बेतवा बहती रही / मैत्रेयी पुष्पा
रचनाकार | मैत्रेयी पुष्पा |
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प्रकाशक | किताबघर प्रकाशन |
वर्ष | २००६ |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | |
पृष्ठ | 150 |
ISBN | |
विविध |
मीरा की ओर से
गाँव के नाम राजगिरि, सिरसा और चन्दनपुर भी न होते तो क्या अन्तर पड़ता ? यंत्रणाओं की पीड़ा क्या सर्वत्र समान नहीं ?
उर्वशी की यह कथा उसी की क्या, किसी भी ग्रामीण कन्या की व्यथा हो सकती है। विपन्नता का अभिशाप–शोषण और सनातन संघर्ष। एक विवश यातनामय नारकीय जीवन !
उर्वशी, दाऊ और उदय इस क्षय ग्रस्त समाज में निरन्तर ढहने को अभिशप्त रहे। परिवेशगत दबावों के छटपटाते सप्राण, सदेह पुतले नहीं तो और क्या थे ?
कितने अर्से बाद आयी हूँ उस गाँव, जहाँ उर्वशी ब्यहाकर आई थी।
पहड़ों से घिरी बेतवा का हरा-भरा कछार। जामुन, अर्जुन और पलाश-वृक्षों पर उतरती साँझ। अन्य लोगों के साथ घाट पर नाव की प्रतीक्षा में खड़ी हूँ। उन क्षणों में चारों ओर हेर-फेर कर न जाने क्या खोज लेना चाहती हूँ ?....किंतु कुछ भी तो नहीं। अतल जल पर काँपते पत्तों की तरह तिरती एक दो डोगियाँ। लोगों में दहशत है, अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ, इसी घाट पर अधिक भार के कारण नाव उलट गई थी। कोई नहीं बच पाया।
‘‘सरकारी नावें चलती थीं, जो सवारियाँ गिन-गिनकर .....’’ मुझे याद हो पड़ता है।
‘‘वे तो कब की बन्द हो गईं। और कोई साधन उपलब्ध नहीं।’’
सामने ही पारीछा थर्मल पावर प्लांट है। झिलमिलाती रोशनी में डूबी आधुनिक बस्ती। सीमेण्ट का छोटा-सा जंगल। तपती धरती।
‘‘पिछले साल दाऊ नहीं रहे। देवेश खेती संभालते हैं, जिज्जी उन्हीं के साथ रहती हैं।’’
दाऊ के घर का प्रसंग आते ही सहयात्रियों में से कोई आँखें फैलाकर बताता है, ‘‘लो देख लो। आज भी नदी के पानी में कभी-कभी लपलपाती लपटें दिखाई पड़ती हैं। ज्यों बेतवा मइया अगिनि-समाधि ले रही हो। एक-एक लहर दहकती है। पानी का रंग रकत लाल। मल्लाह उस समय नावें नहीं ढीलते।’’ सिरसा तक आकर भी चन्दनपुर नहीं जा सकी, उदय को इस बात का मलाल है। न जा पाने का अपराध-बोध मेरे भीतर भी कसकता है।
पिछली बार गई तो थी। पहूज नदी नाँखते ही सामने से आता ट्रैक्टर दिखाई दिया। ट्राली में बैठा पुरुष ठीक पिता की तरह, और जीवन संगिनी, आधे घूँघट में नवयौवना रुपवती। हूबहू उर्वशी।
भ्रम था...या पिता और उर्वशी की युगल छवि मेरे आगे-आगे छाया की तरह चल रही थी ?
नहीं, वह तो गाँव से भाँड़ेर की ओर जाता कोई दूसरा ही जोड़ा था।
ओझल होने तक देखती रही, अपलक।
गांव पहुँचकर फिर वही प्रश्न, ‘‘रास्ते में एक ट्रैक्टर, जिसमें....’’
उदय की बहू बताती है, ‘‘ऐन तौ, अभी थोड़े दिन पहले ही ब्याह किया है। पहली जनी से लड़का नहीं हुआ न। बिटिया ही बिटिया...’’
‘‘जाँच कराने झाँसी ले जा रहे होंगे कि पेट में लड़का है कि बिटिया, जो बिटिया हुई तो....’’
अँधियारे को चीरती बल्ब की पीली रोशनी लिपे फर्श पर फैल रही है। उदय टी.वी. खोल देते हैं, जिसमें कंधे पर बस्ता टाँगे किसी बालिका का चित्र उभरता है। उसी से संबंधित कोई सम्वाद...
उदय नये घर में रहने लगे हैं। छतविहीन भग्न दीवारों के खंडहर में से कोई श्वेतकेशी वृद्ध पीठ झुकाए लाठी के सहारे रेंगता-सा पास को चला आ रहा है। शायद उदय के पिता हैं। झुर्रियों भरी त्वचा में बँधी मुट्ठी-भर हड्डियाँ।
काँपते स्वर में प्रयत्न पूर्वक बोल पाते हैं, ‘‘इतने दिनन में खबर सुध.....! सब रिस्ते–नाते...?’’ उनका स्वर भारी हो आता है।
गहरी लकीरों के जाल में समायी दो मटमैली कातर पुतलियाँ कहीं शून्य में निराधार अटक जाती हैं।
एकालाप में डूबे अपनी आशंका इसबार भी, ‘‘उरवसी कों सिरसा न लै जाते...’’ उस अकुलाती जर्जर काया को देखकर संभ्रम होता है, क्या मेरे कथा-पात्र यही बरजोर सिह हैं ?
उदय क्षुब्ध हैं कि मैंने उनके घर की निजी बातों को इस तरह उघाड़कर उर्वशी की जिंदगी में घटी घटनाओं को जग जाहिर किया। लेकिन न लिखती तो उर्वशी के प्रति अन्याय नहीं होता ! यंत्रणाओं को अंधकूप में डालकर ढक देने से पीड़ा का अंत तो नहीं हो जाता और न दर्द ही कम।
फिर भी गाथा ज्यों-की-त्यों नहीं लिखी। अक्षरशः सच लिख देती तो सुविधा-भोगी लोग विश्वास न कर पाते।
लिखने से पहले अपने भीतर मचे महाभारत के किन-किन दौरों से गुजरी हूँ ? किस-किस पड़ाव पर ठहरी हूँ-तेजी से बदलते जीवन मूल्य। सभ्यता के थोथे आंदोलन। आजादी के चालीस वर्षों की तथाकथित विकास उपलब्धियाँ। साथ ही गाँव की रुढ़िग्रस्त धरती। प्रगति के आयामों को विसंगतियों में घोल देने की कुप्रवृत्ति। विपन्न मानसिकता के दुधमुँहे समाज में आज भी नारी मात्र वस्तु ! मात्र सम्पत्ति ! विनिमय की चीज !
काल के स्याह अंधेरों में भटकती त्रासद जिंदगी ! दुःख-दर्दों की व्यथा कथा, जो उनकी नहीं, कहीं मेरी अपनी भी हो गयी।
निष्ठापूर्वक इस दाय से मुक्त हो जाने का साक्ष्य है, यह मेरा प्रयास। कारगर संघर्ष के लिए किसी भी हद से गुजर जाने का संकल्प।
इससे मुक्त हो पायी हूँ मैं ? क्या कभी हो सकती हूँ ?
सच कहूँ तो लोग आज भी कहते हैं, उर्वशी है। बेतवा के कछारों में...। अभी भी वह भूले-भटके कभी-कभी दीख जाती है। शापग्रस्त यक्षिणी-सी। कभी उन्मुक्त हँसी में हँसती। कभी अकारण रोती।
सच नहीं लगता।
....मगर सच है। क्योंकि वह औरत है, औरत सदैव रहती है—सहने के लिए, झेलने के लिए और जूझने के लिए...
बेतवा बहती रही
मीरा देर तक नदी के पाट पर अकेली भटकती रही। देवघर से छिछली चट्टान तक।
थक-हार कर किनारे बैठ गई, पानी के बहाव को ऐसे ही देखती रही—बे अर्थ। हहराती लहरों के संग बहती निगाह—कोई टिकाव नहीं, ठहराव नहीं। तेज प्रवाह—अतीत की स्मृतियों का उमड़ता तूफान !
मन में काँटे–सा कुछ कसकने लगा—‘‘जीवन की समूची यात्रा के टुकड़े-टुकड़े पर तुम प्रकट क्यों हो उठती हो उर्वशी ?’’
यहाँ कब आना चाहा था उसने ? न जाने कब से नहीं आयी। उस दिन मामा इस तरह न आते तब क्या वह आती—सोचती भी नहीं।
आँधी-पानी से संघर्ष करते हुए मामा पहुँचे थे। वेग-भरी बरसात में पोर-पोर भीगते हुए।
‘‘क्या काम आ पड़ा ऐसा जो....’’ वह अचम्भित थी।
सूखे कपड़े बदलकर मामा तख्त पर बैठे चाय का घूँट भर रहे थे कि बीच में ही बोल पड़े—‘‘केहर कौ ब्याह है बिट्टी, चलो तैयारी कर लो।’’ पुलक-भरी उत्तेजना आँखों में झिलमिला गयी।
‘‘राजगिरि, मामा ?’’
मन में कुछ कषैला-सा घुल आया।
‘‘तुम्हारी माई ने कही बिट्टी, कि मीरा कों जरूर लिवा कें ले जाओ, एक ही भानिज है—ननद की जगह।’’
‘‘मामा.... ऽऽ’’ आहत-सा स्वर कराह उठा।
वे एकटक देखते रहे, आँखों में महसूसते रहे—करुणा, मोह-माया, सबकुछ ! पलकों के भीतर विसमृत्यों के कालखण्ड तिर आए।
‘‘हम जानत हैं बिट्टी, हम का समझत नइयाँ। पर बरसन बीत गए बिटिया....कबै तक न जैहौ ? ब्याह कारज तौ....।’’
‘हाँ-ना’ कुछ भी नहीं कह पायी। तक्षक-दंश भीतर-ही-भीतर टीसते रहे। मामा, जिन्होंने पाला पोसा था—मना किस तरह करती उनसे ?
अभी तक उस ओर जाती सड़क को देखने का साहस न होता था। जो बसें चिरगाँव से आगे जाती कैसी बैरिन-सी लगती थीं। यह वही गाँव था...जहाँ के लिए वह अनायास ही भाग उठती थी। हवा के वेग से उड़ान भरती हुई, चंचल चिड़िया-सी।
‘‘अब वहाँ कैसा जाना। उर्वशी...तुम तो...।’’
वही राजगिरि। कच्चे-पक्के घरों का छोटा-सा पुरवा। वही धूल-भरा रास्ता, कंकड़-पत्थर पहाड़। भोर का सूरज पहाड़ के पीछे से झाँकता हुआ। साँझ उतरने पर चन्द्रमा का उगना फिर....। क्रैशरों से टूटती आड़ी-तिरछी ताँबिया चट्टानें, बेतवा का चौड़ा पाट, एक-एक लहर, पेड़-पौधों के पानी में पड़ते प्रवाहित प्रतिबिम्ब...क्यों अजनबी हो उठे...?
किसकी मुस्कुराहटें थीं, कौन खिलखिलाता था वहाँ ? किसका नेह था मन-प्राणों तक हिलोरे लेता हुआ ? उल्लसित उमंगों का अनहद नाद जगाता हुआ ?
सूरज उतरकर नदी में समा गया। सफेद जल-पोतलियाँ देखते-ही-देखते कहीं विलीन हो गईं। छोटे से पत्थर पर अपना भार टिकाए, पाँवों को गुनगुनी रेत
में गड़े, अन्तिम किरण तक वह ऐसे ही देखती रही। सहसा कोई सरसराहट जागी, किसी की छायी अभी-अभी पीछे से उसकी आँखें मूँद लेने को है,
हड़बड़ाकर इधर-उधर देखा, कोई न था। केवल वह निर्जन एकान्त में अकेली। देवघर के पुजारी महाराज की आवाजें आ रही थीं, ‘‘यथा गंगा तथेयं
च....अस्या दर्शन मात्रेण पापोद्याः यान्ति संक्षमम्।’’
हल्के अँधियारे की चादर-सी तन आयी। उसकी ढूँढ़ मची होगी। यदि मन नहीं था तो फिर आयी क्यों ? जाकर घर में हो रहे नेग-चारों में चित्त रमा लेगी। मन में आया कि पुजारी महाराज के पास तक और चली जाए, जहाँ वे दोनों पहले घंटों बैठी रहती थीं। मंदिर की परिक्रमा करने की होड़ में एक सौ एक फेरे फिर लेती थीं। पुजारी महाराज मन्दिर से निकलकर देखते।
‘‘अरे अभी तक तुम घूम ही रही हो, चलो परसाद लो।
दो
यही तो घर था जहाँ नाना थे, नानी थीं। मामा का ब्याह हुआ था। सुंदर कपड़े-गहनों में सजी माँईं आयी थीं। वह और उर्वशी माँईं के संग लगी ही बैठी रहतीं। उनके रेशमी वस्त्रों को स्पर्श करके देखतीं—सर्र-सर्र। लच्छे और पाजेब के घुँघरुओं को उँगली से छन्न-छन्न बजा देतीं। नई दुल्हन महावर लगा पाँव खींच लेती—‘‘का कर रईं बिन्नू !’’
द्वार का बड़ा बुलंद दरवाजा था, जिसको वह सिर उठा कर देखती तो सिर पीछे को उलट जाता। मेहराबों में कबूतर रहते थे। दोपहरी में कैसी गुटरगूँ निकालते थे। उर्वशी उनकी आवाजों के विभिन्न अर्थ बताती।
‘‘नाना कबूतर क्यों नहीं सोते ?’’ मीरा नन्हा सा-प्रश्न करती।
‘‘बिटिया, वे यहाँ घर बैठे की रखवाली करत हैं।’’ नाना भी चुनमुना-सा उत्तर दे देते।
अन्दर को बड़ा-सा आँगन था जहाँ नानी सुबह-सुबह, सूरज निकलने से बहुत पहले—मुँह अँधियारे छविया नाईन के संग खूब बड़ी-सी मटकी में मट्ठा भाँया करतीं। मथनी के साथ-साथ नानी और छविया दोनों एक-सी फिरकी लेतीं। दोनों के घाघरे तने छाते की तरह घूमते। मटकी से आवाज आती—धर्र-मर्र। उसके नन्हे मन में यह प्रश्न काफी अहं था—‘नानी रात में सोती हैं या नहीं ?’
बरामदे में चूल्हा बना था, जो कंडों की राख और आग से भरा रहता। सर्दियों में चाय के लिए माँईं बड़ी-सी पतीली चढ़ा देतीं। पतीली भरकर चाय बनातीं। द्वार पर नाना के कितने ही संगी-साथी गिलासों में फूँ-फूँ करके चाय पीते, सूर्ऽर की लम्बी आवाज निकालते।
घड़ोंची पर पानी–भरी पीतल की कसैड़ियाँ रखी रहती थीं, उनमें से पानी आँझना छोटे बच्चों के बस की बात नहीं थी। साँझ का सूरज ढल न पाता तब तक पनिहारिनें कुएँ पर कसैड़ियों का मेला-सा लगा देतीं। मिट्टी के घड़े लाना अच्छी बात नहीं मानी जाती थी। कसैड़ियाँ और पीतल की गगरी घर के स्तर का माप दण्ड होती थीं।
घूँघट डाल कर कमनीय नववधुएँ जब दो-दो कसैड़ियाँ सिर पर तर-ऊपर धर लेतीं तब वह टुकुर-टुकुर देखा करती और फिर नानी से उन्हीं के जैसी करधनी लेने की जिद ठानती। उर्वशी के साथ वैसा ही खेल रचाती—पानी भरने वाला।
कड़कती ठंड में द्वार पर ‘कोंड़े’ सुलगते। कोंड़े के आसपास गाँव के कितने ही आदमी जुड़े रहते। कंडा, लकड़ी और सूखे खरपतवारों से नाना कोंड़े को दिन-भर गरम रखते कि द्वार से निकलते गैलारे-राहगीर निकलें तो ठिठुरते शरीर को पल-भर गरमा लें। अकड़न से बचा लें।
पिताजी जब उसे यहाँ लाए तो वह छोटी-सी थी। माँ तभी मरीं थीं। दादी से तीन बच्चे संभलते न थे। विजय और उदय तो कुछ बड़े भी थे, लेकिन वह तो बहुत छोटी थी। बात-बात पर रोती, जिद करती थी।
एक तो गृहस्वामिनी के मृत्यु से हुआ उजाड़-वीरान घर, ऊपर से बच्चों की साज-संभाल। दादी घबरा गईं। मीरा को नानी के पास भेज दिया गया। कुछ दिन खूब रोई-बिलखी, फिर सहज हो गई।
घना वृक्ष था यहाँ—लम्बा-चौड़ा, हरियल पत्तियोंदार, जिसके नीचे नाना तख्त पर हुक्का पिया करते थे। जिस दिन शहर से हाकिम अफसर आते उस पर जल्दी-जल्दी पतला गलीच बिछा दिया जाता—रंग-बिरंगा।
आज वहीं आयी है जहाँ आकर वह अपनी माँ को भूल गई थी, विजय भइया और उदय याद नहीं आते थे। पिताजी राजगिरि आते तो वह उर्वशी के घर में दुबक जाती। बात-बात पर मामा धमकी देते—‘‘बिट्टी, दूध पी लो नहिं तौ भेज दैंहें पिताजी के गाँव—चन्दनपुर।’’ और वह एक सांस में गिलास-भर दूध घूँट जाती। आँसू गालों पर लुढ़कते रहते।
आज कैसा वीराना-सा है सब कुछ—पई-पाहुने जुड़े हैं, घर भरा है फिर भी क्यों खालीपन है ? सब कुछ सूना-सा। नाना-नानी नहीं है, इसलिए ? उदास हो गए दरवाजे और दोनों ओर बने हुए चबूतरे। कहाँ बिखर गईं ग्रामीण मजलिसें। वे नक्काशीदार रौबीले हुक्के...न जाने किस कोने में ठंड़े हुए पड़े होंगे, जिन्हें नाना घंटे-घंटे पर नई तम्बाकू रख कर भरवाते रहते थे। शायद माँई ने पुरानी पीतल के भाव वे चिर गाँव के बाजार में बिकवा दिये हों।
बिजली के खम्बों के कारण नीम का हरियल वृक्ष भी काट दिया गया। शाखों पर पक्षी बसेरे-विहीन होकर उड़ गए, न जाने कौन दिशा को। चौपाल के आगे बरसात की उमस भरी घास पसरी है।
नानी के बिना आँगन बेलौंस और पौर में पड़ी खटोली का खालीपन पूरे घर में व्याप्त है। नानी छोटा-सा तकिया धरे धोती के आँचल से हवा झुलाती दुपहरी-भर उसी खटोली पर पड़ी रहती थीं। कैसे समा जाती थी नानी—इतनी खटोली में,...उसी पर वह भी उनके गुलगुले बदन से चिपककर पाँवों पर पाँव धरे सिकुड़-बिठुरकर सो जाती थी। मनमोहक गन्ध थी नानी के तन में—अपने पन से भीगी, आत्मीयता से सराबोर। घर के हर कोने से वही खुशबू आती थी। अब कितने ही प्रयत्न करे, तो क्या छू पाएगी उसे ? कौन चुरा ले गया ?
भोर के चढ़ते सूरज के साथ इसी आँगन से उठती थी टेर...
‘‘ओ....मीराऽऽमोड़ी, उठी नहीं अबै तक। अई उठिजा बिटियाऽऽआ...।’’
‘‘मीरा जिज्जी !’’ केहर ने आकर कंधा छुआ, वह चौंक पड़ी। भौचक हुई देखने लगी व्याकुल-सी, जैसे किसी ने मन चाही स्मृतियों के मोहक संसार से उसे हाथ पकड़कर हठात् खींच लिया हो।
सहज होने का भरसक प्रयत्न करने लगी। लेकिन चेहरे पर घिर आए कलुष को मामा ने भांप लिया, ‘‘बिट्टी हाथ-पाँव धोओ, खाना खाओ। का सोच रहीं बेटा ?’’
‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बस...’’। वह रूआँसी हो उठी।
मामा का आत्मीयता-भरा स्वर मन को सहला गया मगर यह विकलता....घर वही है। तुलसी का चौरा वैसा ही है। नानी की ही तरह माँईं नहा-धोकर सूरज के सामने लोटा-भर पानी ढारती हैं। पानी से गीली हुई धरती को छू कर माथे से लगाती हैं। तुलसी के नीचे घी का दीया जलाकर धरती हैं और फिर परिक्रमा करती हैं।
तो फिर यह अजनबीपन क्यों ?
किसको खोजता है मन...? कहाँ उड़ा फिरता है—अकेले ही....वृद्ध हंस-हंसिनी सरीखे नाना-नानी के पीछे, जो इस घर को, मुहल्ले को गुलजार किये रहते थे। सारे गाँव को अपनी मोह-ममता-भरी बाँहों में समेटे रहते थे।
ब्याह-कारज के घर में गाने बजाने तथा सजने-सँवरने का माहौल है। चारों ओर खुले बक्सों में से अतर से गमकती साड़ियाँ निकाली जा रही हैं। राछरी होने को है, चूड़ी पाजेब खनक रही हैं। नई ब्याही अल्हड़ किशोरियाँ पाउडर लाली की रचा-बसी में लगी हैं। उसका मन उदास है....बोझिल बेचैन। कोई क्या कहेगा—हँसी-खुशी में बिसूरनी-सी सूरत काहे को बनाए है मीरा ?’’
सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर चली गई। बरसात के बाद की कटखनी धूप पसरी थी पूरी छत पर। थोड़ी देर में ही सिर चटकने लगा, फिर भी खोई-खोई-सी ऊपर ही खड़ी रही, देखती रही बेतवा के पाट को।
माँईं उसे खोजती ऊपर ही चली आईं। हाथ पकड़कर नीचे ले जाने लगीं—‘‘यहाँ इतेक धूप में काहे को ठाड़ीं। चलो कोठे में खटिया बिछा दई है, वहीं लेटिओ।’’
वह दो क्षण खड़ी ही रही माँई का हाथ थामे—बराबर वाले घर को निहारती रही—घर क्या था ढही हुई दीवरों का मलबा। मात्र मिट्टी का ढूह।
माँईं ने हाथ पकड़कर खींच लिया—चलो का देखतीं इतै ? अब का धरौ है यहाँ सब नाश हो गऔ। जैसौ करो हतो तैसौ फल मिलौ, नास-मिटे कों।’’
माँईं का कहना था कि मीरा की आँखें अनायास ही छलछला आयीं—बहुतेरी सँभली, ब्याह-शादी के मौके पर यह अवसाद...! आँखों में झलमलाए आँसू मुँह फेरकर चुपके से गले में घूँट लिये।
तीन
उर्वशी यहीं तो रहती थी...इसी घर में...। इसी मलबे तले दबे पौर-आँगन में। इन्हीं गली-कूचों से उसके पाँवों की आहट आती है। इसी धरती से उसकी यादें बँधी हैं जो फूल की गन्ध-सी...मन में गहरे समाई हैं, काँटे की चुभन-सी कलेजे में टीस उठती हैं।
अजीत की छोटी बहन थी वह, उसकी अभिन्न सखी। एक साथ घर-घर खेलीं थीं दोनों, गुड़ियों का ब्याह रचाया था। आपस की अंतरंग बातें एक-दूसरे के कान में फुसफुसायीं थीं। साथ-साथ डोलतीं, बतियातीं और खिल-खिल हँसतीं—सरसों के फुलों की तरह।
नाना के और उर्वशी घर के बीच में एक दीवार का फासला था। यदि वह दीवार तोड़ दी जाती या बरसात में गिर जाती तो दोनों घर एक हो जाते। उर्वशी और उसके लिए सुभीता हो जाता।
वह जिद करती—‘‘नाना तोड़ दो न यह दीवार।’’
नाना हँसने लगते—‘‘तुड़वा डारेंगे बिटिया, अब के बरखा में भीग के नरम हो जाएगी, सोई तुड़वा डरायेंगे।’’
तब वह छोटी थी, ऐसी ही जिद-हठ कर बैठती और नाना उसे बड़ी आसानी से बहका भी देते। अब तो कुछ समझ में आ गया है, किसी के घर में अपने घर को मिला देना बड़ा दुष्कर होता है...कितना कठिन ! असम्भव !
उर्वशी ने जिस घर में जन्म लिया, बड़ी विपन्नता थी वहाँ। दरिद्रता का घोर साम्रज्य। घर की दीवार के उस पार रोज ही रोटियों के लाले पड़ते थे। उस घर के निवासियों को हर समय पेट भरने की दुश्चिंताएँ घेरे रहतीं।
उर्वशी के पिता के पास नाम मात्र की जमीन थी—बित्ते-भर धरती। उसके बल पर किसी बाल-बच्चों वाले परिवार का भरण-पोषण संभव नहीं था। दूसरों की खेती जोत पर लेते, बटिया पर उठाते। साल-भर कड़ी मेहनत करते। हिम्मत करके बोते, उगाते, काटते और ईमानदारी से मौरूसीदार की पाई-पाई चुका देते। बाल-बच्चों के पेट को चार दाने घर में आ जाते।
उर्वशी अजीत से कई वर्ष छोटी रही होगी। अजीत की पीठ पर के कई बच्चे नहीं रहे। कोई चेचक में गया तो कोई मोतीझरा में। एक की नाल पकी थी, उसी में चल बसा। बड़ी मुश्किल से उर्वशी बची। उसकी अम्मा कहतीं—‘‘उर्वशी बेटी की जात हती तो जी गयी, लरका होतो तौ न बचतौ।’’ ज्यों-ज्यों उर्वशी बड़ी हुई उसके अंग सौन्दर्य-सौष्ठव से निखर-सँवरकर दिपने लगे। कृपणता तो लक्ष्मी ने बरती थी। विधाता ने रुप तो उसे जी खोल दिया था।
आँगन में खड़ी होती तो कैसी बे-मेल लगती—कच्चे मटमैले घरौंदे में वह अपूर्व सुंदरी। वहाँ खाने को दो वक्त पूरा न जुटता था। ज्वार-बेझरे की रोटी जब मिल जाए तो समझों छत्तीसों भोग।
नानी कहतीं—‘‘कैसी गुलाब-सी मोड़ी है मोहनसिंह की। कहूँ राज-रनिवास में पैदा होती। यहाँ-कहाँ जन्मी है। दिलिद्दर में।’’
मीरा देखती उर्वशी के होंठ—जैसे नानी के पानदान से पान का बीड़ा चबाकर थूक आयी हो। ‘‘दिखाना उर्वशी, मुँह खोल।’’ वह मुँह फाड़ देती। नहीं, इसने तो पान खाया ही नहीं—फिर....ऐसे लाल होंठ !
उमर का सतरंगी पड़ाव था—किशोरवस्था का प्रवेश द्वार, गुड़िया खेलने की उम्र पीछे छूट चली। हजारों बातें मन में हिलोरने लगीं, गुपचुप कानों ही कानों में फुसफुसाहट बढ़ने लगी। अधरों पर कुछ लरजता था—किसी से कुछ कहने को, सुनने को मन करता था दोनों का।
हजारों उमंगें थीं—एक-से-एक चढ़ती हुई। राजगिरि में कैसी सोने-सी दमकती मनमोहक भोर उगती थी। रंगो नहायी शाम बेतवा की शान्त लहरों पर उतर आती और जुन्हैया-भरी रात समेट लेती पूरे गाँव को। छत पर चढ़कर देखतीं तो आसमान की छाँव तले चन्द्रमा नदी के जल पर तैर रहा होता-बिना नाव के माँझी-सा।
दोनों नदी के चौड़े पाट पर गीली रेत में पाँवों के चिह्न बनातीं। निर्मल जल के मन्थर प्रवाह में घुटनों तक धोती समेटकर छपाक-छपाक डोलती फिरतीं। उर्वशी के पास कपड़े धोने को तो दो-चार ही होते, लेकिन नदी पर टिक जाने का लम्बा बहाना मिल जाता घर आकर अच्छी–खासी डाँट पड़ती थी। मगर किसने डाँटा, किसने फटकारा, सब कान के परदों से बाहर सरक जाती। दोनों ही अपने कामों में लीन रहतीं। कहे-सुने का क्रोध-गुस्सा भी नहीं। सफाई में कोई दलील भी नहीं।
पहले की बात और थी।
अब गर्मियों की छुट्टियों में ही मीरा का आना हो पाता, बाकी वर्ष-भर का वनवास। पढ़ने झाँसी जो जाना पड़ा था। वहाँ होस्टल में रहने का प्रबन्ध कर दिया था नाना ने। विजय भइया भी वहीं पढ़ते थे बिपिन बिहारी इण्टर कॉलेज में। पिता जी ने उदय को पढ़ने के लिए ग्वालियर भेज दिया था। अम्मा की बड़ी इच्छा थी कि वह पढ़े। वह मरते समय नाना से हाथ जोड़-जोड़कर कह गयी थीं—‘‘काका जू, हमें काऊ को भरोसो नइयाँ। तुम मीरा को झाँसी में पढ़इयो।’’
छुट्टियों के कुछ रोज पहले ही पिताजी का पत्र आ गया था कि अब की बार मीरा राजगिरि न जाए विजय के साथ चन्दनपुर चली आए। ‘‘चन्दनपुर—उँह ! उसका तो मन करता ही नहीं, वहाँ जाने का। उसका गाँव जरुर सही, पर मन नहीं रमता वहाँ। रही नहीं न, शायद इसलिए। वहाँ दादी हैं, पिताजी हैं। विजय और उदय भैया छुट्टियों में आते हैं। पर कोई हम उम्र सखी-सहेली तो नहीं, न कोई सगी सहोदरा। जब भी गयी है, अन्चीन्हीं-सी धरती लगी है वहाँ की—उजा़ड़...वीरान–भरी।’
बहने को तो पहूज नदी बहती है वहाँ, पर मिट्टी के ऊँचे नीचे भरका—गहरी खाइयाँ और बेतरतीब रेतीले ढूह कैसी दहशत पैदा करते हैं। पूरा रास्ता सूनसान खेतों से गुजरकर पहूज तक पहुँचता है। भाँड़ेर के आसपास के गाँव कुछ ऐसे ही हैं—सूने, सनसनाती हवा में लिपटे पक्के, सफेद मकान, खपरैल-छवे घरों के छोटे-छोटे समूह दूर-दूर छिटके हुए। आसपास एक आध वृक्ष, शाखों पर धूल झेलता हुआ। रात होते ही आशंका मन में धुकधुकाने लगती है—‘कहीं डाकू न आ जाएँ।’
बड़ी बखरी में आजी रहती हैं, गजराज कक्का और काकी है। उसके हमउम्र बच्चे भी हैं, पर कैसा तिक्त कसैला माहौल है—उसके घर और बड़ी बखरी—दोनों में होड़ रहती है, एक-दूसरे को नीचे कर देने की रस्साकशी।
चन्दनपुर जाने के नाम से ही मन पर अनमनाहट पसर गयी। राजगिरि चली जाती किसी तरह...।
वह सामान बाँधकर सोच-विचार में बैठी थी। होस्टल खाली होता जा रहा था। सभी को जल्दी थी-कोई बस स्टैंड दौड़ रहा था तो कोई रेलवे स्टेशन को। ताँगे और टैम्पो कॉलेज गेट पर लगे खड़े थे। पैट्रोल-मिली गंध हवा में समाई थी।
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