बॉम्बे वेलवेट और नोए सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :21 मार्च 2015
दशकों पूर्व छोटे शहरों के युवा सिनेमाघर में आने वाली फिल्मों के पोस्टर, फोटो, सेट इत्यादि देखते थे। बुरहानपुर में अशरफ पेंटर आने वाली फिल्मों के बैनर पेंट करते थे और वहां भी युवा उत्सुकता से नायक-नायिका के चेहरे-मोहरे बनते देखते थे। आज इसी तरह की जिज्ञासा यू-ट्यूब इत्यादि पर देखी जाती है। इंदौर के आनंद पोद्दार को अनुराग कश्यप की रणबीर कपूर-अनुष्का अभिनीत 'बॉम्बे वेलवेट' की प्रदर्शन पूर्व की झलक पसंद आई और उनका ख्याल है कि यह फिल्म नोए-सिनेमा फिल्मों का 'बाप' सिद्ध होगी। अमेरिका में दूसरे विश्वयुद्ध के समय बनी अपराध कथाओं को नोए सिनेमा कहते हैं। इन फिल्मों में न केवल रात के दृश्य बहुत होते हैं, इसलिए इसे अंधकार का सिनेमा कहते हैं वरन् ये फिल्में मनुष्य अवचेतन की कंदरा में छुपे अपराध की फिल्में हैं, इसलिए इन्हें अंधकार की फिल्में कहा जाता है। इस श्रेणी में अनेक फिल्मों को क्लासिक का दर्जा मिला है जैसे 'द पोस्टमैन ऑलवेज़ रिंग्स ट्वाइस', "डबल इन्डेमनिटी' इत्यादि।
दरअसल, नोए सिनेमा उसी तरह हॉलीवुड की अपनी खोज है जैसे उनकी 'वेस्टर्न' फिल्में। पहले विश्वयुद्ध के बाद के आर्थिक मंदी के दौरे में अमेरिका में अपराध कथाओं पर फिल्में बनीं परंतु ये नोए श्रेणी से अलग हैं, क्योंकि नोए सिनेमा तो मनुष्य अवचेतन की काली पट्टी पर सफेद चॉक से लिखी इबारतें हैं और यह हर काल खंड में संभव है। यह जरूर है कि युद्ध के समय और उसके बाद समाज उसके व्यापक निर्मम प्रभाव को भोगता है। मंहगाई दरवाजों पर दस्तक देती है परंतु भारत में तो शांति के काल में भी मंहगाई हर दरवाजे पर दस्तक देती है, क्योंकि हमारी आर्थिक नीतियों का केंद्र कभी मनुष्य नहीं रहा, हमेशा व्यवसाय रहा है। माफिया शब्द अपराध से जुड़ा है परंतु कॉर्पोरेट जगत भी एक किस्म का माफिया है और धर्म क्षेत्र भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं रह पाता। हमारे परिवारों की संरचना कुछ ऐसी है कि मुखिया भी माफिया हो जाता है। यही कारण है कि इटली से आकर अमेरिका में बसे लोगों के संगठित अपराध जगत को भी परिवार ही कहा जाता है कि कॉरलियान परिवार का फला सदस्य मारा गया और संगठित अपराध जगत में परिवार का बदला पुश्त दर पुश्त लिया जाता है।
बहरहाल भारत में गुरुदत्त, विजय आंनद और राज खोसला अमेरिकन नोए सिनेमा से प्रभावित व प्रेरित शुरुआती भारतीय फिल्मकार थे। परंतु तीनों शीघ्र ही उस प्रभाव से मुक्त होकर अलग किस्म की फिल्में बनाने लगे परंतु उनकी तकनीक, कैमरा संचालन, शॉट टैकिंग इत्यादि हमेशा नोए मय रहा है। एक मायने में सामाजिक विसंगतियों और मूल्यों के पतन की 'प्यासा' भी अंधकार की फिल्म लगती है, क्योंकि मनुष्य के अवचतेन का अंधेरा हमेशा उससे अपराध नहीं करवाता वरन् कई बार सामाजिक व्याधियों की जांच-पड़ताल भी करवाता है। खोजी पत्रकार भी यही करता है वरन् अपनी खोज की यात्रा में वह अपने मुखौटे भी बदलता है और कुछ हद तक अन्य मनुष्यों की भावना का शोषण भी करता है। यही नुक्ता मीनल बघेल ने महसूस किया जब नीरज हत्या पर अपनी रिसर्च की यात्रा में नीरज के परिवार के साथ उन्होंने समय बिताया ताकि उनकी भावना को समझ सके। बहरहाल, अनुराग कश्यप पर नोए से अधिक प्रभाव 'द गॉडफादर' का है। अपराध और नोए में अंतर यही है कि अपराध कथा में कविता नहीं है और नोए आपको कविता का अवसर देता है। रणबीर कपूर 'द गॉडफादर' से प्रेरित प्रकाश झा की 'राजनीति' कर चुके हैं। वे विलक्षण अभिनेता हैं और प्रयोगधर्मी भी रहे हैं अन्यथा 'बर्फी' नहीं बनती। प्रेम, अपराध तथा नए सिनेमा का मूल धागा है। प्रेम में अपराध भी होता है और कुछ लोगों को अपराध से ही प्रेम हो जाता है।