बेबी निर्दोष है / कुबेर
बेबी रोज देर रात तक बिस्तर पर करवटें बदलती रहती हैं। हाथ में कभी फिल्मी पत्रिका लिए, कभी बाजारू उपन्यास लिए तो कभी मनोहर कहानियाँ या सत्यकथा की प्रतियाँ लिए। इसी क्रम में न जाने कब उसकी आँखें लग जाती हैं। टी. व्ही. की देर रात वाली फीचर फिल्मों का उसे बड़ा सहारा रहता है। टी. व्ही. हो या टेपरिकार्डर, वाल्यूम कंट्रोल इता खुला रहता है कि पास वाले, डैडी के कमरे से छनकर आने वाली आवाजें उसमें घुलमिलकर गडमड हो जाय। पाठयक्रम की किताबों से उसे परहेज है। इस वर्ष दसवी बोर्ड की परीक्षा है, पर उसके पास न तो पढ़ने का समय है और न ही पढ़ने की मनःस्थिति। समय तो उसके पास काफी होता है, पर उसकी अपनी कुछ समस्याएँ हैं, उलझने हैं और मन में चलने वाली अंतर्द्वंद्वों की श्रृँखलाबद्ध कड़ियाँ हैं, जो न तो उसे पढ़ने देती हैं और न ही सोने। प्रातः जब वह सोकर उठती है तो उसके पास केवल इतना ही समय होता है कि वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो सके। डैडी ऑफिस जा चुके होते हैं। नौकरानी नास्ते और भोजन की तैयारियों में व्यस्त होती हैं। यही बेबी का नित्य का क्रम है।
बेबी को समय ने असमय ही समझदार बना दिया है। जबसे वह समझने लायक हुई है, न जाने कितनी नौकरानियाँ बदली है, उसे स्मरण नहीं है। शायद उतनी, जितनी बार डैडी का स्थानांतरण हुआ है। हर बार नया शहर, नया बंगला और नई नौकरानी; सब कुछ अलग होते हुए भी परिस्थितियाँ एक जैसी। सभी नौकरानियों के चेहरे एक से, काम एक से; आखिर औरतें ही तो होती हैं सभी। बेबी को सिर्फ दुलारो का स्मरण है। आज तक की नौकरानियों में से वह केवल दुलारो को ही जानती है। उसके लिए सभी नौकरानियाँ दुलारो ही है। दुलारो जिसके रहते उसने होश संभाला है।
अभी घर में जो नौकरानी है, उसकी अवस्था बेबी से कुछ ही अधिक होगी। घर का काम करने के लिए, बाजार से सब्जी लाने के लिए और अन्य कामों के लिए एक-दो जवान रोज समय पर आते हैं और अपनी ड्यूटी पूरी कर लौट जाते हैं। रायफलधारी जवान पूरी वर्दी में बाहरी गेट पर हमेशा पहरे पर होते हैं। हर चार घ्ंटे बाद वे अपनी पारी बदल लिया करते हैं। ठीक दस बजे प्रदेश पुलिस की गाड़ी बंगले पर उपस्थित हो जाती है, बेबी को स्कूल छोड़ने के लिए। सही समय पर स्कूल से घर के लिए फिर एक गाड़ी। गेट पर तैनात राइफलधारी संतरी, बाजार से सब्जी खरीदकर लाने वाला पुलिस का सिपाही, और सबेरे-सबेरे जर्सी गाय को दूहने वाला नगर सैनिक का जवान, सब का नाम एक ही था, जवान। सभी खाकी वर्दीधारी, जो इस बंगले से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंद्ध होते हैं, सबका नाम एक ही होता है, जवान। डैडी अपवाद हैं; सारे जवानों के बॉस जो हैं वे।
रातें बेबी के लिए ढेर सारी समस्याएँ लेकर आती हैं। कितना अच्छा होता कि रात कभी होती ही नहीं। पहले, बचपन में वह दिनभर रात होने की प्रतीक्षा किया करती थी। उसे अभी भी याद है, दिनभर वह आँगन में गौरैया की तरह चहकती-फुदकती रहती थी। आँखें डैडी के लौटने की बाट जोहती रहती थी, और कभी डैडी डयूटी पर से अचानक लौट आते तो वह गोद में जाने के लिए मचल उठती। तब डैडी मम्मी पर व्यंग्य करते हुए कहते - “देखा मिसेज कप्तान, हमारी रानी बिटिया सबसे ज्यादा हमें प्यार करती हैं।”
“बेटी हमारी जो है।” मम्मी कहती और घर ठहाकों से गूँज उठता। बेबी तुतलाते हुए डैडी से प्रामिस करवाती - “डैडी! आप रात को जल्दी घर आयेंगे न? आज मैं आप से परियों वाली कहानी सुनुँगी।”
“अरी बिटिया! बस यूँ गया और यूँ आया।” कहकर डैडी उनके गालों की चुम्मी लेकर उन्हें प्यार करते और फिर अपने काम में व्यस्त हो जाते या अपनी डयूटी पर वापस चले जाते।
मम्मी रात में उन्हें ढेर सारी कहानियाँ सुनातीं। परियों की, जिनके पंख होते और जो उड़कर पलभर में कहीं भी जा सकती थी, गायब हो सकती थी, तरह-तरह के जादू कर सकती थी। जलपरियों की, जिनके मछली के समान पंख होते औ जो पानी में इस तरह अटखेलियाँ करती कि बेबी बस आह भरकर रह जाती। वह सोचती - ’भगवान ने उनके पंख क्यों नहीं बनाये? कितना मजा आता, यदि उनके भी पंख होते।’ और राजकुमारियों की कहानियाँ, जिनके शरीर फूलों की तरह होते; बेहद कोमल, बेहद नाजुक और बेहद सुदर; जिनके बाल सोने के, और दांत मोतियों के होते; और जब वे हँसती तो जैसे वीणा के तारों की झन्कार से उठने वाली सुमधुर संगीत चारों और बिखर जाती। पर हाय! बेचारियाँ! राक्षस उनका पीछा करना कभी नहीं छोड़ते। राक्षस; जिनके बड़े-बड़े गंदे बाल होते, पीले-पीले नुकीले बड़े-बड़े बेडौल दांत होते, और जिनके बड़े-बड़े नुकीले नाखूनों में ढेर सारे मैल भरे होते। देखने में भयंकर डरावने, काले-कलूटे। परियों और राजकुमारियों पर बेबी को काफी गुस्सा आता। आखिर वे इन राक्षसों का मुकाबला क्यों नहीं करती? इसलिए कि राक्षस मायावी और जादूगर होते हैं? चाहे जो हों, उनकी जगह यदि वे होती तो सबको डैडी के पिस्तौल से सूट कर देती - ’ढिसिम, ढिसिम, ठाँय, ठाँय।’ पर वे बेचारी ऐसा भी तो नहीं कर सकतीं। उन्हें पिस्तौल चलाना कहाँ आता होगा? अरे वह देखो, सरपट घोड़े पर आता हुआ राजकुमार। एक हाथ में घोड़े का लगाम और दूसरे हाथ में चमकता हुआ तलवार। चौंड़ी छाती मजबूत कंधा, ऊँचा कद, कसी हुई पेशियाँ; तलवार ऐसे चले जैसे कि बिजलियाँ चमक रही हों। और एक ही वार में राक्षसों का सिर धड़ से अलग। उसने राजकुमारी को बचा लिया। ’पर छी!’ बेबी सोचती - ’राजकुमारियाँ कितनी नाजुक होती हैं। वह उनके समान नाजुक नहीं है। उसे अपनी रक्षा करना खुद आता है। उसे किसी राजकुमार की जरूरत नहीं है।’
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पर बेबी अब समझने लगी है। वह जान चुकी है कि परियों वाली सारी कहानियाँ मनगढंत होती हैं। न अब उसे ऐसी कहानियों में मजा आता है और न अब वह ऐसी कहानियों के लिए मम्मी से जिद ही करती है। स्वप्नलोक की जादूभरी, कल्पना भरी रातों का सिलसिला अब खत्म हो चुका है। रातों की यथार्थता के बारे में अब वह कुछ-कुछ जानने लगी हैं।
उस रात मम्मी को बिस्तर पर न पाकर बेबी चीख उठी थी। घुप अंधेरा और रहस्यमयी खुसुर-फुसुर की आवाजों से वह डर के मारे कांप गई थी। पर तभी न जाने कहाँ से आकर मम्मी ने उसे संभाल लिया था। फिर तो ऐसा रोज होने लगा था। कुछ दिनों की पुनरावृत्ति के बाद बेबी इस घटना का अभ्यस्त हो गई थी। अब वह चीखती नहीं थी, सांस थामकर मम्मी के आने की प्रतीक्षा किया करती थी। वह समझ चुकी थी कि रहस्यमयी खुसुर-फुसुर की ये आवाजें मम्मी और डैडी की ही आवाजें हुआ करती हैं। उन्होंने सोचा, ’पर मम्मी रात में डैडी के बिस्तर पर जाती ही क्यों हैं? ऐसी विचित्र आवाजें वे क्यों निकाला करते हैं? बेबी के लिए ये सारे प्रश्न पहेली बने हुए थे। इस पहेली को बूझना अब जरूरी है। अब तो सोने का स्वांग बनाकर वह इस घटना की प्रतीक्षा किया करती।और अंततः एक दिन उसने निष्कर्ष निकाला - ’मम्मी और डैडी रात में प्यार करते हैं।’
बेबी की रातें अब तो अनगिनत जिज्ञासाओं से भरी रहने लगीं। ऐसी कई रातें एक के बाद एक बीतती चली गईं।
एक दिन अचानक मम्मी की तबीयत खराब हो गई। उनके लाख मना करने पर भी डैडी उन्हें अस्पताल में भर्ती करा आये। उस दिन वह बहुत उदास हुई, बहुत रोई। मम्मी और डैडी के बीच हुई तीखी विवाद का उसे स्मरण होने लगा। मम्मी कह रही थी कि उसे कुछ नहीं हुआ है, हल्का सा बुखार ही तो हुआ है। पर डैडी नहीं माने।
शाम को रोते-रोते बेबी ने डैडी से पूछा - “डैडी
! डैडी! मम्मी ठीक होकर जल्दी आ जायेगी न?”
“हाँ! और ये कैसी सूरत बना रखी है। गिव अप द डलनेस। बंद करो रोना। दूध पीती बच्ची है?” डैडी के जवाब में रूखापन ही नहीं निर्दयता का भाव भी था। उस समय तो वह चुप हो गई थी, पर डैडी के जाने के बाद वह घंटों रोती रही थी। पर दुलारो! दुलारो थी, माँ नहीं थी। उसके पास वह ममता कहाँ?
बेबी को उस दिन मालूम हुआ कि दिन कितना लंबा खिंच जाया करता है, रबर की तरह। रात वह डायनिंग टेबल पर बैठी जरूर थी, पर सारा ध्यान हॉस्पिटल की ओर लगा रहा, एक कौर भी खाया न गया।
डैडी ने दुलारो को आदेश देते हुए कहा - “दुलारो! बेबी को खाना खिलाओ। और हाँ! आज रात तुम घर नहीं जाओगी। बेबी के साथ ही रहोगी।”
“लेकिन साहब .....” दुलारो ने सहमते हुए कुछ कहना चाहा, परंतु डैडी की धमकी से उसकी आवाज हलक से बाहर नहीं आ पाया। डैडी ने कहा - “लेकिन की बच्ची, देखती नहीं बेबी की हालत। तुम्हारे घर खबर भेज दी गई है। तुम आज रात घर नहीं जाओगी।” डैडी की आखें जल रही थी और चेहरा जैसे पत्थर का हो रहा था। आवाज में कठोरता भी था और क्रूरता भी। वे बाहर चले गये। “क्या यह रूप डैडी का हो सकता है?” बेबी मन ही मन कुढ़ती रही। जी में आया, कह दे, उसे दुलारो की जरूरत नहीं है; मम्मी और डैडी की जरूरत है। पर उसका सहमा हुआ बाल-मन कुछ न कह सका। उस रात दुलारो घर न जा सकी। बंगले के सभी दरवाजे लॉक कर दिये गये थे। आज गेट पर रायफलधारी संतरी अधिक मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहा था।
बेबी बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचती रही; क्या दुलारो के बच्चे भी इसी तरह माँ के न लौटने पर उदास हो रहे होंगे? और सोचते-सोचते न जाने कब उसकी नींद लग गई।
रात अचानक बेबी सोते से चौक कर उठ बैठी। ’यह शोर कैसी? रोने गिड़गिड़ाने की आवाजें कैसी? कमरे के सामानों का एक-एककर गिरने की आवाजें कैसी?’
उफ् दुलारो .........?
“डैडी क्या दुलारो से प्यार कर रहे हैं? क्या वे ऐसा भी कर सकते हैं? छी, छी! डैडी क्या इतने गंदे हैं?”
बेबी की इच्छा हुई; उठकर जोर-जोर से चीखे, चिल्लाये, दरवाजों को पीटे। चौकीदार न जाने कहाँ मर गया था। लेकिन दूसरे ही क्षण सामने डैडी का दिन वाला वह डरावना-क्रूर चेहरा आ खड़ा हुआ। उसने स्वीच की ओर बढ़ रहे हाथ को खींच लिया। दोनों कानों को ऊंगलियों से बंद कर लिया।
उस रात उसनें कई बार डरावने सपने देखे। शरीर डर से कांपने लगता और पसीने से तर हो जाता। उसे आज यह भी पता चला कि रात न सिफ खिंचकर बड़ा हो जाया करता है, निविड़ अंधकार में गुम पहाड़ की भयानक गुफाओं में भी रूपान्तरित हो जाया करता है। गुफाएँ, जिनमें केवल भयंकर राक्षस और हिंस्र पशु ही रहा करते हैं। प्रातः दुलारो कहीं दिखाई नही दी। ’हाय! वह कितना बदनसीब है। दुलारो को सांत्वना भी नहीं दे पाई। किसी तरह दिन बीता। फिर रात आई। कल वाली घटना फिर दुहराई गई। और आने वाली कई रातों तक वही घटना दुहराई जाती रही।
जैसे वर्षों बाद मम्मी अस्पताल से वापस आई। दुलारो मम्मी के पैरों को पकड़कर रो रही थी। याचना कर रही थी कि वह उन्हें साहब से मुक्ति दिला दे। अब वह इस बंगले में काम करना नहीं चाहती।
रात मम्मी-डैडी में देर तक विवाद होता रहा। अंत में क्रूर डैडी ने मम्मी को बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। ओह! कितना भयानक दृश्य था।
और तभी से बेबी के अंदर की सारी कोमल भावनाओं का अंत हो गया था। परियों का स्वप्न लाने वाली, और ढेर सारी भोली कल्पनाएँ लेकर आने वाली सुंदर रातों का तिरोहन हो गया था। ’आने वाली रातें न जाने कैसी होगी?’
परिणाम हुआ, तलाक। मम्मी अलग हो गईं। यह पाँच साल पहले की बात है।
बेबी डैडी के साथ साल दर साल न जाने कितने शहरों में स्थानांतरित होती रही। न जाने कितने बंगले बदले, कितने जवान बदले, कितने संतरी बदले, कितनी दुलारो बदलीं। वह स्वयं भी बदल चुकी थी। नहीं बदली थी तो बस रातों का वह वीभत्स सूरत और बेबसी और अंतर्व्यथा से भरी हुई दुलारो। इस तरह की रातों के प्रति बेबी की सारी जिज्ञासाएँ अब शांत हो चुकी थी और इस तरह के रातों की वह अभ्यस्त हो चुकी थी।
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डैडी उस रात नहीं लौटे थे। किसी उच्चस्तरीय गोपनीय मिटिंग अटेन करने राजधानी गये हुए थे। घर में थे ढेर सारे जवानों का पहरा और थी एक दुलारो। गेट पर हमेशा की तरह था बिल्ली की सी घूरती आँखों वाला रायफलधारी जवान जिसके गेहुएँ चेहरे पर छायी घनी-काली मूछें उसे और भी अधिक खूँखार बना रहा था। नियत समयान्तराल के बाद दूसरा जवान उसकी जगह ले लेता। भूरी-भूरी आँखों वाला, हमेशा सहमा-सहमा रहने वाला वह जवान भी था जो बाजार से सब्जी आदि दैनिक जरूरत के सामान लाने के लिए तैनात किया गया था। और सुबह-शाम दूध दूहने के लिए तैनात वह जवान भी था जिसकी छवि न जाने क्यों रात-दिन बेबी की आँखों में समाया रहता। उफ्फ! कितना लंबा-तगड़ा है वह। गठा हुआ बदन, मचलती हुई पेशियाँ और गज भर चौड़ी छाती। वर्दी शरीर से चिपका हुआ। सांवले चेहरे पर भरे हुए गाल, चपटी नाक, यदाकदा मुहासे की कीलें, छोटे-छोटे घुँघराले बाल और काली-काली नशीली आँखें। वाह! किस फुर्ती से दूध निकालता है; एड़ियों के बल बैठकर और मुड़े हुए पैरों के घुटनों के बीच डेगची को दबाकर बड़ी चतुराई से संतुलन साधकर। थन से निकलने वाली दूध की पहली धार पड़ती है, छन...न और फिर दूसरी; और देखते ही देखते डेगची लबालब भर जाता है। दूध दूहने की आवाज सुनकर बेबी रोज बिस्तर से उठकर खिड़की पर आ जाती है। खिड़की पर का परदा हटाकर वह अपलक उस जवान को दूध दूहते हुए देखती खड़ी रहती है; बस खड़ी रहती है।
आज की रात डैडी के कमरे से न तो सिसकारियों की आवाजें आ रही थी और न ही चीखों की। आडियो सिस्टम का वाल्यूम तेज करने की आवश्यकता नहीं थी। पूरे बंगले पर शांतिमय खामोशी छाई हुई थी, लेकिन बेबी की आँखों में छाई हुई थी दूध दूहने वाले उस जवान की सूरत। बेबी की आँखों में नीद आ जाये, भला कैसे संभव था।
आखिर रात बीत ही गई। सुबह हुई। चिड़ियों के चहचहाने की आवाजें आने लगीं। सोने की सी किरणें खिड़कियों से छनकर कमरे के फर्स पर चमकने लगी। बेबी को इन सब बातों से कोई मतलब न था। उठकर वह बिस्तर पर बैठ गई। बदन में हल्का-हल्का दर्द हो रहा था। आखें जल रही थीं। सिर चकरा रहा था। शीशे के सामने खड़े होकर उसने खुद को निहारा। लंबे काले-काले केश कमर तक लहरा रहे थे। सिर को छटका देकर उसने बालों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। जूड़ा बनाया और फिर जोरों की अंगड़ाई ली। चेहरे का मेकअप जगह-जगह से बदरंग हो गया था जहाँ से झांकता हुआ उसका नैसर्गिक यौवन अपनी छटा बिखेरने को लालायित नजर आ रहा था। गाऊन खुला हुआ था। बेबी की निगाहे सीने पर अटक गई। अपने ही यौवन की मादकता को निहारकर उसके होठों पर लज्जाजनित स्मिति फैल गई। शरीर का सारा रक्त मानों चेहरे पर दौड़ने लगी थी और चेहरे पर प्राची की सी लालिमा फैल गई थी। वह शरामती हुई टॉयलेट की तरफ चली गई।
नौकरानी का कमरा भीतर से बंद था। वह किचन के सामने गैलरी में में आकर दीवार से टिककर खड़ी हो गई। वहाँ से वह बाहर का पूरा दृश्य देख सकती थी। चारदीवारी के बाहर दुनिया अपने ढर्रे पर दौड़ने लगी थी। खूँटे से बंधी गाय रह रहकर रंभा रही थी। दूध दूहने वाला जवान डेगची लेकर उसी ओर जा रहा था। बेबी की आँखों में सपने थे। सपने में वह जवान को दूध निकालते हुए देख रही थी। वह सपने लाने वाली रातों के रहस्य के बारे में सोच रही थी।
जवान दूध से भरी हुई डेगची लिए बेबी के सामने खडा़ था। वह किचन में जाने के लिए बेबी से रास्ता मांग रहा था। बेबी न कुछ सुन हरी थी, और न कुछ समझ ही रही थी। वह सिर्फ देख रही थी, अपलक, जवान की आँखों में। गाउन सीने से सरककर पीछे की ओर लटक रहा था और सीना धौंकनी के समान चल रहा था। लड़खड़ाती हुई वह जवान के कंधे पर झूल गई।
आग की तेज लपटों से घी कब तक न पिघलता?
बेबी के बेडरूम से काफी देर तक वैसी ही आवाजें आती रहीं जैसी आवाजें डैडी के बेडरूम से रातों को आया करती हैं। धीरे-धीरे आवाजों का आना बंद हुआ। इन आवाजों का और इस तरह की रातों का रहस्य और रातों को आने वाले सपनों का रहस्य बेबी अब पूरी तरह समझ चुकी थी। उसकी सारी जिज्ञासाएँ अब शांत हो चुकी थी।
बेबी के मन में अब रह-रहकर केंवल एक ही प्रश्न मचल रहा था - “क्या उसने कोई गलती की है?” फिर दूसरे ही पल दृढ़ता के साथ उसने इस प्रश्न को अपने मन से रद्दी की तरह बाहर उछाला और बाथरूम की ओर चली गई।