बेबकूफी का झण्डा / सुधा भार्गव
एक राजा था। उसके राज्य में आए दिन चोरियाँ होने लगीं। चोरों को पकड़ने के लिए जगह–जगह सैनिक तैनात थे मगर वे उनकी आँखों में धूल झोंक कर भाग जाते। जब राजा ने सुना कि वे उन्हें नहीं पकड़ पा रहे हैं तो उनको सबक सीखने के लिए खुद ही अपने मंत्री और सैनिकों के साथ निकल पड़ा।
उस समय आकाश काले बादलों से ढका हुआ था और पानी बरसना शुरू हो गया। ज़्यादा वर्षा होने से उसने रास्ते में कुछ देर के लिए अपने बाग में रुकना ठीक समझा। घोड़े भी भूखे प्यासे थे इसलिए उनके सामने तसले में भीगे चने मटर डाल दिये गए.
बाग के पेड़ों पर बहुत से बंदर बैठे थे। उनमें से एक बंदर मटर के दानों पर टूट पड़ा। उसने अपने मुंह में ठूंस-ठूंस कर मटर भर लिए और मुट्ठियाँ भी दानों से भर लीं। लपककर पेड़ पर चढ़ा और आराम से दाने खाने लगा। खाते समय एक दाना जमीन पर गिर पड़ा। इससे वह बड़ा दुखी हुआ। हाथ के सारे मटर वहीं छोड़ पेड़ से नीचे उतर आया और उस मटर को ढूँढने लगा। जब नहीं मिला तो रूआँसा-सा पेड़ पर जाकर बैठ गया।
राजा हैरत से बोला-अरे बंदर यह तूने क्या किया। एक मटर के पीछे मुट्ठी भरे दानों को गंवा दिया! -महाराज, बेवकूफ से बात करना बेकार है। इस जैसे थोड़े से लालच के लिए बहुत कुछ खोने को तैयार हो जाते हैं। बेवकूफी का झण्डा तो आप भी गाड़ने चल दिए हैं! -क्या कहा! मैं बेवकूफ? -हाँ महाराज! आप भी बिना सोचे-समझे असमय चोरों को सबक सिखाने निकल पड़े हैं। मूसलाधार वर्षा होने से रास्ते कीचड़ से भर गए हैं, नालों में बाढ़-सी आ गई है। ऐसे तूफानी मौसम में आप चोरों तक तो नहीं पहुँच पाएंगे पर आपकी सेना और घोड़ों की जो दुर्गति होगी वह आप पर बहुत भारी पड़ेगी।
राजा अपने शुभ चिंतक मंत्री की बात टाल न सका और उसने लौटने में ही अपनी भलाई समझी।