बेतार के तार को श्रद्धांजलि / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 14 जून 2013
१५ जुलाई से टेलीग्राम सुविधा निरस्त कर दी जाएगी। लगभग १६० वर्षों तक संचार का तीव्रतम साधन रही सुविधा को टेक्नोलॉजी ने समाप्त कर दिया। आज मोबाइल, एसएमएस इत्यादि सुविधाओं ने उसे नष्ट कर दिया। २४ मई १८४४ को सेमुअल एफ.बी. मोर्सी ने इसका आविष्कार किया और वॉशिंगटन से पहला तार भेजा गया था। भारत में तत्कालीन हुकूमते बरतानिया ने १८५३ में इस सुविधा का लाभ जनता को उपलब्ध कराया और बेतार के इस संचार तार ने धूम मचा दी। दरअसल, भारत की पोस्ट एंड टेलीग्राफ सुविधा सुचारू रूप से चलती रही है, परंतु बाजार की ताकतों ने महंगी कूरियर सेवा द्वारा इसके प्रभाव को कम किया है। आज भी कूरियर से ज्यादा विश्वसनीय भारतीय स्पीड पोस्ट है। विगत 22 वर्षों से यह सुगठित प्रचार किया जा रहा है कि सरकारी व्यवस्थाएं सुस्त एवं निकम्मी हैं। इस प्रचार द्वारा दबाव बनाया जा रहा है कि रेल, डाक-तार सेवाओं को प्राइवेट हाथों में दिया जाए। इसी मिथ्या प्रचार ने एअर इंडिया को क्षति पहुंचाई है, जबकि प्राइवेट एअरलाइंस ने मनमाने भाड़े लिए हैं। हाल ही में नि:शुल्क लगेज की सीमा 20 किलो से घटाकर 14 किलो कर दी है। प्राइवेट हाथों में रेल जाते ही वह गरीब आदमी के बदले अमीर ग्राहकों की सेवा करेगी। भाड़े बढ़ जाएंगे।
बहरहाल, टेलीग्राम सेवा ने मानवता की बहुत सेवा की है और आज हमें उसे आदरांजलि देना चाहिए। एक प्रसिद्ध अमेरिकन निर्देशक ने कहा था कि फिल्म में संवाद गरीब आदमी के तार की तरह होने चाहिए अर्थात छोटे और सारगर्भित। राज कपूर ने फिल्म 'संगम' की कहानी वैजयंती माला को सुना दी थी और वैजयंती माला ने कहा था कि सोचकर जवाब देंगी। एक सप्ताह बाद राज कपूर ने उनको टेलीग्राम भेजा 'बोल राधा संगम होगा कि नहीं।' तुरंत ही वैजयंती माला ने राज कपूर को टेलीग्राम भेजा 'होगा, होगा।' ये दोनों टेलीग्राम शैलेंद्र ने पढ़े और फिल्म का टाइटिल गीत लिख दिया।
टेलीग्राम के उपयोग के लिए ग्रामर से क्रिया हटा दी गई, जैसे आज एसएमएस ने ग्रामर ही हटा दिया है। उस जमाने में तार की भाषा में केवल मूल प्रयोजन ही कहा जाता था, जैसे 'फादर इल, कम सून' और यह टेलीग्राम का ही प्रभाव था कि पत्र में भी लिखा जाता था कि 'पत्र को तार समझना और शीघ्र आना'। एक दौर में किसी के घर टेलीग्राम आना पूरे मोहल्ले में तहलका मचा देता कि जाने क्या बुरा समाचार आया है। एक तरह से टेलीग्राम को मृत्युदूत ही माना जाता था। शुभ समाचारों के लिए प्राय: इसका उपयोग नहीं करते थे, क्योंकि लोग धन को आदर देते थे और कम खर्ची जीवन-शैली का हिस्सा थी तथा किफायत को बरकत माना जाता था। टेक्नोलॉजी का हर चरण अपने साथ एक संस्कृति लेकर आता है और आप टेक्नोलॉजी का गुड़ खाकर उसके गुलगुलों से परहेज नहीं कर सकते। टेक्नोलॉजी दोनों हाथों से देती है और चार हाथों से कुछ ले लेती है। आज तो वह गले में हाथ डालकर अंतडिय़ों से कुछ निकाल लेती है। टेक्नोलॉजी उस गर्भवती सर्पिणी की तरह होती है, जो एक कतार में लगभग सौ अंडे देती है और पेट खाली होने पर अपनी भूख मिटाने के लिए अपने ही अंडे खा जाती है। केवल कतार से लुढ़के दो-चार अंडे ही बचे रहते हैं। सिनेमा अपनी कथा कहने की ताकत के कारण ही कतार से लुढ़के हुए अंडे की तरह बच गया है।
डाकघर में खिड़की से झांककर यह देखना अजीब रोमांच देता था कि एक आदमी अपनी उंगली से एक छोटी मशीन पर 'टक टक टका टक' ध्वनियां पैदा करता है और हजारों मील ध्वनि तरंग जाकर संदेश दे रहा है। ध्वनि माध्यम से संदेश देने के दृश्य में काव्यात्मकता थी वह मोबाइल के प्राणहीन संदेश की तरह सूखा, संवेदनहीन और गैररोमांटिक नहीं था। आज इसी रूखेपन से जिया ने आत्महत्या कर ली।
कुछ समय पूर्व ही टाइप राइटर फैक्ट्री बंद हो गई। टाइप राइटर मशीन ने कितने लोगों को काम दिया था। उसके चलने में एक ध्वनि निकलती थी, वह आज के कंप्यूटर की तरह 'बेआवाज खुदा की मार' की तरह नहीं है। दरअसल, प्रगति के रथ के नीचे अनेक कोपलें नष्ट हो जाती हैं - यह अवश्यंभावी है और इस पर रूमानी आंसू बहाना युवा पीढ़ी को हास्यास्पद लग सकता है, परंतु चंद वर्षों बाद वे अपने उपकरण की मृत्यु पर मेरी तरह रूमानी हो जाएंगे, परंतु तब तक आंसू बहाना भी फैशन के बाहर चला जाएगा। पत्र लिखने के समाप्त होते ही एक कला भी मर गई है, परंतु जमाने को कहां फुर्सत है गमगीन होने की। कुमार अंबुज की डायरी की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं - 'अचरज होता है, कुछ लोग सदा प्रसन्न कैसे रहते हैं? ...उनके पास इतनी साधन-संपन्ता है कि हमेशा खुश रहने की निश्चिंतता उनमें स्थायी रूप से निवास करने लगी... कोई भी दृश्य उन्हें उदास नहीं करता। उनकी खुशी में कोई दखल नहीं देता। वे अलभ्य और अप्राप्य मीनारों की तरह हैं।'