बैसाखियाँ / इला प्रसाद

Gadya Kosh से
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इस बार वह पूरी तरह तैयार हो कर आई थी। एक दिन पहले ही कंप्यूटर पर देख लिया था, नाइंटीन सिक्स्टी पर सेंट पैट्रिक्स डे की परेड दोपहर दो बजे से शाम चार बजे के बीच थी। रविवार होने की वजह से और सहूलियत थी। उसने कई काम कल ही ख़त्म कर लिए थे।

यह आइरिश त्योहार हमेशा उसे होली की याद दिलाता है और मार्च के महीने में होने की वजह से अक्सर ही होली या तो बीत चुकी होती है या फिर आनेवाली होती है। सेंट पैट्रिक्स डे यानी हरे रंगों की बहार! हरी शर्ट, हरी टोपी, हरे मोतियों की माला और आँखों पर हरे रंग के फ़्रेम का चश्मा। कुछ ने हरा रंग चेहरे पर पोत रखा था। हरा गुलाल भी दिखाई पड़ा। हरियाली सब ओर।

वसंत के आगमन की सूचना देता हुआ, संत पैट्रिक ने नाम पर मनाया जाने वाला यह आइरिश त्योहार अब अमेरिका की ज़िंदगी का हिस्सा हो चुका है। यों तो उसने देखा है कि खुलता हुआ हरा रंग ही - जैसे कि घास का होता है - हर ओर छाया होता है लेकिन हरे के बाकी शेड भी देखने को मिल जाते हैं। अमूमन वह भी उस दिन कोई हरी शर्ट डाल लेती है अपनी ब्लू जीन्स पर और भीड़ में शामिल हो जाती है। से यह परेड अच्छी लगती है और यदि परेड के दौरान दर्शकों की तरफ़ फेंके गए चॉकलेट, मोतियों की माला, कूपन आदि में से शैमरॉक ( तीन पत्तियों के आकार वाला) का चिन्ह यदि उसे मिल गया तो वह आम आइरिश की तरह मान लेती है कि यह उसके लिए सौभाग्य लाने वाला है। दरअसल ऐसा ही उसके साथ होता भी आया है। पहली बार वह जबरन इस परेड के दर्शकों में शामिल हुई थी। वह सप्ताह भर का सौदा- सुलुफ़ लेने बाज़ार निकली थी और लौटते वक्त जाना कि घर तक पहुँचने के रास्ते बंद हैं। सड़क पर शेरिफ़ की गाड़ियाँ हॉर्न देती घूम रही थीं। फ़ुटपाथों पर लोग जमे थे और किसी भी तरह कार निकालने की गुंजाइश नहीं थी। मजबूरन उसने कार पार्किंग लॉट में कार पार्क की थी और सड़क के दोनों ओर हज़ारों की संख्या में खड़े दर्शकों में शामिल हो गई थी।

तब उसने पीली शर्ट पहनी हुई थी और कुछ भी हरा नहीं। वह भीड़ से अलग दिखाई दे रही थी कुछ थोडे़ से अन्य लोगों की तरह जो उसी की तरह शायद फँस गए थे। हरे रंग के गुब्बारों और शैमरॉक के चिन्ह से सजी विभिन्न कंपनियों का इश्तहार लगाए हुए गाड़ियाँ, जिनकी खुली छतों से ढेर सारे लोग दर्शकों को लक्ष्य कर मालाएँ फेंक रहे थे, एक-एक कर गुज़रती रहीं। गुज़रती हुई गाड़ियों को वह दिलचस्पी से देखती रही थी। दर्शकों में बच्चे अधिक थे और उनके अभिभावक पिछली पंक्तियों में खड़े चॉकलेट आदि लूटने में उनकी सहायता कर रहे थे। एक ट्रक या कार गुज़रती और बीड्स-बीड्स की गुहार मच जाती। हैप्पी सेंट पैट्रिक्स डे के नारों से आकाश गूँज उठता। "प्राउड टू बी एन आइरिश" के नारे गुज़रती गाड़ियों पर पढ़ कर वह मुस्कराती रही थी।

तरह-तरह की गाड़ियाँ - कोई जूते के आकार की, कोई घर बना हुआ. . .बडलाइट की ट्रक से उस शराब का विज्ञापन करती गाड़ियाँ की-चेन फेंक रही थीं जिसमें कार्डबोर्ड की बडलाइट की बोतल जुड़ी हुई थी। सबकुछ हरे रंग का। बीच-बीच में बच्चों की टोलियाँ खूबसूरत हरे रंग की ड्रेस पहने जिमनास्टिक के क़रतब भी दिखा रही थीं। कुछ गीत गाते हुए बच्चे भी गुज़रे। एक म्यूज़िक कंपनी की गाड़ी कर्णप्रिय धुनें बजाती गुज़र गई। कुल मिला कर सुषमा को यह जुलूस बहुत अच्छा लगा था। दर्शनीय!

हालाँकि उसने बाकी लोगों की तरह चिल्लाकर बीड्स नहीं माँगे थे तब भी काफ़ी कुछ उसके पैरों के पास आकर गिरा था। कई रंगों की मोतियों की मालाएँ, चॉकलेट और एक टिन की बनी चमकीली तीन पत्ती भी। बीड्स वे लें जो ईसाई हैं, उसे क्या. . .! उसने सोचा था किंतु फिर सारा कुछ बटोरती चली गई। वह दिन अच्छा गुज़रा था। मन में जैसे हरियाली छा गई थी। बहुत कुछ आँखों के रास्ते भी मन में उतरता है।

जब उसी दिन पोस्ट किए गए रिसर्च पेपर की स्वीकृति की सूचना, क़रीब महीने भर बाद मिली तो उसने मान लिया कि यह तीन पत्ती सचमुच शुभ शगुन है। अगले साल वह फिर से जुलूस देखने गई। उसने भीड़ के साथ उछल-उछल कर बहुत कुछ लपका था। उसके हाथ कई शैमरॉक के चिन्ह वाले रैपर लगे चॉकलेट आए थे। उसके बाद जब अचानक ही एक दिन लुइस आकर उसके पैसे लौटा गया तो वह सोचने पर मजबूर हो गई थी। इस तीन पत्ती के आकार में कुछ तो है। सेंट पैट्रिक डे एक शुभ दिन का नाम है। तब से हर साल वह अपनी किस्मत जानने को इस भीड़ में शामिल हो जाती है। फिर कोई तीन पत्ती मिलेगी क्या? कोई चॉकलेट ही, जिसके रैपर पर यह चिन्ह बना हो! बल्कि अब तो वह अपनी मित्र मंडली को भी यह जुलूस देखने के लिए प्रोत्साहित करती है। दूसरी सारी वजहों को किनारे कर देने पर भी यह जुलूस दर्शनीय तो है ही और थोड़ी देर के लिए आप बच्चों में शामिल हो कर खुद भी बच्चे हो जाते हैं। यही सब सोच कर उसने वंदिता को फ़ोन किया था।

"कल सेंट पैट्रिक्स डे है। आ रही है?"

"वह क्या होता है?"

"कम ऑन यार! तेरे दो बच्चे हैं और तुझे ही नहीं मालूम?"

"बता न।"

सुष ने विस्तार से जानकारी दी थी। शैमरॉक और गोल्डेन बीड्स से जुड़े आइरिश विश्वास और संत पैट्रिक के बारे में उसने कंप्यूटर पर पढ़ा था। ईसाई मान्यताएँ यों भी उसके लिए नई नहीं थीं। वह बचपन से ईसाई कान्वेंट स्कूल में पढ़ी थी। ईसाई धर्म भी की भी इतनी शाखाएँ हैं और एक चर्च दूसरे से अपनी मान्यताओं को लेकर कितने भिन्न हो सकते है उसी जीसस क्राइस्ट पर विश्वास के बावजूद, यह ज़रूर उसने अमेरिका आने के बाद जाना। यहाँ आकर ईसाइयत के इतने विभिन्न रूप देखने को मिलेंगे यह उसके लिए भारत में रहते हुए कल्पनातीत था। और अभी तो वह अपना सारा ज्ञान वंदिता के सामने उड़ेल रही थी। लेकिन वंदिता तो वंदिता ठहरी। अमेरिका में उसी की तरह पिछले पाँच साल से रहने के बावजूद थोड़ी भी नहीं बदली। अपनी भारतीय मंडली में घूमेगी। हर महीने उसके घर सत्यनारायण कथा या उस जैसा ही कोई उत्सव होगा। विश्व हिंदू परिषद से जुड़ी होने के कारण भी उसका दायरा काफ़ी बड़ा है। आए दिन भीड़ लगी होती है। कभी-कभी सुष को आश्चर्य होता है, कैसे सँभालती है यह सबकुछ। दो बच्चे, नौकरी, पति और आए दिन चले आने वाले अतिथि। फिर वह हर किसी के घर पूजा में जाएगी भी। यह दीगर बात है कि उसी की वजह से सुष भी कुछ पर्व त्यौहार मना लेती है। होली-दीवाली में उसके घर चली जाती है तो अकेला नहीं लगता!

"हाँ, हाँ, समझ गई। अरे अभी चैत्र के नवरात्र चल रहे हैं, यह समय तो शुभ होता ही है!"

सुष को लगा यह कभी नहीं सुधरेगी!

'"अरे यार, बच्चों को तो भेज। वे मज़े कर लेंगे। सब होते हैं, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई। आइरिश और नॉन-आयरिश। यह अमेरिका है!"

"अच्छा, अगली बार देखेंगे। अपने सब डिवीजन में होली- मिलन है आज। ड्राइव तो मुझे ही करना होगा न। नाइटीन सिक्स्टी बहुत दूर है यहाँ से।"

"तो मिनट मेड पार्क चली जा। डाउन टाउन। वहाँ का जुलूस तो और अच्छा है। तेरा दीपू तो कह रहा था कि उसे मालूम है सेंट पैट्रिक्स डे क्या होता है।"

"हाँ, सब स्कूल में सीख आते हैं। मैं तो बहन परेशान हो गई। वाइ.एम.सी.ए. स्वीमिंग के लिए ले जाओ। फिर कराटे सीखना है। होम वर्क करवाओ। इन्हें तो फ़ुरसत ही नहीं मिलती। सब मुझे ही करना है।"

"चल, जाने दे।"

सुषमा जानती है, वह नहीं आएगी। न ही बच्चों को उसके साथ जाने देगी। अमेरिका आने के बाद भी भारतीय पति अन्य मामलों में चाहे बदल जाएँ, पत्नी को लेकर भारतीय बने रहते हैं। यह सुविधाजनक है! लेकिन सुष जाएगी। उसे तीन पत्ती चाहिए!

इस बार उसके पास लखनवी अंगूरी रंग का कुर्ता है - उसका सबसे प्रिय और इस वक्त उसने वही पहना हुआ है।

यह नाइंटीनसिक्स्टी अक्सर उसे भ्रमित करता है। पहली बार तो जब सुना था तो उसकी समझ में ही नहीं आया था कि यह संख्या किसी रास्ते को सूचित करती है। अभी भी वह अक्सर ग़लत मोड़ ले लेती है और ग़लत रास्ते पर पहुँच जाती है लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। उसने कार सीयर्स के बड़े से गोदाम के पास पार्क की और कार की ट्रंक से कुर्सी निकाल ली। उसे लगा था कि वह लेट हो गई है लेकिन अभी परेड शुरू नहीं हुई थी। कई सारे दर्शक सड़क के दोनों ओर कुर्सियाँ डाले बैठे थे। पार्किंग लॉट में घुसने और निकलने का रास्ता भी कुर्सियों से पटा पड़ा था। वह नाइंटिन सिक्स्टी के पीछे की तरफ़ से आई थी, इसीलिए घुस सकी थी। बैठनेवालों में तमाम बड़े थे। बच्चों की कतार तो उत्साह से भरी उचक-उचक कर सड़कके उस सिरे पर नज़र लगाए थी जहाँ से जुलूस आनेवाला था। उसने एक कोने में अपनी मुड़नेवाली कुर्सी खोली और जम गई। उसके ठीक बगल में एक गोरी वृद्धा आँखों पर शैमरॉक के आकार का हरा चश्मा लगाए हुए है। उसे अपनी ओर देखता पाकर वह मुस्कराई। सुष ने भी इशारा कर दिया - बहुत सुंदर! वह खुश हो गई।

इस बार फिरअगर शैमरॉक मिलता है तो ज़रूर उसका चयन होनेवाला है। वह इंटरव्यू देगी। अब आगे पढ़ाई करने का उसका इरादा नहीं। वह व्यवस्थित होना चाहती है। अपनी जिंदगी की अगली पारी खेलना चाहती है। अमेरिका से वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ की सुविधापूर्ण ज़िंदगी की आदतअब उसे भारत की धूल-पसीने भरी ज़िंदगी से किनारा करने पर मजबूर करती है। उसने एक छोटा-सा भारत अपने मन में बसा लिया है और उसी के साथ वह जीती चली जा रही है। जीती चली जाएगी। मन के उस कोने में जहाँ उसका देश बसता है, वह अक्सर घूम आती है। अपने दोस्तों, गली-मुहल्लों, माँ बाप, भाई बहनों, फ़ूल-पौधों से बतिया लेती हैं और फिर अमेरिका में जीने लगती है, जो उसका वर्तमान है। वह जानती है यह उस जैसे तमाम भारतीयों का सच है। और वंदिता चाहे अपने धर्म को लेकर आग्रही हो, देश को लेकर वह भी नहीं है। इस इंटरव्यू को लेकर वह कई दिनों से उधेड़बुन में है। जाए न जाए। पहले तो लगता रहा था कि बुलावा ही नहीं आएगा। वह अपने आप को इस स्थिति के लिए तैयार करती रही। इसके अतिरिक्त और कौन-कौन-सी कंपनियाँ हैं जहाँ वह आवेदन कर सकती है। कितने कम पैसों मे वह गुज़ारा कर सकती है। बड़ी कंपनी यानी बड़ा पैसा यानी बड़ी प्रतियोगिता। उसके लिए कितनी गुंजाइश बचती है, वह हिसाब लगाती रही थी और अब जब इंटर्व्यू में एक सप्ताह रह गया है वह इस जुलूस में अपनी किस्मत जानने आई है। तीन पत्ती मिली तो एयर टिकट बुक करवा लेगी।

सहसा उसकी नज़र अपने दूसरी ओर आकर खड़ी हो गई बारह-तेरह साल की मोटी-सी, जो शायद स्पैनिश थी, बच्ची पर पड़ी। उसके दोनों हाथ बैसाखियों पर टिके थे और चेहरे पर गहरी उदासी थी। पहला ख़याल जो सुषमा के मन में आया वह यह था कि यदि यह बैसाखियों पर न होती तो मोटापे की समस्या का इलाज करवा रही होती। पिज़्ज़ा खा खाकर मोटे हुए माँ बाप बच्चों को असमय ही मोटापे की समस्या का शिकार बना देते हैं। लेकिन उसकी बगल में खड़ी स्त्री मोटी नहीं थी।

सुषमा की कुर्सी की ठीक बगल में उस लड़की ने जगह ली। उसकी आँखें सुषमा से मिलीं लेकिन सुषमा की मुस्कुराहट के प्रत्युत्तर में वह स्त्री मुसकराई। वह लड़की नहीं। सुषमा को एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हुई। वह उसकी उदासी को समझ सकती थी। जहाँ आगे की लाइन में खड़े बच्चे उछ्ल-उछलकर मालाएँ लूट रहे थे, खुशी से चिल्ला रहे थे, यह लड़की प्रस्तर-प्रतिमा-सी अपनी बैसाखियों पर बस खड़ी थी। सुषमा को हैरत हुई कि क्यों नहीं इसकी माँ या अभिभाविका, जो भी यह औरत है, आगे बढ़कर कुछ बीड्स, कुछ चॉकलेट इसके लिए बटोर लाती है। वह तो ऐसा कर ही सकती है। या कि इसे पीछे ही रोके रखने के लिए, कि यह भीड़ में अपनी और दुर्गति न कराए, वह पीछे खड़ी है?

जुलूस अपने चरम पर था। सारी चीज़ें अगली पंक्तियों में खड़े लोगों द्वारा लपक ली जातीं। अभी तक सुषमा तक कुछ नहीं पहुँचा था। और कुछ नहीं तो भी उसे एक तीन पत्ती तो चाहिए, सोचती हुई वह अपनी कुर्सी से उठ कर कुछ आगे बढ़ गई। बस थोड़ा ही बढ़ी थी कि एक चाकलेट कैंडी ठीक उसके पैरों के पास गिरी। वह कोई बच्ची तो नहीं, जो लालीपॉप खाए। उसने वह चाकलेट पीछे मुड़कर उस बच्ची की तरफ़ बढ़ा दी "दिस इज फॉर यू।"

उस बच्ची के उदास चेहरे पर एक क्षीण मुस्कराहट बिजली की चमक-सी कौंधकर पल भर में विलीन हो गई। सुषमा ने फिर जुलूस की तरफ़ नज़र दौड़ाई। लगता नहीं कि उसके हिस्से में कुछ आनेवाला है। इस बार गुज़रती गाड़ियों में विज्ञापन ज़्यादा हैं। शैमरॉक के डिज़ाइन ज़्यादा हैं लेकिन कुछ वैसा दर्शकों की तरफ़ नहीं आ रहा। लेकिन शायद यह भी सच नहीं था। छोटी-सी ट्रक पर बैठे दो बच्चों ने शैमराक के आकार के बैलून फुलाए और एक-एक दोनों दिशाओं में दर्शकों की तरफ़ उछाल दिए। एक बच्चे और दूसरी ओर एक लंबे आदमी द्वारा वे हवा में ही लपक लिए गए। सुषमा मायूस हो गई। बस इतना ही तो चाहिए था उसे फिर तो वह वापस हो लेती। क्या पता उसी तरह यह बच्ची भी कुछ ऐसा ही सोचकर यहाँ आई हो। उसने मुड़कर बच्ची की तरफ़ देखा। वह चेहरा भावहीन था। जैसे कोई उम्मीद कहीं बची ही न हो।

सुषमा आगे बढ़कर पहली लाइन में खड़े बच्चों की पंक्ति के ठीक पीछे आ गई। बस एक तीन पत्ती, बाकी सबकुछ वह उस बच्ची को दे देगी। तीन पत्ती मिली तो वह इंटर्व्यू के लिए जाएगी वरना नहीं। इतनी दूर बोस्टन जाओ, जब कि वहाँ बर्फ़ पड़ रही है, और अगर होना ही नहीं है तो क्या ज़रूरत है ज़हमत उठाने की।

एक सुनहली माला उस तक आ कर गिरी। यह भी शुभ शगुन है, उसने सोचा और फिर पीछे जाकर माला उस बच्ची को दे दी। यह उसकी पहली माला थी। उसने गले में डाल ली। अबतक अगली पंक्ति के बच्चे मालाओं से लद चुके थे। हरी, सुनहली , नीली , पीली , लाल, बैगनी - हर रंग की मालाएँ। पालिथीन चाकलेटों से भरे।

विपरीत दिशा में देख रही, उसके पैरों से फिर कुछ टकराया। सफ़ेद मोतियों की माला! इसे वह अपने लिए रखेगी।

पीछे खड़ी बच्ची के गले में अब दो मालाएँ थीं। एक उसके साथ की स्त्री ने उठाई थी।

अगली दो चाकलेट फिर सुषमा ने बच्ची को दे दी। वह फिर मुस्कराई। लेकिन थैंक्यू जैसा कोई शब्द उसके मुँह से नहीं निकला। शायद वह बाकी बच्चों से अपनी तुलना कर रही थी जो मालाओं, चाकलेटों ,और तरह-तरह के पैकेटों, टी शर्ट आदि से लदे फंदे खुशी से कूद रहे थे।

गाडियाँ गुज़रती रहीं। अब वे पीछे खड़े लोगों को लक्ष्य कर रहे थे। बहुत कुछ पीछे भी पहुँच रहा था। सुषमा फिर से पीछे ह्ट आई थी। और एक-एक कर कई मालाएँ वह बटोर चुकी थी। हर गाड़ी के गुज़रने के साथ उसकी मायूसी बढ़ती जा रही थी। कोई तीन पत्ती उसे नहीं मिलनेवाली। हालाँकि ऐसी मालाएँ भी फेंकी गई थीं जिनमें तीन पत्ती यानी शैमरॉक गुँथे हुए थे। उसमें से कुछ भी सुषमा तक नहीं पहुँचा था। एक घंटे के जुलूस का तीन चौथाई पार हो चुका था।

सुषमा को लौटना था।

सहसा बारिश शुरू हो गई। लोग भागने लगे। सुषमा ने अपनी मालाएँ गिनीं। एक में सिक्स फ्लैग का कूपन था। दूसरे से फ़ूलों के आकार की सुगंधित मोमबत्तियाँ लटक रही थीं एक कूपन के साथ कि वह अपनी मोमबत्ती इस दूकान पर आकर ले जाए। यानि कि जो उसे चाहिए था उसके सिवा बहुत कुछ मिल गया था उसे लेकिन उसके अंदर का विश्वास जगाने के लिए कुछ नहीं। एक-एक कर सारी मालाएँ उसने गले में डाल लीं। उसने पीछे लौटते हुए देखा, उस बच्ची के गले में भी तक़रीबन इतनी ही मालाएँ थीं, हालाँकि वह अपनी जगह से हिली भी नहीं थी, सिवाय एक बार के, जब एक पीली माला उन दोनों के बीच आ कर गिरी थी और सुषमा ने उससे कहा था "टेक इट।" तब उसने झुक कर माला उठा ली थी। चमकती हुई, शीशे की मोतियों की मालाओं की तरह उस लड़की का चेहरा प्रसन्न्नता से चमक रहा था। मालाओं की चमक शायद अब उसके अंदर भरने लगी थी। चेहरे पर शांति थी। वह मुस्करा रही थी। सुषमा ने अपनी बाकी चाकलेट्स भी उसे दे दीं। इतने चाकलेटों का वह करेगी क्या। किसी पर शैमरॉक का चिन्ह भी नहीं!. . .

बच्ची ने पहली बार उसे "थैंक यू" कहा।

शायद उसे उसका इच्छित सबकुछ मिल गया था!

भागते हुए लोगों में वह वृद्धा भी थी जिसने हरा चश्मा पहना था - शैमराक की डिज़ाइन का। " यह क्या बारिश होने लगी।" वह सुषमा से अंग्रेज़ी में बोली।

"मैं भारतीय हूँ। हमारे यहाँ ऐसी हल्की बारिश को लोग शुभ मानते हैं।" सुष ने कहा।

"अच्छा।" वह वृद्धा प्रसन्नता से मुस्कराई।

"हाँ। आपको मानना चाहिए कि यह सेंट पैट्रिक्स डे हैप्पी होने वाला है।"

"हैप्पी सेंट पैट्रिक्स डे।" वह हँसी।

कुछ हो न हो, सुषमा ने सोचा, उस वृद्धा का विश्वास उसने दुबारा जगा दिया है। अपनी मान्यताओं से जोड़कर। जबकि वह खुद इस बात में यकीन नहीं करती !

आकाश काले बादलों से भरता जा रहा था। वसंत का स्वागत करते पेड़ों में नई पत्तियाँ थीं लेकिन उनका घने छायादार स्वरूप में ढलना बाकी था कि कोई उनके नीचे खड़ा होकर खुद को बारिश से अंशत: ही सही, बचा सके। सुषमा और वह वृद्धा कुछ दूर तक साथ-साथ पार्किंग लॉट में चलते रहे। काले आसमान के नीचे ,सुषमा को उसकी दूधिया हँसी बहुत पवित्र-सी लगी। उसे घर जाना था। बाकी बचे काम निबटाने थे। वह वृद्धा शायद कुछ और कहना चाहती थी लेकिन सुषमा आगे बढ़ ली। नीचे हरा रंग अब भी सब तरफ़ फैला था। भागते हुए लोग एक हरी दीवार की मानिंद नज़र आ रहे थे। बैसाखियों पर खड़ी लड़की अब भी गले में मालाएँ पहने शांत भाव से खड़ी मुसकुरा रही थी। शायद उन लोगों की कार आस-पास ही कहीं थी। सुषमा ने सोचा, जाने दो। इंटरव्यू वह दे देगी। घर लौटकर पहला काम एयर टिकट बुक करना। फिर इंटरव्यू की तैयारी। आज का दिन तो बीत गया। एक दिन यात्रा का। तो बस पाँच दिन बचे हैं। ठीक से तैयारी करेगी। चयन हो न हो ! जाने का खर्च तो कंपनी दे ही रही है। और उसे क्या करना है। कड़ी प्रतियोगिता है इसीलिए साहस मरा हुआ है लेकिन यदि सफल हुई तो बॉस्टन अच्छी जगह है। बड़ा पैसा भी है। चलो, छोड़ो, वह भी क्या अंधविश्वास पाल रही है!

सहसा उसने महसूस किया कि बैसाखियों पर सिर्फ़ वह लड़की नहीं वह खुद भी खड़ी थी और कई सारे अन्य लोग। फ़र्क इतना है कि आज उसकी बैसाखियाँ उतर गईं। वह मुक्त है -अपने पाँवों से चलने को स्वतंत्र!