बॉक्स ऑफिस तराजू के पलड़े / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 मई 2016
शिखर महिला सितारे दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ और करीना कपूर का मेहनताना अधिक है और अनेक निर्माता उन्हें अनुबंधित करना चाहते हैं। इन शिखर पर विराजी महिलाओं की एकल फिल्मों के कोई खरीददार नहीं हैं परंतु जब ये पुरुष सितारों के साथ फिल्में करती हैं तब खरीददार कतार में खड़े मिलते हैं। सारांश यह है कि कोई भी शिखर महिला सितारा अपने कंधों पर फिल्म चला नहीं पाती। यह पुरुष केंद्रित व्यवसाय है परंतु दर्शक वर्ग में महिलाओं की संख्या फिल्म को सुपरहिट बनाती है। पहले फिल्म उद्योग में यह भी कहा जाता था कि जब सिनेमाघर में महिला दर्शक रोने लगती हैं और पुरुष दर्शक की आंखें भी नम होने लगती हैं तो फिल्म सुपरहिट मानी जाती है गोयाकि बॉक्स ऑफिस के तराजू पर आंसुओं का पलड़ा मुस्कान वाले पलड़े से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है और ये आंसू बहा सकने वाले दृश्य प्राय: महिलाएं अभिनीत करती हैं और पुरुष सितारा श्रेय लूट लेता है। पांचवें दशक में मीना कुमारी को इन्हीं आंसुओं के कारण 'त्रासदी की महारानी' कहा जाता था। मीना कुमारी को अन्य सितारों की तरह रोने-धोने के दृश्य के लिए अपनी आंखों में ग्लिसरीन नहीं डालना पड़ता था। फिल्मों के आंसू ग्लिसरीन के होते थे और उनमें नमक नहीं होता था। जब अन्याय झेलता व्यक्ति रोता है तो उसके आंसुओं में नमक होता है। जरा इस इत्तफाक पर गौर करें साहेबान कि समुद्र के पानी और मानवीय आंसुओं में नमक होता है, जबकि नेताओं के आंसू मगरमच्छ के आंसुओं की तरह होते हैं। आप चाहें तो रसायनशाला में नेता के आंसुओं का परीक्षण करा लें, उनमें नमक नहीं होता। आंसुओं में नमक का संबंध शरीर में बहते रक्त से होता है। मेहनतकश के रक्त में उसके बहाए पसीने का नमक शामिल होता है और शोषणकर्ता कभी अपना रक्त या पसीना नहीं बहाता, अत: उसके रक्त या आंसुओं में नमक कैसे आ सकता है? साहित्य और सिनेमा में नमक युक्त आंसुओं का महत्व होता है, शोषणकर्ता के आंसू मगरमच्छ के आंसू की तरह नमकविहीन होते हैं। उसके रक्त में भी हिमोग्लोबिन कम ही पाया जाता है, जिसके लिए बीमार पड़ने पर उसे मेहनतकश का रक्त चढ़ाया जाता है।
आंसू और रक्त को यही छोड़ दें और गौर करें कि महिला कलाकारों में कल्कि कोचलिन, स्वरा भास्कर जैसी विलक्षण अभिनेत्रियों के साथ कभी न्याय नहीं हुआ है। उनके लिए विशेष भूमिकाएं नहीं लिखी गईं। पुरुष सितारों की फिल्में उनके सितारा-मूल्य के कारण ऊंचे दामों में बिकती हैं। अत: अगर उनके साथ स्वरा भास्कर या कल्कि कोचलिन को लिया जाए तो आय के समीकरण पर कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु व्यय में अच्छी खासी बचत हो सकती है। दीपिका या प्रियंका के साथ उनका सात सदस्यों का स्टाफ भी चलता है, जिसका व्यय निर्माता देता है परंतु स्वरा, कोचलिन इत्यादि के साथ इतना बड़ा सहायक कारवां नहीं होता। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पुरुष सितारे के अवचेतन में स्वरा, कोचलिन इत्यादि के लिए भय होता है कि वे अपने अभिनय के कारण उनसे दृश्य चुरा लेंगी। उनके काम की अधिक प्रशंसा पुरुष सुपर सितारे की अभिनय अक्षमता को उजागर कर देगी। सारी आक्रामकता कमजोरियों को छिपाने के असफल प्रयास हैं।
कल्कि कोचलिन के माता-पिता फ्रांस में जन्मे थे और कुछ वर्ष उन्होंने पुडुचेरी में बिताए जहां कल्कि का जन्म हुआ। भारत में रहना और काम करना कल्कि का अपना चयन है। वे फ्रांस जा सकती थीं। भारत में वे मेडम बूब्वा भी हो सकती थीं और उनकी भूमिका भी निभा सकती हैं। भारत में गंदगी, भ्रष्टाचार व अन्याय आधारित संरचना है परंतु इसके बावजूद भी इसमें कोई कशिश है, जो लोगों को बांधे रखती है। भारत के जामेज़म में अनेक गुजश्ता सदियां एक ही क्षण में मौजूद रहती हैं। यह सभ्यताओं का अजायबघर भी है। दीपिका अौर प्रियंका इत्यादि इंडिया की चहेती हैं तो स्वरा भास्कर और कल्कि कोचलिन भारत की चहेती हैं गोयाकि भारत के दर्शक विशाल हृदय हैं और उसमें सबके लिए जगह है। इसी विशालता को बौना करने के प्रयास होते रहे हैं और आजकल का शगल है- अपनी भारतीयता को साबित कीजिए। इसके साथ यह भी गौरतलब है कि जो इस तरह का प्रमाण मांग रहे हैं, उनकी भारतीयता ही संदिग्ध है। जिन्हें कटघरे में मुजरिम की तरह खड़ा होना था, वे जज बने बैठे हैं और अदालत जारी है।
बॉक् ऑफिस के एक पलड़े पर आंसू हैं और दूसरे पर मुस्कान है। आंसू वाली फिल्मों की संख्या कम नहीं है और उसके दर्शक भी यथेष्ट संख्या में हैं परंतु भारतीय सिनेमा की मुख्य धारा में आंसुओं और मुस्कराहट का मिश्रण होता है। आंसू के मध्य से मुस्कान का क्लोज अप होता है तो ठहाकों के लॉन्ग शॉट के ध्वनिपट में सिसकी होती है, गले में रूंधी हुई सिसकी। जिंदगी भी इसी तरह होती है। कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि वह कभी रोया नहीं है और कोई रोने वाला यह नहीं कह सकता कि वह कभी हंसा नहीं है। मरघट या कब्रिस्तान में जिंदगी खत्म नहीं होती। ये सब पल दो पल की सरायें हैं।