बेस्ट वर्कर / अमरीक सिंह दीप / पृष्ठ 1
<<पिछला भाग शाम से ही बातों में मशगूल हैं वे. बातों का लहण पता नहीं कब से दोनों के भीतर की धरती में दबा पड़ा था. आज मौका मिलते ही यह लहण साथ की भटटी में चढ़कर शराब की-सी शक्ल अख़्तियार कर बाहर आ रहा है. जैसे-जैसे वक़्त गुज़र रहा है बातों का नशा तीखा होता जा रहा है. अभ्यंतर के समस्त रिक्त कोषों में भरता जा रहा है. रोम-रोम में रचता जा रहा है. उसे लग ही नहीं रहा कि कुर्सी पर शीरीं बैठी है. यूं लग रहा है कुर्सी पर एक उज्ज्वल कोमल एहसास बैठा हुआ है। जो शरीर नहीं सिर्फ होंठ हैं...संवादरत हो गुलाबी अधर। याकिबातों का दो गुलाबी अधरों से गिरता उज्ज्वल-धवल जलप्रपात, जिसकी फेनिल शुभ्र-श्वेत धुंध ने उसे अपने रहस्यमयी आगोश में जकड़ रखा है.
फरवरी महीने के अंतिम दिनों की ठंडी स्याह रात दरवाजे की दहलीज के पास चुपके से आकर खड़ी हो गई है. आंगन में खड़े हरसिंगार से फूल यूं झर रहे हैं जैसे उन्होंने महक की मदिरा पी रखी हो. कुर्सी के पास ही डबलबैड पर वह बैठा है. आलथी-पालथी मारकर. जांघ पर टिकी दाईं कोहनी के दूसरे छोर पर मौजूद खुली हथेली पर ठुडडी टिकाए. शुभ्र श्वेत एहसास के रंग में रंग कर स्वयं भी एक आलोकमयी कोमल अनुभूति में बदला.
शीरीं ने लाल, नीली व हरी कतरनों के से डिजाइन की वायल की मस्टर्ड कलर की साड़ी पहन रखी है. लाल रंग के ब्लाउज के साथ. देह से लिपटे रंगों के इस आबशार से उसकी देहगंध आम के बौर-सी झर रही है पूरा कमरा महमहा रहा है, पर बातों का नशा ज्यादा तीखा है. शीरीं की आम के बौर-सी देहगंध उस पर हावी नहीं हो पा रही.
शीरीं ने अपने जीवन के एक और प्रसंग का जाम ढालना शुरू किया, ‘जानते हो वसु, खरगोश मुझे सदा से ही हांट करते रहे हैं. उन्हें देखकर महसूस होता है जैसे धरती के सीने में कोई उजला रेशमी एहसास पल रहा हो.
एक बार जब मैं धरती के सीने में पलने वाले इस कोमल रेशमी एहसास को अपनी गोदी में भरने की प्रबल लालसा को जब्त नहीं कर पाई तो मैं जिद पर उतर आई थी, ‘प्रत्यूष, मुझे खरगोश पालने हैं. मुझे अभी इसी वक़्त खरगोश लाकर दो नहीं तो ...
मेरी ‘नहीं तो' से प्रत्यूष डर गया था. शाम को न जाने कहां से एक जोड़ा खरगोश का लेकर ही लौटा था. उन्हें लेकर मैं यूं मग्न हो गई थी जैसे वे मेरी कोखजायी संतान हों. फीडिंग बाटल से दूध पिलाने से लेकर उनकी पॉटी साफ करने, उनको नहलाने-धुलाने, उनकी भूख, प्यास, नींद, स्वास्थ्य और सुरक्षा हर बात का ख्याल एक फिक्रमंद मां की तरह करती थी.
रात को लव लवी, यही नाम रखा था मैंने उन दोनों का, मेरे बिस्तर में मेरे पहलू में दुबक कर सोते थे. एक दिन मैं उन दोनों को कमरे में बंद कर गली के मोड़ तक सब्ज़ी लेने गई थी. भूल से जल्दबाजी में कमरे की खिड़की का एक पल्ला खुला रह गया था. एक काली बिल्ली न जाने कब से ताक में थी. मेरे घर से बाहर होते ही खिड़की का पल्ला खुला देखकर वह अपने शिकार पर टूट पड़ी थी. लौटी तो कमरे में खून ही खून था और लव और लवी का कोई पता नहीं था. पागलों की तरह मैंने पूरा घर और आस-पड़ोस खूंद डाला था, पर हाय मेरे लव-लवी ... मेरी धरती के सीने में धड़कते शुभ्र श्वेत कोमल रेशमी एहसास ... ' पहले हिचकियां, फिर आंसुओं का सैलाब. शीरीं रो रही है. फूट-फूट कर. जारो कतार.
सुवास की जान सूख गई है. पता नहीं कैसे वह आंसुओं के भंवर में छलांग लगा शीरीं को खींचकर किनारे ला पाया. हद बेहद भावुक, संवेदनशील और नाजुक मिज़ाज़ है शीरी. एकदम बाज़ार में मिलने वाली पतले पारदर्शी कांच से बनी रंगीन पानी से भरे खिलौना बत्तखों की तरह. चंद ही मुलाक़ातों के बाद उसने फतवा जारी कर दिया था, ‘कांच के सामान जैसी हो तुम. तुम्हारे गले में तो ‘हैंडिल विद केयर' की तख्ती लटकी होनी चाहिए.'
शीरीं को सुवास आंसुओं के भंवर से किसी तरह बाहर खींच तो लाया पर अब सर्दी की इस ठंडी रात में उसके माथे पर चुहचुहा आए पसीने को देखकर डर गया, ‘शिरू तुम्हारे हाथ-पांव क्यों ठंडे हो रहे हैं? तुम्हारे माथे पर पसीना क्यों आ गया है?' ‘लगता है, आज फिर ब्लड प्रेशर लो हो रहा है मेरा. सीने में दबा दर्द जब अपनी हदें पार कर जाता है तब अक्सर लो ब्लडप्रेशर का दौरा पड़ जाता है मुझे.' शीरीं के बात करने के अंदाज़ से यूं लगा सुवास को कि जैसे शीरीं अपनी बीमारी का बयान नहीं कर रही शेखी बघार रही हो. इधर उसके हाथ पांव फूले हुए हैं. जब कुछ नहीं सूझा तो वह लपककर किचन में गया और कॉफी बना लाया.
शीरीं को कॉफी का कप थमाकर वह उसके दोनों पांवों के तलुए अपनी हथेलियों से मलने लगा. छोटी बच्ची की तरह शीरीं ने खुद को उसके हवाले कर रखा है. सुवास की हथेलियों से तरल उष्मा भरा सुख रिस रहा है. कॉफी खत्म कर प्याला मेज पर रखते हुए वह हँसी, ‘अस्पतालों में बीमार मर्दों के लिए महिला नर्से और बीमार औरतों के लिए पुरुष नर्से होनी चाहिए. आध्ो बीमार बिना दवाइयों के ही ठीक हो जाएंगे.' सुवास खीझ उठा, ‘शिरू मज़ाक मत करो ... अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है. डाक्टरों की दुकानें बंद नहीं हुई होंगी. चलो, तुम्हें किसी डॉक्टर के पास ले चलता हूं.' ‘नहीं, अब बेहतर महसूस कर रही हूं. चिंता जैसी कोई बात नहीं है. यूं भी तुम्हारे जैसा दर्दमंद दोस्त हो जिसका उसे डाक्टर की क्या जरूरत'
सुवास ने राहत की सांस ली, ‘अच्छा शीरू, यह नामुराद बी.पी. लो की बीमारी तुम्हारे गले कैसे पड़ गई?' खनकती हँसी ने एक मुरकी सी ली, ‘तुम भी बस कभी-कभी बच्चों जैसे सवाल करना शुरू कर देते हो वसु ... अरे बन्धु, जो लोग दिमाग़ के कहे पर कम चलते हैं और दिल के कहे पर ज़्यादा उन पर ऐसी बीमारियां सौ जान फ़िदा रहती हैं.'
शीरीं के जवाब से उसे झेंप सी महसूस हुई. हल्का-सा इन्फीरियरिटी कॉम्प्लैक्स भी. उसे लगा, दिल के दरिया में अभी वह गोताखोरों जैसी दक्षता हासिल नहीं कर पाया है. शीरीं के मन-पाताल में क्या है, कितने जलपोत दफ़न हैं, कितने मूंगे-मोती हैं, कितने खूबसूरत और खौफ़नाक जलचर हैं, अभी तक वह बूझ नहीं पाया है. लेकिन कहीं कुछ बेहद खूबसूरत और खौफनाक है ज़रूर, पता नहीं उसे ऐसा क्यों लगता है?
दरअसल दोस्ती में दोस्त के दिल की निजी दराज़ों को खोलकर देखने की उसकी आदत नहीं है.
उसकी एक कविता है -
.... बहुत जरूरी है कि
किसी के निजीपन में प्रवेश से पूर्व
हम अपनी आत्मा की निर्मल झील में उतरकर
करे स्नान ऑ'
खुद को कर ले ओस कण सा पवित्र और पारदर्शी
बहुत ज़रूरी है कि
किसी के निजीपन में प्रवेश के बाद
हम छुएं न उसका अतीत इतिहास
टूटे स्वप्न
भग्न देव प्रतिमाएं
बस चुपचाप
जोड़कर हाथ
किसी की निजी आस्थाओं के सम्मुख
प्रसाद में मिली आरती-उष्मा को
रोप लें अपनी हथेलियों में
और अपने भक्त मन में
... बहुत जरूरी है कि
किसी के निजीपन का
उसके खुदा की तरह
हम करें सम्मान
और उसके विधि विधान के अनुरूप
ढाल लें अपना निजीपन ... अगला भाग >>