बेपर आवाजें / गोवर्धन यादव
सूरज के उदय होने के साथ ही माहौल गरमाने लगता। जैसे-जैसे सूरज उपर उठता, पारा भी उॅंचाइयाँ छूने लगता और दोपहर होते ही आसमान से आग बरसने लगती। सांय-सांय, के सायरन बजाती हवा, पुलिसिया अंदाज में सड़कों-गली-कूचों में गश्त लगाने लगती। घरों और दुकानों के पट बंद हो जाते। लोग घरों में दुबके रहते। जानवर, दीवालों की ओट ले लेते अथवा वृक्षों की छॉंव तलाश कर ठहर जाते। वाहनों के काफिले, थम से जाते। सारा नजारा देखकर ऐसा लगता कि शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया हो।
सूरज शहर का माहौल बिगाड़ दे, इसके पूर्व हरीश अपने सुबह के काम निपटाकर कार्यालय जा पहुचता है। ऑफिस का वर्किंग-अवर ग्यारह बजे से शुरू होता है और इस समय सिवाय चौकीदार के वहाँ कोई भी नहीं होता।
चौकीदार उसे आया देख मुस्कुराता है और अदब के साथ सलाम लेता है। वह भी होले से मुस्कुराता है और सलाम के जवाब में नमस्कार कहता है और अपने कैबिन में जा समाता है। पूरा कार्यालय एअर-कंडिशन्ड है। वह या तो अपना पेन्डिंग कार्य निपटाने लगता है या फिर ड्राज से कोई साहित्यिक-पत्रिका निकालकर पढ़ने बैठ जाता है।
हरीश को यहाँ आए हुए, एक बरस से उपर हो चुका है और वह अब तक अपने पड़ोसियों से खास जान-पहचान नहीं बना पाया है। उसने पहल करते हुएा अपने पड़ोसी से बात करना चाहा था। नतीजा सिफर निकला। उसे वह देर तक अजनबियों की तरह घूरता रहा फिर बुरा सा मुँह बनाते हुए अपने दड़बे में जा घुसा। उसकी इस हरकत पर उसे क्रोध आया। ष्बड़ा अजीब आदमी हैहूँ मन ही मन बुदबुदाते रह गया था वह। उसके हाथ जुड़े के जुड़े रह गए थे।
उसके कार्यालय का भी लगभग वही हाल था। हाय-हैलो के अलावा बात आगे बढ़ नहीं पायी थी। वह यह सोचकर चुप हो जाता कि शायद इस शहर का, कुछ ऐसा ही दस्तूर होगा।
उसे अपने गाँव की याद हो आती। गाँव की याद आते ही उसका मन-मयूर थिरक उठता और वह यादों में खोता चला जाता।
उॅंची-नीची पहाड़ियों के मध्य, कमल-सा खिला एक गाँव। गाँव के चारों तरफ फैली सघन अमराइयाँ। पेड़ों से झरती ठंडी-ठंडी हवाएं, कल-कल, छल-छल, के स्वर निनादिन करती, पहाड़ों से उतर कर बहती अल्हड़ नदी। लम्बे-चौड़े खेत। खेतों में लहलहाती फसलें। आसमान के सुराख से फूटती रंग-बिरंगी रोशनी। पेड़ों की शाखाओं पर धमा-चौकड़ी मचाते शाखा-मृग। चिंचियाती चिड़ियों का समूह। हर छोटी-बड़ी चीजों में भरे होते जादुई रंग। नारी कण्ठों में इतनी लोच होती कि कोयल भी शरमा जायें। चारों तरफ से मानों सपनों की बरसात होती रहती। तितलियों सा फुदकता उसका मन, कहीं भी एक जगह ठहरना नहीं चाहता।
घर में माँ-पिताजी है। दो छोटे-भाई बहन है। छोटे से घर में मानो स्वर्ग सिमट आया हो। माँ-बाप का प्यार और आशीर्वाद पाकर वह निहाल हो उठता। गाँव में जितने भी घर हैं, वे सारे की सारे उसके अपने हैं। किसी में मामा-मामी हैं। किसी में चाचा-चाची। किसी में फूफा-फूफी। किसी में भाई-भौजाई रहते हैं। गफूर चच्चा तो जैसे उस पर जान ही छिड़कते थे।
बाबा रामदीन को वह अक्सर यह कहते हुए सुनता था। श्जननी-जन्मभूमिष्च स्वर्गादपि गरीयसीश् और भी न जाने क्या-क्या। ष्शब्दों में गहरे अर्थ भरे होते। सुनने में अच्छे तो लगते थे लेकिन उनका अर्थ वह उस समय समझ नहीं पाया था। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया और किताबों से जुड़ता गया, उन बातों का अर्थ, उनका मर्म, उनकी गहराईयों से परिचित होता चला गया। सच ही कहा करते थे बाबा श्गॉंवों में स्वर्ग बसता है। श्
गाँव में रहकर उसने मैट्रिक की परीक्षा पास की और पास वाले शहर से कॉलेज की पढ़ाई। उसने कभी सपने में नहीं सोचा था कि उसे पढ़-लिखकर बित्तेभर पेट के गढ्ढे को भरने के लिए दूसरे शहर भी जाना पड़ सकता है।
विकास की अचानक आयी आँधी ने गाँव की गाँव उजाड़ दिये। गॉंवों में अब बूढ़े और अपाहिजों के अलावा कोई नहीं रहता। वे लोग रहते हैं जो खेती-बाड़ी से जुड़ें हैं या फिर निठल्ले। विकास की अवधारणा से, गाँव रहने लायक नहीं बचे और शहर बसने लायक।
गाँव की मिट्टी की सोंधी- सोंधी महक और अपने स्वजनों-परिजनों की याद आते ही उसकी देह गन्ने की सी मीठी होने लगी थी।
गुजरे हुए दिनों की पगडंडियों पर वह देर तक चहल-कदमी करता रहा और शीघ्र ही अतीत की भूल-भुलैया से वर्तमान में लौट आया था।
ऑफिस में बैठे-बैठे उसे अपने मित्र जगदीश की याद हो आयी। उसकी खोजी नजरें, ऑफिस की खिड़की के उस पार उतर कर, उसे खोजने का उपक्रम करने लगती।
उस दिन का दिन, यादगार दिन था उसके लिए। जब वह इस शहर में, पहली बार आया था, तो उसने एक लॉज को अपना अस्थायी ठिकाना बनाया था। फिर उसकी जिंदगी, एक बने बनाए ढर्रे पर चल निकली थी। श्होटल में खाना और मस्जिद में सोनाश् जैसे मुहावरे का अर्थ, अब उसकी समझ में आया था।
शीघ्र ही वह अपने एकाकी जीवन से उबने सा लगा था। उसे एक मित्र की तलाश थी। एक ऐसा मित्र जिससे वह अपने मन की बात कह सके और अपने सुख-दुःख बाँट सके। शीघ्र ही उसकी खोज पूरी हुई। जगदीश को मित्र रूप में पाकर वह बेहद खुश हुआ था।
जगदीश की जिन्दा-दिली, उसके बात करने का अंदाज, ओठों पर खेलती-ठिठककर ठहर जाती हॅंसी, ये सब देखकर वह बेहद प्रभावित हुआ था और उसने मित्रता स्थाति करने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया था। जगदीश आज उसका मित्र ही नहीं अपितु भाई से बढ़कर है।
जगदीश ने ही बताया था कि यह शहर सहसा किसी पर विश्वास नहीं करता। विश्वास करने की इसने बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाई है और जब से विश्वास अर्जित हो जाता है, तो वह सर आँखों पर बिठाने में पीछे नहीं रहता।
जगदीश के कहने पर उसने, लॉज की चौहद्दी छोड़कर, एक मकान किराये पर उठा लिया था तो वह किराये का मकान, जिसे वह अपना तो कह ही सकता था।
घर-गृहस्थी की चीजें जोड़ी जाने लगी थी। अब वह घर पर ही खाना पकाने लगा था। शुरू में खाना पकाकर खाने में मजा तो आ रहा था, लेकिन जल्दी ही उसका मन उचाट सा गया। बहुत सारा समय, खाना पकाने, खाने और बर्तन मलने में जाया हो जाता था। उसे पढ़ने का बेहद शौक था और वह उसके लिए समय नहीं निकाल पा रहा था। अंततोगत्वा उसे फिर होटलों की शरण में जाना पड़ा और शीघ्र ही वह पेट का मरीज बन बैठा।
जगदीश ने सलाह दी कि वह एक खाना पकाने वाली महाराजन रख लें। उसे सुबह-शाम ताजा खाना मिलेगा और घर की समुचित साफ-सफाई भी होती रहेगी। सुझाव अच्छा था लेकिन वह उसे तत्काल क्रियान्वित करने के पक्ष में नहीं था। वह एक लम्बे अरसे से घर नहीं जा पाया था। उसकी दिली इच्छा थी कि वह एक बार घर हो आए और अपने नवजात पुत्र को देखता भी आए।
कार्यालय सप्ताह में पाँच दिन लगता था। सोम व मंगल की छुट्टियाँ थी। उसने एडवांस में तीन दिन के आकस्मिक अवकाश के लिए आवेदन प्रस्तुत कर दिया था और रेल्वे से सीट भी आरक्षित करवा ली थी।
निर्धारित समय से पूर्व वह अपने बॉस के चेम्बर में जा पहुचा और छुट्टियाँ प्रदान करने की विनती करने लगा। बॉस ने उसका निवेदन ठुकराते हुए, लम्बा-चौड़ा भाशण पिला दिया। श्हरीश इस समय मैं तुम्हें छुट्टी नहीं दे सकता। तुम्हें मालूम ही है कि आधे से ज्यादा स्टॉफ छुटटी पर है। कोई मेडिकल पर है तो कुछ के यहाँ शादी-ब्याह सम्पन्न होने हैं। ऐसे क्रिटिकल पोजीशन में छुट्टी नहीं दी जा सकती। जैसे ही ऑफिस की पोजीशन नार्मल होती है, तुम चले जाना। श्
बात सुनकर उसका मन कसैला हो उठा था। वह तर्क और कुतर्क में फॅंसना नहीं चाहता था। जानता था कि इससे घातक परिणाम ही हो सकते हैं। वह मन मसोसकर रह गया था। फिर उसका घर भी इतना दूर था कि वह चार दिन में लौटकर नहीं आ सकता था।
गरमी अपने चरम पर थी और उसे हर हाल में, घर पर ही रहना था। घर में निठल्ले बैठे रहने की अपेक्षा अच्छे-अच्छे नॉवल पढ़ना, उसे ज्यादा श्रेयस्कर लगा था। उसने ऑफिस की लायब्रेरी से तीन किताबें आबंटित करा ली थी। उसमें एक थी कमलेश्वर की श्कितने पाकिस्तानश् मन्नु भंडारी की श्मैं हार गईश् औ तीसरी मैत्रेत्री पुष्पा की श्अल्मा कबूतरीश्। उसे अपनी पढ़ाकू-शक्ति पर पूरा भरोसा था कि वह चार दिन में तीनों किताबें पढ़ लेगा।
साहित्य जगत के लब्धप्रतिष्ठ, बहुआयामी सृजनशील रचनाकार, पत्रकार, लेखक कमलेश्वर के उपन्यास की प्रसिद्धि के बारे में उसने काफी कुछ सुन रखा था। लेकिन यह उसका अपना दुर्भाग्य था कि वह किताब खरीद नहीं पाया था। उपन्यास हाथों-हाथ बिक रहा था। उसे पढ़ना चाहने वालों के सिर पर जुनून इस कदर हावी था कि अनुप्लब्धता की दशा में फोटो-प्रतियाँ प्राप्त कर अपनी मानसिक भूख मिटा रहे थे और जैसे ही उसकी नजर बुक सेल्फ में रखे उपन्यास पर पड़ी, बिना देरी किए उसने उसे बुक करवा लिया था।
किताब हाथ लगते ही उसका सारा तनाव दूर होने लगा था।
घर आकर उसने अपने कपड़े बदले। गर्मी के मारे बुरा हाल था। पसीने की चिपचिपाहट और दुर्गंध से और भी बुरा हाल था और वह अब नहाना चाहता था। उसने शॉवर ऑन किया और देर तक उसके नीचे खड़ा रहा। हालॉंकि पानी में उतनी ठंडक नहीं थी, जितनी कि होनी चाहिए थी। बावजूद इसके उसे अच्छा लग रहा था।
यहाँ-वहाँ समय न गॅंवाते हुए उसने उपन्यास उठा लिया।
कमलेश्वर की विलक्षण लेखनी का जादू, उस पर छाने लगा। रूमाल से बात होते हुए अदीब तक जा पहुची थी। वह उसका परिचय नयी-नयी सभ्यता से करवा रहा था। लेखक की कलात्मक सोच, गहरी समझ पिरो देने की अद्भुत क्षमता व नूतन प्रयोगों से वह बेहद प्रभावित हुआ था। उपन्यास पढ़ने में वह इतना खो चुका था कि उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि गला सूख आया है और उसे पानी पीना है।
टेबिल पर रखी पानी की बोतल उठाते समय उसकी नजरें अनायास ही दीवार घड़ी पर जा टिकी। रात के दो बज चुके थे। पानी पीकर उसने गले को तर किया और फिर पढ़ने लगा। वह कब तक पढ़ता रहा, यह तो उसे याद नहीं, लेकिन जब उसकी नींद खुली तो उसने अपने आप को टेबिल पर सिर टिकाए, सोता हुआ पाया था।
नींद खुलने के साथ ही वह पलंग पर आकर लेट गया। उपन्यास में वर्णित सारे घटनाक्रम उसकी आँखों के सामने, सिनेमा की रील की तरह चलायमान हो रहे थे। देर रात तक जागते रहने से उत्पन्न होने वाला आलस्य नहीं था और न ही शरीर में ऐंठन-वैठन जैसी कोई चीज। वह अपने आप को एकदम तरोताजा सा महसूस कर रहा था।
देर तक यू ही पड़े रहने के बाद उसे नहाना एकदम जरूरी सा लगा। उठते हुए वह बाथरूम में जा समाया।
दोपहर हो चुकी थी। गरमी अपने चरम पर थी। कूलर नकारा सिद्ध हो रहा था। उसने एक तौलिए को भिगोया और पीठ पर डाल लिया। ऐसा करते हुए उसे अच्छा लग रहा था।
उपन्यास में खोया हुआ था वह। तभी उसे मेन गेट पर होने वाली चर्र-मर्र की कर्कश आवाज सुनायी दी। कौन हो सकता है इस वक्त? ऐसी कड़ी धूप में बाहर निकलने की किसने जुर्रत की? सोचते हुए उसके माथे पर बल पड़ने लगे थे।
कुर्सी पर से उठते हुए उसने खिड़की पर पड़े मोटे पर्दे को थोड़ा सा हटाया। देखा बाहर तेज धूप थी। सड़क सूनी पड़ी थी और एक महिला गेट पार कर सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। उसने एक हाथ से रेलिंग पकड़ रखी थी और दूसरे से घुटने पर दबाव बनाए हुई थी।
देखते ही वह समझ गया। आने वाला और कोई नहीं बल्कि महाराजन बाई थी, जिसके बारे में जगदीश ने उसे विस्तार से बता दिया था। वह कुछ और सोच पाता, दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुन, वह दरवाजा खोलने आगे बढ़ा।
दरवाजा खुलते ही एक तेज गरम हवा के झोंके ने उसे अपनी लपेट में ले लिया। आँखें चुधियाने लगी। आँखों के सामने हथेली की ओट बनाते हुए उसने, उससे कहा- श्इतनी कड़ी धूप में आने की क्या जरूरत थी। आना ही था तो शाम को चली आती या सुबह आ जाती। क्या तुम्हें मरने से डर नहीं लगता?श् जल्दी...जल्दी से अंदर आ जाओ, वरना तलुओं में फफोले पड़ जाएंगे...
उसकी आवाज में क्रोध उतर आया था। हालात ही कुछ ऐसे थे, क्रोध हो आना स्वाभाविक था। वह अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाया था।
भीतर आकर वह दीवार का सहारा लेकर फस्स से नीचे बैठ गई और अपनी असामान्य हो आयी सॉंसों को सामान्य बनाने में लग गई थी। वह भी अपनी कुर्सी पर आकर धॅंस गया। क्रोध और विवेक, कभी भी, एक साथ, रह नहीं सकते।
एक समय में, कोई एक ही रह सकता है। क्रोध जा चुका था और उसका विवेक लौट आया था। उसे अब अपने कहे पर पछतावा होने लगा था।
कुर्सी की बेक से सिर टिकाते हुए वर उपर देखने लगा। छत सपाट व भावशून्य थी। पंखा अपनी जगह खड़ा, चकरघिन्नी काट रहा था। देर तक उसे घूरते रहने के बाद अपनी आँखें मींच ली थी। शायद वह अपने मन के भीतर उतर का परिस्थितियों का आंकलन करने लगा था। जगदीश के द्वारा बतलाई गई बातें उसके दिमाग में टेप की तरह बजने लगी थी।
सुखी परिवार था उसका अपना। शहर से लगी हुई उनकी अपनी जमीन थी। अच्छी कास्त होती थी। उन दोनों के अलावा उनकी अपनी एक बेठी थी। बेटी सयानी हो चली थी। उन दोनों का एक ही सपना था। बेटी के हाथ पीले हो जाए। बड़े अरमानों से वे उसका लालन-पालन, पोशण करते थे। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब और कितने नामालूम ढंग से दुर्भाग्य उनका पीछा कर रहा है।
शहर अपना आकार बढ़ा रहा था। जमीन के दाम आसमान छू रहे थे। एक बिल्डर गिद्ध की तरह उनके सुखों पर झपट्टा मारने के लिए अपने पर तौल रहा था। वह मुँह-माँगी कीमत देने को तैयार था लेकिन वे अपनी जमीन बेचना ही नहीं चाहते थे। बिल्डर अब नीचता पर उतर आया था। कभी वह खड़ी फसलों में आग लगवा देता, तो कभी उन पर हमला करवा देता। वह जब नहीं माना तो उसकी बेटी अगवा करा दी गयी। पति इतने दारूण दुःख नहीं झेल पाया और एक दिन... वह दुनिया से ही रूखसत हो गया। वह खून के आँसू बहाती, गुहार लगाती लेकिन कौन सुनने वाला था? किसको इतनी फुरसत थी। बिल्डर ने मुखौटा लगा रखा था। एक तरफ वह उसका हितैषी दिखायी देता तो दूसरी तरफ कुचक्र चलाता रहता था।
धोके से कागजों पर लगाए गए अॅंगूठे के निशानों की वजह से वह बेघर करा दी गई। उसने कई बार आत्महत्या तक का प्रयास किया लेकिन उसे जीना था हर हाल में, दुःख उठाते रहने के लिए।
वह और ज्यादा सुन नहीं पाया था। उसने जगदीश से बात बदल देने की प्रार्थना भी की थी। जगदीश ने उसे यह भी बतलाया था कि यदि वह मकान बदली नहीं करता, तो शायद ही वह उसे काम से बंद करता। जिस जगह उसका अपना मकान है, वह काफी दूर है और वह इतनी दूरी तय नहीं कर सकती थी। दोनों की अपनी मजबूरियाँ थी।
वर्तमान में लौटते हुए उसने, उस अधेड़ महिला की ओर देखा। चेहरा भाव-शून्य व सपाट था। वक्त की मकड़ी ने, उसके चेहरे पर सघन जाले चुन दिए थे। उसकी आँखें अंदर तक धॅंसी हुई थी।
उसकी दुर्दशा देख हरीश के दिल और दिमाग में दूर-दूर तक दुःख का एक समन्दर फैलता चला गया और उसकी भयानक चीख चारों तरफ गूंजने लगी थी। घबराकर उसने अपनी नजरें, उसके चेहरे परसे हटा ली।
वह उठ खड़ा हुआ। किचन में गया। फ्रिज खोला और एक लोटा पानी गटागट पी गया। पानी के कुछ छींटे चेहरे पर मारे। ऐसा करते हुए उसे कुछ राहत सी मिलने लगी थी।
लौटकर उसने अपनी पेंट की जेब से कुछ रूपये निकाले और उसकी झुर्रियों से भरी हथेली पर रखते हुए कहा- ये कुछ पैसे हैं, इन्हें रख लो। सबसे पहले अपने लिए नयी चप्पलें खरीदना और दो साड़ियाँ भी और कल से काम पर आ जानाश् वह इतना ही बोल पाया था।
पैसों को उसकी हथेली पर रखते हुए, उसने गौर से देखा था। उसकी हथेलियाँ कॉंप गई थी। शायद प्रसन्नता की कोई किरण फूटी थी उसके भीतर। ढेरों सारे आशीश देते हुए वह उठ खड़ी हुई। उसे सुनते हुए ऐसा लगा कि उसके कलेजे के कोटर में बैठा कोई नन्हा परिंदा चहका हो। तार-तार हो आयी साड़ी के पल्लू से आँसुओं को पोंछते हुए उसके हाथ जुड़ आये थे और अब वह बाहर निकल गई थी।
हरीश की आँखें, उसका पीछा कर रही थी लगातार। वह सीढियाँ उतर रही थी। गेट पार कर वह अपने घर की ओर बढ़ चली थी। उसने एक बार पीछे पलटकर देखा। उसकी पनियानी आँखों में आशा के सैकड़ों दीप झिलमिलाते दिख रहे थे।
दूसरे दिन वह ठीक समय अपने काम पर आ गयी, उसके पैरों में नयी चप्पलें थी और उसने नयी साड़ी भी पहन रखी थी। उसकी उदास आँखों में अब झिलमिल मुस्कुराहट थी।
चौके में कोई खास सामान तो था नहीं। जो था वह एक अकेले आदमी के लिए पर्याप्त था। गैस-स्टोव्ह पर उबले हुए दूध, चाय की मोटी परतें जमी थी, जो सूख कर बदरंग हो गई थी। जूठे बर्तन सिंक में बेतरतीब पड़े थे और फर्श पर सिगरेट के जले-अधजले चुट्टे बिखरे पड़े थे। चौका देखकर वह मुस्कुराए बगैर न रह सकी थी।
वह काम में जुट गई। हरीश अपने कमरे में आ गया। उसका मन अब किताबों से जुड़ नहीं पा रहा था। शायद उसका मन कॉंटों में उलझ गया था। उलझन इस बात को लेकर थी कि वह उसे किस नाम से बुलाए। बाई कहकर वह एक महिला जाति की बेइज्जती नहीं करना चाहता था। उसे हर हाल में एक महिला के सम्मान की रक्षा करना था।
उसकी कद-काठी देखकर उसे अपनी माँ की याद हो आयी। माँ के उम्र की तो होगी वह भी। यही कोई चालीस-पैंतालीस के आसपास की। सोचते हुए उसने निर्णय ले लिया था कि वह उसे अम्माजी कहकर ही पुकारेगा।
ऐसा निर्णय लीते हुए उसे प्रसन्नता का अनुभव हुआ था, प्रसन्न बदन वह किचन में आया। देखा, सारी चीजें करीने से जमा दी गई थी, फर्श चमचमा रहा था।
उसे संबोधित करते हुए उसने कहा अम्माजी... खाना दो लोगों के लिए बनेगा, आप भी यहाँ भोजन कर लिया करना।
सुनते ही उसकी आँखों की कोर भींग आयी थी। उसने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था। शायद वह अपने बहते आँसू उसे नहीं दिखाना चाहती थी। खुशी के आँसू थे वे, जिन्हें वह पोंछना नहीं चाहती थी।
ज्यादा देर तक वह, वहाँ खड़ा नहीं रह सका था।
दिन पर दिन और इस तरह पूरा साल किस तरह बीत गया, पता ही नहीं चल पाया। जब वह टेलीफोन पर बातें करता, अपनी माँ और बाबूजी से, उसके बारे में बतलाता जरूर। उसका मित्र जगदीश भी प्रसन्न हुआ था, यह देखकर कि उसका खोया हुआ स्वास्थ्य लौट आया है।
एक दिन माँ-बाबूजी, सुनीता और कनिष्क को साथ लेकर चले आए। कनिष्क पूरा एक साल का हो गया था। वह अब शरारतें भी करने लगा था। कनिष्क को पाकर वह भी खिल सी उठी थी। एक मधुर संगीत सा बजने लगा था उसके भीतर। घर के सारे काम निपटाकर वह कनिष्क के संग हो लेती। उसकी शरारतों में रस लेती। कभी झूठी डॉंट भी पिलाती। अपने सीने से लिपटा लेती। कनिष्क भी खुश था। वह भी खुश थी। एक मौसम खिल उठा था उसके भीतर। रूठे हुए परिन्दे लौट-लौटकर आने लगे थे। उसके चेहरे का रेशा-रेशा मखमली हो उठा था और प्राणों में मीठी सी गंध भर गयी थी।
सुनीता के पौ-बारह हो गए थे। आराम के बहाने वह पलंग तोड़ते रहती।
पन्द्रह-बीस दिन रहकर माँ और बाबूजी गाँव लौट गए। बार-बार के आग्रह के बावजूद, वे अब एक दिन भी ज्यादा ठहर जाने भी तैयार नहीं थे। उन्हें अपने खेतों की चिंता सताने लगी थी। यह वह समय था जब खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करना होता है और वे इस समय को खोना नहीं चाहते थे।
मौसम कभी एक सा नहीं रहता। एक बदलाव आ रहा था चुपके-चुपके हमारे अपने घर में। एक मनहूस क्षण, बिल्ली की तरह दबे पाँवों से चलता हुआ, कब हमारे घर के भीतर घुस आया, पता ही नहीं चला। छोटी-छोटी खुशियों के तिनकों को जोड़-जोड़कर बनाया गया घोंसला, उसकी उछाल में, जमीन पर आ गिरा। घोंसले में दुबके पखेरू, चिंचियाते हुए, फुर्र से दूर जा उड़े।
पखेरूओं की चहचहाट की जगह अब कर्कश स्वरों ने ले ली थी। घर, एक अच्छे खासे हंगामों से भर उठा था।
कनिष्क के गले की सोने की चैन, कहीं ढूढे नहीं मिल रही थी। आरोपों की जद में अम्माजी थी। वह भयभीत हिरणी की तरह कॉंप रही थी और सुनीता, सिंहनी सी गरज रही थी। एक गहरी सांझ उसके मन में उतर आयी थी। उसके मन के आँगन में, चिड़ियों की चहचहाट की जगह, अब उल्लुओं की भयानक चीखों ने जगहें बना ली थी। उसके इंकार करते रहने के बावजूद, सुनीता उससे इकरार करवाना चाहती थी। उसके चेहरे पर एक नीला अवसाद फैलने लगा था। उसका धीरज नाम का पर्वत दरक गया था। उसके भीतर से एक आँधी गुजर रही थी, जिसने आशाओं के झिलमिलाते दीपों से रोशनी छीन ली थी।
उसकी आँखों की झील में इतना पानी बचा ही कहाँ था। कितना ही पानी तो उसने अपनी प्यारी बच्ची के गम में तथा पति के असमय मौत में रो-रोकर बहाया था। वह विक्षिप्त सी मौन खड़ी आरोपों को झेल रही थी।
अपने बचाव में, उसके पास शब्द नहीं थे। वह केवल इनकार की मुद्रा में अपने हाथ हिलाती रही थी। बेगुनाह होने का इससे बड़ा और क्या सबूत हो सकता था, लेकिन सुनीता समझ पाती, तब न!
वह एक ही रट लगाये हुए थी। श्कनिष्क पूरे दिन तो तुम्हारी गोद में चढ़ा रहता है। तुम्हें चेन का पता होना चाहिए। जब तुमने नहीं निकाली तो क्या धरती खा गयी या आसमान ने निगल लिया। वह बार-बार थाने में रपट दर्ज कराने को कहती।
वह जितनी भी समझाईशें देता, सब व्यर्थ जातीं, उसकी क्रोधाग्नि की लपटें, उतनी ही विकराल हो उठती।
उसने पुनः समझाते हुए कहा श्सुनीता... बंद करो अपनी बकवास। किसी पर आरोप जड़ने से पहले, ठंडे दिमाग से सोचो। घर का कोना-कोना छान मारो। हो सकता है, यहीं कहीं पड़ी होगी। अरे... जिसने जिन्दगी भर धोके खाये हों, वह भला किसी को क्या धोका दे सकता है।
सुनीता अब उसके साथ वाक-युद्ध पर उतर आयी थी। पूरा घर युद्ध-भूमि में तब्दील हो चुका था।
युद्ध की परिणति हमेशा से ही त्रासद और भयावह होती है, चाहे वह जिस भी पृष्ठभूमि पर लड़ा गया हो। युद्ध के बाद की शांति किस तरह की होती है, कृष्ण और युद्धिष्ठिर से अच्छा भला कौन जान सकता है।
सुनीता समझाए नहीं समझ रही थी। बातें निष्प्रभावी हो रही थी। उसका गुस्सा अब सातवें आसमान पर था। उसने दो-चार चॉंटें उसके गाल पर जड़ दिये थे।
गुस्सायी सुनीता ने सूटकेस पैक किया और शाम की ट्रेन से घर लौट गई। नन्हा कनिष्क भौंचक्का देख रहा था सब कुछ। उसमें इतनी समझ और सामर्थ्य कहाँ था कि वह अपनी माँ को रोक पाता।
सुनीता जा चुकी थी, फिर निकट भविय में लौट आने के लिए, लेकिन वह जा चुकी थी, फिर कभी न लौटने के लिए।
कहाँ-कहाँ नहीं ढूढा उसने उसे। चिलचिलाती धूप और उमस भरे माहौल में वह बदहवास भटकता रहा था लेकिन वह नहीं मिली, तो फिर नहीं मिली।
उसे अब हर हाल में थाने में रपट दर्ज करवाना ही था। उसके अपने मोबाईल में कनिष्क के साथ वाली कई तस्वीरें कैद थी। एक गुमशुदा को तलाशने के लिए, फोटो सहायक सिद्ध हो सकती थी।
शाम घिर आयी थी। अपने काँधों पर गहरी उदासी का लबादा डाले वह लौट रहा था और बेपर आवाजें उसका पीछा कर रही थी लगातार।