बेकार गई ताकत / मनोहर चमोली 'मनु'
भरपेट खाया जा चुका था। अब खाना जमा करने का समय था। सब काम पर जुट चुके थे। वहीं छुटकू छाँव में सुस्ता रहा था। किसी ने पुकारा तो वह बोला,‘‘ताकवतर काम नहीं करता। करवाता है।’’ एक गुबरैला बोला,‘‘छुटकू की बात समझ नहीं आई।’’ छुटकू बोला,‘‘आप सब खाना जमा कर रहे हैं। खाने की गेंद बना रहे हैं। सबसे बड़ी गेंद मेरी होगी।’’
किसी को भी यह बात अच्छी नहीं लगी। हाँफती हुई आवाज़ आई,‘‘खाना हम जमा करें। उसकी गेंद हम बनाएँ! वह तुम्हारी क्यों हो जाएगी?’’ छुटकू बोला,‘‘पहले प्यार से नहीं तो लड़ाई से लूँगा। कौन रोकेगा मुझे!’’
ऐसा ही हुआ। गोबर के ढेर में कई गुबरैले थे। वह अपने लिए भोजन की गेंद बना चुके थे। अब वह गेंद लुढ़काने लगे। छुटकू तनकर खड़ा हो गया। उसकी नज़र सबसे बड़ी गेंद पर पड़ी। वह दौड़कर जा पहुँचा। किसी ने कहा,‘‘यह ठीक नहीं है।’’ छुटकू बोला,‘‘मेरा बिल सबसे दूर है। इसे लुढ़काने में मेरे पसीने छूट जाएँगे। अब यह मेरा है।’’ गुबरैले ने सबसे बड़ी गंेद छुटकू को ले जाने दी। वह दोबारा ढेर से भोजन की गेंद बनाने में जुट गया।
उधर छुटकू गेंद लुढ़काता हुआ आगे बढ़ गया। दूसरे सभी गुबरैले भी अपनी गेंद लुढ़काते हुए चल पड़े। छुटकू सोच रहा था,‘‘भोजन जमा करना कठिन है। उसे गेंद की तरह गोल बनाना मेहनत का काम है। गेंद को लुढ़काकर अपने बिल में ले जाना सबसे कठिन काम है। मेरी गेंद सबसे बड़ी है। यह मेरे कई दिनों की भूख मिटाने के लिए बहुत है।’’ शाम हो गई। छुटकू रुके और बिना थके भोजन की गेंद लुढ़काता रहा। आखिरकार वह अपने बिल तक पहुँच ही गया।
वह चौंक पड़ा,‘‘अरे! यह क्या? यह भोजन की गेंद किसी पहाड़ से कम नहीं है। मेरा बिल तो बहुत छोटा है। अब क्या करूँ? इसे भीतर कैसे ले जाऊँ?’’ वह सोचता ही रह गया। बुदबुदाया,‘‘मैं इसके चार टूकड़े कर देता हूँ। फिर एक-एक टूकड़े को आसानी से ले जा सकूँगा।’’ उसने पूरी ताकत लगा दी। बड़ी मेहनत से गेंद के चार टूकड़े किए। तब भी सबसे छोटा टूकड़ा बिल से बड़ा था। छुटकू बौखलाया। बुदबुदाया,‘‘अब सुबह टूकड़ों के टूकड़े करूँगा।’’ छुटूक बिल में चला गया। रात हो चुकी थी। बादल आए। जमकर बारिश हुई। सुबह हुई। छुटकू उठा। बिल से बाहर आया। वह टूकड़े मिट्टी में घुल-मिल गए थे। ऐसा कुछ नहीं बचा था, जो बिल में ले जाया जा सके।