बेस्ट वर्कर / अमरीक सिंह दीप / पृष्ठ 3
पिछला भाग >> सुवास ने जब तारीफ की थी तो अपनी पीठ खुद ठोंकते हुए उसने कहा था, ‘दिल्ली- मुंबई के कई फाईव स्टार होटल वाले मेरे आगे पीछे चक्कर काटते हैं कि मैडम इतना उम्दा खाना तो खाना-खज़ाना वाला संजीव कपूर भी नहीं बना पाता. यह ब्लैंंक चेक रखिए और इसमें सैलरी के बतौर जो चाहे रकम भर लीजिए, और हमारे होटल की हेड शेफ हो जाइए.' अपनी बेकाबू होती हँसी की लगाम खींच सुवास ने उठकर शीरीं के सिर पर एक टीप जड़ दी थी, ‘गपोड़िन गर्ल, इतनी दूर की मत हांका कर कि खुदा भी पनाह मांग जाए.' जब रात के नौ बज गए तो शीरीं को घर की सुध आई.
वह सुवास की कमीज की बांह का कफ थामकर घने लाड भरे स्वर में बोली, ‘आज दिन में न जाने क्यों, मन बहुत उदास हो गया था. उदासी से मुक्त होने के लिए तुम्हारे यहां चली आई. अब मूड बिल्कुल फ्रेश है. चलो मुझे घर छोड़ आओ.' शीरीं उसके साथ चलते हुए हमेशा छोटी बच्ची हो जाया करती है. वह सड़क पार करते वक़्त हमेशा उसकी बांह थाम लिया करती है और भीड़-भाड़ में उसके कंधे पर हाथ रखकर चलेगी. इतनी बेबाक और दिलेर होने के बावजूद उसके अवचेतन में अब भी एक डरावनापन विद्यमान है. शायद बचपन में पिता की छत्रछाया से वंचित रह जाने के कारण यह डरावनापन उसमें घर कर गया है. जो भी हो लेकिन यह सच है कि शीरीं का यूं बांह थामकर चलना सुवास को अच्छा लगता है, उसमें आत्मीय उष्मा का संचार करता है.
रिक्शे पर बैठते ही शीरीं की बातों की लटाई खुल गई थी और किस्सों के कनकव्वे उड़ना शुरू हो गए थे. दोस्तों की हरमजदगियों और इनायतों के किस्से, देहरादून में बिताए दिनों की खटटी-मीठी यादें, देहरादून व आसपास के शहरों में होने वाले मुशायरों के किस्से, कुछ काल तक नज़ीमाबाद रेडियो स्टेशन पर बतौर उद्घोषक किए गए काम के किस्से, प्रत्यूष व बच्चों के स्वभाव की खूबियां-खामियां, स्कूल और कॉलेज के दिनों में की गइर्ं शरारतें और खरमस्तियां ... बातें, बातें और बातें. बातों के नशे में गडुंच होने के कारण पता ही नहीं चला कब घर आ गया था.
रिक्शे से उतरकर सुवास ने घड़ी देखी ... रात के साढ़े नौ बजने वाले थे. उसे लगा, रात बहुत हो चुकी है. इसलिए जिस रिक्शे से वे आए हैं उसी से उसका लौट लेना बेहतर होगा. उसे यूं लौटता देखकर शोरी तिड़क गई, ‘चाय पिए बिना ही लौट जाओगे? शर्म नहीं आती तुम्हें?' ‘रात को चाय पी लेने पर देर तक नींद नहीं आती मुझे. चाय पिलाकर मेरे सपनों का क्यों सत्यानाश करना चाहती हो?' उसने बहाने से अपना बचाव करने की कोशिश की. ‘सपना जब साक्षात सामने हो तो क्या ज़रूरत है झूठे सपनों की?' हर बात का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने में दक्ष शीरीं ने उसकी बोलती बंद कर दी थी ... बीते की बही पलटने के बाद सुवास वर्तमान में लौट आया है.
इस बीच शीरीं प्रकृस्थ हो चुकी है. उसने हौले से शीरीं का सिर अपनी छाती से हटाकर दीवार घड़ी पर नज़र डाली, ‘बाप रे!..बातों ही बातों में पता ही नहीं चला और रात के ग्यारह बज गए!!' शीरीं शरारती शोख अंदाज़ में चीखी, ‘मेरा बस चले तो इस हरामजादी घड़ी की दोनों टांगे तोड़कर रख दूं ... गश्ती साली, बेमतलब रात-दिन आवारागर्दों की तरह घूमती रहती है.' सुवास भी घड़ी से कहां खुश है. पर लौटना तो पड़ेगा ही. हालांकि प्रत्यूष दौरे से आज आधीरात के बाद लौटने वाला है. शीरीं अपनी पितृग्रंथि के कारण उससे अलग होना नहीं चाहती और वह तो ताउम्र शीरीं के साथ बने रहना चाहता है, पर सुवास और शीरीं एक घर में नहीं दो अलग-अलग घरों में रहते हैं और दोनों घर उनकी सोच के हिसाब से नहीं चलते.
रात, मोहल्ला, चौकीदार, सीटियां बजने और कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें इन सबसे असंपृक्त-सा सुवास ओस भीगी रात में अंधेरा ओढ़कर सोई सड़क पर चलने में अपराधबोध सा महसूस कर रहा है. आज का दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे स्वर्णिम दिन रहा है. वह नहीं चाहता कि आज उसके पांव सोई हुई सड़क तो क्या किसी चींटी या दूब के एक तिनके तक पर पड़ें. वह उड़ना चाहता है, चिड़िया हो जाना चाहता है, बादल हो जाना चाहता है और उड़ते हुए घर पहुंच जाना चाहता है. सु बह नींद खुलते ही सुवास ने जब अपनी दोनों हथेलियों को अपनी आंखों के सम्मुख किया तो उसने अपनी हाथों की लकीरों के बीच शीरीं का मुस्कराता हुआ चेहरा मौजूद पाया. दोनों हथेलियों को चूमने के बाद वह बिस्तर से बाहर आ गया.
शीरीं से कल की मुलाकात का खुमार अब भी उस पर तारी है. खुमार में डूबे हुए कदम टेपरिकार्डर तक गए, उस पर बिस्मिल्लाह खां की शहनाई का कैसेट लगाया और गुनगुनाते हुए कमरे से बाहर निकल आए. बाहर दिन को उसने अपने इंतजार में खड़े पाया. उसे देखते ही दिन का उजला चेहरा चमक उठा. गमलों के पौधों से आंख-मिचौली खेल रही धूप उसकी पीठ के पीछे आकर छुप गई. बसंती हवा में घुली फूलों की खुशबू को उसने अपनी सांसों में घुलते हुए महसूस किया. वह धूप में खड़ा लंबी-लंबी सांसें खींचता रहा.
जब उसने पूरा का पूरा दिन अपने भीतर भर लिया तो वह वापिस कमरे में लौट आया. घड़ी ने उसकी ओर घूरकर देखा. उसने जुबान निकालकर घड़ी को मुंह बिरा दिया और घोषणा कर दी, आज वह दफ्तर नहीं जाएगा. कल ही शेविंग की थी, फिर भी शेविंग बॉक्स निकालकर वह शेविंग करने बैठ गया. शेविंग करने के बाद थपक-थपककर गालों पर आफ्टर शेव लोशन लगाया. गालों से एक महकती हुई आंच उठने लगी. साबुन आधी बटटी के करीब होगा अभी फिर भी पीयर्स साबुन की नई बटटी निकाली, और खुद को गुसलखाने के हवाले कर दिया.
जापानी गीशा की तरह गुसलखाने ने उसे मल-मल कर बड़े प्यार से नहलाया. नहाने के बाद जब वह शीशे के सामने खड़ा हुआ तो अपना चेहरा देख कर हैरान रह गया ... क्या यह खिले गुलाब-सा महकता हुआ चेहरा उसी का है? अपने आप पर मुग्ध हो उठा. उसे लगा, उसके चेहरे से किरणें-सी फूट रही हैं. इसी के साथ यह रहस्य भी उसके सामने उजागर हुआ कि सुंदर शरीर नहीं होता, वह एहसास होता है, जिसे धारण करते ही शरीर कन्दील सा मोहक और नक्षत्र सा जगमगाता नज़र आता है. सज-संवरकर वह सड़क पर आ गया. सुबह की सर्दी में निखर रही धूप से दुधमुंहे बच्चे के पास से आने वाली कच्ची दूधिया महक निसृत हो रही है.
उसे देखते ही मंदिर अपने सारे देवताओं को दरकिनार कर उसकी अगवानी को लपका. मंदिर के चौगिर्द लगे वृक्षों की खामोश खड़ी हरियाली झूमने लगी. मंद-मंद बह रही हवा लहराकर मुस्कियां लेने लगी. शहदारी के दोनों ओर लगी दूब के शीर्ष पर थिरक रहे आंसू हीरे-सी झिलमिलाने लगे. मंदिर के दाएं पार्श्व में स्थित पुस्तकालय एक पुल द्वारा मंदिर से संलग्न है. पुल के नीचे से गुजरते हुए सुवास की दृष्टि अकस्मात मंदिर की चाहरदीवारी के दाईं ओर सटे खड़े छप्पड़ फाड़ सुमन सम्पदा से संपन्न पलाश वृक्ष से जा टकरायी.
सुवास को लगा जैसे कि पलाश के फूलों से लदी वृक्ष की टहनियां कालीदास रचित ‘ऋतु संहार' के श्लोक हों या कि शिव के श्राप से भस्मीभूत हो रहे रतिपति कामदेव की आग की लपटों में बदली भौतिक देह. वह मंत्रबिद्ध सा बेचाप कदमों से वृक्ष के पास जा पहुंचा. कुछ देर तक वह वृक्ष के नीचे खड़ा निःशब्द झरते फूलों का अपने भीतर झरना महसूस करता रहा. तत्पश्चात वृक्ष के चतुर्दिक बन गए फूलों के दायरे से पांव बचाता तने तक जा पहुंचा और तने से टेक लगाकर आंखें मूंद कर बैठ गया. आंखें मूंदने के बाद उसने अपनी स्वयं रचित प्रार्थना दोहराई, ‘हे वृक्ष देवता, मुझे अपने जैसा फूलदार, फलदार और छायादार बना.
अपना यह खिलापन मुझे भी बख़्श. अपने सर्वदानी स्वभाव का संस्कार मुझे भी प्रदान कर. आमीन ... ' मंदिर से जब वह बाहर आया तो उसमें न कोई विकार बचा था न द्विधा. भीतर सिर्फ़ एक रंग है. अनंग और वितराग दोनों का सम्मलित रंग दहकता हुआ ... केसर रंग. प्रेम में काम को भस्मीभूत कर उसे ब्रह्मपद प्रदान करने वाला रंग. रंग की तरंग में रमतायोगी बना वह नदी तट पर जा पहुंचा. खुद को आवरण मुक्त कर वह नदी में उतर गया. नदी ने उसे पूरा का पूरा अपने भीतर भर लिया.
नदी की कोख में वह दूर तक बहता चला गया. नदी में स्नान करने के बाद वह अपने शहर का सुख-दुख जानने के लिए शहर के पास आ गया. बच्चों के स्कूल के सामने से गुजरने वाली सड़क के मध्य एक बड़ा-सा गडढा देखकर वह रुक गया. गडढे में बदबूदार काला कीचड़ भरा हुआ है. उसने देखा, स्कूली रिक्शों के पहिए जब इस गडढे में पड़ते हैं तो गडढे का कीचड़ उछलकर राहगीरों व बच्चों के कपड़े गंदे कर देता है. दुकान से उसने मिटटी ढोने वाली टोकरी खरीदी. इसके बाद वह स्कूल के पास फुटपाथ पर लगे मलवे के ढेर से टोकरी में मलवा भर-भर गडढे में डालने लगा. लोग हैरानी से उसे देख रहे है और शैदाई समझ रहे हैं, लेकिन वह भीड़ से बेनियाज़ अपने काम में मशगूल रहा.
गडढा जब पूरा भर गया तो एक समूची ईंट से उसने उसे ठोकपीट कर समतल कर दिया. उसके शहर का चेहरा खिल गया. शहर ने उसके कदम स्टेशन की ओर मोड़ दिए. स्टेशन के बाहर होटलों की कतार के पास एक बूढ़ा भिखारी उसके आगे हाथ जोड़ कर रोने लगा, ‘बेटा, दो दिन से पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया. भूख के मारे दम निकला जा रहा है ... बस, दो रोटी खिला दे.' वह बूढ़े बाबा को साथ लेकर सामने के होटल में दाखिल हो गया. दूर से आती सिंकती हुई रोटियों व तरह-तरह की सब्जियों की दुनिया के तमाम इत्रों से भी नायाब सुगंधों को जब बूढ़े भिखारी ने अपने इतने समीप पाया तो उसके दोनों हाथ आसमान की ओर उठ गए.
सुवास ने एक ही मेज पर बैठकर बूढ़े बाबा के साथ भरपेट भोजन किया. होटल का बिल अदा करने के बाद जितने भी रुपए उसकी जेब में बचे वह सब उसने बूढ़े बाबा को दे दिए. साथ ही अपने घर का पता भी. बाकी पूरा दिन वह पैदल चलते हुए अपने शहर की सड़कों से गुफ़्तगू करता रहा. सड़कों के किनारे लगे वृक्षों की छाया का आशीर्वाद प्राप्त करता रहा. कोसों पैदल चलने के बावजूद रात को वह घर लौटा तो उसने अपने शरीर में थकान का नामोनिशान तक नहीं पाया. हां, कल शाम से रात ग्यारह बजे तक शीरीं के साथ रहने का जो प्रगाढ़ नशा था उसकी प्रबलता अब वैसी नहीं है.
वह आश्वस्त हो गया. अब कल वह दफ़्तर जा सकता है.
(प्रकाशित. – हंस जून 2009 ) अगला भाग >>