बैंड बनाम बैंडेज / पंकज प्रसून

Gadya Kosh से
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प्रेम कुमार उर्फ पक्का ने पैंतालीस साल की उम्र में मजबूरीवश डॉक्टरी सीखी। उनकी प्रजनन क्षमता के चलते ऐसा हुआ। दस बच्चे और दो बीवियों सहित बारह लोगों की जिम्मेवारी उठानी पड़ रही थी। हालाँकि उन्होंने दसों बच्चों को रोजगार पर लगा दिया था। 'पक्का बैंड पार्टी' खोलकर। जिसमें दो छोटे बच्चे झुनझुना बजाते थे। पर सहालग बारहों महीने तो चलती नहीं इसलिए उनको डॉक्टरी सीखनी पड़ी। जिसके लिए उन्होंने गाँव से दस किलोमीटर दूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में तीन महीने का क्रैश कोर्स ज्वाइन किया। और वहाँ के वार्ड ब्वाय डा. किशोरी ने उनको फिजीशियन और सर्जन दोनों बना दिया। आश्चर्य मत करिए, गाँव के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में वार्ड ब्वाय ही डॉक्टर होता है। क्योंकि जो डॉक्टर होता है वह सिर्फ कागज पर आता है। फिर जाता कहाँ है? शहर के प्राइवेट नर्सिंग होम में। गाँवों में हर सरकारी आदमी प्राइवेट काम करता है चाहे वह डॉक्टर हो या मास्टर। और इसका फायदा मिला वार्ड ब्वाय किशोरीलाल को जो किसी मेडिकल डिग्री के डा. किशोरी हो गए।

डा. के. लाल यानी किशोरीलाल तीन महीने में प्रोफसर बन भी बन गए थे क्योंकि उन्होंने पक्का को डा. पक्का बना दिया था। मेडिकल कॉलेज में शुरुआत थेओरी से होती है पर डा. किशोरी की क्लास में डायरेक्ट प्रेक्टिकल का प्रावधान था। तमाम मेडिकल कॉलेज 'ह्यूमन मॉडल' के लिए तरसते रहते हैं पर यहाँ आने वाला प्रत्येक मरीज ह्यूमन मॉडल ही रहता था। जिस पर किशोरी तरह-बेतरह के प्रयोग किया करता था। तीन महीने तक लगातार प्रेक्टिकल क्लासेज का परिणाम था कि पक्का ने नस में सीरिंज घुसाना, ग्लूकोज की बोतल टाँगना, फोड़े की सर्जरी करना, घाव में बत्ती भरना, मरहम पट्टी करना, डॉक्टरी गाँठ लगाना,और डॉक्टरी गाँठना सीख चुका था। सर्जरी की इतनी विधाओं में पारंगत होने का मतलब आप मास्टर इन सर्जरी हो गए। डा. किशोरी ने पक्का को समझाया था 'सर्जन यानी हाथ की सफाई द्वारा मरीज की जेब काटना' और फिजीशियन यानी कि बिना दिमाग लगाए मरीज की जेब काटना। किशोरीलाल ने पक्का को प्रमुख मर्जों जैसे बुखार, आँख, नाक कान गले की समस्या (ईएनटी), अलग अलग किस्म के दर्दों के लिए अलग अलग रेसिपी बनाकर दे दी थी। जिससे बिना दिमाग लगाए वह मरीजों को दवा दे सकते थे। यह रेसिपी किशोरी की अपनी नहीं थी। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के डिग्रीशुदा डॉक्टर की थी जिनको किशोरी का गुरू-घंटाल मानना चाहिए।

तीन महीने के कोर्स के बाद आखिरकार अपने गाँव से तकरीबन पंद्रह किलोमीटर दूर रमपुरवा में डा. पक्का ने अपना क्लीनिक खोल दिया। खुद के गाँव में डाक्टरी प्रतिभा दिखा ही नहीं सकते थे। जान माल का खतरा था। खतरा उनकी बैंड पार्टी की इमेज को भी था।

रमपुरवा के ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार पप्पू पंडित की ने क्लीनिक के लिए जगह मुहैया करवा दी थी। सड़क के किनारे बोर्ड लगा 'पक्का क्लीनिक - हर मर्ज का पक्का इलाज' - डा. पक्का - एसटीकेएमएस' यानी 'शोर्ट टर्म कोर्स इन मेडिकल साइंस'।

आज सारी दवाएँ सजा कर रखी गईं थीं। स्टेथोस्कोप का पूजन चल रहा था। पक्का बैंड पार्टी भी धुनें बजा रही थी। यानी आज इस क्लीनिक का उद्घाटन समारोह था। ग्राम प्रधान पद के प्रत्याशी - पप्पू पंडित अपने समर्थकों के साथ आए थे। विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे डा. किशोरी लाल। सीरेंज संस्कार के बाद पप्पू पंडित ने नारियल फोड़ कर क्लीनिक का औपचारिक या यूँ कहें उपचारित उद्घाटन कर दिया। प्रथम मरीज पलटन काका जैसे इंजेक्शन ठुंकवाने आगे बढ़े, बैंड पार्टी ने गाना बजाया 'यह देश है वीर जवानों का'। पलटन काका चीखे परंतु दवा अंदर चली गई। इस बार बैंड पार्टी ने नागिन घुन बजाई। उन्होंने कमरदर्द, पेटदर्द और बदनदर्द के मरीज को एक ही इंजेक्शन ठोंका। और उनको तुरंत फायदा हुआ। क्योंकि इंजेक्शन का दर्द इतना ज्यादा था कि वह बाकी दर्द भूल गए। इस तरह से डा. पक्का की डाक्टरी शुरू।

डा. पक्का अपने गुरु के पग-चिह्नों पर चल निकले थे। किशोरीलाल ने बताया था कि डॉक्टर वही बड़ा होता है जो मरीज को आते ही इंजेक्शन ठोंक दे। इससे भोकाल कायम होती है। मरीज पर मनोवैज्ञानिक विजय प्राप्त होती ह। और पैसे भी बनते हैं। खास बात यह है कि इससे प्रचार भी होता है एक मरीज लगवा कर जाता है तो मोहल्ले भर में वह चर्चा करता फिरता है। मरीज जुकाम का हो या बाई का उसकी तीन चीजें अवश्य चेक करते थे - नाड़ी-धडकन-बीपी। ऐसा करके वह डॉक्टरगीरी झाड़ते और मरीज को प्रभाव में लेते। हालाँकि उनका स्टेथोस्कोप व ब्लड प्रेशर मशीन दोनों खुद बीमार थे। यह बिगड़ी मेडिकल सामग्री सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की जानिब आई थी। जिसे दो सौ रुपये मासिक किश्तों पर किशोरीलाल ने पक्का को दे रखा था। इसके साथ पुराने ग्लूकोज स्टैंड, पेशेंट बेड, दवाओं आदि की सप्लाई भी किशोरीलाल ने ही की थी। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही पक्का का मेडिकल स्टोर था।

डा. पक्का ने इस सूत्र को भी गाँठ बाँध लिया था कि भले ही इलाज खराब हो पर व्यवहार सदैव अच्छा रहना चाहिए। इसलिए वह बड़े बूढों को सम्मान सहित दवाई देते थे। महिलाओं से उनके संबंध अत्यंत मधुर थे जिसके चलते कई पतियों को उन्होंने लगभग रोगी बना दिया था। जब मरीज न आते, वह मरीज की तलाश में गाँव निकल जाते। घर-घर फ्री मेडिकल चेक-अप करते। और तीन चार को रोगी बना ही देते।

'बहुरिया का बीपी हाई है अम्मा। और तीन महीने का बच्चा है अंदर। आपको पता नहीं है कि जच्चा का ब्लड प्रेशर बच्चा को हो सकता है। जल्दी इलाज करवा लो।'

'अरे ई का कहि रहेव हय डाकटर साहिब! जइसन हुवे ठीक कइ दियव बहुरिया का... केतना खर्चा आई।'

'पाँच सौ रुपये'

'लेकिन यतना पइसा तो नाहीं हय घर मा।'

'तो क्या हुआ अम्माजी... गेहूँ तो कट गए हैं न। एक कुंतल दे देना'

'जुग जुग जियव डाकटर साहिब। तुम तो भगवान हव हमरे लिए...'

हल्कू काका की कब्जियत दूर करते के एवज में चावल, आसरे तेली की पथरी दूर करने के एवज में दाल, संपत खटिक का लीवर सही करने के एवज में सब्जी व मनोहर यादव के पढ़ाकू बेटे की याददाश्त बढ़ाने की एवज में दो लीटर दूध भी बँधवा लिया था। इस तरह वह अपनी बैंड पार्टी के लिए पैसा और राशन दोनों जुटा लेते थे।

कुछ मरीज ठीक भी हो जाते थे। दवाइयों के कारण नहीं बल्कि आधा किलो दूध, एक किलो सेब, दो किलो मुसम्मी, व एक दर्जन केले की वजह से, इतनी चीजें दवा के साथ कहनी अनिवार्य होती थीं। फल विक्रेता की दुकान भी क्लीनिक के सामने लगती थी जिससे वह कमीशन भी झटक लेते थे। इसके पीछे अवश्य अरस्तू का विचार रहा होगा -'डॉक्टर इलाज करते हैं - प्रकृति अच्छा करती है।

डा. पक्का पूरे योजनाबद्ध तरीके से डाक्टरी करते थे। पहले वह मरीज की संपत्ति देखते। फिर उसको संपत्ति के अनुसार रोगी बनाते फिर डा. किशोरीलाल को रिफर करते। डा. किशोरीलाल उसको रोगी से मरणासन्न स्थिति में पहुँचाता और फाइनली वह रोगी को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के असली डॉक्टर टी.बी. कालरा के प्राइवेट नर्सिंग होम भेजता। यदि बचा तो बचा वरना यहाँ से डॉक्टर उसे सीधे भगवान के पास भेज देते थे। यदि एक मरीज डा. टी.बी. कालरा के नर्सिंग होम में पहुँचता तो पाँच सौ रुपये किशोरीलाल के और सौ रुपये पक्का के पक्के हो जाते। यह उनका 'रोगी विनिमय कार्यक्रम' था।

डा. पक्का धीरे धीरे क्लीनिक का इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर रहे थे। उन्होंने एक एक्स-रे रूम भी बना दिया था। जहाँ पर एक्स-रे मशीन की जगह नीकान का कैमरा स्थापित था। प्रायः दमे या खाँसी से पीड़ित दुबले मरीज को एक्स-रे रूम में ले जाते आँख बंद करवाते फिर फ्लैश चमकता और उसके सीने की फोटो खींच लेते। फिर निगेटिव मरीज को दिखाते और उसको बताते कि सीने में कफ कहाँ कहाँ जमा है। इस तरह पैसे जमा करवा लेते।

गाँवों में पत्नियों को प्रायः मानद उपाधि मिल जाती है। जिस तरह से मास्टर की पत्नी मास्टराइन हो जाती है,उसी तरह डॉक्टर की पत्नी डक्टराइन हो जाती है। डा. पक्का ने इस परिपाटी का पूरा फायदा उठाते जच्चा बच्चा केंद्र खोल दिया। चूँकि डाक्टरनी साहिबा के पास बच्चे पैदा करने का बीस बरस का ठीक ठाक अनुभव था इसलिए अपनी पत्नी की प्रतिभा पर पक्का को कोई शक नहीं था। अतः गाइनेकोलोजी चल निकली। इधर बच्चा पैदा होता उधर पक्का बैंड पार्टी सक्रिय हो जाती। एक्स-रे मशीन यानी कैमरा फोटो भी खींचनी शुरू कर देती। और डा. पक्का दूध वाला इंजेक्शन यानी ओक्सीटोसीन ठोंक देते। यानी कि चौतरफा कमाई।

डा. पक्का खोजी प्रवृत्ति के थे वह धंधे बढ़ाने के नए नए तरीके खोजा करते थे। जबसे किशोरीलाल ने उनको यह बताया कि ओक्सीटोसीन इंजेक्शन पशुओं में दूध बढ़ा देता है उनके मन में पशुओं के प्रति प्रेम उमड़ आया। एक दिन उन्होंने कमजोर भैसों को और कम दूध देने वाली गायों को पिटते देखा तो उनके अंदर का गौतम बुद्ध जाग उठा और दिल में पशुओं के प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ आई जिसे उन्होंने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया -

'रमपुरवा के निवासी कमजोर होते जा रहे हैं। कारण हैं यहाँ की कमजोर भैंसें। आज रमपुरवा में भाईचारे से अधिक हरे चारे की जरूरत है जो पानी के अभाव के चलते पूरी नहीं हो पा रही है। रमपुरवा को सशक्त बनाने के लिए यहाँ की भैंसों को सशक्त बनाना पड़ेगा। इसलिए आज से मैं जानवरों की डाक्टरी भी शुरू कर रहा हूँ। कभी आपके बैल को खाँसी आए, बछड़े को बुखार आ जाए या बकरी को बदनदर्द हो तो उसका इलाज है मेरे पास। और आज विज्ञान बहुत आगे जा चुका है। वैज्ञानिकों ने एक ऐसा दुर्लभ इंजेक्शन बनाया है जिसे लगाते ही आपकी भैंस भरपूर मात्र में दूध देने लगेगी। एक इंजेक्शन पच्चीस रुपये का।

और इस तरह डा. पक्का दूध वाला इंजेक्शन गाय-भैंसों को लगाकर चमत्कार दिखाने लगे। पूरे इलाके में अब वह मान्यता प्राप्त पशु चिकित्सक के रूप में भी विख्यात हो गए थे। लोग-बाग अपने अपने जानवर भी साथ लेकर आने लगे। पर डाक्टर पक्का समदर्शी थे। वह मनुष्य और जानवर में कोई फर्क नहीं करते थे। वह दोनों उनके लिए 'मरीज' थे। इसलिए वह दोनों को समान दवा देते थे। सिर्फ डोज का फर्क होता था। वजन के अनुसार। इस कमाई की एक नियत प्रतिशत किशोरीलाल के पास भी पहुँचता था। क्योंकि ओक्सीटोसीन के इंजेक्शन तो सप्लाई वह ही करता था।

डा. पक्का धीरे धीरे ख्यातिलब्ध हो रहे थे। और पप्पू पंडित प्रधानी के इलेक्शन में उनको स्टार प्रचारक बनाने वाले थे। और यह बात विरोधी अन्नू दीक्षित को हजम नहीं हो रही थी। अन्नू दीक्षित ने डा. पक्का को समझाया भी था कि आप डाक्टरी करिए यहाँ की राजनीति का आपरेशन मत करिए, वरना आपका पोस्टमार्टम हो सकता है। परंतु डा. पक्का कहाँ मानने वाले थे। वह मान भी जाते परंतु पप्पू पंडित की दी हुई दुकान का कर्ज चुकाने का उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव था। इसलिए उन्होंने पप्पू पंडित का प्रचार किया। दवा के साथ में चुनाव चिह्न के पर्चे बाँटे। बैंड पार्टी का भी सदुपयोग किया। गाय और भैंसों की शपथ भी दिलाई। बीवी ने पैदा होने वाले बच्चों की कसम दिलाई। डा. पक्का एंड कंपनी के संयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप पप्पू पंडित भारी वोटों से विजयी हुए।

अन्नू दीक्षित को अपनी हार का गम कदापि न था। वह लाल पीले इस वजह से हो रहे थे कि एक बाहरी गाँव का आदमी आकर पप्पू पंडित को विजयी बना देता है। उसके वोट बैंक में सेंध लग गई थी। उसने डा. पक्का को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था।

इसी बीच अन्नू दीक्षित के पड़ोसी भुल्लर की भैंस मर गई। अन्नू दीक्षित को जैसे नेमत मिल गई हो। वही भैंस थी जिसको डा. पक्का ने दो दिन पहले ओक्सीटोसीन की इंजेक्शन ठोंका था। और अपने तर्कों से भुल्लर ने यह साबित कर दिया था कि यह मौत उसी इंजेक्शन के 'साईडिफेक्ट' की वजह से हुई है। परिणामस्वरूप भुल्लर हर्जाना माँगने डा. पक्का के घर पहुँच गया। परंतु पक्का ने हर्जाना देने से साफ मना कर दिया। आखिर वह सुपर प्रधान जो ठहरा। किंग से ज्यादा रौब तो किंग मेकर का होता है।

अन्नू दीक्षित भी यही चाहता था कि हर्जाना न मिले। क्योंकि हर्जाना उसके प्रतिशोध पर पानी फेर सकता था। अन्नू दीक्षित के कहने पर भुल्लर से भैंस के हत्या की एफआईआर थाने में दर्ज कराई। फिर कार्यवाही करने के लिए दरोगा जी को अलग से पैसे दिए। थाने में जिसको आप अभियुक्त बनाना चाहते हैं उसके रसूख के अनुसार पीड़ित पक्ष को फीस अदा करनी पड़ती है। जाहिर है रसूखदार डा. पक्का पर कार्यवाही के लिए अन्नू दीक्षित ने ठीक-ठाक रकम दी होगी।

दरोगा दल बल के साथ डा. पक्का के क्लीनिक पहुँचे। और डा. पक्का से थाने चलने के लिए कहा। डा. पक्का सारा माजरा समझ चुके थे।

'दरोगा साब, मैं तो इनसानों का डॉक्टर हूँ, जानवरों का नहीं। यह कोई पशु चिकित्सालय नहीं है। और यदि आपको लगता है कि भैंस की हत्या मैंने की है तो उसका पोस्टमार्टम करवाइए पहले।'

दरोगा साब के अहम को ठेस पहुँची और उनके अंदर का कानून उबाल मारने लगा

'अबे डाक्टर वे तुझे मालूम नहीं कि मैं तेरे इस मानव चिकित्सालय को दो मिनट में पशु चिकित्सालय बना सकता हूँ। भैंस अभी दफनाई नहीं गई है। पंचनामा भी हो जाएगा। हम कुछ भी कर सकते हैं। जानता नहीं क्या यूपी की पुलिस को।'

उनके अहम को तुष्टि तब मिली जब हजार रुपये का नोट दरोगा की जेब में पहुँच गया।

कानून जब दोनों पक्षों से धन अर्जित कर लेता है तो उसकी प्रवृत्ति सुलहवादी हो जाती है। एफआईआर मुकदमे में तब्दील नहीं हो पाती। भारतीय कानून की इसी प्रवृत्ति के चलते देश में खुशहाली बनी रहती है। दरोगा ने पीड़ित पक्ष के लिए पाँच हजार की देनदारी तय करवाई। भुल्लर तो मान जाता पर अन्नू दीक्षित ने मानने नहीं दिया। भुल्लर को पूरे पैसे चाहिए थे। दरोगा ने सुलह का पूरा प्रयास किया। यह प्रयास लिए गए पैसों के अनुपात में था। एक घंटे में लिए गए पैसों की सीमा समाप्त हो गई थी। साथ में उनका प्रयास भी खत्म हो चुका था। परिणामस्वरूप वे भुल्लर और अन्नू दीक्षित की माँ-बहन का अपमान करते हुए निकल गए।

अन्नू कहाँ मानने वाला था। उसने भुल्लर को भड़काना जारी रखा। और शिकायत को वह एसएसपी ऑफिस तक ले गए। सीएमओ के पीए को कुछ दान दक्षिणा देकर वहाँ भी शिकायत दर्ज कराई। अब यह झोला छाप डॉक्टर द्वारा भैंस की मौत का गंभीर मामला बन चुका था। आखिरकार एक दिन पक्का के क्लीनिक पर छापा मारने का कार्यक्रम तय हुआ।

दरोगा सीएमओ एसएसपी ने सुबह सुबह डा. पक्का की क्लीनिक पर छापा मारा। पर यहाँ क्लीनिक था ही नहीं। यहाँ पर डा. पक्का की जगह प्रोप्राइटर पक्का लिखा था। 'पक्का बैंड पार्टी' - 'आपकी हर खुशियों का पक्का साथी' जहाँ पर ऑपरेशन थियेटर था, वहाँ पर वाद्य-यंत्र रखे थे। जहाँ डाक्टराइन साहिबा के लेबर रूम में लेबर बैठे हुए थे। वहाँ पर बीपी मशीन रखी होती थी... वहाँ पर झुनझुना रखा था।

पक्का ने उन तीनों का खूब स्वागत सत्कार किया। बिलकुल वैसे ही जैसी फॉरेन डेलीगेसी का भारत सरकार स्वागत करती है।

'आप जैसे लोग इस गरीबखाने में आए, जीवन धन्य हो गया। एक बार सेवा का अवसर दीजिएगा साब। हमारी बैंड पार्टी जान लगा देगी, पर आनंद में कोई कमी नहीं आने देगी।'

तभी एसएसपी साब को याद आया कि उनके भतीजे की शादी है। इतनी आवभगत कर दी थी पक्का ने कि एसएसपी साब तो पाँच हजार एडवांस देकर चले गए। और जाते वक्त अन्नू दीक्षित को उसी जीप पर बिठा कर ले गए।

अन्नू दीक्षित पर मुकदमा कायम हुआ। 'आपसी रंजिश के चलते भुल्लर के भैंस की खुद हत्या कर, भुल्लर को पक्का के विरुद्ध भड़काने का।'

एसएसपी साब के यहाँ बैंड बजाने के बाद प्रो. पक्का एक बार फिर से डा. पक्का बन गए थे। डाक्टरी की दुकान सज गई थी। बैंड की जगह पर बैंडेज आ गया था। लेबर रूम से लेबर जा चुके थे। डाक्टराइन ने भी मोर्चा सँभाल लिया था। ओक्सीटोसिन का डबल रोल शुरू हो गया था।

आप सोच रहे होंगे कि छापे की बात आखिर पक्का को पता कैसे चली।

पता तो चलनी ही थी। डा. टी.बी. कालरा सतर्कता के साथ भ्रष्टाचार की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद सीएमओ बन गए थे और वार्ड ब्वाय किशोरीलाल उनके बाबू।

बाकी दरोगा जी ने साबित कर दिया था कि कानून कुछ भी कर सकता है।