बेअसर कलम, हाथ-हाथ में तलवार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 जून 2018
बाहुबली डोनाल्ड ट्रम्प की प्रवक्ता सारा सेन्डर्स को वॉशिंगटन के एक रेस्तरां ने भोजन करने की अनुमति नहीं दी। अमेरिका की जनता इस तरह से ट्रम्प को चुनने के अपराध का प्रायश्चित कर रही है। कुछ दशक पूर्व एक सितारा खिलाड़ी पर दुष्कर्म का मुकदमा चला परंतु साक्ष्य के अभाव में उन्हें दोषी नहीं पाया गया, लेकिन जब यह सितारा अपने भव्य महल में पहुंचा तब उसने देखा कि उसके सारे सेवक इस्तीफा दे चुके हैं। उसने रेस्तरां में भोजन के लिए टेबल का आरक्षण करना चाहा तो सभी जगह से इनकार कर दिया गया। अवाम न्यायालय बन जाता है और असहयोग का दंड दिया जाता है। महात्मा गांधी के अहिंसक असहयोग का तरीका आज भी कारगर सिद्ध हो रहा है। महात्मा गांधी अपने देश में ही खारिज हैं और करेंसी पर उनका चित्र अंकित है। याद आते हैं दुष्यंत कुमार, 'न हो कमीज तो पैरों से पेट ढंक लेते हैं, ये लोग कितने मुनासिब हैं जम्हूरियत (गणतंत्र) के सफर के लिए'। शिक्षा के प्रति समर्पित कुछ संस्थाएं रविवार को छात्रों को पढ़ाकर क्षतिपूर्ति करती हैं। क्या यह कम खुशी की बात है कि कहीं कुछ तो चल रहा है। यथार्थ तो यह है कि अब अवाम को ही सब कुछ करना होगा। केवल तमाशबीन बने रहने से कुछ नहीं होगा। कुछ दिन पूर्व डोनाल्ड ट्रम्प की सहयोगी कर्स्टन नीलसन के खिलाफ एक रेस्तरां में प्रदर्शन हुआ जहां वे भोजन करने गई थीं।
एक खबर यह भी आई है कि यूक्रेन में एक सार्वजनिक बगीचे में भ्रष्ट लोगों के घर और दफ्तर से जब्त की गई वस्तुओं का प्रदर्शन किया जाता है। इसी तर्ज पर हमारे यहां बैंकों को चूना लगाकर भागने वालों के घरों और दफ्तरों को भी भ्रष्टाचार के म्यूज़ियम में बदला जा सकता है। माल्या व नीरव मोदी के भव्य भवन हमारे भ्रष्टाचार के म्यूज़ियम बनाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि इन भवनों में उन लोगों को बसा दिया जाए जो फुटपाथ पर बसर करते हैं। महानगर में फुटपाथ पर घर बसाकर पूरा जीवन व्यतीत करने वालों के फुटपाथी घरों में बच्चों का भी जन्म होता है। उनका अर्थशास्त्र यह है कि जितने अधिक भिक्षा मांगने वाले होंगे, उतनी अधिक कमाई होगी। याद आती है सआदत हसन मंटों की कथा 'टाट के परदे'।
नंदिता दास का मंटो बायोपिक विदेशों में प्रशंसित हो रहा है। किसी दौर में सआदत हसन मंटों पर पहले भारत और बाद में पाकिस्तान में 'अश्लीलता' रचने के मुकदमे चले और मंटो निर्दोष पाए गए। यह संभव है कि भारत और पाकिस्तान में नंदिता दास की फिल्म का प्रदर्शन हो, क्योंकि इन मुल्कों के सरकारी दफ्तरों में भी टाट के परदे व पैबंद लगे से महसूस होते हैं। कवि प्रसून जोशी की सदारत में संचालित सेंसर बोर्ड को तो टाइटल 'लव-रात्रि' पर भी एतराज है। आश्चर्य है कि क्या कभी इस व्यक्ति ने यह गीत भी लिखा था 'अंधेरे से डर लगता है मां'। दरअसल, यह बड़ी त्रासदी है कि प्रतिभाशाली लोग समझौता कर लेते हैं। अशिक्षित अवाम ने साहस नहीं खोया है। क्या साधन संपन्न होते ही मनुष्य भीरु हो जाता है? आज सभी भयभीत हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ दशहरा मैदान में भव्य सभाएं करने से महज नारेबाजी होती है। एक झूठी उम्मीद जगाई जाती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ही आंदोलन सफल हो सकता है और वह यह है कि परिवार की महिलाएं और बच्चे अपने परिवार के भ्रष्ट सदस्य के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाएं। मसलन बीस हजार रुपए वेतन पाने वाला सरकारी मुलाजिम जब अपने घर एक लाख रुपए मूल्य का टेलीविजन खरीदकर लाए तो घर की महिलाएं एवं बच्चे उस टेलीविजन पर कोई कार्यक्रम नहीं देखें। इसी तरह आय से अधिक खर्च करने वाले व्यक्ति के घर में लाए किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करें तो कोई ठोस परिवर्तन हो सकता है, क्योंकि हर भ्रष्ट व्यक्ति यही कहता है कि वह सारे साधन परिवार की सुविधा के लिए जुटा रहा है। उसके इस खोखले बहाने को ही नष्ट कर देना चाहिए। इस तरह का 'गृहयुद्ध' ही देश को बचा सकता है।
कवि विष्णु खरे दिल्ली सरकार की साहित्य अकादमी में नियुक्त हुए हैं और उनका कहना है कि उनका एकमात्र उद्देश्य होगा जात-पात में बांटने वालों के खिलाफ युद्ध। कुछ समय पूर्व ही विष्णु खरे ने एक कविता लिखी थी। सार यह था कि अवाम की भलाई की नारेबाजी करते हुए एक व्यक्ति सत्तासीन हो जाता है और केवल सत्ता का ही होकर रह जाता है। अब विष्णु खरे को अपनी कविता में वर्णित व्यक्ति के खिलाफ युद्ध करने का अवसर मिला है। कवि स्वयं अब कुरुक्षेत्र में है और कलम से किए गए विरोध बेअसर हो गए हैं। अत: अब वह तलवार उठाने के लिए शपथबद्ध है। सामाजिक सोद्देश्यता का साहित्य जब बेअसर हो तब अखाड़े में कूदना होता है। अगर अखाड़ा दलदल में बदल जाए तो भी डूबते व्यक्ति की उंगलियां हवा की दीवार पर लिख देती हैं 'इंकलाब ज़िंदाबाद'। विष्णु खरे की कविता का नाम था 'दज्जाल'। अब उन्हें यथार्थ जीवन में सत्ता में बैठे हुए दज्जाल से मुकाबला करना है गोयाकि एक कवि को अपने रचे हुए पात्र से लड़ना होगा।