर आए थे। मैं चीख़-सा उठा, “क्या है इसमें ?”

“तुम्हें क्या ?... कुछ भी हो। अंकल हमारे लिए लेकर आए हैं तो तुम्हें क्यों जलन होती है ?...” शान्ता ने पलटकर मेरी चीख़ का जवाब दिया। मुझे उससे ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। आज तक वह मुझसे ऊँची आवाज़ में नहीं बोली थी। मैं कुछ और कहता कि बीच में माँ आ गई, “अरे कुछ नहीं है। दोनों की साड़ियाँ है इसमें। मैंने मंगवाई थीं।”

अब तक चुप बैठा राधेश्याम एकाएक हँसते हुए बोला, “अहमदाबाद गया था। लौटते वक़्त सोचा लेता जाऊँ... सस्ती हैं।” फिर मेरी ओर मुख़ातिब होते हुए बोला, “तुम्हारे लिए भी पेंट-शर्ट देखी थी, पर सोचा, मालूम नहीं तुम्हें कौन-सा रंग पसंद है। इसलिए नहीं ला सका। अबकी बार जाऊंगा तो पूछकर जाऊंगा।”

शाम छह बजे तक वह हमारे घर पर रहा। अहमदाबाद की बातें बताता रहा। माँ और बहनें तन्मय होकर उसकी बातें सुनती रहीं। पिता के फ़ैक्टरी से लौटने का वक़्त हुआ तो राधेश्याम उठकर जाने लगा। माँ ने कहा, “उनके आने का वक़्त हुआ तो आप जा रहे हैं... इतने दिनों बाद आए हैं, उसने मिलकर ही जाते।”

राधेश्याम को रुकना पड़ा। कुछ ही देर बाद पिता आ गए। वह तपाक से उनसे मिला और उनके कुछ बोलने से पहले ही अपने अहमदाबाद चले जाने की बातें करने लगा। पिता चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे। कुछ बोले नहीं। बहनें उठकर पहले ही दूसरे कमरे में चली गई थीं और माँ रसोई में चाय का पानी चढ़ाने लगी थी। कुछेक क्षणों तक कमरे में चुप्पियों का बोलबाला रहा। एकाएक राधेश्याम ने मुँह खोला, “अगले हफ़्ते फ़िरोजाबाद-आगरा जा रहा हूँ... वहाँ की कई फ़ैक्टरियों में मुझे काम हैं। सुशील के लिए बात करुंगा।”

पिता अभी भी चुप थे। वह सुन रहे थे बस।

“सुशील को साथ लेता जाऊंगा। आमने-सामने बात हो जाएगी।” राधेश्याम मेरी ओर देखकर बोला, “कभी आगरा गए हो ?...ताज देखने की चीज़ है... इस बहाने तुम उसे भी देख लेना।... अँ...।”

मेरे मन में ताजमहल देखने की इच्छा पिछले कई सालों से थी। कालेज की ओर से एक टूर गया था, छात्र-छात्राओं का। सबने सौ-सौ रुपये मिलाये थे। मैं सौ रुपयों के कारण न जा सका था।

“इधर ही कहीं देखते तो अच्छा रहता।... इतनी दूर...।” पिता के मुँह से काफ़ी देर बाद बोल फूटे थे। लगता था, जबरन आवाज़ को भीतर से बाहर धकेलने की कोशिश कर रहे हों।

“अरे भाई साहब... एक-दो साल उधर कर लेगा। कुछ एक्सपीरियेंस हो जाएगा तो इधर किसी अच्छी फ़ैक्टरी में लगवा दूंगा। आप फ़िक्र क्यूँ करते हैं ?...”


उस दिन मैं बहुत ख़ुश था। एक दिन पहले ही मैंने अपनी इकलौती पेंट-शर्ट धोकर, प्रेस कराकर रख ली थी। और दिनों की अपेक्षा उस दिन मैं सुबह जल्दी उठ गया था और नहा-धोकर तैयार होकर बैठा था।

पिता के फ़ैक्टरी चले जाने के तुरन्त बाद राधेश्याम पहुँचा था। कुछ देर बैठने के बाद उसने आवाज़ लगाई, “अरे भई, तुम लोग जल्दी तैयार होओ... नहीं तो लौटने में देर हो जाएगी।”

मैं तैयार था और राधेश्याम मुझे देख चुका था। लेकिन उसका ‘तुम लोग’ मुझे हैरान करने लगा। थोड़ी ही देर में सारी स्थिति साफ़ हो गई। शान्ता और विमला तैयार होकर बाहर निकल आई थीं।

मेरा सारा उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया। मेरी इच्छा कपड़े उतारकर फेंक देने की हुई। बहनों की हँसी मुझे अन्दर तक चुभ रही थी। राधेश्याम की चालाकी पर मुझे गुस्सा आ रहा था। मेरी और पिता की अनुपस्थिति में राधेश्याम और बहनों के बीच ज़रूर कोई खिचड़ी पकती है। मुझे नौकरी दिलाने नहीं, इस बहाने विमला और शान्ता के साथ मौज़-मस्ती के उद्देश्य से जा रहा था वह।

“कोई नहीं जाएगा... न मैं, न शान्ता, न विमला।” मैं चीख़कर कहना चाहता था, पर चीख़ मेरे अन्दर ही तड़फड़ा कर दम तोड़ गई।

माँ को भी शायद इस बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। दोनों लड़कियों को तैयार हुआ देख, उसने पूछा, “तुम दोनों कहाँ चलीं तैयार होकर !”

राधेश्याम उठकर आगे बढ़ आया, बोला, “बच्चियाँ है, ताज देखने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है बच्चों में। इस बहाने सुशील के संग ये भी घूम लेंगी आगरा... कहाँ रोज़-रोज़ जाना होता है।”

“वो तो ठीक है पर, इनसे पूछे बिना मैं कैसे लड़कियों को भेज सकती हूँ।... ये फिर कभी चली जाएंगी। अभी तो आप सुशील की नौकरी के लिए जा रहे हैं। जाने कहाँ-कहाँ, किन-किन फ़ैक्टरियों में जाना-रुकना पड़ेगा आपको... आप सुशील को ही ले जाएँ।”

माँ की बात पर राधेश्याम भीतर-ही-भीतर मन मसोस कर रह गया था। ऐसा उसके चेहरे से लग रहा था। बहनों के चेहरे लटक गए थे। लटके हुए चेहरे लिए वे पैर पटकती हुई अन्दर दौड़ गई थीं। क्षण भर को गमी जैसा वातावरण बन गया था। राधेश्याम चुप था। माँ दुविधा में थी। मैं ख़ुश भी था और नहीं भी।

“चलो...” राधेश्याम ने मेरी ओर देखकर कहा और जीप में जा बैठा। जीप स्टार्ट हो चुकी थी लेकिन मैं अभी भी माँ के पास असमंजस की स्थिति में खड़ा था। माँ ने पल्लू में बंधे सौ रुपये मुझे थमाए और कहा, “रख ले। ज़रूरत पड़ जाती है कभी-कभी।”

मैं चुपचाप जाकर जीप में बैठ गया। मेरे बैठते ही जीप झटके से आगे बढ़ गई।


दोपहर का समय था जब फ़िरोजाबाद की एक फैक्टरी में हमारी जीप घुसी। पूरे रास्ते न राधेश्याम मुझ से बोला था, न मैं राधेश्याम से। जीप से उतरकर वह सीधे फ़ैक्टरी में जा घुसा था। मैं वहीं जीप में बैठा रहा। कोई एक घंटे के बाद वह फ़ैक्टरी से निकला। मुझे अब कुछ-कुछ भूख व प्यास लग आई थी।

जीप अब फिर सड़क पर दौड़ रही थी। आधे घंटे के सफ़र के बाद जीप फिर एक फ़ैक्टरी के बाहर रुकी। मुझे उतरने का इशारा हुआ। मैं उतरकर राधेश्याम के पीछे हो लिया। रिसेप्शन पर मुझे बिठा, वह फ़ैक्टरी में घुस गया। बीस-पच्चीस मिनट बाद राधेश्याम लौटा तो बेहद ख़शु नज़र आ रहा था। मैंने सोचा, नौकरी की बात पक्की हो गई लगती है शायद। रिसेप्शन पर बैठे एक आदमी से उसने हँस-हँसकर बातें कीं और फिर उसे लेकर फ़ैक्टरी के बाहर बने खोखे पर चाय पीने लगा। रिसेप्शन के शीशे के दरवाज़ों के पार मैं उन्हें चाय पीता देखता रहा। दोनों को चाय पीते देख मेरी भूख व प्यास एकाएक तेज़ हो उठी थी।

वहाँ से निकलने के बाद जीप फिर दौड़ रही थी– सड़क पर। राधेश्याम अब कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मस्ती में जीप चला रहा था। एकाएक बोला, “मालूम है, अभी हम जिस फ़ैक्टरी में गए थे, उस फ़ैक्टरी से मुझे नेट डेढ़ लाख का मुनाफ़ा होने जा रहा है... यह मेरा अब तक का सबसे बड़ा ठेका होगा।” उसके चेहरे पर रौनक थी। वह किसी फ़िल्मी हीरो की तरह जीप चला रहा था। झूमता... गाता... सीटी बजाता।

“सरकार से हवाई जहाजों में इस्तेमाल होने वाली काँच की छोटी चिमनियों का ठेका मिला है– एक लाख चिमनियों का। यह फैक्टरी बनाने को तैयार हो गई है। प्रति चिमनी फैक्टरी का ढाई रुपया ख़र्च होगा। साढ़े तीन में मुझे देगी। मैं उसे सरकार को पाँच में दूंगा। यानी एक लाख चिमनियों पर नेट डेढ़ लाख का लाभ !”

उसकी ख़ुशी का कारण अब मुझ से छुपा नहीं था। उसकी ख़ुशी के पीछे मेरी नौकरी आदि की कोई बात नहीं थी। यह तो उसके ठेके में हो रहे मुनाफ़े की बात थी। मेरी नौकरी की बाबत उसने कोई बात भी की होगी, इसमें मुझे सन्देह हो रहा था।

राधेश्याम के अनुसार अब हम आगरा के बहुत नज़दीक चल रहे थे। इससे पूर्व रास्ते में एक छोटी फ़ैक्टरी में राधेश्याम ने मेरी नौकरी की बात की थी। मैनेजर ने फ़िलहाल कोई वेकेंसी नहीं होने पर खेद प्रकट किया था। साथ ही, भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर बुलाने का आश्वासन देते हुए मेरे पर्टीकुलर्स आदि रख लिए थे।

हमारी जीप एक बार फिर एक फ़ैक्टरी के बाहर रुकी। इस बार राधेश्याम भीतर घुसा तो दो घंटों से भी अधिक समय लगाकर बाहर निकला। जीप में बैठे-बैठे उसका इन्तज़ार करते मैं तंग आ गया था। इस बीच मैंने फ़ैक्टरी के बाहर बने हैंड-पम्प से पानी पिया था और वक्त काटने के लिए इधर-उधर चहल-कदमी करता रहा था। पानी पीने के बाद मेरी भूख तेज़ हो उठी थी। सुबह हल्का-सा नाश्ता करके ही चला था मैं। पास ही ढाबेनुमा एक दुकान थी। सोचा, राधेश्याम के बाहर निकलने से पहले कुछ खा लूँ। पैसे तो थे ही मेरे पास। मगर तुरन्त ही जाने क्या सोचकर मैंने अपने इस विचार को झटक दिया। दरअसल, मैं भीतर से भयभीत था कि कहीं राधेश्याम बाहर न निकल आए और मुझे खाता हुआ न देख ले।

मैं जीप में बैठ गया और अपना ध्यान इधर-उधर उलझाने लगा। लेकिन यह सिलसिला अधिक देर न चला। भूख के मारे मेरे सिर में हल्का-हल्का दर्द शुरू हो चुका था। तभी राधेश्याम बाहर निकला। शाम के साढ़े चार का वक्त हो रहा था तब। जीप में बैठते हुए राधेश्याम बोला, “इस फ़ैक्टरी का मैनेजर बाहर गया है, होता तो तुम्हारी बात पक्की थी। अपना यार है, साथ-साथ पढ़े हैं हम।”

जीप स्टार्ट कर वह बोला, “तुम्हें ताज दिखा दें, फिर लौटते हैं। बहुत देर हो जाएगी नहीं तो। रात ग्यारह से पहले नहीं पहुँच पाएंगे।”

मैं चुप था। ताज देखने की इच्छा ने थोड़ी देर के लिए मेरी भूख को कम कर दिया था। कुछ किलोमीटर चलने पर ही ताज दिखने लगा था। राधेश्याम बोला, “वो देखो... ताज। कितना सुंदर लगता है। दूर से ऐसा लगता है जैसे कोई ख़बूसूरत सफ़ेद परिन्दा आकाश में उड़ने को तैयार बैठा हो।... है न ?”

मैं उत्सुकता भरी नज़रों से ताज देखने लगा।

“देख लिया, अब यहीं से लौट चलें।... क्यों ?” राधेश्याम जीप धीमी करता हुआ बोला। मुझे लगा, मेरी सारी उत्सुकता का किसी ने जैसे हाथ बढ़ाकर बेरहमी से गला घोंट दिया हो।

“फिर कभी आएंगे।... सभी... तो देखेंगे क़रीब से। ग्रुप में देखने में कुछ और ही मज़ा है।...” जीप रुक गई थी। राधेश्याम की आँखें मेरे चेहरे पर स्थिर थीं। शायद वह मेरी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश कर रहा था।

“नहीं, मैं तो आज ही ताज देखकर जाऊंगा।... इतने नज़दीक पहुँचकर मैं बिना देखे नहीं जाऊंगा।” मैं हैरान था, मेरे गले से यह सब कैसे निकला। मेरा चेहरा तना हुआ था। आँखें अभी भी ताज को देख रही थीं। राधेश्याम ने बिना कुछ बोले जीप सड़क पर दौड़ानी आरंभ कर दी थी।

कोई आधे घंटे बाद हम ताज के पास थे। जीप पार्क कर राधेश्याम बोला, “मैं यहीं ठहरता हूँ। तुम आधे घंटे में देख-दाख कर आओ। मैं यहीं पर मिलूंगा। ठीक !”

मैं अपनी अंतडि़यों में तेजी से छुरी की तरह कुछ घुमड़ता हुआ महसूस कर रहा था अब। भूख और सिरदर्द की वज़ह से ख़ूबसूरत दीखने वाला ताज अब मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा था। अनमने भाव से मैं ताज की ओर बढ़ा। दूर से ख़बूसूरत सफ़ेद परिन्दे-सा दीखने वाला ताज मुझे अब किसी विशाल सफ़ेद दैत्य-सा लग रहा था। उसकी चारों मीनारें मुझे लम्बी-लम्बी बाँहों के समान लग रही थीं। एक औरत की लाश को अपन चंगुल में फँसाये दैत्य हँस रहा था। लगता था, सिर की नसें फट पड़ेंगी। पेट की अंतडि़यों में ऐंठन हो रही थी। मैं इस दैत्य के साये से ख़ुद को जल्द ही बाहर निकाल लाया।

बाहर निकलकर देखा, राधेश्याम कहीं नहीं था। जीप भी खाली थी। लोगों के आते-जाते हुजूम में मैं राधेश्याम को ढूंढ़ता रहा था, कुछ देर तक। भूख और सिरदर्द के कारण मुझे चक्कर आ रहा था। लगता था, किसी भी क्षण गिर पड़ूंगा।

एकाएक, मुझे सामने कुछ ही दूर पर बने रेस्तरां के बाहर बिछी एक बेंच पर राधेश्याम पूरियाँ खाता दिखाई दे गया। वह जल्दी-जल्दी मुँह चला रहा था। ठीक इसी क्षण मैंने अपने भीतर, ऊपर से नीचे चीरती जाती तेज़ाब की एक धार को महसूस किया। मैं अधिक देर वहाँ खड़ा न रह सका।

वहाँ से हटकर मैंने तुरन्त बस-स्टैण्ड के लिए रिक्शा किया। घर पहुँचने के लिए माँ के दिए हुए सौ रुपये मुझे काफ़ी लग रहे थे।