बेबिकॉर्न / गरिमा संजय दुबे
"चल न बेबिकॉर्न खाते है" मेरी सहेली ने पास के होटल की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
"मुझे नहीं खाना" , मैंने अनमने ढंग से कहा।
"क्यों तुझे तो भूट्टे बहूत पसंद है" , वह आश्चर्य से मेरी तरफ़ देख कर बोली।
"हाँ पर बेबिकॉर्न नहीं" , मैंने उसी भाव से जवाब दिया।
पता नहीं क्यूँ मुझे छोटे-छोटे नन्हे नन्हे बेबिकॉर्न को कढाई में तलते, भूने जाते देखना एक अजीब से भाव से भर देता है। मुझे लगता है मानो किसी को पूरा परिपक्व हुए बिना, शाखों से उतार कर उसकी कोमलता को नेसर्गिकता को अपने स्वार्थ के लिए भट्टी में झोंक दिया गया हो। तभी एक स्कूल बस के हॉर्न से मेरी तन्द्रा टूटी, देखा सब बच्चों की मम्मा उन्हें लेने आईं है। वापस जाते-जाते अमूमन सबके एक जैसे सम्मिलित वार्तालाप के स्वर मेरे कानो में पड़े, " जल्दी चलो ट्यूशन भी जाना है ..., फिर म्यूजिक क्लास भी जाना है ...आ कर ट्यूशन और स्कूल का होमवर्क भी करना है ...तुम्हारे योगा क्लास के टीचर भी शिकायत कर रहे थे। ठीक से चलो... और ये क्या...! खाना कपड़ो पर कैसे गिरा? कुछ भी एटीकेट मैनर्स नहीं है । इस बार फर्स्ट रैंक आनी चाहिए ...अच्छे से ध्यान से सब करना चाहिए ...क्रिकेट किट भी पापा ले आये है । अगली बार एक्टिविटी में डांस भी ले लेना। सारे बच्चे सर झुकाए सब सुनते जा रहे थे।
उफ़, अचानक मुझे ये क्या हुआ! सारे बच्चे मुझे बेबिकॉर्न क्यों नज़र आने लगे? बचपन की शाखों से वक़्त से पहले तोड़ लिए गए, महत्त्वाकांक्षा के तेल में तलते हुए ...जीवन की भट्टी में झोंक दिए गए नन्हे नन्हे, कोमल, मासूम बेबिकॉर्न।