बॉन डायरी-3 / शिवप्रसाद जोशी
27 दिंसबर 2007. बेनज़ीर भुट्टो की मौत
पाकिस्तान में आपातकाल किसका संकट है. यह परवेज़ मुशर्रफ का संकट है या नवाज़ शरीफ का या बेनज़ीर भुट्टो का या इमरान ख़ान का. यह ज्युडिश्यरी का संकट है या मीडिया का या ये कूटनीति का संकट है. अमेरिका के साथ रिश्तों का संकट है या लाल मस्जिद पर कार्रवाई का. उत्तरी वज़ीरिस्तान में चरमपंथी अड्डों का संकट है या कराची स्टॉक एक्सचेंज का. यह भूगोल का संकट है या भविष्य का. यह जिन्ना का संकट है या जुल्फिकार का या ज़िया उल हक का. यह फैज़ का संकट है या उज़रा बट्ट का. यह सलामत अली नज़ाकत अली का संकट है या वली मोहम्मद का या नुसरत फतेह अली खान का. यह नूरजहां का संकट है या इक़बाल बानो का. यह क्या सआदत हसन मंटो का संकट है. या यह सिर्फ टोबा टेक सिंह का एक अनिर्वचनीय संकट है. यह कराची लाहौर पेशावर फैसलाबाद का संकट है. यह स्वात घाटी की पारंपरिक तलवारों और पंजाब के सूफिज्म का संकट है. या क्या यह नौन रेज़ीडेंट पाकिस्तानीज़ का संकट है या टीम का संकट है या कौम का. यह देश का संकट है या विचार का. क्या यह डॉयचे वेले बॉन के उर्दू और हिंदी विभागों का संकट है.
पाकिस्तान की अभिव्यक्ति का संकट है यह आपातकाल. और उपरोक्त तमाम अर्थ छायाएं अभिव्यक्ति के इस करुण संकट में रूपायित हैं. भूगोल में अपने अस्तित्व की शिनाख़्त के निशान ढूंढते देश के लिए उसके समकालीन इतिहास में यह बहुत ग़ैर वाज़िब और गुस्ताख़ कोशिश और संगीन मौका होता है जब आपात काल लगता है. यह आपातकाल सुविधा संपन्न समाज के बेड को हिला देता है और वो खिन्न हो जाता है. वह भड़क जाता है. जिनके बेड नहीं जो आम है जो खाट वाले लोग हैं आम शहरी आम देहाती उनके जीवन में एक आपात काल हमेशा रहता है. ग़रीबी मनुष्य के जीवन का एक सतत आपात काल है. इस पर किसी को मरोड़ नहीं होती. इस स्थायी आपात काल पर हमारा भव्य संपन्न समृद्ध और बौद्धिक इतराहट में मग्न समाज नहीं हिलता. उसे ठेस नहीं लगती.
साधारण लोगों से भूगोल बनता है इतिहास का एक विराट कथ्य बनता है हुकूमतें पुलिस सेना और सरकारें बनती हैं. इतने मामूलीपन को न नकली लोकतंत्र की सजावट खींच सकती है न फौजी हुकूमत की चालाकियां इसे भोथरा कर सकती हैं. इमरजेंसी जैसी कवायदें इस फितरत के सामने हमेशा नहीं ठहरतीं. अगर इतिहास राजाओं महाराजाओं सत्ता प्रतिष्ठानों और ताकतवरों के गुणगान और व्याख्यानों से अटा है तो उसी इतिहास में इन तमाम किलेबंदियों की जर्जरता और अंतत उसकी धूल भी जमा है. इतिहास में अगर महानताओं के ब्यौरे हैं तो वहीं धूल और तबाही का भी ज़िक्र है. भूगोल से मिट्टी उठाओ और उसे इतिहास की आंखों में झोंक दो. नहीं चलता. इतिहास से वज़नी पत्थर उठाओ और उसे भूगोल पर पटक दो. यह भी नहीं चलता.
एक थकान. एक गहरी ऊब जो पानी के अतल में होती है. हरकत का कोई कंकड़ वहां नहीं पहुंचता. एक निर्विकार बहाव. एक आदमी खिंचा जाता हुआ. गैलरी में जाता. कुछ बोलता. लिफ्ट पर चढ़ता. किसी कोने में सिगरेट पीता और देखता. देखना देखना देखना. कितना देखूं. आंखें बंद करूं और शांति के एक अंधकार में रहूं. मैं किसी को देर तक देखता रहूं. एक खामोशी रहे. कोई कुछ न बोले. आवाज़ें नहीं शोर आता है. खिल्ली उड़ाती हंसी और कुटिल नज़रें. क्या ये दृश्य बदल नहीं सकता. मैं बाहर देखता हूं. घास और चिड़िया और पेड़ और आसमान. जब धूप रहती है तो पेड़ो की शाखाएं चमकती हैं. वे नए रंग में छिटकी हुई दिखती हैं. और जब बादल होते हैं तो पेड़ों का रंग बदल जाता है. शाखाओं का रंग बादलों का रंग हो गया है. राख जैसा. वे अब जली हुई लकड़ियां हैं.
भौतिकी में मैकेनिक्स के नियम के मुताबिक चलना क्या है. महान सोवियत वैज्ञानिक इवानोव का कहना था कि चलना और कुछ नहीं आगे की ओर गिरने और पैर बढ़ाकर इसे रोकने का सिलसिला है.
न मैने हल चलाया
तोड़े पत्थर
भूखा कभी रहा नहीं
तन ढकने को मिल ही गए कपड़े
कॉपी कलम का नहीं रहा संकट
पढ़ाई पूरी की कुछ दिन किताब लैंप की रोशनी में पढ़ी
लेकिन दसवीं का बोर्ड लाइट में दिया
शौच के लिए जंगलो और झाड़ियों की आड़ में गया
लेकिन ये भी कुछ साल की बात थी
दिल्ली में रोटी मकान आते ही मिल गए
और सिर पर हाथ भी
धक्कामुक्की कम ही झेली
पीने को फिल्टर का पानी मिलता रहा
शायद खाने की आदतों से हुआ पेट खराब
संघर्ष की नौबत नहीं बनी कुल मिलाकर पैसे तक उधार लेने का मौका नहीं आया इतने पैसे रहे मेरे पास सघन प्रेम और छिटपुट विरोध के बीच शादी हो गयी बवंडर नहीं हुआ किसी बात पर
बस कविता लिखने का संघर्ष बना है वर्षों से मैं जूझता रहता हूं लोग कहते हैं बिना संघर्ष झेले जीवन का खाक लिखोगे कविता
कविता संघर्ष जीवन
जीवन में कितना संघर्ष करूं कि लिख सकूं
संघर्ष की कविता
कैसा अजब है ये कविता का संघर्ष.
कभी कभी इतना अकेलापन हो जाता है कि मन तड़पने लगता है कहां जाए.
खुशी का एक भभका. और ये मन आत्मा शरीर सब जगह फैल जाता है. अचानक ये फूटता है और ऐसा अपार आनंद, मन में इतना आल्हाद कि लगता है कहां आ गए हम. देह के सामने खड़े उसे कांपता सिहरता देखते. ये भभका कब दिल में एक झील बना देता है इसका भी पता नहीं चलता. और इस झील का कोई बंध नहीं सो उसका पानी खुशी का वो पारदर्शी निर्मल अपूर्व मिठास से भरा पानी आंख में आ जाता है. ये ख़ुशी तारीफ़ की है. कोई तारीफ़ कर गया. सच्ची ठोस ईमानदार बेहिचक तारीफ जिसमें इतना अपनापन इतनी शिद्दत इतनी ख़ुशी इतना चैलेंज है कि लगता है ये भी कोई बड़ा काम है. तारीफ़ की झनझनाहट इतनी सघन और व्यापक है कि उससे वाकई पेट भरा भरा सा लगा. तारीफ से पेट भरने का मुहावरा ऐसी ही किसी आज़माईश से आया होगा.
बहुत दिन बाद देर तक आसमान साफ नीला और धूप भरा है. थोड़ी देर बाहर गया राइन किनारे. लोग ग़ज़ब हैं. उन्हें जैसे ही पता चलता है कि आज मौसम ठीक रहेगा तो वे निकल पड़ते हैं. फिर बहुत सारे लोग नदी किनारे टहलने आ जाते हैं. पेड़ो में भी जैसे जान आ जाती है. सूखे हुए पेड़ों पर धूप आकर पत्तों की तरह बैठ जाती है. अब उनमें एक हरी चमक है. और अगले दो महीनों में वे एकदम बदल जाएंगें. पत्तों और फूलों से लदे सघन. उस वक्त शायद मैं चला जाऊं. उन्हें नहीं देख पाऊंगा. वे मेरी स्मृतियों में रहेंगे. पेड़ नदी सड़क लोग.