बेगार / प्रताप नारायण मिश्र
जब हम अपने कर्तव्य पर दृष्टि करते हैं तो एक पहाड़ सा दिखाई पड़ता है, जिस का उल्लंघन करना अपनी शक्ति से दूर जान पड़ता है। सहस्त्रों विषय विचारणीय हैं, किस-किस पर लिखैं और यदि लिखैं भी तो यह आशा बहुत कम है कि कोई हमारी सुनैगा। परंतु करैं क्या? काम तो यह उठाया है यदि अपने ग्राहकों को यह समाचार दें कि अब गरमी बहुत पड़ने लगी, या फलाने लाला साहब की बारात बहुत धूम से उठी, या हमारे जिले के साहब मैजिस्ट्रेट, तहसीलदार साहब, और कोतवाल साहब इत्यादि धर्म और न्याय के रूप ही हैं, तो हमारा पत्र तो भर जाएगा पर किसी जीव का कुछ लाभ न होगा। और यदि सच-सच वह असह्य दु:ख जो हम प्रजागण को है, वह लिखैं तो उस से लाभ होना तो बहुत दूर दिखाई देता है, पर जिन के हाथों वह असह्य दु:ख हम को प्राप्त होते हैं वह हम पर क्रुद्ध होंगे। यही डर लगता है कि कहीं 'नेमाज के बदले रोजा न गले पड़े'। परंतु हम भिखमंगे नहीं कि केवल ग्राहकों की खुशामद का ख्याल रक्खैं, हम भाट नहीं कि बड़े आदमियों और राजपुरुषों की निरी झूठी स्तुति गाया करैं। जो हो सो हो, हम ब्राह्मण हैं, इसमें हमारा धर्म नष्ट होता है और हम पतित हुए जाते हैं जो अत्यंत दीन और असमर्थ देश भाइयों पर अत्याचार होते सैकड़ों मनुष्यों से सुनैं और फिर उसे सर्वसाधारण और सर्कार पर विदित न करैं। यही तो हमारा कर्तव्य है।
गत अंग में हम ने 'बेगारी बिलाप' लिखा था। उस का यह फल देखने में आया कि तारीख 27 एप्रिल को लाला दुर्गाप्रसाद बजाज का चुन्नी नामक कहार किसी कार्य को बाजार जाता था, राह में उस को दो तीन सिपाही, जो आदमियों के भूखे थे, मिल गए और पकड़ लिया। उन्होंने इस निरपराधी दीन पराए नौकर को बेगार की अबाध्य अथारिटी पर पकड़ा था, उन्हें क्या डर था? उस बिचारे बंधुए ने बहुत हाथ पाँव जोड़े और गिड़गिड़ा के अपना सच्चा हाल कहा और छोड़ देने के लिए बिनती की। हे पाठकगण! जब एक तुच्छ कहार उन से उज्र करे तौ तो उन की क्रोधाग्नि के भड़कने का क्या ठिकाना था! बस किसी ने खींचा, चोटैया पकड़ी, किसी ने हाथ पाँव पकड़े और घसीटते हुए चौक की तरफ ले चले, फिर नहीं मालूम कि वह क्योंकर छूटा।
शोक का विषय है कि इन गरीबों को क्यों बिना अपराध ऐसी दुर्दशा के साथ पकड़ते हैं और उनकी इच्छा के विरुद्ध उन से काम लेते हैं। गुलाम बनाने में और इस में क्या भेद है? गुलाम अपनी इच्छा के बिना निरपराध बरसों परबश रह कर सेवा और टहल किया करते हैं और बेगारी लोग ठीक उन्हीं के सदृश घंटों और दिनों, बरंच कभी-कभी महीनों पराए बंधन में रहते हैं।
इस बेगार का भयंकर दु:ख अढ़तियों, व्योपारियों, गाड़ी वालों, दर्जियों, राजों, कहारों आदि से पूछा चाहिए कि वे इसके नाम से कैसा थर-थर काँपते हैं? हाल में जो काबुल की मुहीम हुई थी उस के लिए सब जिलों के कमसरियट अफिसरों ने हाकिमाने सिविल से कहार इत्यादि सप्लाई करने की दर्खास्त की थी, पर लखनऊ और बरेली के सिविल हाकिमों ने, जो इस बेगार की भयंकर बुराइयों के जानकार थे, साफ जवाब लिख दिया था। सच है, जे उचित मजदूरी देना और किसी की इच्छा के विरुद्ध काम न लेना हो तो हर प्रकार के काम करने वाले आप से आप कमसरियट के ठेकेदारों की भाँति सर्कार में एक पर एक जाके गिरैं। हिंदुस्तान कंगाल देश हो रहा है, यहाँ मजदूरों को काम कराने वाला मिलता कहाँ है? इट्रैंस पास किए हुए बाबू लोग पंखाकुली की नौकरी करते हैं, महाजनों के अंग्रेजी पढ़े हुए लड़के तीन आने रोज की कांस्टिबली करते हैं, फिर क्या मजदूर और कहार, यदि उन से पशु का सा बर्ताव न किया जाए तो, काम काज प्रसन्न मन से न करेंगे?