बेचैनी और विद्रोह के बीच एक सामाजिक विमर्श / राकेश बिहारी

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भूमंडलोत्तर समय की प्रेम कहानियों पर बात करते हुए मुझे सुरेंद्र वर्मा के बहुचर्चित उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' का एक दृश्य याद आ रहा है जिसमें वर्षा और शिवानी आपसे में बात करते हुए अपने निजी अनुभवों के आधार पर प्रेम को परिभाषित करने की कोशिश करती हैं। दृश्य कुछ इस तरह है -

वर्षा उदास-सी मुस्कुराई, 'मैंने तकिए के नीचे हर्ष की तसवीर रखी है। बिस्तर पर जाने के बाद उसी से उल्टी-सीधी बातें करती हूँ। मैंने प्रेम की निजी परिभाषा बनाई है। बताऊँ?'

'हूँ?' शिवानी कौतुक से मुस्कुराई।

'जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे तो इसे व्यावहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है।'

शिवानी उदास चपलता से मुस्कुराई - 'और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे तो, क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नहीं होगी...?

सवाल यह है कि यहाँ प्रेम की कौन सी परिभाषा सच्ची है - पहली, दूसरी या दोनों? या फिर प्रेम इतना भर न होकर कुछ इससे आगे की चीज है?

सवाल कई और भी हैं... प्रेम एक नितांत निजी धारणा है या फिर इसकी कुछ सामाजिक अंतःक्रियाएँ भी हैं? प्रेम बेचैनी है या विद्रोह? क्या जाति और लिंग की सामाजिक हकीकतें प्रेम के व्यावहारिक पक्ष को प्रभावित करती हैं? क्या समय और समाज से कटा वायवीय प्रेम संभव है? न तो ये प्रश्न नए हैं और न इनके संभावित उत्तर ही। लेकिन प्रेम पर बात करते हुए प्रश्न और उत्तर की इस शृंखला से बचा भी नहीं जा सकता। या यूँ कहें कि बिना इन प्रश्नों से टकराए हम किसी भी समय की प्रेम कहानियों पर कोई सार्थक चर्चा नहीं कर सकते। फिलहाल चर्चा यहाँ 1995 के बाद उभरकर आए कथाकरों की उन कहानियों की जिनके केंद्र में स्त्री-पुरुष का प्रेम है।

हाँ, तो हम प्रेम के मूल प्रश्न पर लौटते हैं। वह प्रेम - जिसका एक सिरा बेचैनी से जुड़ता है तो दूसरा विद्रोह से। जिसका एक छोर नितांत निजी और गोपन संवेदनाओं के आवेग से धड़कता है तो दूसरा छोर जाति, धर्म, पैसा और हैसियत के क्रूर खेल का शिकार होकर कदम-दर-कदम सामाजिक बहिष्कार, मौत और हत्या की त्रासदियों से दो-चार होता हुआ बार-बार विफल होने को अभिशप्त होता है। इंटरनेट और मोबाइल के इस उत्तर आधुनिक समय में आज के युवक-युवतियाँ जिस तरह प्रेम को लेकर समय और समाज की बनी-बनाई अवधारणाओं को चुनौती दे रहे हैं, वह न सिर्फ चौकाता है बल्कि हमें नए सिरे से आश्वस्त भी करता है। इस सिलसिले में एक कहानी के एक पात्र, वह भी एक स्त्री पात्र, का यह कथन गौर करने लायक है - 'मैं डार्लिंग फार्लिंग नहीं कहने वाली हूँ समझे, और सुन लो मैं तुम्हारी याद में बेचैन भी नहीं हूँ... सुनो उस रोज किशोर बोला, 'अपनी जाति का लाज नहीं है। बर्दाश्त नहीं होता तो मुझसे कहो।' मैं भी बोल दी, 'काहे बर्दाश्त करें, जिसको कहना था कह दिए हैं। जिससे शादी होगी मैं तो उसी की जाति की हो जाऊँगी'... चाचा से मत डरना। वह कुछ नहीं कर पाएगा। पापा को मरवा दिया। पापा से जमीन सब अपने नाम करा लिया और ठीक से इलाज भी नहीं करवाया। कल कह रहा था, 'अब स्कूल नहीं जाएगी।' माँ बोल दी, 'जाएगी।' वह तुम्हारे यहाँ जाएगा, वहीं पिटवा देना...' नया ज्ञानोदय (प्रेम महाविशेषांक, सितंबर 2009) में प्रकाशित राजीव कुमार की कहानी 'तेजाब' में सलोनी द्वारा अपने प्रेमी को लिखे गए पत्र का यह अंश सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें जाति और हैसियत की सामंती व्यवस्था को चुनौती दी गई है, बल्कि इसका महत्व इसलिए भी है कि इस व्यवस्था को एक स्त्री चुनौती दे रही है और प्रतिरोध के इस परिवर्तनकामी अनुष्ठान में उसकी माँ भी उसके साथ है। लेकिन जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि दो-चार व्यक्तियों का यह उपक्रम प्रतिरोध को निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँचा पाता। पूरी व्यवस्था से लड़ता यह प्रेम अगड़े-पिछड़े की प्रतिक्रियावादी लड़ाई का एक मोहरा बनकर रह जाता है और एक दिन सलोनी की हत्या कर दी जाती है... कहानी के अंत में व्याप्त किशोर भावुकता और नाटकीयता के बावजूद यह कहानी जिस तरह जातिगत राजनीति और प्रेम के आलोक में समाज के दकियानूसी और क्रूर बर्ताव के खिलाफ एक सार्थक आवाज उठाती है, वह हमें नई उम्मीदों से भरने वाला है।

वंदना राग अपनी कहानी 'आज रंग है' (नया ज्ञानोदय, मई 2011) में प्रेम और राजनीति के संबंधों को जाति से दो कदम और आगे अपराध के धरातल से उठाती हैं। मैं जब-जब किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता की प्रेम कहानी के बारे में सुनता हूँ मेरे मन में कई तरह के प्रश्न उठ खड़े होते हैं, मसलन, कैसे कोई लड़की किसी अपराधी से प्यार कर सकती है? जिसे हम ऊपर से प्यार समझते हैं कहीं वह किसी भय या आतंक से उत्पन्न कोई मजबूरी तो नहीं? और सबसे ऊपर यह कि दिन-रात अपराध और दबंगई में मशरूफ रहनेवाले व्यक्ति के प्रम का हश्र क्या हो सकता है? अव्यक्त प्रेम, स्मृति और अनुमान के सहारे यह कहानी इन तमाम प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने की कोशिश करती है। श्रुति और समीर एक दूसरे को प्यार करते हैं। श्रुति जहाँ अपने प्यार को लेकर एक स्वाभाविक संवेदनात्मकता और रूमानीपन में डूबी है वहीं समीर लगातार खयालों में उस मल्लिका की यादों से उलझता रहता है जिसे कभी वह मन ही मन प्रेम करता था और वह किसी दिन चुन्नू यादव नामक एक आपराधिक छवि वाले नेता से शादी रचाकर चली गई थी। अभी मैंने जिन सवालों का जिक्र यहाँ किया उसके समानांतर यह कहानी दो और प्रश्नों से जूझती है - एक यह कि क्या 'लव ऐट फर्स्ट साइट' जैसी कोई चीज भी होती है? और दूसरा यह कि क्या लड़कियाँ क्रूरताओं की तरफ आकर्षित होती हैं? सच है कि प्रेम हमारी संवेदनाओं को हमेशा जीवंत रखता है, राजनीति का कोई भी दुष्चक्र उसे हताहत नहीं होने देता लेकिन इसके समानांतर एक सच यह भी है कि अपराध और राजनीति में डूबा व्यक्ति न सिर्फ अपने प्रिय पात्र को आतंक और असुरक्षा के बीच सहम कर रहने को विवश कर देता है बल्कि षड्यंत्र करते-करते एक दिन खुद किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। प्रेम और राजनीति के इन्हीं दो समानांतर सत्यों का अंतर 'तेजाब' और 'आज रंग है' को न सिर्फ एक दूसरे से अलग करता है बल्कि कई अर्थों में आमने-सामने भी खड़ा कर देता है।

उल्लेखनीय है कि 'तेजाब' की सलोनी और 'आज रंग है' की मल्लिका दोनों ही पितृहीन हैं। यहाँ एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या स्त्रियों के भीतर प्रेम का स्पंदन कहीं न कहीं उनके सुरक्षाबोध से भी जुड़ा होता है? क्या अपने भीतर बैठा यह असुरक्षाबोध ही उन्हें क्रूर और आपराधिक छवि वाले पुरुषों तक के निकट भी ले आता है? इस संदर्भ में रेखांकित किया जाना चाहिए कि मल्लिका से प्रेम और शादी करने के पहले चुन्नू यादव ने उसकी माँ को नौकरी दिलवाने में भी मदद की थी। चूँकि यह पूरी कहानी समीर की दृष्टि से लिखी गई है, मल्लिका और उसकी माँ के मन की परतें यहाँ नहीं खुलती हैं। चूँकि मल्लिका और चुन्नू यादव के संबंधों के संदर्भ में समीर की सारी व्याख्याएँ कयास और अनुमान पर आधारित हैं, अपनी अच्छी खासी लंबाई के बावजूद यह कहानी अपराधियों से प्रेम करनेवाली या अपराधियों से प्रेम करने को मजबूर कर दी जानेवाली लड़की के मनोविज्ञान की पड़ताल नहीं कर पाती है। मल्लिका के मन की गहराइयों में उतरकर यह कहानी कई ऐसे सवालों का सार्थक जवाब खोजने का जतन कर सकती थी जिनके सामाजिक निष्कर्ष बहुधा सुनी सुनाई बातों पर ही निर्भर होते हैं।

नया ज्ञानोदय के ही प्रेम कहानी अंक में प्रकाशित पंकज मित्र की कहानी 'पप्पू कांट लव सा...' प्रेम करने के सपने और प्रेम न कर पाने की विवशता के बीच आर्थिक विपन्नता की भूमिका को रेखांकित करती है। एक मैकेनिक का बेटा पप्पू कॉम्पीटीशन पास करने के बावजूद न तो इंजीनियर बन पाया और न ही तमाम कोमल भावनाओं और एकात्म समर्पण के बावजूद उसे सुवि शर्मा का प्यार ही मिला। इन दोनों ही परिणतियों के मूल में बस एक ही कारण है उसका गरीब बाप का बेटा होना। गरीबी, एक ऐसा अभिशाप, जिसके कारण एक तरफ बैंक एजुकेशन लोन देने से बिदक जाता है और दूसरी तरफ शमीमा, सुवि शर्मा बनकर उसे अपने एसएमएस से न सिर्फ परेशान करती है बल्कि प्रेम का एक भ्रमजाल रचकर उसकी जिंदगी तबाह कर जाती है। पप्पू की विडंबना तब और त्रासद हो जाती है जब सुवि शर्मा के प्रति उसके एकतरफा प्रेम को, जिसके मूल में शमीमा की क्रूर हरकतें छिपी है, ऊँची जाति के लड़के सच मान बैठते है और उसके किए की सजा उसे वैलेंटाइन डे को उसकी बुरी तरह पिटाई करके देते हैं। यह कहानी जिस तरह प्रेम के बहाने समाज में व्याप्त आर्थिक खाइयों की सामाजिक परिणति को हमारे सामने खड़ा करती है वह कई आर्थिक-सामाजिक हकीकतों से पर्दे हटाता है। इस तरह यह कहानी बिना प्रेम के घटित हुए भी पूँजी और बाजार के गठजोड़ से उत्पन्न संक्रमणकाल की उन विडंबनाओं को उजागर कर जाती है जो आए दिन न जाने कितने संभावित प्रेमों की बली लेता फिरता है।

पप्पू की निरीह और दयनीय विडंबना का ही एक अनुपूरक रूप हम शशिभूषण की कहानी 'फटा पैंट और एक दिन का प्रेम' (कथादेश, प्रेम कहानी विशेषांक, जनवरी 2006) के जानकी में देख सकते हैं, जो अपनी फटी पैंट के कारण एक दिन अचानक बाजार में दिख गई बचपन की दोस्त से बातचीत करने में भी झिझक और संकोच महसूस करता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह झेंप अनजाने ही पैंट के फट जाने से नहीं, उसके उस अर्थाभाव से उत्पन्न हुई है जिसके कारण न जाने कब से वह फटी पैंट पहनकर कॉलेज जाने को विवश है। वर्षों बाद बचपन की दोस्त के मिलने के उत्साह और उल्लास के इस कदर टूट-बिखर जाने की स्थिति के बीच जानकी के यह पूछने पर कि वह कभी चिट्ठी कार्ड क्यों नहीं भेजती, उस लड़की का यह कहना कि 'नहीं लिख पाती, डर लगता है' प्रेम के एक और सामाजिक पहलू की तरफ इशारा करता है कि बचपन की दोस्ती या प्रेम का स्मरण भी कैसे किसी व्यक्ति, खासकर स्त्री, के वैवाहिक जीवन में बिखराव पैदा करने का डर भर देता है।

प्रेम एक क्रांति है, जिसके घटित होने या न होने के मूल में जितनी सामाजिक अभिक्रियाएँ शामिल हैं, उसकी सफलता या विफलता उसी या उससे भी ज्यादा मात्रा में बेहद ही निजी और मानसिक अंतःक्रियाओंको भी जन्म देती है। मतलब यह क प्रेम एक ऐसी सामाजिक-मानसिक प्रक्रिया है जिसकी जड़ें जितनी हमारे भीतर धँसी होती हैं, उसकी शाखाएँ उतनी ही बाह्य जगत में फैली होती हैं। प्रेम मनुष्य और मनुष्यता के लिए सबसे बड़ी संवेदनात्मक पूँजी है। इसका अहसास न सिर्फ हमारे भीतर की नमी को बजाए रखता है बल्कि हमारे अंतस में निरंतर सभ्य होने या बने रहने की एक अदृश्य आकांक्षा के बीज भी रोपता है। इसके विपरीत प्रेम का प्रतिरोध या उपेक्षा हमें बर्बर और असभ्य भी बनाते हैं। मतलब यह कि सभ्यता का इतिहास कहीं न कहीं मनुष्य के भीतर पल रहे प्रेम और संवेदना के संवर्द्धन या क्षरण की कहानी भी है। यूँ तो कहने को मानव सभयता का इतिहास स्त्री और पुरुष का साझा इतिहास है, लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि सभ्यता विकसित होते-होते न जाने कितनी स्त्रियों की संवेदनाओं और अधिकारों की बलि ले लेती है। और तो और इस क्रम में स्त्री तन-मन का मालिक बन बैठा पुरुष उसे अपनी संपत्ति से ज्यादा कुछ नहीं समझता - एक ऐसी संपत्ति जिस पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है, वह चाहे उसका इस्तेमाल करे या फिर अपने मिथ्याभिमान की तुष्टि के लिए जब-तब किसी बिसात का मोहरा बना उसपर अपनी हेठी का दाव खेल जाए। नया ज्ञानोदय (युवा पीढ़ी विशेषांक, मई 2007) में प्रकाशित राकेश मिश्र की कहानी 'सभ्यता समीक्षा' एक स्त्री की संवेदना के साथ खेले जाने वाले इसी क्रूर खेल की दास्तान है। कहानी का मुख्य पात्र शार्दूल सिंह जिस तरह अपने दोस्त के साथ शर्त लगाकर अपने विश्वविद्यलय में आई एक नई लड़की ब्रिजिट को अपने प्रेम के भ्रम में फँसाकर उसकी भावनाओं को क्षत-विक्षत करता है, वह प्रेम के नाम पर स्त्रियों की बहुविध की जाती रही प्रताड़नाओं का ही एक रूप है। लेकिन कहानी के अंत में अपनी गलती का अहसास करके शार्दूल का रो पड़ना सभ्यता के विकास में प्रेम और संवेदना की भूमिका को मजबूती से रेखांकित कर जाता है। लेकिन सभ्यता की दीवार पर टँगा यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित ही रह जाता है कि क्या बंद कमरे में ढुलक आए शार्दूल के आँसू ब्रिजिट की आहत संवेदनाओं की भरपाई कर सकते हैं?

नीलाक्षी सिंह की कहानी 'आदमी औरत और घर' (कथादेश, प्रेम कहानी विशेषांक, जनवरी 2006) तथा मोहम्मद आरिफ की कहानी 'दांपत्य' (वागर्थ, मई 2004) जो उनके पहले संग्रह 'फूलों का बाड़ा' में 'फुर्सत' नाम से संकलित है, प्रेम कहानियों के इस संसार में सर्वथा अलग रंग भरती हैं। ये कहानियाँ रोजमर्रा की व्यावहारिक उलझनों के कारण विवाहित स्त्री-पुरुषों के जीवन से गुम हो चुके प्रेम के पुनर्वापसी की कहानियाँ हैं। एक कर्मचारी की मौत के कारण दफ्तर में हुई छुट्टी के दिन जब 'फुर्सत' कहानी का नायक मानिक दिनों बाद छत पर जाता है तो जैसे उसकी मुलाकात अचानक ही अपनी जिंदगी की उन छोटी-छोटी खुशियों से हो जाती है जिसे न जाने वह कब का भूल चुका था। भरी दोपहर छत पर पसरे सन्नाटे के बीच वह जैसे एक-एक कर उन घटनाओं, अहसासों, उम्मीदों और इच्छाओं को फैलाता जाता है, जिनके बिना वह जी तो रहा था लेकिन जीवन जैसे उससे कोसों दूर था। छत की सफाई हो या बेर की डालियों का कटना, या फिर पड़ोस के कबाड़ी वाले के झंझट की सूखी स्मृतियाँ या फिर दैनंदिनी के चिकचिक को भूलाकर अनायास ही बथुए की साग वाली चने की दाल खाने की इच्छा, उसे लगता है जैसे यह सब कैसे दबे पाँव उसकी जिंदगी से बाहर निकल, उसके जीवन का सारा रस निचोड़ चुके हैं। पुराने दिनों की इन स्मृतियों को अलगनी पर फैलाता-बटोरता मानिक अपनी पत्नी अनीता को छत पर बुलाता है और फिर जिस आत्मीय तन्मयता के साथ दोनों अपनी जिंदगी का अंतरंग सिंहावलोकन करते हैं, लगता है उसकी उँगली पकड़ उनके जीवन से रीत चुका प्रेम एक बार पुनः उनके बीच उपस्थित-सा हो गया है। जीवन की उलझनों में खो चुके प्रेम की पुनर्वापसी की यह कहानी पिछले दिनों लिखी गई कहानियों में खासी दिलचस्प और महत्वपूर्ण है। इसी तरह 'आदमी औरत और घर' के अधेड़ दंपत्ति जिस तरह अपनी उम्रगत झेंप मिटाने की खातिर आपसी दूरी का छद्म ओढ़कर, अपने घर के युवा और तरुण सदस्यों से बचते-बचाते अपने अतीत हो चुके प्रेम की पुनर्रचना के लिए नई जमीन तैयार करते हैं, उसमें प्रेम के खोने के अहसास के बीच उसकी पुनर्स्थापना में होनेवाले सहज संकोचों और उससे उपजी विवशता का मर्मांतक सच छिपा है।

परिकथा (नवंबर-दिसंबर, 2010) में प्रकाशित जयश्री राय की कहानी 'साथ चलते हुए' आस्था-अनास्था तथा स्वप्न और छलावे के मारक द्वंद्व के बीच प्रेम और भरोसे के महत्व को पुनर्स्थापित करती है। इस कहानी के दो प्रमुख पात्र अपर्णा और कौशल आपस में अपना दुख साझा करते हैं और दुख की यही साझेदारी उनके बीच प्रेम के अंकुरण का कारण बनती है। यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि लेखिका इस कहानी में दुखों की साझेदारी के बीच सुख के नए क्षेत्रों के अनुसंधान का जो जतन करती हैं, उसकी नींव में किसी तीसरे व्यक्ति की कराह या आह शामिल नहीं है। बल्कि अपर्णा का कौशल से यह कहना कि वह आदिवासी समाज की बेहतरी के लिए किए जा रहे उसके काम में सहयोगिनी होना चाहती है, प्रेम के एक बेहद ही निजी अनुभव के उदात्तीकरण की तरफ इशारा करता है। दो व्यक्तियों के दुखों के मेल से बनी प्रेम की यह नई दुनिया जिस तरह हाशिए पर जीने की त्रासदी झेल रहे जन-समूहों के लिए रोशनी की नई संभावनाएँ तलशाना चाहती है वह अपने समय की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद प्रेम और आस्था की सार्थक उपस्थिति को रेखांकित कर जाता है। अपने शेष बचे जीवन में सुख की कामना से भरे अपर्णा और कौशल के बेहद निजी क्षणों में वतावरण के सन्नाटे को तोड़ते आदिवासी स्वर-लहरियों के बीच नई सुबह की पगध्वनियों का सुनाई पड़ना कहीं न कहीं निजता को सार्वजनिकता में बदल डालने के प्रेम के अकूत सामर्थ्य का ही पुनरान्वेषण है।

तथा (अक्टूबर,2008) में प्रकाशित प्रत्यक्षा की कहानी 'पाँच उँगलियाँ पाँच प्यार उर्फ ओ मेरी सोन चिरैया ऐसे मत होना फुर्र' जो पाँच छोट-छोटे लेकिन सर्वथा अलग-अलग कथा-दृश्यों का समुच्चय है, कहानी के परंपरागत ढाँचे का अतिक्रमण करते हुए लिखी गई है। इसे एक मुकम्मल कहानी माना जाए या नहीं यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, लेकिन धुँधले और आभासी से दिखने वाले ये पाँच दृश्य प्रेम और उसको लेकर स्त्री-पुरुष मानसिकता में व्याप्त अंतर की बारीक छवियों को व्यंजित कर जाते हैं। अलग-अलग सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमि के पात्रों की उपस्थिति के बावजूद, लेकिन जिस तरह ये कथा-बिंब स्त्री को लेकर लगभग एक-से निष्कर्षों की तरफ इशारा करते हैं, वह एक बड़े सामाजिक सत्य की तरफ इशारा करता है। दूसरों के जीवन में रोशनी भरने के तमाम उपक्रम करती एक स्त्री के खुद के जीवन का अँधेरा कब छँटेगा? स्मृतियों के भार और भविष्य की आशंकओं के बोझ तले दबी औरत सुख के चरम क्षणों में भी कब तक दुख की नदी बनी रहेगी? निर्विकार-से दिखते पुरुषों की आँखों तक कब पहुँचेगी स्त्रियों की तकलीफ? ये कुछ ऐसे जरूरी प्रश्न हैं जिसे यह कहानी सूक्ष्मता से रेखांकित करती है। एकरस और दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को अभिशप्त स्त्रियों के जीवन में उनके हिस्से का सुख जबतक शामिल नहीं हो जाता उनकी पीठ पर जड़ी आँखों में ऐसे सवाल लगातार टंगे रहेंगे।

तरुण भटनागर के पहले कहानी-संग्रह 'गुलमेंहदी की झाड़ियाँ' में संकलित कहानी 'बीते शहर से फिर गुजरना', जो उत्तर प्रदेश (जुलाई 2003) में प्रकाशित उनकी 'छायाएँ' कहानी का संशोधित-परिमार्जित रूप है, एक शहर की स्मृतियों के बहाने ऐसे प्रेम की अंतर्यात्रा है जो बीत कर भी नहीं बीतता। यह कहानी जिस सूक्ष्मता से मन की अतल गहराइयों में डूबकर प्रेम की सघनतम अनुभूतियों को स्वर देती है, वह किसी भी पाठक को उसके अपने प्रेम की स्मृतियों तक सहज ही ले जाता है। इस कहानी का नायक रेलयात्रा के दौरान गहराती रात में अपने उस प्रेम की स्मृतियों से गुजरते हुए, जो किन्हीं कारणों से उसके जीवन का स्थाई हिस्सा नहीं बन सका, सोचता है - प्रेम खुद के होने में नहीं, खुद को भूलने में है। खुद को खोना क्या सचमुच इतना आसान होता है? नहीं न! लेकिन तरुण भटनागर प्रेम की इस दुर्लभ पराकाष्ठा को जिस आत्मीयता के साथ अपनी कहानी में उपस्थित करते हैं, वह सहज ही हमें अपना-सा लगने लगता है। प्रेम एक आवेग है, संवेदना का एक ऐसा ज्वार - जो कहकर नहीं आता और जब आता है इसकी पुलक और छुअन से सारा अग-जग भीग जाता है, और तब सिर्फ हमारा प्रेम पात्र ही नहीं उससे जुड़ी हर स्मॄतियाँ, हर वस्तु, हर जगह... जैसे हमारी जिंदगी का अटूट हिस्सा हो जाते हैं। जिस सादगी और आसानी से तरुण इस अनुभूति को इस कहानी में सजीव करते हैं, उसका एक टुकड़ा आप भी देखिए - 'ऐसे बहुत से शहर हैं जो बीत गए, जहाँ जाना समय को खोना है। जहाँ जाकर कुछ नहीं हो सकता, पर वह थी और आज यूँ शहर पूरी तरह से बीत नहीं पाया है। उसके होने के कारण यह शहर मर नहीं पाया है। लगता है कुछ रह गया है। कुछ रह गया है बीतने से।' सर्वांग प्रेममय होने की यह सूक्ष्म स्थिति, जहाँ बीत कर भी न बीतने, रीत कर भी न रीतने और छूटकर भी न छूटने का अहसास हमारी संवेदना का अभिन्न हिस्सा हो जाता है, को जिस खूबसूरती से यह कहानी पुनर्सृजित करती है वह इसे इधर की कहानियों में विशिष्ट बनाता है।

प्रेम हमारे भीतर सुरक्षा और भरोसे के बीज रोपता है। लेकिन इसी प्रेम पर यदि उम्र, हैसियत आदि को लेकर बैठे हीनताबोध का साया पर जाए तो...? असुरक्षाबोध से उत्पन्न ऐसी स्थितियाँ कब किसी प्रेमी को क्रूर और निर्मम बना देती हैं पता नहीं चलता। उदात्तता, संवेदनात्मकता और एकात्म होने की सारी अनुभूतियाँ देखते ही देखते असुरक्षा, एकाधिकार, और स्वामित्वबोध के भाव में बदल जाती हैं। मुक्ति, विद्रोह और कामना के संयोग से बना प्रेम-कुटीर कब-कैसे यातना गृह में तब्दील हो जाता है, हम समझ भी नहीं पाते। संवेद (अगस्त, 2007) में प्रकाशित कविता की कहानी 'यह डर क्यों लगता है' मन की अतल गहराइयों में विन्यस्त असुरक्षाबोध से उत्पन्न प्रेम के इन्हीं साइड इफेक्ट्स और उससे उबरने का एक सघन और संवेदनात्मक उपक्रम है। कहानी का मुख्य पात्र दानिश अपनी कम-उम्र पत्नी आमना को लेकर इतना मजबूर और असुरक्षित हो जाता है कि वह उसे कैद करके रखने में ही अपने प्यार की सार्थकता ढूँढ़ने लगता है। लेकिन प्रेम का पंछी भला कैद में कब रह पाया है। मुक्ति की आकांक्षा आमना को दानिश का साथ छोड़ने को मजबूर कर देती है और इस दंश से व्यथित दानिश निर्मम, क्रूर और प्रतिघाती हो जाता है। लेकिन कालांतर में उसके जीवन में आई शबनम, जो आमना की अनुकृति जैसी ही दिखती है, की निस्संग तटस्थता उसे प्रेम के सही मायने तक खींच लाती है और वह उसकी शादी उसके मनचाहे लड़के से करवा देता है। इस तरह यह कहानी मुक्ति और बंधन तथा डर और सुरक्षा के बीच के फासले पर फैले प्रेम के व्यावहारिक मनोविज्ञान की बारीक पड़ताल कर जाती है। इस कहानी में डर के अनेकार्थी मनोविज्ञान की परतें उघारने वाले दानिश के अनुभव से निकला यह सूत्र कि प्यार मुक्ति देने में है, बाँधने में नहीं प्रेम की सार्थकता को एक नई आभा से भर देता है।

आधुनिक समय में प्रेम के विविध रूपों, पल-प्रतिपल बनते-बिगड़ते उसके सामाजिक-मानसिक बिंबों-प्रतिबिंबों को रूपायित करने वाली कहानियाँ अभी और भी हैं, जिन सबका जिक्र एक साथ संभव नहीं। लेकिन जिन थोड़ी सी कहानियों की चर्चा यहाँ हुई, उससे यह जरूर रेखांकित होता है कि प्रेम समय और समाज से कटी कोई वायवीय अवधारणा नहीं है। इसलिए प्रेम कहानियों पर बात करना कहीं न कहीं अपने समय और समाज के जरूरी विमर्शों से ही जूझना है। एक ऐसा विमर्श - जिसकी जड़ों में न जाने कितनी सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विसंगतियाँ और मनुष्य के गहरे अंतस में उठ-गिर कर उसके आचार-व्यवहार को प्रभावित करनेवाली कई-कई शारीरिक-मानसिक अंतःक्रियाएँ सहज और स्वाभाविक रूप से शामिल होती हैं। काश, प्रेम कहानी का नाम सुनते ही नाक-भौंह सिकोड़नेवाले तथाकथित सरोकारवादी विश्लेषक भी इस बात को समझ पाते!