बेसुरे दौर में स्वर साधना / जयप्रकाश चौकसे

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बेसुरे दौर में स्वर साधना
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2019


वर्तमान समय में पुरानी फिल्मों के गीत बड़े शौक से सुने जा रहे हैं। ये टेलीविजन पर भी छाए हुए हैं और सोप ऑपेरा की कथा में भी गूंथे जा रहे हैं। कॉपीराइट एक्ट ने यह सुविधा दी है कि 18 सेकंड तक के गीत का प्रयोग करने पर नियम का उल्लंघन नहीं होता। कुछ कार्यक्रमों में पूरा गीत लिया जाता है और संगीत कंपनी को इसकी कीमत भी चुकाई जाती है। माधुर्य कालजयी होता है। फिल्म गीत की रिकॉर्डिंग में बड़ा भारी अंतर आ गया है। पुराने दौर में साजिंदे संगीतकार के दिए हुए नोट्स बजाते थे। सब कुछ लाइव होता था। ध्वनि अंकन करने वाले स्टूडियो में 30-40 वायलिन वादकों का स्ट्रिंग सेक्शन होता था, रिदम सेक्शन व परकुशन इत्यादि। अरेंजर सभी वादकों को यथा स्थान बैठाकर घंटों रिहर्सल करवाता था। पूरी तैयारी हो जाने के बाद गायक-गायिका भी वादकों के साथ रिहर्सल करते थे। गीतांकन कठिन काम था। किसी वादक की छोटी-सी चूक हो जाने पर दूसरा प्रयास किया जाता था। इस तरह गीत रिकॉर्ड करने में बहुत समय लगता था। प्राय: प्रात: 10:00 बजे आरंभ करके आधी रात को गीत रिकॉर्ड हो पाता था। कभी-कभी संगीतकार वादकों की 'रात शुरू होती है आधी रात को' और सिलसिला अलसभोर तक जाता था। शास्त्रीय गायक एक ही राग को प्रस्तुत करते हैं परंतु मान्यता रही है कि समापन सदैव भैरवी से किया जाता है। राग का रिश्ता समय के पहर से भी रहा है और भैरवी अलसभोर में भी गाया जाता है। उसे मधुरतम मानकर समापन उससे किया जाता है। शंकर-जयकिशन और राज कपूर का प्रिय राग भैरवी रहा है परंतु उन्होंने पटकथा की आवश्यकता के हिसाब से अन्य रागों का भी उपयोग किया है। मसलन 'जोकर' का गीत 'जाने कहां गए वो दिन' शिवरंजनी से प्रेरित है। सिनेमा संगीत के स्वर्ण काल में संगीतकारों के बीच बेहतर माधुर्य रचने की होड़ लगी होती थी परंतु उनमें कोई दुश्मनी का रिश्ता नहीं था। जब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को ताराचंद बड़जात्या की फिल्म 'दोस्ती' का संगीत रचना था तब उन्होंने माउथ ऑर्गन बजाने के लिए राहुल देव बर्मन की सेवा ली क्योंकि, इसमें वे सर्वश्रेष्ठ थे। ज्ञातव्य है कि कल्याणजी, लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन की रिकॉर्डिंग्स में वादक के रूप में कार्य कर चुके थे। संगीत क्षेत्र अंतरिक्ष की तरह विराट है, जिसमें पृथ्वी जैसे कई गोले समाए हुए हैं। पूरी सृष्टि में ध्वनि अजर-अमर है।

सेक्सोफोन नामक वाद्ययंत्र में वादक अपनी श्वास के उपयोग से स्वर निकालता है। बांसुरी भी श्वास से संचालित होती है। चौथे दशक की फिल्म का एक गीत इस तरह था 'विरहा ने कलेजा यू छलनी किया, जैसे जंगल में कोई बांसुरी पड़ी हो।' शहनाई भी बेमिसाल वाद्य है। बिस्मिल्ला खान को अमेरिका की एक संस्था ने प्रस्ताव दिया कि वे कुछ वर्ष अमेरिका में रहकर शहनाई वादन का प्रशिक्षण दें। बिस्मिल्ला खान साहब बनारस छोड़ने को तैयार नहीं थे। वे गंगा घाट पर रियाज करते थे। अमेरिका के विश्वविद्यालय ने उन्हें कहा कि बनारस के गंगा घाट जैसा स्थान परिसर में बना देंगे तो बिस्मिल्ला खान साहब ने फरमाया कि हुजूर बनारस-सा घाट तो बना लोगे परंतु गंगा कहां से प्राप्त करोगे। उनका शहनाई वादन तो गंगा के प्रवाह का ही ध्वनि रूपांतरण हुआ करता था।

प्रसिद्ध साहित्यकार मनोज रूपड़ा की एक लंबी कहानी 'साज-नासाज' है। इसे हार्पर कॉलिन्स के हिंदी विभाग ने 2010 में प्रकाशित किया था। कहानी का नायक फिल्म गीतों की रिकॉर्डिंग में सेक्सोफोन बजाता था। उसे महारत हासिल थी। कंप्यूटर जनित ध्वनियों के प्रयोग के कारण ऐसे वादक बेरोजगार हो गए। इस रचना में ऐसे ही वादकों की करुण गाथा प्रस्तुत की गई है। नायक अपना सेक्सोफोन हमेशा साथ रखता है। बेरोजगारी झेलते हुए वह देवदास नुमा शराबी भी हो गया है। एक जगह लिखा है कि दशकों तक सेक्सोफोन तुम्हें बजाता रहा, रोजी-रोटी दिलाता रहा परंतु अब इस बेसुरे दौर में तुम्हेंे अपनी बची हुई श्वांस से सेक्सोफोन बजाना होगा। इस दौर में पुन: स्वर साधना होगा। ज्ञातव्य है कि राहुल देव बर्मन के निकट सहयोगी मनोहारी श्रेष्ठ सेक्सोफोन वादक रहे और जोधपुर में उनके कार्यक्रम प्राय: आयोजित किए जाते थे। मनोहारी उन फिल्मी गीतों को भी सेक्सोफोन द्वारा प्रस्तुत करते थे जिनमें इस वाद्य यंत्र का उपयोग नहीं हुआ है। फिल्माें में अधिकांश वादक गोवा से आते थे परंतु संगीतकार प्यारेलाल के पिता ने अन्य स्थानों से आए युवाओं को प्रशिक्षित करके गोवा का एकाधिकार समाप्त किया। मेरी जयपुर यात्रा के समय वर्षा शाहिद ने मुझे 'साज-नासाज' भेंट की। उन्हें धन्यवाद देता हूं।