बेटा / राजेन्द्र वर्मा
तीन सालों बाद प्रभात जब अमेरिका से दिल्ली लौटा, तो उसके साथ नवविवाहिता पत्नी-लिली थी। दिल्ली आते ही दोनों माँ से मिलने वृद्धाश्रम चल पड़े।
अमेरिका जाते समय उसे माँ को उसे वृद्धाश्रम में डालना पड़ा था। पिताजी पहले ही दुनिया से विदा ले चुके थे। अपना घर था नहीं, किराये के मकान में ही माँ-बेटे रहते थे। यहाँ वापस आने से पहले-ही उसने एक फ्लैट खरीद लिया था, जिसमें पुताई और बिजली का काम हो रहा था। जब तक वह रहने लायक़ होता, तब तक उन्होंने होटल में रहने का निर्णय किया।
माँ की तबीयत ख़राब चल रही थी। ... रात के दो बजे होंगे कि प्रभात के मोबाइल पर काल आयी। वह सोया पड़ा था। लिली ने काल अटेंड की—आश्रम से फोन था। माँ की हालत सीरियस थी। उसने प्रभात को जगाया, पर उनींदा वह, "सवेरे चलेंगे!" कहकर सो गया। उसने प्रभात को जगाने की एक-दो बार कोशिश भी की, पर वह न उठा। ... थोड़ी देर तक जगने के बाद वह भी सो गयी।
सवेरे के सात भी न बजे थे कि प्रभात का मोबाइल फिर बज उठा। ... आश्रम से ही काल थी। दुखद सूचना थी। दोनों आश्रम पहुँचे।
लिली की माँ बचपन में ही नहीं रही थी। सोचती थी-प्रभात की माँ में वह अपनी माँ तलाश लेगी, पर यहाँ मामला ही उलट गया था। वह अपराधबोध से ग्रसित हो गयी।
दाह-संस्कार के दो दिनों बाद प्रभात ने आश्रम के मैनेजर से बात कर एक वृद्धा को अपने साथ लाने पहुँचा, जो उसकी माँ की अन्तरंग थी। उसका पति संन्यासी हो चुका था और कोई अता-पता न था। बच्चे हुए न थे। आश्रम से निकलते समय वह अन्य वृद्धाओं से गले मिलती और रोती जाती थी। अपना भाग्य सराहते हुए प्रभात पर आशीष उड़ेलती जाती।
आश्रम के लोगों ने ऐसा दृश्य पहली बार देखा था। पिछले बीस सालों में अब तक केवल चार माँएँ अपने बेटे-बेटियों के पास वापस लौट पायी थीं। यह अकेली ऐसी स्त्री थी जो बिना माँ बने 'बेटे' के साथ घर जा रही थी।
लिली को माँ मिल गयी थी और प्रभात को नयी माँ। दोनों के मुखमंडल मानवीयता की आभा से दमक रहे थे।