बेवजह तालियों का कहर, फूहड़ता का जहर / जयप्रकाश चौकसे

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बेवजह तालियों का कहर, फूहड़ता का जहर
प्रकाशन तिथि : 17 दिसम्बर 2014


पहले अठारह साल (1913 से 1931) तक मूक फिल्में बनीं जिन्हें पूरा देश मजे लेकर देखता रहा आैर हम कह सकते हैं कि वह राष्ट्रीय सिनेमा रहा परंतु 'आलमआरा (1931)' के साथ ध्वनि आते ही वह क्षेत्रीय हो गया गोयाकि खामोशी के सूत्र से बंधा था देश जो जवानों में तकसीम हो गया। इस प्रतीकात्मकता को आज हम अधिक मुखर होते महसूस कर सकते हैं। बहरहाल ध्वनि आते ही सिनेमा बहुत अधिक बोलने लगा क्योंकि खामोशी के दौर का गुबार जो उसे निकालना था। इसी बात को एक घटना के द्वारा हम अपने भरपूर वाचाल रूप में भी देख सकते हैं कि सोहराब मोदी ने मूक दौर में टूरिंग टॉकीज चलाया। उसमें ध्वनि आते ही उन्होंने फिल्में बनाना शुरू कीं आैर उनके ऊंचे स्वर में गूंजते नाटकीय संवाद ही उनके अभिनय की जान था। पारसी रंगमंच का प्रभाव लंबे समय तक रहा आैर अब आप पारसी थियेटर शैली को टेलीविजन के फूहड़ सीरियलों में ही पा सकते हैं।

फिल्म विद्या का जन्म आैर विकास मुंबई में हुआ आैर कुछ ही समय में कलकत्ता, चेन्नई, हैदराबाद आैर केरला में फिल्में बनने लगी आैर देखते-देखते हर हिन्दुस्तानी भाषा में फिल्में बनने लगी आैर आज लगभग एक हजार फिल्में प्रतिवर्ष बनाने वाले देश में जिसे लोकप्रिय अंदाज में हिन्दुस्तानी सिनेमा कहते है, उसमें 200 से भी कम फिल्में बनती हैं आैर चार दक्षिण भारतीय भाषाआें में 600 से अधिक फिल्में बनती है गोयाकि देश तो है परंतु कोई राष्ट्रीय सिनेमा कहलाने का हकदार नहीं है। प्रारंभिक दौर में देश के कोने-कोने से युवा साहसी इस नई विद्या से जुड़े आैर इसीलिए इसकी कामकाजी भाषा अंग्रेजी बनी क्योंकि इस विद्या का सारा साहित्य भी अंग्रेजी में था। आज भी किसी राष्ट्रीय भाषा में इसकी कोई किताब नहीं है। इसकी शालाआें में भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है।

फिल्म उद्योग की कामकाजी भाषा अंग्रेजी होने के कारण अंग्रेजी में लिखे संवादों का हिन्दुस्तानी में अनुवाद करने वालों को संवाद लेखक का दर्जा दिया गया क्योंकि वह शब्दश: अनुवाद नहीं करते हुए कुछ अपने मन से जोड़ते घटाते भी थे। दुनिया के किसी भी देश में संवाद लेखक कोई अलग दर्जा नहीं है, वे पटकथा का अविभाज्य हिस्सा होते हैं। भारत में इस दर्जे का महत्व बढ़ता गया क्योंकि संवाद कथा संप्रेषण का महत्वपूर्ण कुंजी हो गए जबकि अनेक देशों मेंं दृश्य ही अर्थ बयां करते हैं परंतु वाचाल भारत में संवाद जरूरी है। यह भी गौरतलब है कि भारत के मंचीय नाटकों के संवाद किसी अलग लेखक द्वारा नहीं होते, नाटक का लेखक ही एकमात्र रचनाकार है। भारतीय सिनेमा का लेखन कुछ टीम वर्क की तरह है या यह कहें कि बहुत से बावर्ची मिलकर कुछ चूं-चूं का मुरब्बा बनाते हैं परंतु हालात हमेशा ऐसे नहीं थे। अनेक पटकथा लेखक संवाद सहित संपूर्ण रचना प्रस्तुत करते रहे हैं, मसलन पंडित मुखराम शर्मा, केदार शर्मा, के.ए.अब्बास, अर्जुनदेव रश्क इत्यादि लेखक यही करते थे। जब दक्षिण भाषा में बनी हिंदी फिल्मों के दौर में राजिंदर कृष्ण की तूती बोलती थी, वे ही संवाद आैर गीत लिखते थे। राजेंद्रसिंह बेदी ऐसे संवाद आैर लेखक थे जो कथा की भावना को आत्मसात करके संवाद लिखते थे जैसे बिमल रॉय की 'परख' के संवाद गीतकार शैलेंद्र ने लिखे थे।

बहरहाल सलीम-जावेद आैर अमिताभ बच्चन के प्रादुभाव के साथ खेल बदल गया। विशेषकर 'शोले' के संवाद इतने लोकप्रिय हुए कि पॉलीडोर कंपनी ने संवाद का रिकॉर्ड जारी किया। खुद सलीम साहब हैरान हैं कि 'शोले' में 'कितने आदमी थे' आैर 'तुम्हारा नाम क्या है बसंती' पर तालियां पड़ी आैर उन साधारण पंक्तियों के लिए उन्हें आैर जावेद को बधाई दी गई जबकि उसी फिल्म में यह सार्थक संवाद भी था "बुजुर्ग के कंधों पर सबसे बड़ा बोझ जवान बेटे की मय्यत का होता है।" उन्हें हैरानी है कि "बसंती की इज्जत का सवाल है" कैसे बेहतरीन संवाद माना गया। दरअसल संवाद नहीं वरन् अभिनेताआें की अदायगी आैर स्टार अपील ने यह कर दिखाया। अमिताभ आैर अमजद की अदायगी कमाल की थी। सलीम साहब ने यह भी बताया कि जावेद से अलग होने पर उनकी नाम, फलक आैर जख्मी इत्यादि के संवाद भी सराहे गए। इसी तरह का एक संवाद था "आदमी पहाड़ से गिरकर खड़ा हो सकता है परंतु अपनी नजर से गिरने के बाद यह मुमकिन नहीं।" या सच्चाई का दिया भले ही थोड़ी सी जगह को रोशन करे परंतु वह दर से दिखाई देता है या बस दो ही बातें सच है "हां" या "नहीं" बाकी सब तो हेराफेरी है।

दादा कोंडके के दो अर्थी संवादों वाली लगातार डेढ़ दर्जन फिल्मों के हिट होने के बाद कादर खान जैसे कुछ लेखकों ने वहीं पैंतरा सब जगह इस्तेमाल किया। डेविड धवन गोविंदा की टीम ने भी सांकेतिक फूहड़ता को हिट बना दिया। विगत दो दशकों में लोकप्रिय सितारों ने इस कदर ताली पीटने वाले संवादों पर बल दिया कि लेखन टीम में इसके विशेषज्ञों की बड़ी इज्जत होने लगी आैर मूल कथा से अलग दिशा में बहाव शुरू हो गया। इस खेल में अनर्थ होने लगा। मसलन 'हार को जीत में बदलने वाले को बाजीगर कहते हैं।'

बाजीगर ट्रिक्स दिखाता है, साहसी व्यक्ति बाजी पलट देता है। एक जिस्म दिखाकर अभिनय क्षेत्र में आने वाली लड़की की सच्ची कहानी पर काल्पनिक फिल्म में 'तेरा फाउंटेन पेन तो लीक करता है' सबसे 'शालीन' संवाद था। 'जागते रहो' में एक ठरकी अय्याश जमींदार लंबे समय तक तवायफों के यहां जाता रहा, एक दिन घर आकर बीबी से गाने की फरमाइश की। शैलेंद्र का गीत था, "पिया आज खिड़की खुली मत छोड़ो, बाती जली मत छोड़ो, पपीहे ने बुझा ली अपनी प्यास, मैं रही प्यासी, पिया आज खिड़की ...."। कितने शालीन ढंग से एक तरफ, एक कसक के साथ एक निमंत्रण है आैर उधर पति ने इतने बरस बाद महसूस किया कि कितनी सुंदर है उसकी पत्नी परंतु वह अब इस योग्य नहीं कि पति का दायित्व निभाए। बहरहाल इस हालत के लिए दोषी दर्शक है जो फूहड़ता पर तालियां बजाता है, सिक्के उछालता है फिर छातीकूट भी वही करता है।