बेसिक शिक्षा / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
संस्कृत शिक्षा की दुर्दशा के प्रसंग से शिक्षा संबंधी ही एक और बात याद आती है जिसका ताल्लुक पूरी शिक्षा से है। मेरा मतलब बेसिक शिक्षा से है जिस पर हमारे नए शासकों का बड़ा जोर है। उसका प्रचार गाँधीजी के नाम पर किया जा रहा है इसका मुझे दर्द है। फिर भी मैं जानता हूँ कि गाँधी-मंदिर के ये पंडे उनकी पूजा कहाँ तक करते हैं। चाहे जो हो , यह बेसिक या बुनियादी शिक्षा शैतान की तरह फैल रही है और डर है , मुल्क की दिमागी तरक्की को ले डूबेगी , यदि फौरन से पेशतर इस पर रोक न लगी। जो मुल्क अपने बच्चों के छह घंटे में कमबेश चार घंटे केवल चर्खा , तकली , धुनकी , पूनी आदि में लगाएगा वह मस्तिष्क के विकास और ज्ञान की दृष्टि से रसातल जाएगा। इसमें शक नहीं। हमें आज लाखों-करोड़ों इंजीनियरों , मिस्त्रियों , डॉक्टरों आदि की आवश्यकता है , हर चीज के लक्ष लक्ष विशेषज्ञों की जरूरत है। लेकिन यदि बच्चों के दिमाग को अच्छी तरह विकसित होने न दिया गया तो आगे का तो रास्ता ही बंद समझिए। यदि छोटे बच्चों की मानसिक एकाग्रता के अभ्यास के लिए एकाध घंटे सूत कातना सिखाया जाए तो बात दूसरी है। मगर आज तो शिक्षा का बंटाधार होने जा रहा है। पुराने शासकों ने राष्ट्रीयता से भयभीत हो शिक्षा पर अपने ढंग से यहाँ जंजीर जकड़ी जो अभी तक ज्यों की त्यों है। नए शासक उस पर गाँधीवादी ढंग की यह दूसरी जंजीर कसने जा रहे हैं। इससे मुल्क के ज्ञान का दिवाला निकलेगा अवश्य। संभव है , नौकरियों के अपनाने की घुड़दौड़ में किसी छोटे-मोटे दल को इससे लाभ हो ─ शिक्षा पर जंजीर जकड़ने की इस नई प्रणाली से विशेष फायदा हो। फिर भी मुल्क को तो इसका बागी बनाना ही होगा।