बेबी: गीतविहीन विशुद्ध थ्रिलर / जयप्रकाश चौकसे

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बेबी: गीतविहीन विशुद्ध थ्रिलर
प्रकाशन तिथि :23 जनवरी 2015


बेबी अबोध बच्ची के लिए अंग्रेजी भाषा का शब्द है परंतु 'अ वेडनसडे' जैसी सार्थक फिल्म बनाने वाले नीरज पांडे ने मासूमियत का कत्ल करने वाले आतंकवादियों को उन्हीं की हिंसा में जबाव देने वाले सरकारी गुप्त संगठन का नाम 'बेबी' रखा है। सभी देशों के गुप्तचर विभाग अपने देश की नीतियों के अनुरूप आचरण करते हैं आैर अपने देश के सत्ता शिखर पर विराजे मनुष्य की विचार प्रणाली से संचालित होते हैं। मसलन अमेरिका की एफ.बी.आई, फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन का आचरण लिंकन के जमाने आैर निक्सन के जमाने में अलग-अलग था। फिल्मकार ऑलिवर स्टोन ने तो जॉन एफ कैनेडी की हत्या में एफ.बी.आई के शामिल होने का संकेत किया है अपनी फिल्म 'जे.एफ.के' में। स्टॉलिन के जमाने में गुप्तचर संस्था 'के.जी.बी' विदेशी गुप्तचरों से अधिक निगरानी अपने देश के नागरिकों की करता था। हजारों मासूम लोग मिथ्या शंका के आधार पर साइबेरिया भेज दिए गए थे। इसी तरह इजराइल की गुप्तचर संस्था अपने देश के निर्माण के अनुरूप आचरण करती रही है। बाइबिल के आधार पर हजारों वर्षों से इस्लाम को मानने वालों की जमीन पर उन्हें खदेड़ कर इजराइल की रचना हुई जिसके विरोध में आधुनिक काल खंड के मुस्लिम आतंकवाद का जन्म हुआ। उसके पूर्व कोई दो सौ साल तक अन्य मुल्कों को हड़पने के हुकूमते बरतानिया का काम भी आतंकवाद का एक रूप माना जा सकता है। इंदिरा गांधी ने 'रॉ' की स्थापना की थी जिसके अघोषित सदस्य कुछ विदेशों में स्थापित बैंक इत्यादि संस्थाआें के सदस्य भी थे आैर इस तरह की दोहरी भूमिका से इनकार करने वाले अनेक लोगों ने त्याग-पत्र दिए थे। बहरहाल निर्देशक नीरज पांडे ने आज के दौर की भीतरी भावना का प्रतिनिधित्व करने वाली गुप्तचर संस्था 'बेबी' की कल्पना की है।

बहरहाल हमारे सिनेमा के राष्ट्रप्रेम फॉर्मूले में हिंसक गुप्तचर संस्था अनिवार्य अंग है। तीव्र राष्ट्रवाद अंततोगत्वा राष्ट्र की हानि भी कर सकता है। हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में रवींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गांधी को पत्र लिखे थे जिनका आशय था कि आजादी के लिए राष्ट्रवाद का अलख जगाना पवित्र कार्य है परंतु इसकी तीव्रता इसे संकुचित धारा में बदल कर सामान्य तर्क की तिलांजलि का प्रारंभ हो सकता है।

बहरहाल नीरज पांडे ने हॉलीवुड शैली में एक थ्रिलर बनाया है जो अपनी श्रेणी के प्रति इस कदर समर्पित है कि इसमें केवल आधा गाना है आैर उस प्रेम-गीत में भी कुछ इस तरह की बात है कि 'मैं तुझे प्यार नहीं करता, पर कोई शाम तुम्हारे इंतजार बिना नहीं जाती।' कोई कॉमेडी ट्रैक या पारिवारिकता इत्यादि फॉर्मूलों को छुआ भी नहीं गया है, उन्होंने एकनिष्ठता से तनावपूर्ण थ्रिलर रचा है। वे इस दो घंटे चालीस मिनिट की फिल्म के अंतिम 40 मिनिट में भारी तनाव उत्सुकता रचने में सफल हुए हैं। घटनाक्रम कमोबेश सनी देओल अभिनीत 'गदर' वाला ही है परंतु उसका नायक अपनी प्रेमिका विदेश से लाता है जबकि इस फिल्म में नायक एक खूंखार आतंकवादी को जीवित पकड़कर ले आता है जैसे ऋषिकपूर अभिनीत फिल्म 'डी डे' में दाऊद को लाने का उपक्रम दिखाया गया था। इस फिल्म में नेपाल से उठाकर लाए आतंकवादी का बयान गौरतलब है। वह कहता है कि वह तो व्यापारी है आैर आतंकवादियों के लिए उसके मार्फत आए धन को भारत भेजता है तथा आतंकवादियों की सूचना का व्यापार अपने नफे के लिए करता है तथा उसकी कोई राजनैतिक या धार्मिक विचारधारा नहीं है, वह महज व्यापार है जिसके बहाने ड्रग्स तथा टेक्नोलॉजी की अंतरराष्ट्रीय अफरा-तफरी की जाती है।

एक आैर अन्य महत्वपूर्ण बात का मात्र हल्का सा संकेत दिया है जबकि उसका पूरा विवरण दिया जा सकता है आैर यह है कि भारत में बसे मुसलमान जब तक शंका के आधार पर सताये जाएंगे तब तक उनमें से कुछ लोग बाहरी आतंकवादियों के लिए काम करेंगे। हम स्वयं ही अपना 'फिफ्थ कॉलम' जाने अनजाने रच रहे हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि एक युवा गरीब परंतु प्रतिभाशाली छात्र पुलिस को बताता है कि किस तरह तालीम में मदद के बहाने उसके इस्तेमाल का षड्यंत्र रचा गया आैर वह अपने पिता की प्रेरणा से सच्चे नागरिक की तरह सारी बात पुलिस को बताने आया है। पूरे दृश्य में उस युवा की आत्मा का कंपन स्पष्ट नजर आता है। इस युवा अभिनेता को अच्छे रोल मिल सकते हैं। इसी तरह तापसी ने छोटी सी भूमिका में खूब प्रभावित किया है आैर मुख्य खलनायक की भूमिा में पाकिस्तान के अभिनेता ने कमाल किया है जिसे हम शोएब मंसूर की फिल्म में देख चुके हैं। यह खुशी की बात है कि दोनों देश के कलाकार तो साथ काम करने लगे हैं। 'द शौकीन्स' के अपराध बोध से मुक्त होने के प्रयास में अक्षय कुमार ने बढ़िया काम किया है।