बेटी हुई है / मयंक सक्सेना
अभी नई-नई शादी हुई ही थी कि शिव अपनी धर्मपत्नी आस्था से बिना भविष्य सोचे प्रणय मिलन कर बैठा जिससे आस्था का गर्भाधान हो गया। आस्था यूँ तो घरेलु, संस्कारी और गृहकार्यों में दक्ष थी किन्तु शान्त और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की महिला थी। चाँदनी-सा सौंदर्य, मीनाक्षी, सुर्ख गुलाबी अधर, आस्था के मुख मण्डल की आभा देखते ही बनती थी शायद इसीलिए शिव अपनी काम वासना पर नियंत्रण न रख सका होगा।
शिव एक विदेशी कम्पनी की भारतीय शाखा में प्रबंधक के पद पर कार्यरत था। शिव की मासिकी भी यही कोई 60-70 हज़ार भारतीय रुपया थी। लेकिन उसका परिवार अत्यंत रूढ़िवादी और कंजूस प्रवृत्ति का था। भारत के एक महानगर में रहते हुए भी सोच उनकी किसी पिछड़े देश की किसी पिछड़ी जनजाति के अविकसित सदस्य की भाँति थी। शिव अपनी परवरिश के मद्देनज़र घर में कंजूस और दोस्तों के सामने दिखावटी प्रवृत्ति का हो चला था। दोस्त अगर किसी दावत को बोलते तो दावत किसी अच्छे रेस्टोरेंट में उन्हें मिल जाती किन्तु घर में आस्था को अपनी आवश्यकता के सामान के लिए भी कई-कई दिनों का इंतज़ार करना पड़ जाता। आस्था को जेब खर्च के नाम पर जो मिलता था, उससे तीन गुना तो उस महानगर की अकेली कामवाली बाई दिन में दो बार आने पर ले जाती थी। लेकिन आस्था ने कभी इसकी शिकायत किसी से भी न की। आस्था एक अच्छे और समृद्ध परिवार से थी जहाँ उसके माता पिता ने उसे कभी किसी तरह की आर्थिक तंगी नहीं देखने दी थी। लेकिन पति के इस कंजूसी और लापरवाहीपूर्ण रवैय्ये के चलते आस्था स्वयं से ज़्यादा अपनी भावी संतान के लिए चिंतित थी। सोचती थी कि यदि यह संस्कृति के ढकोसले का पर्दा न होता तो शायद उस दिन उसने शिव को रोक दिया होता इसी दिन का सोच कर लेकिन जो हो चुका उसे नियति का खेल मान कर स्वीकारते हुए उसने जीवनचक्र को परमपिता ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया था। शिव की कंपनी विदेशी कंपनी की शाखा थी अतः उसके कार्यसमय की कोई निश्चितता नहीं थी, यद्यपि उसे सप्ताह में दो दिन का अवकाश अवश्य मिलता था। लेकिन प्रमादी शिव अपने आलस्य की पराकाष्ठा में दोनों दिन अपनी निद्रा के आवेश में बर्बाद कर देता था। शिव के गैर-ज़िम्मेदाराना रवैय्ये से उसका अपनी भावी संतान के प्रति स्नेह का अभाव जान पड़ता था। आस्था को अपने गर्भ की जाँच हेतु डॉक्टर के दिए समय से कई-कई दिन का इंतज़ार करना पड़ता था लेकिन शिव हमेशा कोई न कोई बहाना तैयार रखता था। यही स्थिति देख-देख कर आस्था कहीं न कहीं तनाव में आती जा रही थी।
आम तौर पर ससुर एक पिता की भूमिका में अक्सर नज़र आते हैं लेकिन आस्था का यहाँ भी दुर्भाग्य था। उसके ससुर प्रमोद बाबू हर रिश्ते की मर्यादा के परे तीव्र स्वर में अपशब्द तक बोल देते थे। प्रमोद बाबू अपने समय के एक सेल्स एग्जीक्यूटिव थे और शायद ये अभद्रता उनकी उम्र के विपरीत प्रभाव और विपणन के अनुभव का पार्श्व प्रभाव रहा होगा। आस्था प्रत्येक रिश्ते की इज़्ज़त करती थी संभवतः इसलिए वह सबसे एक दायरे में बात करती थी।
चिकित्सक की कई सलाह और चेतावनी के बावजूद भी आस्था एक सामान्य निद्रा से कम नींद ले रही थी, लेकिन शिव को अब जैसे कोई फ़र्क़ न पड़ता था। शिव मध्यरात्रि के बाद दो-दो ढाई ढाई बजे घर आता था लेकिन गर्भावस्था में आस्था उसके भोजन के लिए सिर्फ इसलिए जागती रहती क्योंकि शिव आलस्य के चलते स्वयं से भोजन तक नहीं करता था। उसकी सास रमादेवी और ससुर प्रमोद बाबू रूढ़िवादिता के चलते आठ बजे तक सो जाया करते थे और फिर आस्था का शयन कक्ष प्रथम तल पर जबकि भोजन कक्ष सास-ससुर के शयन कक्ष के निकट भूतल पर हुआ करता था और फिर डॉक्टर की भी हिदायत थी उतरना चढ़ना कम करना, तो भावी संतान हेतु उसका समर्पण इस स्तर पर था कि कब वह मनोरोगी होने लगी थी उसे इसका आभास न था। रात्रि 3 बजे पति को भोजन देने के उपरान्त सोने वाली आस्था को रमादेवी प्रातः 6 बजे ही उठा दिया करती थी जिससे चार पांच दिनों में ही उसके मुखमण्डल की आभा सौंदर्यविहीन हो चली थी। उसके मीनाक्षी नयनों पर अजीब-सी सूजन और आँखों के नीचे गहरे काले निशान बनने लगे थे। अब दिन के कामों में भी उससे चूक होने लगी थी जिसके लिए आस्था को अपनी सास रामादेवी की उलाहनाए झेलनी पड़ रही थी। हद तो तब हो गई जब आवेश में एक दिन रमादेवी आस्था से ये बोल बैठी कि इतनी जल्दी क्या थी गर्भधारण करने की, कितनी तंगी है पैसों की, बेटा शिव की भी आय दो वक़्त की रोटी के लिए भी पर्याप्त नहीं है ऐसी स्थिति में बिना नियोजन के क्या आवश्यकता थी ये सब करने की। हालाँकि रमादेवी के ये शब्द उसकी कंजूस प्रवृत्ति के परिचायक थे, परिणाम थे, फिर भी आस्था के मन में कुछ सवाल बार-बार आ रहे थे कि क्या ये गर्भ अकेले मेरे चाहने से ठहरा है? क्या ये गर्भ केवल मेरी संतान होगी? क्या शिव और उसके परिवार का इस भावी संतान से कोई सम्बन्ध न होगा? लेकिन ये सवाल उसको अंदर तक तोड़ रहे थे। शायद शिव के व्यवहार और रमादेवी के शब्दों ने आस्था का पूर्ण मानसिक उत्पीड़न कर दिया था लेकिन कहीं उसके मन में एक उम्मीद थी कि एक बहू के नाते न सही, एक पत्नी के नाते न सही, अपितु किसी इंसानियत के चलते उस भावी संतान के लिए ही सही उसके ससुरालियों को सद्बुद्धि आएगी और इसी उम्मीद के चलते वह अपने विह्वल मन को सँभालते हुए पुनः अपने घर गृहस्थी के कामों में लग जाया करती थी।
आस्था की एक ननद भी थी सुरुचि, जो विवाहिता थी लेकिन पति से अच्छे रिश्ते न होने के चलते नौकरी करने लगी थी। सुरुचि का कार्यालय उसके मायके के पास ही था जिसके चलते कार्यसमय के अतिरिक्त समय वह अपने मायके ही रहती थी और अक्सर आस्था और उसके पति के बीच झगड़ों का कारण बन जाया करती थी।
डॉक्टर के तमाम बार आराम करने की हिदायत पर भी आस्था को आराम नसीब नहीं होता था। शायद इसी सब तनाव ने आस्था के शरीर को नियमित ऊर्जा की तुलना में दोगुना अधिक ऊर्जा प्रदान करनी शुरू कर दी होगी।
एक रोज़ सुरुचि अपने मायके में बैठी अपनी माँ रमादेवी से बोली, "माँ देखना भाभी के तो बेटा होगा, बेटा" रमादेवी बोली, "हाँ सुरुचि, तुम्हारी बात सच हो जाए, वरना..." इतने में रमादेवी की निगाह चाय की ट्रे थामे खड़ी आस्था पर गई। आस्था उनकी सारी बातें सुन चुकी थी और स्तब्ध थी कि आज के युग में भी प्रेमचंदयुगीन सोच वाले माँ बेटी अस्तित्व में हैं। लेकिन वह अंतर्मुखी महिला चाय रखकर वापस पाकगृह की ओर चल दी।
गर्भ का समय ज्यों-ज्यों पूर्ण होता जा रहा था, आस्था मुरझाए फूल-सी असामान्यों की भाँति दिखने लगी थी और वह समय निकट आ गया था जब वह बच्चा इस दुनिया में आने वाला था। आस्था को एक ही बात अंदर तक खाई जा रही थी कि यदि उसके पति और ससुरालियों का ऐसा ही व्यवहार उस नवजात के साथ भी रहा तो उसे आस्था की तरह ही ज़िन्दगी के वह कष्ट भी झेलने होंगे जिसके लिए शायद उसकी उम्र गँवारा न करती हो और फिर कहीं लड़की हो गई तो। इसी पशोपेश में उसे असहनीय दर्द की एक तड़प उठती है और वह बेहोश हो जाती है। आँखें खुलने पर वह स्वयं को प्रसव कक्ष में पाती है, दर्द अभी भी असहनीय है, लेकिन वह डॉक्टर से बस यही पूछ रही थी कि उसके पति शिव कहाँ है? डॉक्टर बार-बार नर्स को बाहर भेजती इस उम्मीद में कि कोई तीमारदार हो तो उसको बोले किन्तु बेदर्द नियति उस अभागन के साथ कुछ अलग ही खेल-खेल रही थी। जब आस्था बेहोश हुई, उसकी ननद सुरुचि उसे एक अस्पताल में भर्ती करवाकर, अस्पताल की समस्त औपचारिकता पूर्ण कर वहाँ से चली गई थी, शिव को भी इत्तेला की या नहीं ये तो वह स्वयं ही जाने। लेकिन तीमारदार के भी न होने के चलते वह महिला डॉक्टर सच्चाई बता कर आस्था को प्रश्नों की दुनिया में नहीं भेजना चाहती थी इसलिए डॉक्टर ने आस्था को कहा कि जल्द ही उसका पति उसके पास होगा साथ ही नर्स को इशारे से औपचारिकता में संलग्न पहचान पत्र पर अंकित पति के नंबर पर बुलावे को कहा।
इसी के साथ आस्था का ऑपरेशन शुरू हुआ। हॉस्पिटल के प्रयास पर प्रमोद बाबू, रमादेवी और शिव तीनो श्रम कक्ष के ऑपरेशन थिएटर के बाहर आ चुके थे कि अचानक बच्चे का रोना शुरू हुआ। डॉक्टर ने आस्था के कान में कहा, "मुबारक हो आस्था, लक्ष्मी हुई है, बेटी हुई है।" प्रसव की पीड़ा में अधमरी आस्था इस खबर से पूर्ण रूप से निश्चेत अवस्था में आ जाती है। जैसे कोई साँप सूंघ गया हो या काटो तो खून नहीं। नर्स बेटी को हाथ में लिए ऑपरेशन थिएटर के बाहर खड़े प्रमोद बाबू और उनके परिवार के पास लाकर प्रमोद बाबू के हाथ में बच्ची देते हुए कहती है मुबारक हो अंकल, लक्ष्मी हुई है लक्ष्मी, बहुत ही सुन्दर है। इतना सुनते ही रूढ़िवादी प्रमोद बाबू और रमादेवी तत्काल अस्पताल से घर के लिए प्रस्थान करते है। शिव अभी भी वहीं है लेकिन उसके चेहरे से स्पष्ट ही जान पड़ता है कि वह बेटी होने से खुश नहीं है। इतने में नर्स कहती है, भाई बेटियाँ तो पिता की लाडली होती हैं, किस बात का संकोच है, गोद में नहीं लोगे अपनी बच्ची को। लेकिन परवरिश का असर, शिव भी वहाँ से चला जाता है। नर्स बेटी को लेकर अंदर आती है कि बेटी अब शांत है, वह रो नहीं रही। डॉक्टर हैरान है। डॉक्टर के चेहरे से स्पष्ट भाँपा जा सकता है कि किसी अनहोनी की आशंका उन्हें हो गई है। डॉक्टर उस बच्ची का चेक अप कर ही रही होती है कि वह नवजात अपना दम तोड़ देती है। शायद जिस ईश्वर के भरोसे आस्था अपनी संतान को छोड़ती आई थी उसी ईश्वर ने उसकी उस नवजात को अपने पास बुला लिया। शायद नियति आस्था के ससुरालियों के कुकर्मों के परिणाम आस्था की बेटी के भाग्य पर हावी नहीं होने देना चाहती होगी। अंततः आस्था की वह लक्ष्मी बैकुंठ धाम को जा चुकी थी। आस्था भी इस खबर को सुनकर असामान्य होकर अंततः मर जाती है और आस्था और उसकी बच्ची के साथ वह इंसानियत भी मर जाती है जिसकी उम्मीद आस्था गर्भाधान के पहले दिन से नौंवे महीने तक संजोय बैठी थी। ...