बेहया / मनोज कुमार पाण्डेय

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इधर बहुत दिनों बाद गाँव लौटा हूँ। मेरे लिए गाँव आने का मतलब है अपने बचपन में लौटना। बचपन, जहाँ अम्मा हैं, बाबू हैं, दीदी हैं, घर के बगल की गड़ही है, गड़ही में बेहया की हरी-भरी झाड़ी, झाड़ी किनारे डंडा लिए खड़ी आजी और उनके सामने थर-थर काँपता हुआ मैं। बचपन की सारी छवियाँ एक तरफ, और आजी की यह छवि दूसरी तरफ, आजी की यह छवि सब छवियों पर भारी पड़ती है।

कितना अच्छा लगता है जब कहीं किसी लेखक की स्वीकृति पढ़ता हूँ कि मैंने तो कहानी कहना अपनी दादी से सीखा। मैंने तो कहानी कहना अपनी नानी से सीखा। काश! मैं भी ऐसा कह सकता, पर मेरे बचपन में कहानियाँ थीं ही कहाँ, वहाँ तो कहानियों की जगह आजी के डंडे थे। बात-बात पर हमारी पीठ पर बरसते हुए। आज जब मैं आपसे अपनी बात कहने बैठा हूँ तो सोचता हूँ पहले इन डंडों के ऋण से ही मुक्त हो लूँ, नहीं तो न जाने कब तक यह मुझे परेशान करते रहेंगे।

मैं गड़ही के बगल में बैठा हूँ। गड़ही में मुँह तक पानी भरा है। पानी में मछलियाँ फुदक रही हैं। अब गड़ही का पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता होगा। शिवमूरत चाचा इसे फिर से भर देते होंगे। पर अभी पिछले साल तक इसमें मछली नहीं, बेहया था। गड़ही का पानी बरसात खत्म होते ही सूखने लगता था। तब गड़ही बेहया से भर जाती थी। बेहया से जो जगह बचती उसे हम भर देते। हम माने दीदी और मैं। हम वहाँ होते अपने अनोखे एकांत के साथ। हमारे चारों ओर होती बेहया की बड़ी-बड़ी पत्तियाँ, लाऊडस्पीकर जैसी बनावट के हल्के बैगनी आभा लिए फूल। सब मिला कर एक खूबसूरत झुरमुट। एक मुलायम हरी-भरी झाड़ी।

गर्मियों में हमारे छुपने की एकमात्र जगह यही मुलायम हरी-भरी झाड़ी होती। नीचे एक जाल-सा बुन गया था टहनियों का। हम उस पर लेटते, बैठते, खेलते, झूलते और जब पकड़े जाते तो यही टहनियाँ पड़तीं हमारी पीठ पर। सटाक-सटाक-सटाक। हमें कई बार लगता कि साला बेहया हमसे बदला ले रहा है अपने ऊपर उछलकूद मचाने का। पर हम थे कि अगला मौका मिलते ही फिर वहीं पहुँच जाते। उसी झुरमुट में। आजी कहती बेहया के बीच रह-रह कर हम भी बेहया हो गए हैं।

अम्मा, आजी को कभी फूटी आँख भी नहीं सुहाई। दीदी बताती पहले वह जब मर्जी होती अम्मा को पीट देतीं। पर एक बार जब ऐसे ही मौके पर बाबू, अम्मा और आजी के बीच में खड़े हो गए, तब से अम्मा तो मार खाने से बच गईं पर आजी ने जल्दी ही उन्हें प्रताड़ित करने का नया तरीका खोज निकाला। अब आजी के निशाने पर दीदी और मैं आ गए। आजी हमें बुरी तरह पीटतीं और अम्मा पिटने से बच कर भी तड़पतीं। या फिर यह भी तो हो सकता है कि आजी हममें भी अम्मा को ही देखती रही हों। हमारे पिटने पर बाबू कुछ भी न कहते। उन्हें लगता इतना तो आजी का हक बनता ही था।

गर्मियों के दिन थे। मेरे स्कूल में रोज मलाईबरफ वाला भोंपू बजाता हुआ आता। मैं रोज-रोज रंगीन बरफ का जादू अपने दोस्तों के मुँह में घुलता हुआ देखता। मेरे मुँह में पानी आ जाता कि ये जादू किसी भी तरह मेरे मुँह में घुल जाय... बस। बाबू या आजी से तो पैसे माँग नही सकता था और अम्मा के पास कभी पैसे होते ही नहीं थे। आजी के पास एक गुल्लक था। गुल्लक में थे बहुत सारे सिक्के। एक दिन मैंने चुपके से आजी की गुल्लक में से एक सिक्का निकाल लिया और फिर रोज-रोज रंगीन बरफ का ये जादू मेरे मुँह में भी घुलने लगा। अब मैं मलाई चाटता और मेरे दोस्त मुझे ललचाई नजरों से देखा करते। कभी पैसा खर्च हो जाने से बच जाता तो स्कूल से आते ही मैं बेहया की हरी-भरी झुरमुट के बीच घुस जाता और निकलता तो खाली हाथ।

आजी को एक दिन पता चल ही गया। फिर तो आजी खूब चिल्लाईं। आय-हाय, आय-हाय कुलघाती - सटाक। सुअर के मूत - सटाक। नासपीटे धमसागाड़े - सटाक-सटाक। बस और भी खूब गालियाँ और खूब मार। पर आजी को अभी संतोष कहाँ हुआ था! उनकी गुल्लक में चोरी उनकी निगाह में उनके आतंकी अनुशासन को चुनौती थी। आजी ने उस दिन खाना नहीं खाया। बाबू रात में आए तो आजी ने आते ही उनसे सारी बातें नमक-मिर्च लगा कर बता दी। बाबू ने मुझे पास बुलाया और पूछा कि मैंने पैसे का क्या किया? मैं कुछ नहीं बोला। बाबू ने दुबारा पूछा पैसे का क्या किया? मैंने जवाब दिया, मलाईबरफ खाई। फिर तो मैं खूब धुना गया। यहाँ कटा, वहाँ फटा। यहाँ सूजन, वहाँ दर्द। बाबू बार-बार चिल्ला रहे थे, और चोरी करोगे हूँ..., मलाईबरफ खाओगे हूँ..., लो खाओ और खाओ। बाबू के मोटे-मोटे मजबूत हाथ ऊपर पड़ते तो लगता कि चीख के साथ जान ही निकल जाएगी। इस चीख के साथ आँसू कभी नहीं निकले। रोना कभी नहीं आया। रोना तो आया दूसरे दिन जब मैं झाड़ियों में छुपाए हुए पैसे इकट्ठे कर रहा था।

पता नहीं इन आँसुओं का भी क्या जादू था कि अम्मा डाँट भी देती तो मैं रोने लगता। दीदी से झगड़ा होता और दीदी कभी मार-वार देती तो मैं रोने लगता। भले ही दीदी को मैं भी पीट देता, पर रोता फिर भी। दीदी मुझे बैठ कर बड़ी देर तक दुलारती-मनाती, पर आजी या बाबू के मारने पर चीखें निकलती, जिस्म पर यहाँ-वहाँ स्याह निशान उभर आते। कपड़ों सहित पूरा शरीर धूल-धूसरित हो जाता पर आँसू थे कि आते ही नहीं थे। बाबू-आजी थे कि इसे भी मेरी ढिठाई समझ लेते और मुझे और मार पड़ती। मैं आज तक नहीं समझ पाता कि मैं जो बात-बात पर रो पड़ता था, बाबू-आजी से इतनी मार खा कर भी कभी क्यों नहीं रोया। मेरे आँसू आखिर कहाँ गायब हो जाते थे। गायब भी हो जाते थे तो अगली बार दीदी या अम्मा के सामने फिर कैसे निकल आते थे, इतने आँसू कि कभी दीदी चाहती तो लोटा भर लेती। पता नहीं इन आँसुओं का भी क्या जादू था।

हमारा स्कूल घर के पास ही था और स्कूल के पांड़े पंडितजी का घर हमारे खेत के पास। वे अक्सर हमारे घर आ जाते तो आजी दुनिया-जहान की बातों के साथ-साथ हमारी शिकायतों का पुलिंदा भी खोल देतीं। आजी उन्हें बार-बार बतातीं कि हमारी हड्डी तो आजी की थी पर चमड़ा पांड़े पंडितजी का। पांड़े पंडितजी के लिए इतना इशारा काफी होता और वे हमारा चमड़ा काट देते। आखिर उनको हमारे यहाँ रोज-रोज बैठना जो होता। दुनिया भर की सही-झूठ बातें करनी होतीं। सुर्ती-सुपाड़ी खानी होती और क्यारियों से हरी सब्जियाँ ले जानी होती। ऊपर से तुर्रा यह कि उनके लिए बेहया की टहनियाँ भी मुझे ही ले जानी होती। वे मुझे दिन भर पीटने का बहाना ढूँढ़ते रहते। मैं लगभग रोज पिटता पर आँसू वहाँ भी कभी नहीं आते थे।

इतने दिन बीत गए। पांड़े पंडितजी अभी भी वहीं पर हैं। हेडमास्टर हो गए हैं। अभी कल बाबू मेरे छुटके भाई अन्नू की शिकायत कर रहे थे कि कैसे उसने एक दिन पांड़े पंडितजी की कुर्सी पलट दी और डंडा छीन कर भाग आया। मुझे हँसी आ गई। मुझे अन्नू पर बहुत सारा लाड़ आया। क्या हुआ जो घर आ कर उसे मार पड़ी होगी! क्या हुआ जो स्कूल में पांड़े पंडितजी ने मारा होगा। अन्नू ने खड़े रह कर पिटाई तो नहीं सही थी। मैं तो ऐसा करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। कौन कहता है कि दिन बदलते नहीं हैं दिन जरूर बदलते हैं, बल्कि बदल रहे हैं, नहीं तो मजाल होती अन्नू की कि पांड़े पंडितजी की कुर्सी पलट दे।

पिछले दिनों बाबू मेरे लिए जो भी चिट्ठियाँ लिखते, सब में अन्नू की बदमाशियों का जिक्र होता। जब से मैं यहाँ आया बाबू कई बार मुझसे कह चुके हैं कि मैं अन्नू को थोड़ा समझाने की कोशिश करूँ। बाबू को क्या पता कि जब मैं अन्नू की बदमाशियों के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूँ तो मेरे अंदर कैसी खुशी होती है। यही सब शरारतें और बदमाशियाँ तो मैं करना चाह रहा था अपने बचपन में, पर आजी के...। अन्नू को देखना दरअसल अपने ही बदले हुए बचपन को देखना होता है। मैं अन्नू को अपने पास बुलाता हूँ और उसका गाल चूम लेता हूँ। इस अनायास प्यार से पहले तो वह सकुचाता है, फिर हँसने लगता है। कितनी प्यारी और निडर है उसकी हँसी। मैं उसके बिखरे हुए बालों को और बिखेर देता हूँ और कहता हूँ कि जाओ खेलो।

दरअसल अन्नू को कुछ सहूलियतें अपने आप ही मिल गई हैं। आजी के शरीर में अब पहले जैसा दम रहा नहीं कि दौड़ा कर पकड़ लें। आजी तो अब बैठे-बैठे अम्मा, बाबू, अन्नू सब पर बड़बड़ाती रहती हैं और भगवान से बार-बार अपने आपको उठा लेने की विनती करती रहती हैं। बुढ़ापे में कष्ट भला किसे नहीं होता पर आजी का सबसे बड़ा कष्ट यह है कि अब सब अपने मन की करते हैं, आजी से कुछ पूछा नहीं जाता। रहे पांड़े पंडितजी, तो उन्हें बच्चों को पीटने के लिए टहनियाँ ही कहाँ मिलती होंगी और अब भला हाथों को कौन कष्ट दे। इस गड़ही में तो बेहया बचा नहीं। शिवमूरत चाचा ने इसमें मछलियाँ पाल लीं। आसपास भी जहाँ बेहया होता था, वहाँ अब खेत बन गए हैं। धीरे-धीरे बेहया लोगों के मन से भी साफ हो जाएगा और तब बेहया होने की उपमा मिलनी बंद तो अभी तो बेहया बिल्कुल साफ, पर कल अगर बेहया की पत्तियों या फूलों में से कोई दवा ही निकल आए तब?

ऐसा भी नहीं है कि बिल्कुल बेकार की चीज है बेहया। बाबा जिंदा थे तो बेहया की मोटी-पतली टहनियाँ काट कर लाते और हंसिये से चीर कर धूप में सुखाने के लिए रख देते। यही बेहया चूल्हे में जलता और हम रोटी खाते। बाद के दिनों में जब हम गाय-भैंस ले कर चराने थोड़ा दूर निकल जाते तो यही बेहया हमारे लिए हॉकी की छड़ी बन जाता। मुझसे छोटा झुन्नू बेहया की इन्हीं सीधी-सादी टहनियों से कुएँ के पास की नाली पर पुल बनाता। हम कभी गिर-पड़ जाते या आजी कभी ज्यादा ही पीट देतीं तो इसी बेहया के पत्ते हमारी सिंकाई में काम आते। एक अकेले बेहया की इतनी उपयोगिता कम तो नहीं थी, कि उसे इस तरह से साफ कर दिया जाय कि उसके लिए कहीं जगह ही न बचे।

जब बेहया था तो उसकी झुरमुट में हम गर्मियों में कच्चे आम सबसे छुप-छुपा कर पकने के लिए रख आते। दीदी, मैं और बाद में झुन्नू भी, उसमें छुपमछुपाई खेलते और हमारे साथ खेलती जलमुर्गी, बनमुर्गी, गौरैया, बुलबुल। इसी झुरमुट में दबे पाँव बिल्ली आती, गिलहरी और चिड़ियों की तलाश में। आजी भी जब हमारी तलाश में आतीं तो दबे पाँव ही आतीं।

गर्मियों में जब इस झुरमुट में मधुमक्खियाँ होतीं तो कई बार मैं चुपके से कटोरा और कंडी की आग लेकर उसमें घुस जाता और अपने लिए थोड़ी सी शहद निकाल लाता। जितनी शहद कटोरे में होती उसकी दुगुनी जमीन पर। पर मेरे लिए यह बहुत होती और दीदी को ललचाने के लिए भी। दीदी को मधुमक्खियों से जितना डर लगता शहद उतनी ही अच्छी लगती। शहद का लालच दे कर दीदी से कोई बात मनवाई जा सकती थी।

एक बार जब मैं अकेले ही अपने छुपाए हुए आम ढूँढ़ रहा था, देखा आजी मुझे ढूँढ़ती हुई इधर-उधर ताक रही हैं। मैं उनकी निगाहों में आने से बचता हुआ धीरे-धीरे पीछे की तरफ खिसक रहा था कि अचानक आजी ने देख लिया और मेरी तरफ बढ़ती हुई चिल्लाईं - निकल बाहर, अभी बताती हूँ। मैं घबरा कर भागने के लिए पीछे पलटा और पीली ततैयों के एक छत्ते से टकरा गया। ततैयों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया और डंक पर डंक मारने लगीं। मैं चिल्लाते हुए बाहर भागा। जब तक मैं गिरते-पड़ते बाहर आया, ततैयों के डंक के लाल-लाल निशान पूरे शरीर पर उभर आए थे। आजी बाहर डंडा लिए खड़ी थीं और मेरे ऊपर चिल्ला रहीं थीं। कुछ ततैयों ने उन्हें भी काट खाया था। मेरे बाहर निकलने भर की देर थी और आजी ने मेरे शरीर पर उभरे हुए निशानों को अपने डंडे से आपस में जोड़ दिया।

मेरा पूरा शरीर डंक और डंडे के जोर से सूज गया और इस बुरी तरह जकड़ गया कि मैं हाथ-पाँव भी नहीं हिला पा रहा था। दर्द इतना था कि शरीर दर्द का समंदर बन गया था ओर एक के बाद एक टीसती हुई लहरें उठ रहीं थीं। पर रोना तब भी नहीं आया। रोना तो तब आया जब अम्मा रात में कोठरी बंद कर गगरी के पानी से सिंकाई कर रही थीं। अचानक मुझे इतना रोना आया कि मैं चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। अम्मा ने चुप-चुप करते हुए मुझे अपने आँचल में छुपा लिया। मेरा रोना था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। अम्मा मुझे चुप-चुप, चुप मेरे लाल करते हुए खुद सिसकने लगी। अम्मा सिसक रही थीं। अम्मा सिकाई कर रही थी। अम्मा दर्द कम करने के लिए मेरा पोर-पोर चूम रही थीं कि बाबू आ गए।

ऐसा पहली बार हुआ था कि बाबू सामने थे और मेरा रोना नहीं थमा। ऐसा भी पहली ही बार हुआ था कि बाबू ने मुझे प्यार से छुआ-सहलाया। पता नहीं क्यों मैं और जोर-जोर से रोने लगा। जैसे अंदर आँसुओं का कोई बाँध था जो तेज आवाज के साथ टूट गया था। बाबू अचकचा से गए। उन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया और जीवन में पहली बार मैंने बाबू के हथौड़े जैसे उन हाथों की कोमलता को महसूस किया जो गुस्से में मेरी पीठ पर पड़ते तो मेरी चीख से आस-पास की हवा तक काँप उठती। जब मेरा रोना थमा और हिचकियों के साथ मैंने अपना सिर ऊपर उठाया तो मुझे बाबू की आँखें नम दिखीं। शायद मेरे ही थोड़े से आँसू बाबू की आँखों में पहुँच गए हों या फिर यह मेरा भ्रम ही रहा हो, पर उस दिन के पहले मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू की आँखें मेरे लिए भी नम हो सकती हैं। यह जादू जाने कैसे उस रात हो गया था। उससे भी बड़ा जादू यह हुआ कि उस रात के बाद बाबू ने मुझे शायद ही फिर कभी मारा हो। पता नहीं यह किस बात का असर था।

आज जब गड़ही में नहीं बचा बेहया, बेहया की जगह पानी में उछलती-तैरती मछलियाँ हैं। मैं मछलियों को उछलते हुए देख रहा हूँ। मेरे मन में बचपन की अनेक स्मृतियाँ मछलियों सी ही उछल रही हैं। गड़ही में बेहया कहीं नहीं है पर बिना बेहया के कोई स्मृति बनती ही नहीं। कहीं मैं इसके झुरमुट में आम छुपा रहा हूँ तो कभी यही बेहया मेरे जिस्म पर बरस रहा है। आज भी जब मैं खुले बदन होता हूँ तो मुझे अपने समूचे जिस्म पर आजी के डंडों के अनगिनत निशान दिखाई पड़ते हैं। मेरे देखते-देखते वे उभर आते हैं और उनमें से लहू टपकने लगता हैं। पीड़ा से मेरा जिस्म ऐंठने लगता है।

इस पीड़ा से बचने के लिए मैं अनायास ही अन्नू की बदमाशियों को अपने बचपन के साथ गड्डमड्ड कर देता हूँ। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है। बेहया नहीं है तो क्या हुआ अन्नू ने अपने छुपने-छुपाने के लिए कई जगहें ढूँढ़ लीं हैं। वह जब कभी मेरी तरह अपना बचपन याद करेगा तो उसके जिस्म पर लहू टपकाते निशान नहीं उभरेंगे। उसकी आँखों में मछलियाँ तैरेंगी। क्या पता उसे पंडितजी की कुर्सी पलट देने की हिम्मत इन मछलियों से ही मिली हो।