बॉन डायरी / शिवप्रसाद जोशी

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वहीं कहीं होगा आने वाला कल

नये साल से एक दिन पहले राइन नदी के किनारे गया था टहलने काफी देर. बहुत दिन बाद चार फरवरी की शाम को मौसम साफ है और डूबता हुआ सूरज अपनी डूब में लाल हो गया है. आसमान का पश्चिमी कोना लाल है और कई पीली नारंगी धारियां उस क्षितिज पर फैली हुई हैं. मैने कैमरा साथ रखा है. राइन नदी के किनारे बने सुंदर रास्ते पर बहुत दूर बहुत देर पैदल चला. कितने सारे लोग हैं. बच्चे. युवा बुज़ुर्ग दंपत्ति प्रेमी प्रेमिका मेरी तरह अकेले भटकते लोग. राइन के किनारे किनारे आप चलते जाएं तो आपको हर दस कदम पर उसके पानी की आवाज़ अलग सुनायी देगी. कहीं वह बिल्कुल खामोश है. कहीं पर वो समुद्र की तरह है कहीं पर वो किसी पतली धारा की तरह सुनायी देती है कहीं पर किसी बौछार की तरह कहीं झरने की तरह. पत्थरों के पास कहीं उसकी आवाज़ तेज़ हैं कहीं वो ऐसी है जैसे हमारे पहाड़ के गांवों के धारे हुआ करते थे. किसी अदृश्य चट्टान किसी अदृश्य पेड़ की जड़ से आते हुए और उसमें एक हल्की सी करूण कल कल रहती थी. और चट्टान और पहाड़ के जिस छेद से वे फूटते थे उसकी नम वनस्पति भरी दीवारों को छूती हुई उसकी आवाज़ निराली थी. बहुत धीमा संगीत. उस्ताद अमीर ख़ान जितना धीमा. ये संगीत अब नहीं है वे धारे भी वापस वहीं चले गए हैं जहां से वे हमारी दुनिया में आए थे. ऐसा लगता है कि कुदरत किसी अवश्यंभावी करामात के तहत हर एक कोमल और मानवीय चीज़ हर एक ऐसे सरोकार, हर एक ऐसी घटना को एक तयशुदा समय के बाद अपने पास वापस बुला लेती है. जो अच्छा है वह लौटता जाता है जहां से वह आता है. खोयी हुई चीज़ों का ज़िक्र है चाचाजी की एक कविता में. उसी बात को आगे बढ़ाकर कहें तो उन चीज़ो के अलावा लौटती हुई चीज़ें भी हैं. जो हमें पता है उस रूप में खोयी नहीं है बल्कि अपनी चेतना के सामने हमने उन्हें किसी और समय में लौटते हुए देखा है. समय से बाहर किसी अन्य समय अन्य दिक्-काल की रचना के लिए जाती होगीं शायद वे चीज़ें.

राइन नदी पर पक्षी का एक जोड़ा तैर रहा है. और मैने उसकी तस्वीर उतार ली है कैमरे पर. एक चिड़िया आगे एक पीछे. लहर के बहाव से खुद को बचाते हुए वे ऐसे तैर रही हैं जैसे किसी ने उन्हें वहां पर रख दिया हो. वे कहां तक जाएंगीं. मै उनके तैरने के साथ चल रहा हूं. अचानक एक पक्षी मुड़ा उसने अपनी दिशा बदल दी. क्या वजह होगी क्या उन्हें अपना मार्ग पता है. या उनकी सैर पूरी हो गयी. आगे जाता पक्षी बाकायदा अपनी नन्हीं मुलायम लोचदार गर्दन घुमाकर अपने साथी की तरफ देखता है. कुछ देर वे इसी तरह तैरते हैं. एक दूसरे के साथ साथ और मैं अपने कैमरे के साथ तैयार हूं. पता नहीं मुझे लग रहा है कि मुझे एक सुंदर दृश्य मिलेगा. तैरते तैरते पक्षियों ने अपने पानी में आधे डूबे शरीर को झाड़ा. पंख ऊपर आए. वे फड़फड़ाए और एक तय समय और तय गति और तय लय के साथ दोनों पक्षियों ने पानी पर से उड़ान भरी. मै यही देखता रहा. कैमरे से कुछ न कर पाया. कितनी महान कितनी ताज़ा कितनी खुद्दार और कितनी पानी की छपछपाहट भरी है यह उड़ान. कितना सुंदर है यह दृश्य. पक्षियों तुम्हारा धन्यवाद. मुझे तुम्हारे साथ कुछ दूर यात्रा करने का मौका मिला. और मैने तुम्हारी उड़ान की तैयारी को देखा. उसे समझने की कोशिश की.

मां को फोन किया 30 जनवरी को. उसका और मेरी बहन का जन्मदिन. मां ने कहा बहुत दिन बाद फोन किया तूने. चार फरवरी. भैया का जन्मदिन है कल मेरे भतीजे तन्मय का था. जबसे आया हूं उनसे बात नहीं हो पायी. गुवाहाटी में जहां वो रहता है उसका फोन बहुत मुश्किल से सिगनल पकड़ता है. निकला बाहर और फोन करने की कोशिश की. घंटी गयी लेकिन बात न हो पायी दूसरी तीसरी चौथी पांचवी और छठी बार. कुछ नहीं हुआ. मैं एक गहरे मलाल के साथ दूकान से निकला. भैया को रात ही सपने में देखा था. मुझे याद कर रहा होगा. उसके सिरहाने कोई सांप था और मैं उसे आगाह कर रहा था कि देखो यह सांप है. पर वह सांप जैसा दिखता कोएले के रंग सरीखा कोई काठ. हमसे दूर भाग गया. तेज़ी से रेंगते हुए न जाने कहां गया लेकिन अगले ही पल काले काठ की एक चिड़िया आ गयी. चलती हुई. देखते ही देखते वह चिड़िया मोर हो गयी. फिर एक दिव्य व्यक्ति उस मोर से प्रकट हुआ. मोर जैसे पंखों के साथ. पर वे पंख कितने स्याह थे. और कितने अलग अलग रंग के स्याह थे. उस व्यक्ति ने कहा, ओह मुझे डर था आप लोग मुझे मार न डालें.

लोकेश भैजी ने वह किताब बुक पोस्ट कर दी थी मार्क्स की जो दर्शन की निर्धनता पर है. वह फ्रांसीसी विचारक प्रूदो के निर्धनता के दर्शन पर एक बहस है. और कहते हैं इस किताब में आए मार्क्स के कई विचार, कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र नाम के उस ऐतिहासिक दस्तावेज़ की बीज सामग्री बने, जिसके बाद दुनिया के तमाम सामाजिक राजनैतिक वैज्ञानिक मानवशास्त्रीय अर्थशास्त्रीय अध्ययनों और घटनाओं को पढ़ने-समझने और उनसे डील करने का ढंग ही बदल गया. मामाजी ने भेंट की थी. और लोकेश भैजी के पास छूट गयी थी बॉन आते हुए. पहल 84 भी आ गयी शान से दफ्तर के पते पर. ग्रांटा का नया अंक मैने अनवर से लंदन से मंगवा लिया था. वे अपनी फूफी से मिलने गए थे. ईद और नए साल पर. इस सबसे पहले शालिनी ने जो बाकी छूटा सामान मेरे यहां पहुंचते ही रवाना कर दिया था उसमें ओरहान पामुक की किताब माई नेम इज़ रेड भी रख दी थी. इस तरह किताबें आ ही रही हैं. दूसरी चीज़ों के बीच जगह बनाते हुए. और इस तरह मेरे सन्नाटे को अपनी उपस्थिति से भरते हुए. किताबें आती रहेंगी.

एक बड़ी और उजाले भरी उम्मीद के साथ सोमवार शुरू होता है. वह दिन वाकई अच्छा ग़ुज़रता है. लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते हैं. उदासी अपने करतब दिखाने लगती है. खुशी किसी बच्चे के नटखटी अंदाज़ में कहीं छिप जाती है. चिंता बेकली और बेहूदगी किसी पुराने दर्द की तरह उभरने लगती है और लगता है सप्ताह को कोई एक बार फिर चाव से खाएगा. सारे दिन सप्ताह के गहरे कुंए में गिर गए हैं. झांककर देखों क्या उसमे पानी है वे दिन उनकी यादें उनके अनुभव डूबे न होंगे, तैरते होंगे. हलचल ही हलचल है सवाल ही सवाल और तड़प ही तड़प. न जाने क्यों. मैं क्या ढूंढता हूं. मुझे कौन से सवाल हल करने हैं. वह कौन है जो मुझे तड़पता देखते हुए खुश है. मै अपने मन का बोझ कैसे हल्का करूं.

लेकिन यह सोमवार मिले जुले ढंग से एक संभावना एक उम्मीद एक आशंका के साथ खुला. उम्मीद की संभावना, एक आशंका के आसपास भटकती रही. या एक आशंका से उम्मीद की संभावना बनने लगी. या संभावना ने आशंका को ख़ारिज किया लेकिन उम्मीद में तब्दील होने से भी इंकार कर दिया. यह बता पाना मुश्किल था कि यह उम्मीद है या संभावना या एक आशंका जो मेरे इर्दगिर्द मंडरा रही है.. पता नहीं चलता था कि तीनों भावनाएं एक दूसरे का चक्कर काट रही हैं और तीनों में से किसी को पहचानना कठिन था और यह कोई म्यूज़िकल चेयर वाला बाल दिनों का खेल लगता था. बेकली का संगीत जब क्षण भर को रूकेगा तो मेरे मन की कुर्सी पर कौन विराजमान होगा, कहना मुश्किल था. आंशका, संभावना, उम्मीद. शुक्र है उम्मीद ने बाज़ी मारी और मेरा सोमवार शुरू हुआ.

जर्मन भाषा सीखने की क्लास में मेरे आखिरी दिन. इसके बाद इम्तहान. फिर डॉयचे वेले जर्मन रेडियो में नौकरी की बाकायदा शुरूआत. इस क्लास से मैं कितना कुछ सीखकर निकलूंगा. और कितना छटपटाता हुआ.

मैं एक बियाबान में हूं. मुझे नहीं पता क्या करना है..क्या मैं अब घर लौंटूं. खाना बनाऊं. बर्तन धो दूं, मैं भटकता रहता हूं. कोई अभिलाषा है मेरे पास. नींद आंखों में पैबस्त है पर वो पूरे शरीर पर छा जाने से मना कर रही है. मैने ग्रांटा निकाली और दो कहानिया पढ लीं. अब मैं थक गया हूं. नींद फिर भी नहीं आती और मैं सो जाता हूं. पता नहीं कि नींद न आने की बेकली थी कि सपना था कि मैं जगा था. जर्मन भाषा की व्याकरण की आवाजाही थी और मैं भी टहल रहा था अपने लोगों के बीच. मैं पानी मांगता और वो भाषा मुझसे क्रिया मांगती. दफ्तर में कुछ मित्रों ने मज़ाक में कहा भी था कि भाई ये जर्मन भाषा विकट है. सपने में आती है नृत्य करने.

एक मकान में एक बिल्ली. पांच वाक्यों में वह चार पांच सौ शब्दों का जर्मन टेक्स्ट समेराइज़ करने को दिया गया था. इस पूरी कहानी को पांच वाक्यों में लिखना था कि एक चालाक प्राणी किसी घर की हलचल और गहमागहमी को नोट कर रहा है. वो घर खाली किया जा रहा है. सामान लादा जा रहा है. वो प्राणी परेशान है कि अब उसका क्या होगा. भोजन की ताक में वो दरअसल एक बिल्ला है. ये पता चलता है पाठ के अंत में म्याऊं की आवाज़ से. पाठ के अंत में बिल्ला, पिंजरे में बंद एक चिड़िया की तरफ झपट्टा मारता है. और उस चिड़िया को न खा पाने की हताशा में उसके मुंह से महज़ म्याऊं निकलता है. वह कूदा झपटा लेकिन नाकाम हुआ. उसे भूख नहीं वासना थी. वह कबूतर को हासिल करना चाहता था. ये जॉर्ज बुश है. बुश ने इराक को झपटकर क्या हासिल किया. क्या मिला उन्हें. इस तरह अमेरिका ने वियतनाम को झपटने की कोशिश की थी. इसी तरह क्यूबा को झपटने की तैयारी है. एक भूखे बिल्ले की तरह एक कुत्सित छलांग क्यूबा की तरफ. और .....और क्या सब कुछ नष्ट हो जाएगा. क्या क्यूबा अमेरिकी जबड़े में चला जाएगा. अपनी सार्थक और मासूम उड़ान से दुनिया को अचंभित करता क्यूबा.

बीथोफेन की मृत्यु को लेकर मेरे हंगरेयिन सहपाठी पीटर ने कहा उनकी मौत हंगरी में हुई थी. नहीं नहीं उनकी मौत बॉन में हुई थी. मैने कहा और तारीख भी बताई. 18 मार्च 1870. मय तारीख बताया तो सबने सहज विश्वास भी कर लिया. हंगरी में उनका देहांत नहीं हुआ था. इस बारे में तो मैं स्पष्ट था लेकिन फिर भी ग़लत था. उनकी मौत 26 मार्च 1870 की तारीख पर वियना में हुई थी. जानकारी होने की अकुलाहट में मेरे मुंह से बॉन निकला. घर पहुंचकर जब चेक किया तो खुद को ग़लत पाया, दिमाग में कुछ हलचल बनी ही थी. अपनी गलती के अहसास पर मैने पीटर को फोन पर कहा मुझसे गलती हुई माफ करें. तथ्य यह है और क्लास को भी मैं बता दूंगा. बहरहाल अगले दिन सकिताब मैने सही सूचना दी और अपनी गलती के लिए सबसे क्षमा मांगीं. मेरा बोझ कुछ हल्का हुआ.

पामुक ने भले ही जिस भी संदर्भ में कहा हो लेकिन मैं भी यहां बस हां हां हां करता हूं. तुर्की की सहपाठी एमेल के पति ने कहा क्लास की एक शाम की दावत में मुलाकात के दौरान कि पामुक रईस है उसका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है. वह भटक रहा है और समाज को भटका रहा है. मैं उनकी प्रतिक्रिया सुनकर सहम गया. पामुक पर एक युवक की यह टिप्पणी. ऐसा युवक जो अपनी खूबसूरत पत्नी के साथ जर्मनी के बॉन शहर में टी फोन नाम की एक रसूख और कमाऊ यूरोपीय फोन कंपनी में इंजीनियर है और संभवत अच्छे पैसे कमाता है.(उसकी पत्नी ने बताया कि वे बॉन में अपने दो कमरे के अपार्टमेंट का एक हज़ार यूरो किराया देते हैं माहवार). यह युवक पामुक की पूरी तसल्ली से बुराई कर रहा है. बात समझ में न आयी. क्या पामुक के मुताबिक ये वही सेक्युलरवादी कौमपरस्त है जो आधुनिक भी होना चाहता है और तुर्की के तीखे राष्ट्रवाद का खैरख्वाह भी. फिर इसकी पत्नी यहां जर्मन भाषा सीखती....वह बॉयोलोजी की छात्र है और नौकरी की तलाश में यहां आयी है. आधुनिक वस्त्रों से सुसज्जित. और विचार भी उसके अनोखे आधुनिक हैं. फिर यह सब एक तरफ और पामुक को गाली एक तरफ. यह कौन सा विरोधाभास है जो मेरी समझ से बाहर है. कभी तुर्की गया इस बीच और पामुक से मिल पाया तो पूछूंगा. देखूंगा भी. डॉयचे वेले रेडियो में मेरे एक पूर्व साथी पुष्परंजन तुर्की गए थे पिछले दिनों. उन्होंने बताया कि वे किसी शख्सियत के साथ पामुक से मिले थे..बड़ा ही मिलनसार आदमी है, उन्होंने बताया.

इटली की नादिया कहती है मज़ाकिया और हंसाने वाले शख्स को उदास नहीं होना चाहिए. लेकिन क्या ऐसा मुमकिन है. मैं सबको हंसाता हूं और साथियों का संकोच तोड़ता हूं. कितना संकोची मैं खुद हूं. शालिनी मुझे देखे तो हैरान रह जाए. मैं जो कम बोलता कम घुलता मिलता अपने में सिकुड़ा रहता. यहां इन अपरिचित लोगों के बीच ऐसी बातें छेड़ देता हूं जो बरबस उन्हें हंसने पर विवश कर देती हैं. और वे बातें कितनी कम हास्यपरक होती हैं. उनमें हमेशा विडंबना रहती है या व्यंग्य. या एक गहरी उदासी. लेकिन वे हंस पड़ते हैं. मुझे जो चीज़ सता रही है वो यह कि क्या इन लोगों में मज़ाक हास्य सहजता हंसी क्या कोई विरल चीज़ है, क्या वे उसे अलग से कोई असाधारण अविश्वसनीय चीज़ मानते हैं. क्या उनके पास हंसने के कम मौके हैं. या जिन बातों पर वे हंस सकते हैं या हंसते हैं वे इस स्तर की न हो पायी कि उन्हें हैरानी भरी गुदगुदाहट से भर दें. इसीलिए मेरी बातें वे विस्मय से सुनते हैं और हंसते हैं. और बाक़ायदा हंसते हैं. खुशी होती है इन लोगों को हंसता देखकर. जिस वक्त मैं यह सोच रहा होता हूं वे अपनी हंसी का अंत मुझ पर अट्टाहस के साथ कर रहे होते हैं. मुझ पर करते हैं या उनकी हंसी उद्दाम भीषण उंचाईयां हासिल कर लेती हैं, पता नहीं. दूसरी बात ही सही हो मैं भरोसा करता हूं.

एक दूसरे का विवरण लिखने की क्लास थी. विशेषणों का इस्तेमाल सीखना था. विवरण करना था कि फलां कैसा दिखता है या दिखती है. उसने क्या और किस रंग के कपड़े पहन रखे हैं. मैं और पीटर सहयोगी थे. उसने मेरे बारे में लिखा और मैने उसके बारे में. एक दूसरे को हम देखते रहे. कैसे दिखते हैं. बाल कैसे हैं. काले भूरे या सफेद और लंबे या सघन या छितरे हुए. माथा चेहरा रंग ओंठ दांत कद काठी आदि आदि. यह एक्सरसाइज़ बहुत दिलचस्प थी. पीटर ने मुझे और मैने उसे पहली बार ठीक से देखा होगा. जर्मन विशेषण का ज्ञान हासिल करने के मक़सद से. लेकिन क्या हम एक दूसके को समझ पाए. या बाकी लोग एक दूसरे को समझ पाए. शायद हां शायद नहीं. लेकिन टीचर की यह मुहिम कामयाब रही. पीटर ने मेरा वर्णन किया सिर से नख तक और मैने भी उसका वर्णन किया. अपने विवरण में मैंने यह भी जोड़ा कि पीटर ने जो नीले रंग का स्वेटर पहना है उसके भीतर एक सुंदर हृदय भी होना चाहिए. सब गदगद. पीटर ने कहा लड़की होते तो आपसे प्यार कर बैठता. मैने कहा प्यार तो आप मनुष्य होने के नाते यूं भी करें. पीटर ने भी मेरा विवरण लिखा जिसमें मेरी हंसी और मेरे खिलखिलाने का ज़िक्र किया और मेरे दांतों की चमक की बात लिखी. मैं लजाते हुए मुस्कराया. दांत फिर दिखे. वाह साब. चीन के वेबिन और तुर्की की एमेल ने एक दूसरे का विवरण लिखा. वेबिन ने संजीदगी और मासूमियत से लिखा कि एमेल की दो आंखें हैं दो कान हैं.आदि आदि. ऊटा ने एमेल को छेड़ा, शुक्र है तुम सामान्य मनुष्य ही हो.

यह कक्षा मार्क्सवाद के अपरिचित अनजाने और अस्पष्ट उसूलों से संचालित थी. और इससे पहले कि यह उत्तर आधुनिकता के किसी दरिया में गोते लगाती, समाप्त हो गयी. कितना अच्छा था. विशेषण भी जहां एक वर्ग विहीन घटना का ब्यौरा बन गए थे.

एक अंतरराष्ट्रीय समाज होना चाहिए. नागरिकताएं क्या करेंगी. स्थानीय समाजों से ऊपर सब एक वृहद समाज में रहें. लेकिन ये ग्लोबल विलेज न होगा. मैं इस दुनिया का नागरिक होऊंगा. जहां मेरा दुख पूछने के लिए इटली की नादिया होगी. मुझ पर हंसने के लिए चीन का वेबिन होगा. मेरे दांतों की चमक से चमत्कृत हंगरी का पीटर होगा. मेरी कॉपी से टीपती पेरू की मारीसोल होगी, दक्षिण कोरिया की यू जिन होगी जो मुझे हैरानी से देखती रहती है. कोलंबिया का अल्बर्टो होगा मेरी मित्रता से गदगद, तुर्की की एमेल होगी मुझसे प्रतिद्वंदिता करती और होंडुरास की खूबसूरत क्लैरिसा होगी मेरी हौसला अफज़ाई करती और ब्राज़ील का योगी होगा मुझे शिव पार्वती और गणेश की तस्वीरें दिखाता और ऊटा होगी मुझे अपना दोस्त महसूस करती. और मैं हूंगा. हम के झुरमुट में घिरा हुआ.

हमेशा के लिए अंग्रेज़ी में ऑलवेज़ और जर्मन में है इमर शब्द. दुनिया की अन्य भाषाओं में इसी भावना के शब्द और इसी भावना के साथ रहूं. हमेशा सबके लिए. हमेशा अपनों के लिए. हमेशा अपने लिए नहीं. हमेशा हमेशा के लिए. मैं रहूं न रहूं पर हमेशा सब रहें. मैं रहूं सबके बीच. अपनों के बीच.